@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

सोमवार, 26 जनवरी 2009

अधूरा है गणतंत्र हमारा

 
 
भारत को गणतंत्र बनाने का संकल्प लिए साठ वर्ष पूरे होने को हैं।  संविधान को लागू होने का साठवाँ साल चल रहा है।  इस अवसर को स्मरण करने के लिए हम यहाँ प्रस्तुत संविधान की उद्देशिका के पाठ को दुबारा पढ़ सकते हैं।

हम ने तय किया था कि हम भारत को एक ऐसा संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न, समाजवादी, पंथ निरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाएंगे जिस में सभी को सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय प्राप्त होगा, जिस में विचार अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता होगी, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त होगी।

हमें विचार करना है कि क्या हम अपने इस संकल्प को पूरा कर पाए हैं?  कोई भी सुधि व्यक्ति नहीं कह सकता है कि हम अपने उस संकल्प को पूरा कर पाए हैं।   हम सोच सकते हैं कि उनसठ वर्षों  की इस लम्बी अवधि के बाद भी हम ऐसा क्यों नहीं कर सके।  हम यह भी विचार कर सकते हैं कि क्या हमारा देश आज उस संकल्प की दिशा में आगे बढ़ रहा है।  यदि बढ़ रहा है तो उस की गति तीव्र है या मंद?  गति मंद है तो उस के कारक क्या हैं।  हम संकल्प को पूरा करने में जो कारक हैं उन को चीन्ह सकते हैं।  उन को हटा सकते हैं।  ऐसा कर के हम अपने संकल्प को पूरा करने की दिशा में तेजी से आगे बढ़ सकते हैं।

हम विचार करें, और अपने आस पास यथाशक्ति इस संकल्प को पूरा करने के लिए काम करें।  जितना अधिक हम कर सकते हैं।
........................................................................
सभी को गणतंत्र दिवस की शुभ कामनाएँ
........................................................................

मैं आज शाम से अपने कुछ निजि कार्यों के संबंध में कोटा से बाहर जा रहा हूँ, और शायद अगले दस दिनों तक कोटा से बाहर रहूँगा।  इस बीच अनवरत और तीसरा खंबा के पाठकों से दूर रहने का अभाव खलता रहेगा।  इस बीच संभव हुआ तो आप से रूबरू होने का प्रयत्न करूंगा।  कुछ आलेख सूचीबद्ध करने का प्रयत्न है।  यदि हो सका तो वे आप को पढ़ने को मिलते रहेंगे।

रविवार, 25 जनवरी 2009

वह, पति कब था

  • दिनेशराय द्विवेदी
वह,
पति कब था?

उस ने सिर्फ
हथिया लिया था
कब्जा/स्वामित्व
मेरे शरीर पर

मैं समझी थी
कम से कम
मकान और जमीन की
तरह ही शायद करे
मेरी देखभाल

लेकिन, औरत?
होती है
जीती जागती,
वह तो वस्तु भी नहीं

क्यों करे?
कोई और
उस की चिंता  

और मैं
नहीं समझ पायी
यही एक बात,

मुझे ही करना है
सब कुछ
मेरे लिए

जीने के लिए भी, और
मुक्ति के लिए भी। 


* * *  * * *  * * *  * * *  * * *  * * * 

शुक्रवार, 23 जनवरी 2009

जरूरी सरकारी कर्तव्यों में बाधा के चक्कर

कल जब मैं जिला न्यायालय से सड़क पार कलेक्ट्री परिसर में उपभोक्ता मंच की ओर जा रहा था तो रास्ते में टैगोर हॉल के बाहर पुराने स्कूल के जमाने के मित्र मिल गए, उन के साथ ही मेरा एक भतीजा भी था।  दोनों ही अलग अलग पंचायत समितियों में शिक्षा अधिकारी हैं।  दोस्त से दोस्त की तरह और भतीजे से भतीजे की तरह मिलने के बाद दोस्त से पूछा -यहाँ कैसे? जवाब मिला -मीटिंग थी।

अब? दूसरी मीटिंग है।  वे आपस में जो चर्चा कर रहे थे वे शायद मिड-डे-मील से संबंधित थीं।  मैं ने कहा तुम्हें भी अध्ययन के साथ मील में फंसा दिया।  हाँ अभी मील की मीटिंग से आ रहे हैं।  इस के बाद चुनाव की मीटिंग है, लोकसभा चुनाव की तैयारियाँ जोरों पर हैं।  मैं ने पूछा -और शिक्षा? तो उन का कहना था कि उस की मीटिंग परीक्षा परिणामों के उपरांत जून जुलाई में होगी।  वह यहाँ नहीं होगी।  प्रशासन को शिक्षा से क्या लेना देना?

वे और मैं दोनों ही जल्दी में थे, सो चल दिए अपने अपने कामों पर।

दोपहर बाद जब काम लगभग सिमट गया सा था, केवल एक अदालत से एक दस्तावेज हासिल करना भर रह गया था और आधे घंटे की फुरसत थी।  हम  हफ्ते भर बाद निकली साफ धूप का आनंद लेने एक तख्ते पर बैठे बतिया रहे थे।  पास वाले वरिष्ठ वकील बाहर गए हुए थे, उन के दो कनिष्ठ साथ थे।  एक कनिष्ठ जिस की पत्नी शिक्षिका हैं, सुनाने लगा....

"भाई साहब! मेरी पत्नी जिस स्कूल में अध्य़ापिका है वहाँ कुल तीन अध्यापिकाएँ हैं और पहली से ले कर पाँचवीं कक्षा तक कुल डेढ़ सौ विद्यार्थी।  तीन में से एक छह माह के लिए प्रसूती अवकाश पर चली गई है।  एक की ड्यूटी चुनाव के लिए जिला चुनाव अधिकारी के यहाँ लगा दी गई है।  अब एक अध्यापिका कैसे स्कूल को संभाले।  बीमार हो जाए तब भी स्कूल तो जैसे तैसे जाना ही होगा।  उसे बंद तो नहीं किया जा सकता।  इस बात को बताने के लिए वह शिक्षा अधिकारी के कार्यालय स्वयं आ भी नहीं सकती।  आए तो स्कूल कौन देखे?चिट्ठी पत्री को कोई महत्व नहीं है।

पास के गांव के स्कूल में चार अध्यापिकाएँ हैं और छात्र केवल नौ।  उस विद्यालय से एक अध्यापिका को अस्थाई तौर पर मेरी पत्नी वाले स्कूल में लगवा देने से काम चल सकता है।  मेरी पत्नी ने उस स्कूल की एक अध्यापिका को इस के लिए मना कर उस से लिखवा भी लिया है।  उस स्कूल के प्रधानाध्यापक ने भी उस पर अनापत्ति लिख दी है।  उस पत्र को  देने के लिए दो हफ्ते पहले शिक्षा अधिकारी के दफ्तर में मुझे जाना पड़ा शिक्षा अधिकारी ने हाँ भी कह दी। कहा एक दो दिन में आदेश आ जाएगा।  चार दिन में आदेश न आने पर मैं फिर उन से मिला।  तो कहने लगे, - मैं जरा कुछ अर्जेंट कामों में उलझ गया था।  आप कुछ देर रुको।  मैं वहाँ पौन घंटा रुका।  लेकिन शिक्षा अधिकारी फिर अपने कामों में भूल गए।  याद दिला ने पर बोले, -अभी आदेश निकलवाता हूँ।   बाबू को बुलवाया तो पता लगा कि वह जरूरी रिपोर्टें ले कर कलेक्ट्री गया हुआ है।  मुझे दो दिन बाद आदेश के बारे में पता करने को कहा गया है।  फिर चार दिन बाद कोई व्यवस्था न होने पर उन से मिला तो कहा,  बाबूजी अवकाश पर हैं आप को आने की जरूरत नहीं है आदेश दूसरे दिन अवश्य ही निकल जाएगा।  तीन दिन गुजरने पर भी जब आदेश नहीं आया तो मैं फिर वहाँ पहुँचा।  इस बार मुझे देखते ही शिक्षा अधिकारी बोले।  अरे! आप का आदेश अभी नहीं पहुँचा। ऐसा कीजिए आप बाबू जी से मिल लीजिए और खुद ही आदेश लेते जाइए।  मैं बाबू के पास पहुँचा तो वह मुझे वहीं बैठा कर फाइल ले कर शिक्षा अधिकारी के यहाँ गया। बीस मिनट में वापस लौटा।  फिर आदेश टाइप किया,  उस पर हस्ताक्षर करवाकर लाया और डिस्पैच रजिस्टर में चढ़ा कर मुझ से पूछा कि आप कौन हैं?  बताने पर उस ने आदेश देने से मना कर दिया कि आप विभागीय कर्मचारी नहीं है। आदेश डाक से भिजवा देंगे, कल आप को मिल जाएगा।

इस तरह मेरे चार-पांच चक्कर लगाने के बाद भी आदेश नहीं मिला, अब देखते हैं कि कल मिलता है या नहीं।" 

मैं ने उस से पूछा -शिक्षा अधिकारी कौन है? तो उस ने मेरे मित्र का नाम बताया।  मैं भौंचक्का रह गया।

मैं ने  शाम को अपने मित्र से बात की तो कहने लगा।  यार! भैया, बहुत चक्कर हैं, इस नौकरी में।  पहले देखना पड़ता है कि  इस तरह के आदेश से किसी को कोई एतराज तो नहीं है।  वरना यहाँ जिला मुख्यालय पर टिकना मुश्किल हो जाए।  पहले तुमने बताया होता तो उसे यहाँ तक आने की जरूरत ही नहीं पड़ती।

आज मैं ने उस कनिष्ठ वकील से पूछा कि क्या वह आदेश पहुँच गया? तो उस ने बताया कि आदेश रात को ही चपरासी घर पहुँचा गया था।

मुझे अभी भी समझ नहीं आ रहा है कि यह सामान्य प्रशासन का आदेश देना और इस तरह की व्यवस्थाएँ करना तो उस का खुद का कर्तव्य था।  इस के लिए उस की माहतत शिक्षिका के पति को चार-पाँच चक्कर क्यों लगाने पड़े? और पहली ही बार में वह आदेश जारी क्यों नहीं कर दिया गया।  वे कौन से चक्कर हैं जो जरूरी विभागीय कर्तव्यों में इस तरह बाधा बन जाते हैं।

भारत के भावी कर्णधारों की परवाह कौन कर रहा है?

गुरुवार, 22 जनवरी 2009

कविता आगे पढ़ी तो कवि सम्मेलन यहीं समाप्त

कोई तीस-बत्तीस बरस पहले की बात है।  मेरे पितृ-नगर बाराँ में मुख्य चौराहे पर कवि सम्मेलन आयोजित किया गया था।   सड़क रोक दी गई थी। कोई चार हजार श्रोता जमीन पर बिछे फर्शों पर विराजमान थे।  कोई हजार इन के पीछे थे।  इन श्रोताओं में नगर के सम्मानित और प्रतिष्ठित लोगों से ले कर सब से निचले तबके के कविता प्रेमी थे।

एक से एक सुंदर कविताएँ पढी़ जा रही थीं।  एक मधुर गीतकार के गीत पढ़ चुकने के उपरांत संचालक को लगा कि इतने अच्छे गीत के बाद शायद ही किसी कवि को जनता पसंद करे।  ऐसी हालत में संचालक के पास एक ही विकल्प रहता है कि वह किसी हास्य कवि को मंच पर खड़ा कर दे।

यही हुआ भी।  उस वर्ष ग्वालियर के नए नए मशहूर हुए हास्य कवि प्रदीप चौबे को बुलाया गया था।  उन के नाम की सिफारिश नगर पालिका के किसी पार्षद ने की थी।  कवि चौबे ने मंच पर आते ही हास्य कवियों की अदा में तीन चार चुटकले सुनाए।   चुटकले ऐसे थे कि महिलाओं की उपस्थिति में कोई अपने घर में न सुना सके।  कुछ ने उन चुटकुलों का आनंद लिया, कोई हंसा तो किसी ने तालियाँ बजाईं।  जैसे ही मधुर गीत का माहौल स्वाहा हुआ और श्रोतागण हलके मूड में आए।  चौबे जी ने अपनी कविता आरंभ कर दी।  चोबे जी कुल तीन पंक्तियाँ पढ़ पाए थे चौथी पढ़ने की तैयारी में थे कि एक अधेड़ पुरुष दर्शकों के ठीक बीच में से खड़े हुए और तेज आवाज में बोले, "चौबे जी कविता बाद में पहले हमारी सुनिए।"

चौबे जी चौंक गए, उन का कविता पाठ वहीं ठहर गया।  सभा में सन्नाटा छा गया।  बोलने खड़े हुए ठिगनी काठी के सज्जन ने खादी की पेन्ट शर्ट पहनी थी, चश्मा लगाए हुए थे।  वे थे, नगर के दीवानी मामलात के खास वकील श्याम किशोर शर्मा। 

चौबे जी!  यह बारां का कवि सम्मेलन है।  यहाँ कविताएँ सुनी जाती हैं।  चुटकुले नहीं और जो आप पढ़ रहे हैं वह कविता नहीं है।  यौन जुगुप्सा जगाने का मंत्र है जो महिलाओं का सरासर अपमान है।  आप से निवेदन है कि आप अब इस मंच से कविताएँ नहीं पढ़ें।  आप हमारे मेहमान हैं इस लिए हम आप से सिर्फ निवेदन कर रहे हैं।  यदि हमारा निवेदन स्वीकार नहीं है तो कवि सम्मेलन यहीं समाप्त हो जाएगा।  

प्रदीप चौबे हक्के-बक्के रह गए।  उन्हें उसी समय मंच से नीचे उतरना पड़ा।  उन्हें ससम्मान उन के ठहरने के स्थान पहुँचाया गया और उन के मानदेय का तुरंत भुगतान कर दिया गया। 

प्रदीप चौबे के साथ एक भी कवि मंच से नहीं उतरा।  कवि सम्मेलन रात भर चला कवियों ने श्याम किशोर जी को पूरा सम्मान दिया।  कहा भी कि यदि इस तरह के श्रोता सब स्थानों पर मिलें तो कवि सम्मेलन फिर से उच्च सम्मान पाने लगें। 

बुधवार, 21 जनवरी 2009

बाज़ार पर निगरानी न रखी जाए तो वह बेकाबू हो सकता है

"पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के बारे में बहस का यह न तो समय है, न ही गुंजाइश. लेकिन मौजूदा संकट से हमने सीखा है कि अगर बाज़ार पर निगरानी न रखी जाए तो वह बेकाबू हो सकता है."  .....



यह दुनिया के सब से ताकतवर देश के नए राष्ट्रपति के पहले भाषण का मुख्य अंश है।  यह कह रहा है कि पूंजी
मनुष्य को नियंत्रित नहीं कर सकती, उस का नियंत्रण मनुष्य के हाथों में होना चाहिए।   पूंजी का अपना चरित्र है।  वह अपने भले के लिए काम करती है और इस के लिए वह मनुष्यों की, उन के जीवन की परवाह नहीं करती।  पूंजी को मनुष्यों के जीवन के अनुकूल नियंत्रित करना होगा।

शायद यही इस सदी का सब से बड़ा सच है।  अमरीकी जनता ने पूंजी के मनुष्य पर प्रभुत्व को पराजित कर दिया है।  बराक ओबामा की जीत पूंजी के प्रभुत्व पर मनुष्य की जीत है।  यह दूसरी बात है कि कोई भी सत्ताधारी हार कर भी नहीं हारता।  वह बाजी को पलटने का प्रयत्न करता है।  फिर से अपनी पुरानी सत्ता की स्थापना के प्रयत्नों में जुट जाता है।  यही बराक ओबामा के समक्ष सब से बड़ी चुनौती है कि पूंजी के फिर से प्रभुत्व प्राप्त करने की कोशिशों को वे नाकाम कर दें। मनुष्य के पूंजी पर प्रभुत्व को कायम ही नहीं रखें, उसे और मजबूत बनाएँ।

वे आगे घोषणाएँ करते हैं...
"हम रोज़गार के नए अवसर पैदा करेंगे, सड़कें बनाएँगे, पुल बनाएँगे, फाइबर ऑप्टिक केबल बिछाएँगे, सौर और पवन ऊर्जा की मदद से देश को आगे बढ़ाएँगे, अपने कॉलेज और यूनिवर्सिटियों को बेहतर बनाएँगे, हम ये सब कर सकते हैं और हम करेंगे."


"अमरीका ईसाइयों, मुसलमानों, यहूदियों, हिंदुओं और नास्तिकों का भी देश है, इसे सबने मिलकर बनाया है, इसमें सबका योगदान है, अमरीका की नीतियों को हम हठधर्मी विचारों का गुलाम नहीं बनने देंगे।"

"पूरी दुनिया की शानदार राजधानियों से लेकर ग़रीब दुनिया के छोटे शहरों तक, वहाँ भी जहाँ से मेरे पिता आए थे, अमरीका हर उस देश का दोस्त है जो शांति चाहता है."


"हम ग़रीब देशों से कहना चाहते हैं कि हम उनके साथ हैं, हम उनकी तकलीफ़ के प्रति उदासीन नहीं हैं, हम चाहते हैं कि दुनिया के हर सुदूर कोने में लोगों तक खाना और पानी पहुँच सके." 

"अमरीका दुनिया का महान लोकतंत्र है, आज पूरी दुनिया की नज़र हम पर है, अमरीका आज जो है वह अपने नेताओं की बुद्धिमत्ता की वजह से ही नहीं, बल्कि अमरीका की जनता की वजह से है."

अमरीका के 44वें राष्ट्रपति  की इन घोषणाओं की दिशा में यदि अमरीका चल पड़ा तो तो न केवल अमंरीका बदलेगा, सारी दुनिया बदलेगी।  बस अमरीका की तासीर उसे इस दिशा में चलने तो दे।

मंगलवार, 20 जनवरी 2009

होटल में बाघ या बाघ के घर इंसान

पत्रिका की खबर है,  राजस्थान के एक गांव शेरपुर के निकट के एक होटल में घुस आया। अफरा-तफरी मच गई।  वह रणथम्भौर राष्ट्रीय उद्यान की दीवार फांदकर होटल परिसर में घुसा वहां उसने करीब पांच मिनट चहलकदमी की।  बाघ को देखने के लिए लोगों की भीड जमा हो गई। 

बाघ एक पखवाडे में तीसरी बार आबादी क्षेत्र में घुस आया था।  बाघ के पार्क से बाहर आने का मुख्य कारण सरसों के खेत हैं।  इन दिनों खेतों में उगी सरसों में नील गाय व जंगली सुअर रहते हैं और बाघ को यहाँ शिकार करने में आसानी रहती है। 

खबर कतई चौंकाने वाली है।  सुबह ज्ञान दत्त जी अपने आलेख मे इंसानों की बढ़ रही आबादी के थम जाने की सुखद कल्पना कर रहे थे।  मैं उस के विश्वसनीय होने की कामना कर रहा हूँ।  पर यह मनुष्य के सायास प्रयासों के बिना हो सकेगा ऐसा नहीं लगता है।

वह जंगल था,  बाघ के साम्राज्य का एक भाग।  हमने उस के साम्राज्य को सीमित कर दिया और बाकी जगह हथिया ली।  वहाँ खेत बना दिए।  होटल बना दिए ताकि उस विगत के सम्राट के दर्शनार्थियों की सुविधा दी जा सके, कायदे से उन की जेबें तराशी जा सकें। 

हकीकत यह है कि बाघ तो अपने ही साम्राज्य में है।  इंसान उस के साम्राज्य में कब का घुसा बैठा है।

सोमवार, 19 जनवरी 2009

चुनाव बार के, बदलती धारणाएँ और परिणाम

हमारी बार (अभिभाषक परिषद) के चुनाव हर साल होते हैं।  दस वर्ष पहले तक स्थिति यह थी कि कोई वरिष्ठ वकील जिस की एक वकील के रूप में अच्छी प्रतिष्ठा भी रही हो  बार का अध्यक्ष चुना जाता था और  दस वर्ष के आस पास की वकालत का कोई नौजवान सचिव।  बाकी कार्यकारिणी में वरिष्ठ और कनिष्ठ सभी लोगों का मेल रहता था।  इस से बार की एक छवि बनती थी।  इस का असर ये था कि बार का अध्यक्ष या सचिव होना न केवल गर्व और सम्मान की बात थी बल्कि उन्हें पूरे नगर में नहीं प्रांत भर में सम्मान मिलता था।  यह भी मान्यता थी कि ऐसे लोग योग्य वकील होते हैं।

इस मान्यता का असर धीरे धीरे यह होने लगा कि संस्थागत विधिक सेवार्थी  ऐसे लोगों को काम देने लगे।  धीरे धीरे मान्यता हो गई कि जो वकील बार का अध्यक्ष या मंत्री चुना जाएगा उसे संस्थागत विधिक सेवार्थियों का काम मिलने लगेगा।  यह काम वकीलों की प्रतिष्ठा में तो वृद्धि करता ही है।  उन की आमदनी में भी गुणित वृद्धि लाता है।  इस से अब वे वकील  जो कि अपने काम, आय और प्रतिष्ठा में वृद्धि लाने की कामना रखते थे इन पदों की ओर ललचाई निगाहों से देखने लगे।

बीस वर्ष पूर्व इन पदों के लिए दो से अधिक प्रत्याशी होते ही नहीं थे। अब इन प्रत्याशियों की संख्या बढ़ने लगी।  साथ साथ यह होड़  भी कि किसी भी तरह से चुनाव में विजय हासिल की जाए।  इस के लिए चुनाव के पहले सब मतदाताओं से उन के घरों पर जा कर मिलना।  वकीलों के भोज आमंत्रित करना, उन के चुनाव में मतदाता बने रहने के लिए आवश्यक वार्षिक शुल्क की अदायगी स्वयं के खर्चे पर कर देना आरंभ हो गया।  धीरे धीरे होने यह लगा कि जो जितने अधिक वकीलों को भोज दे वह उतना ही लाभ लेने लगा।   कुछ उम्मीदवार हर वर्ष ही चुनाव में उम्मीदवार होने लगे।  हार गए तो अगली बार फिर उम्मीदवार हो गए।  इस बार अध्यक्ष पद के लिए चार उम्मीदवार थे।  उन में से दो ऐसे थे जो तीसरी बार अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ रहे थे।  इस के अलावा दो उम्मीदवार नए थे।

इन दो नए उम्मीदवारों में एक पुराने समाजवादी विचारों के मुस्लिम वकील थे।  वे पूरे सिद्धान्तवादी और आज के जमाने का कोई भी चुनाव लड़ पाने में पूरी तरह अक्षम।  एक और तो सामान्य धारणा यह कि जहाँ बार में मुस्लिम वकीलों की संख्या पन्द्रह प्रतिशत हो वहाँ महत्वपूर्ण पद पर कोई मुस्लिम वकील जीत नहीं सकता, दूसरी ओर आज लोहिया के रंग के कठोर समाजवादी को कौन पसंद करे? हाँ मुलायम समाजवादी हो तो कोई संभावना भी बनती है।  फिर भी वे खड़े हो गए।  आम धारणा यह थी कि उन्हें कम से कम मुस्लिम वोट तो मिलेंगे ही।  लेकिन यह धारणा पूरी तरह से असत्य सिद्ध हो गई।  मुस्लिम वकीलों ने उन से कहा कि वे मतदान के पहले कम से कम मुस्लिम वकीलों को तो भोज दे ही दें।  उन्हों ने इस के लिए सख्ती से इनकार कर दिया कि वे मतदान के पहले किसी मतदाता को चाय तक नहीं पिलाएँगे।  नतीजा यह कि मुस्लिम मतदाताओं ने ही उन्हें ठुकरा दिया और वे कुछ मतों से चुनाव हार गए।  यदि आधे मुस्लिम मतदाता भी उन्हें वोट दे देते तो शायद वे जीत जाते।   बाद में कहने लगे, अच्छा ही हुआ कि वे हार गए, वरना उन्हें शायद साल भर कुछ काम ऐसे करने पड़ते जो उन की आत्मा गवारा नहीं करती। 


संस्थागत विधिक सेवार्थी जो बार के अध्यक्ष और सचिव में एक अच्छा वकील देखने लगे थे और काम उन्हे देने लगे थे।   कुछ बरसों से सोचने लगे हैं कि उन का यह दृष्टिकोण गलत है।  अब वे बार के पदाधिकारियों को काम देने से कतराने लगे हैं और  दूसरे वकीलों में अपने लिए अच्छा वकील तलाशने लगे हैं।