@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

शनिवार, 22 नवंबर 2008

कला की क्यारी में एक ब्याह

पिछले दो दिन से सुबह और रात के समय चौड़ी पट्टी (ब्रॉडबैंड) लिप लिप कर रही है, आज सुबह भी यही हाल रहा। नतीजा है कि चिट्ठे पढ़ने में कमी हो गई। दो दिन काम  भी बहुत रहा, समय नहीं रहा। कल सर्दी की लपट और रात्रि जागरण से आज का दिन सिर जकड़ा रहा।शनिवार के कारण जल्दी घर आ कर कुछ देर सोया तो हलका और स्वस्थ हो गया। ऐसा करना जरूरी भी था। शिवराम जी के तीसरे पुत्र पवन की शादी थी। कल सगाई में नहीं जा सका था। पता था आज उलाहना मिलेगा, जैसे ही शिवराम जी मिले वह भी मिला। कहने लगे आप मेरे परिवार में अपनी स्थिति नहीं जानते। सब लोग आप को पूछते रहे यहां तक कि शशि (उन का मँझला पुत्र) के ससुर आप को पूछ रहे थे। मैं ने क्षमा मांगी। उन सभी से जो कल मुझे पूछ रहे थे। अभी 11 बजे वहाँ से लौटा हूँ।
शिवराम जी का परिवार कला की क्यारी है। वे खुद कवि, नाटककार, नाट्यनिर्देशक, समालोचक संपादक हैं, छोटा भाई पुरुषोत्तम यकीन जो दुनिया में सबसे छोटी बहर की ग़जल लिख चुका है और शायद राजस्थान में सब से अधिक ग़जलें लिखने वाला शायर है। ज्येष्ठ पुत्र रवि पेशे से इंजिनियर लेकिन श्रेष्ठ चित्रकार है और सैंकड़ों कविता पोस्टरों का रचना कर चुका है साथ ही नायाब कवि भी। शशि और पवन नाटकों के कलाकार रहे हैं। मँझला बेटा शशि मुंबई में है तो मेरी बेटी पूर्वा का कम से कम एक दिन उस के परिवार में बीतता है।
इस कला की क्यारी की एक पौध का विवाह हो तो उस में कला की छाप होना अवश्यंभावी था। उस की बानगी इस विवाह के आमंत्रण से मिल सकती है। जिसे मैं यहाँ आप के सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ।

नोट : आमंत्रण का पूरा आनंद लेने के लिए दोनों चित्रों को क्लिक करें 

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यह कविता किस ने लिखी यह मैं शिवराम जी से पूछना भूल गया। पर मुझे लगता है यह रवि की है। 

पहली टिप्पणी आने के बाद नहीं रहा गया, शिवराम जी से पूछा तो अनुमान सही था। कविता रवि की ही है।  



  
अन्दर बाएँ छपा चित्र पवन के एक छाया चित्र का रवि द्वारा निर्मित रेखांकन है। पूरा आमंत्रण रवि ने खुद अपनी हस्तलिपि में लिखा है। 

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विवाह के आमंत्रण पत्र पर छपी कविता .......


विवाह बंधन
                                  * रविकुमार

यह बंधन नहीं

शायद बंधनों से मुक्त होना है


प्रेम और जज़्बात की

नवीन सृष्टि में खोना है


यह मुक्ति रचती है

अपने ख़ुद के नये बंधन


अपने अस्तित्व के

अहसास की

रोमांचक शुरुआत है यह


दो  धड़कनों की

एक आवाज़ है यह

एक नए जहाँ का आग़ाज है

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शुक्रवार, 21 नवंबर 2008

आठवें विषय में एम ए

शाम तीन बजे मैं चिन्ता में डूबा अपनी कुर्सी पर बैठा था कि शाम तक कैसे लक्ष्य पूरा कर सकूंगा। मुझे जल्द से जल्द अदालत के काम पूरे कर अपने लक्ष्य के लिए जाना था। तभी कोई बगल में आ खड़े होने का अहसास हुआ। सीने तक लटकी सलेटी दाढ़ी और कंधों तक झूलते सर के बाल कुर्ता पायजामा पहने कोई खड़ा था। देखा तो चौंक गया, वर्मा जी थे। पुराने बुजुर्ग साथी। मैं खड़ा हुआ, दोनों गले मिले तो आस पास के वकील देखने लगे। मैं ने अपने पास उन्हें बिठाया। पूछा -कैसे हैं? स्कूल कैसा चल रहा है? बेटे क्या कर रहे हैं? आदि आदि। अंत में पूछा -कैसे यहाँ आने का कष्ट किया। कहने लगे -मुझे कोई राय करनी थी। क्या विश्वविद्यालय का परीक्षार्थी एक उपभोक्ता है? मैं विचार में पड़ गया। कहा देख कर बताऊंगा।

मैं ने उन से पूछा कि मामला क्या है? परीक्षा में पेपर दिया,  नंबर आने चाहिए थे 45, मगर आए 00 ही। पुनर्परीक्षण कराया तो 04 हो गए। मैं संतुष्ट नहीं हूँ। अदालत में मुकदमा करना चाहता हूँ। मैं ने पूछा -तो अब तक कारस्तानी जारी है? कहने लगे -जब तक दम है, जारी ही रहेगी।

ये विष्णु वर्मा थे। वर्मा सीनियर सैकंडरी स्कूल के संस्थापक। उन्हों ने बाराँ में आ कर स्कूल खोला था। कि एक कविगोष्ठी में हाजिर हुए, वहीं पहचान हुई। मैं बी. एससी. का विद्यार्थी था। लेकिन नगर में साप्ताहिक गोष्ठियों का एक मात्र आयोजक भी। एक गोष्ठी में कहने लगे -मेरे पास ग्यारहवीं के दस बारह विद्यार्थी कोचिंग के लिए आते हैं और जीव-विज्ञान का शिक्षक नहीं मिल रहा है। आप पढ़ा देंगे? मैं ने हामी भर ली। पढ़ाने लगा। धीरे-धीरे अंतरंगता बनी और बढ़ती गई।

एक दिन मुझे कहने लगे -दिनेश जी पहली कक्षा का एक बच्चा बहुत परेशान कर रहा है। चार माह हो गए हैं। वह कुछ लिखता ही नहीं है। उस के हाथ में बत्ती (खड़िया पैंसिल) पकड़ाते हैं हाथ पकड़ कर लिखना सिखाते हैं तो जहाँ तक हाथ पकड़ कर लिखाते हैं लिखता है। जहाँ छोड़ते हैं वहीं बत्ती पकड़े रखे रखता है। उस की गाड़ी आगे बढ़ ही नहीं रही है। जरा आप देखो।

मैं दूसरे दिन पहली कक्षा में हाजिर। उस बच्चे को देख कर मैं भी दंग रह गया। कोई तरकीब उस पर काम ही नहीं कर रही थी। मैं ने उसे ब्लेक बोर्ड पर बुलाया और बिंदुओं से वर्णमाला का क अक्षर अनेक बार लिखा। उस के सामने पहले अक्षर पर मैं ने चॉक से क बनाया , दूसरे अक्षर पर उस के हाथ में चॉक दे कर उस का हाथ पकड़ कर क बनवाया। तीसरे पर उसे बनाने को कहा। उस का हाथ रुक गया। फिर आधे अक्षर पर उस का हाथ पकड़ कर बनाया और आगे उसे बनाने को कहा तो उस ने पूरा क बना दिया मैं ने ब्लेक बोर्ड पर वर्णमाला के लगभग सभी अक्षर उस दिन बिंदुओं के बना कर उस से उन पर लिखवाया। उस ने बिना किसी सहायता के लिख दिए। फिर उसे बिना बिंदुओं के लिखने को कहा तो वैसे भी उस ने बिना किसी सहायता के लिख दिया। वह वर्णमाला के सभी अक्षर लिखने लगा। मैं उसे वर्मा जी को सौंप कर आ गया। उस के बाद उस बालक को कभी लिखने में समस्या नहीं आई।

वर्मा जी तब किसी एक विषय में एम ए थे, और एलएल बी भी, बी एड भी की हुई थी। फिर जब मैं वकालत में आ गया तो पता लगा कि उन को शौक लगा है, अलग विषय में एम ए करने का। वे फिर पढने लगे। आज पता लगा कि वे सात विषयों में एम. ए. कर चुके हैं। आठवें विषय में कर रहे हैं, तब उन के साथ एक पेपर में 00 अंक आने का हादसा हुआ। हम ने साथ बैठ कर कॉफी पी। उन से पूछा कि -कितने साल के हो गए हैं?  तो बता रहे थे -छिहत्तर में चल रहा हूँ।  यह एम ए कब तक करते रहेंगा? तो बताया -जब तक पढ़ने लिखने की क्षमता रहेगी। जिस साल परीक्षा न दूंगा, तो लगेगा कि कोई काम ही नहीं रह गया है। लगता है प्रोफेशनल विद्यार्थी हो गया हूँ।

चार बजे घड़ी देख कर बोले -अब चलता हूँ ट्रेन का समय हो गया है। तीन-चार दिन में मिलूंगा। मेरा मुकदमा लड़ना है। मैं ने उन्हें ऑटो में बिठाया और अपने काम में जुट गया।

बुधवार, 19 नवंबर 2008

पहली वर्षगाँठ की पूर्व संध्या

आज पहली वर्षगांठ की पूर्व संध्या है। कल साल गिरह होगी अनवरत की। एक साल, महज एक साल कोई लंबा अर्सा नहीं होता लेकिन लगता है कि बहुत-बहुत दूर निकल आया हूँ। इतनी दूर कि वह छोर जहाँ से चला था, नजर नहीं आता, या किसी धुंध में छिप गया है। आगे आगे चलता हुआ नजर आता है तीसरा खंबा मेरा पहला प्रयास।

यह अनवरत ही था जिसने हिन्दी ब्लागरी के पाठकों के साथ मेरी अंतरंगता को स्थापित किया। 28 अक्टूबर 2007 को तीसरा खंबा का प्रारंभ हुआ था। मन में बात थी कि जिस न्याय-व्यवस्था में एक अधिवक्ता के रुप में 29 साल जिए हैं, उस की तकलीफों को एक स्वर दूं, जो लोगों को जा कर बताए कि जिसे वे बहुत आशा के साथ देखते हैं उस की खुद की तकलीफें क्या हैं? लेकिन एक पखवाड़ा भी न गुजरा था कि एक बात तकलीफ देने लगी कि कानून और न्याय व्यवस्था एक नीरस राग है और इस के माध्यम से शायद मैं अपने पाठकों के साथ तादात्म्य स्थापित नहीं कर सकूँ। इस के लिए मुझे खुद को खोल कर अपने पाठकों के बीच रखना पडे़गा। तभी वे शायद यह समझ पाएँ कि तीसरा खंबा लिखने वाला कोई काला कोट पहने वकील नहीं बल्कि एक उन जैसा ही साधारण मध्यवर्गीय व्यक्ति है जो उन की जिन्दगी को समझ सकता है, उन की तकलीफें एक जैसी हैं। यही कारण अनवरत के पैदा होने का उत्स बना।

20 नवम्बर 2007 को अनवरत जन्मा तो उस का स्वागत हुआ। वह धीरे धीरे पाठकों में घुल मिल गया। जब निक्कर पहनता था, जब मैं काफी कुछ पढ़ने भी गया था तभी कभी यह इच्छा जनमी थी कि मैं लिखूँ और लोग पढ़ें। फिर कुछ कहानियां लिखीं कुछ लघु कथाएँ। उन दिनों शौकिया संवाददाता भी रहा, और कानून पढ़ते हुए दैनिक का संपादन भी किया। लेकिन जैसे ही वकालत में आया। सब कुछ भूल जाना पड़ा। यह व्यवसाय ऐसा था जिस का सब के साथ ताल्लुक था, लेकिन समय नहीं था। रोज कानून पढ़ना, रोज दावे और दरख्वास्तें लिखना रोज बहस करना और नतीजे लाना। एक वक्त था जब साल में दिन 365 थे और निर्णीत मुकदमों की संख्या 400 या उस से अधिक। इस बीच बहुत लोगों को सुना, पढ़ा। लेकिन कोशिश करते हुए भी खुद को अभिव्यक्त करने का अवसर ही नहीं था, सिवाय उन दस महिनों के जब एक दैनिक के लिए साप्ताहिक कॉलम लिखा।

नाम के अनुरूप तीसरा खंबा को न्याय-प्रणाली के इर्द गिर्द ही रखा जाना था। उस से विचलित होना नाम और उस की घोषणा का मखौल हो जाता। अपने को अभिव्यक्त करने का अवसर दिया अनवरत ने। यहाँ जो चाहा वह सब लिखा। कुछ साथियों 'यकीन', 'महेन्द्र', 'शिवराम' और आदरणीय भादानी जी की एकाधिक रचनाओं को भी रखा। लोगों ने उसे सराहा भी, आलोचना भी हुई। पर  समालोचना कम हुई। लेखन की निष्पक्ष समालोचना का अभी ब्लागरी में अभाव है। लेकिन ऐसी समालोचना की जरूरत है जो लोगों के लेखन को आगे बढ़ा सके, उन्हें उन के अंतस में दबे पड़े उजास और कालिख को बाहर लाने में मदद करे। उन्हें हर आलेख के साथ एक सीढ़ी ऊपर उठने का अवसर दे।

संकेत रूप में कुन्नू सिंह का उल्लेख करना चाहूंगा। वे नैट के क्षेत्र में जो कुछ नया करते हैं, उसे पूरे उत्साह के साथ सब के सामने रखते हैं, बिलकुल निस्संकोच। उन का दोष यह है कि हिन्दी लिखने में उन से बहुत सी वर्तनी की अशुद्धियाँ होती हैं। हो सकता है लोगों को उन के इस वर्तनी दोष के कारण उन का लेखन कुरूप लगता हो। जैसा कि कुछ दिन पहले किसी ब्लागर साथी ने अपने आलेख में इसका उल्लेख भी किया। लेकिन रूप ही तो सब कुछ नहीं। किसी भी रूप में आत्मा कैसी है यह भी तो देखें। आज जब कुन्नू भाई ने तीसरा खंबा पर टिप्पणी की तो उस में हिज्जे की केवल दो त्रुटियाँ थीं। कुछ दिनों के पहले उन्होंने घोषणा की थी कि वे जल्दी ही हिन्दी लिखना भी सीख लेंगे। कुछ ही दिनों  में उन की यह प्रगति अच्छे अच्छे लिक्खाडों से बेहतर है। लोग चाहें तो मेरे इस कथन पर आज हंस सकते हैं, लेकिन मैं कह रहा हूँ कि वे इसी तरह प्रगति करते रहे और नियमित रूप से लिखते रहे तो वे चिट्ठाजगत की रैंकिंग में किसी दिन पहले स्थान पर हो सकते हैं।

शास्त्री जी ने खेमेबंदी का उल्लेख किया। जहाँ बहुत लोग होते हैं उन्हें एक खेमे में तो नहीं रखा जा सकता। हम जब स्काउटिंग के केम्पों में जाते थे तो वहाँ बहुत से तम्बू लगाने पड़ते थे। अलग अलग तम्बुओं में रह रहे लोगों के बीच प्रतिस्पर्धा तो होती थी, लेकिन प्रतिद्वंदिता नहीं। सब लोग एक दूसरे से सीखते हुए आगे बढ़ते थे। लक्ष्य होता था हर प्रकार के जीवन को बेहतर बनाना। वही हमारा भी लक्ष्य क्यों न हो? हो सकता है लोग अलग अलग राजनीतिक विचारधाराओं से प्रभावित हों। एक को अन्यों से बेहतर मानते हों। लेकिन राजनैतिक विचारों, दर्शनों और जीवन पद्धतियों का भी कुछ लक्ष्य तो होगा ही। यदि वह लक्ष्य मानव जीवन को ही नहीं सभी प्राणियों और वनस्पतियों के जीवन को बेहतर बनाना हो तो राजनैतिक विचारों, दर्शनों और जीवन पद्धतियों के ये भेद एक दिन समाप्त हो ही जाएँगे। अगर यह एक लक्ष्य सामने हो तो सारे रास्ते चाहे वे समानांतर ही क्यों न चल रहे हों एक दिन कहीं न कहीं मिल ही जाएँगे और गणित के नियमों को भी गलत सिद्ध कर देंगे।

मंगलवार, 18 नवंबर 2008

शाम की दावत और भांवरें

सगाई समारोह से निकले तो दोपहर का पौने एक बज चुका था। कुछ देर में ही लंच शुरू होने वाला था। मैं होटल के कमरे में पहुँचा तो  वहाँ नजारा कुछ और था। पूरा कमरा हमारी ससुराल से कमरा खचाखच भरा था।मैं जैसे घुसा था वैसे ही उलटे पांव बाहर निकला। मैं ने सोचा शहर में किसी से मिल लिया जाए। होटल से बाहर निकलता उस से पहले ही पकड़ा गया। मेहमान आते जा रहे थे। अधिकांश परिचित और संबंधी। उन से बात करना भी तो उपलब्धि थी। हर एक से नयी नयी सूचनाएँ मिलती थीं। उन के साथ होटल के रिसेप्शन पर ही बैठ गया। बातें करता रहा और साथ साथ सुडोकू भी। उस दिन के दोनों अखबारों के सुड़ोकू हल करते करते लंच का बुलावा आ लिया। 

लंच के लिए जमीन पर पट्टियाँ लगी थीं। पत्तलें पत्तों स्थान पर कागज की थीं और दोने भी वैसे ही। भोजन मे कत्त थे, बाफले थे, चावल थे, दाल थी, गट्टे की सब्जी थी और थी हरे धनिये की चटनी। (इन सब की खसूसियत के लिए एक अलग पोस्ट की जरूरी है, वह फिर कभी।) मैं ने अपने लिए बिना घी का बाफला मंगा लिया। सब कुछ बहुत स्वादिष्ट था। अपनी खुराक से कुछ कम ही खा कर उठ लिए। फिर भी खाते ही रात की अधूरी नींद हावी होने लगी। हम खाने आखिरी पंगत (पंक्ति) में थे। होटल के अपने तल पर पहुँचे तो हॉल में मण्डप की कार्यवाही शुरू हो चुकी थी। देवी-देवताओं, पूर्वजों का विवाह में सम्मिलित होने के लिए आव्हान किया जा रहा था। यहाँ हवन होना था, और उस के बाद दुल्हिन के माता-पिता, भाई-भाभी जो पूजा में बैठे थे उन्हें और दुल्हिन और उस के भाई बहनों को कपड़े आदि की पहरावनी होनी थी। हमारा वहाँ कोई काम न था। महिलाओं को वहाँ होना था। हम ने महिलाओं को वहाँ भेजा और खुद बिस्तर के हवाले हो लिए। शाम को  पांच बजे तक मण्डप का काम चलता रहा। तब तक हमने सोने की कोशिश की। लेकिन शादी और निद्रा दोनों एक दूसरे के शत्रु हैं। कोई न कोई आता रहा, जगाता रहा। शाम को उठ कर कॉफी पी और फ्रेश हो कर नीचे आए तो जहाँ शादी की मुख्य दावत होनी थी वहाँ तैयारियाँ चल रही थीं। हम शहर घूमने निकल गए। बाजार देखा। रविवार होने के बावजूद रौनक थी। अभी साप्ताहिक अवकाश की आदत झालावाड़ के बाजार को आम नहीं हुई थी। पान खाया, बींदणी और सालियों के लिए बंधवाया। वापस आए तो सभी महिलाएँ सांझ की दावत के लिए सजने लगी थीं।  कमरे पर पहुँचे तो सलहज अपनी ननदों को विदाई उपहार दे रही थी। उसे पता था कि सब भांवर के वक्त ही निकलना शुरू कर देंगे।

आठ बजे करीब दावत शुरू हो गयी। वहाँ आधे लॉन में बूफे की व्यवस्था थी, आधे में दूल्हा-दुल्हिन के लिए मंच सजा था। हम घूमते हुए देखते रहे क्या क्या है दावत में। नौ बजे करीब जब आधे से अधिक लोग भोजन कर चुके थे तब बारात आई, तोरण मारा गया। दूल्हे को मंच पर लाया गया। वहीं उस के कलश बंधाया गया। फिर वरमाल हुई। हमने इस बीच भोजन पर हाथ साफ करना शुरू किया। वहीं हमारे एक मुवक्किल मिल गए हमें अपनी बाइक पर बिठा कर घर ले गए। हमें  मोबाइल चार्ज करना था यह भी लोभ था कि एक बार नेट देख लेंगे। उन के यहाँ जा कर नेट पर मेल देखी भर, एक दो जरूरी मेल का जवाब दिया अंग्रेजी में, हिन्दी टाइपिंग उपलब्ध नहीं थी। वापस आ गए। दावत का अंत चल रहा था। आते जाते रास्ते में सर्दी लगी थी।खुद भी कॉफी पी और छोड़ने आने वाले को भी पिलाई। कमरे पर पहुँचे तो ससुराल का कुनबा दूल्हे-दुल्हिन की पगपूजा में देने वाले उपहार बींदणी के हवाले कर अकलेरा जा चुके थे। हमारे साथ आई सालियाँ भी उन के साथ हमारे ससुर जी से मिलने के लिए उन के साथ चली गई थीं। कमरा खाली था। रात के एक बज रहे थे। हम वहीं सो गए। सुबह तीन बजे नींद खुली तो पीछे से पंडित जी की आवाज सुनाई दी। नव वर-वधू को गृहस्थी के गुर ऊंची आवाज में सिखाए जा रहे थे। यानी पगपूजा का वक्त हो चला था। बींदणी को उठा कर वहाँ भेजा। साढ़े चार बजे वर-वधू के साथ ऊपर आई तो आगे आगे ढोल बज रहा था। नींद खुल गई। वधू एक कमरे में चली गई, वस्त्र परिवर्तन के लिए। दुल्हे को हॉल में बिठा दिया। करीब एक घंटा लगा। वर-वधू की विदाई का समय हुआ तो वर की जूतियाँ गायब। यही एक अंतिम रस्म रह गई थी। खैर,  कुछ दे दिला कर सालियों से जूतियाँ वापस मिलीं। इस बीच हम फ्रेश हो लिए। इधर वर-वधू की विदाई हुई उधर हम ने अपना सामान अपनी कार में रखा और रात वाले मुवक्किल के घर आए। रात को मोबाइल वहीं छूट गया था। वहाँ चाय पीनी पड़ी। रवाना होते होते सात बज रहे थे।

पूरी शादी में जो खास बात थी कि लेन-देन, दान दहेज का प्रदर्शन न हुआ। वह कुछ खास हुआ भी न था। यह एक अच्छी बात थी। इन के दिखावे से समाज में प्रतियोगिता होती है और इन्हें बढ़ावा मिलता है। बहुत सी परंपराओँ का निर्वाह किया गया था। लेकिन फिर भी वह आनंद नहीं था जो तेंतीस बरस पहले हमारी शादी के वक्त में था। सादगी बहुत कम थी लेकिन आनंद बहुत था। कभी मौज आई तो उस शादी की दास्तान भी आम होगी।

सोमवार, 17 नवंबर 2008

"सगाई कम गोद भराई उर्फ रिंग सेरेमनी"

सुबह खटपट से नींद खुली। देखा तो हॉल के बाहर बरतन खड़क रहे थे, मैं उठ बैठा। रजाई से बाहर निकलते ही सर्दी का अहसास हुआ। सोचा हमें आवंटित कमरा खुला हो तो कुछ गरम पहनने को ले लिया जाए। बाहर निकले तो लंगर वाला गैस सुलगा कर दूध गरम कर रहा था। यानी मेरी कॉफी का इन्तजाम हो चुका था, दूध उबलते ही एक कप में चीनी और कॉफी ही तो मिलानी थी। मैं वहीं काउंटर पर खड़ा हो गया। सामने दूसरे तल पर जा रही सीढ़ियों पर छोटी वाली साली और बींदणी बैठी थी,  शायद चाय के इन्तजार में।  मोबाइल में समय देखा तो सवा चार हो रहे थे।  बींदणी कार्तिक में मुहँ-अंधेरे ही स्नान कर रही थी। मैं ने कहा -सात-आठ किलोमीटर दूर चन्द्रभागा में स्नान करा लाते हैं, आज विष्णु जी ससुराल से लौट रहे हैं, बड़ा पुण्य होगा, हम भी बहते जल में हाथ धो लेंगे। तो बोली -कल अखबार में पढ़ा था कि वहाँ पानी साफ नहीं है। यहाँ बाथरूम में ट्यूबवेल का साफ ताजा पानी आ रहा है, यहीं स्नान करेंगे। उन्हों ने चाय पी और कमरे वालों के लिए साथ ले ली।

कॉफी पी कर हम अपने कमरे में आए। बींदणी स्नान करने घुस गईथी। सालियाँ वहीं किसी कमरे में चली गईं जहाँ सुबह की संध्याएँ गाई जा रही थी। विनायक स्थापना होने के बाद से यह परंपरा है कि सुबह होने के पहले ही घर और पड़ोस की स्त्रियाँ मिल कर देवताओं के गीत और कुछ विवाह गीत गाती हैं। यूँ कहिए गीत से ही विवाह  वाले घर में दिन शुरू होता है। जब तक कमरे वाले सब स्नान न कर लें तब तक हमारा नंबर आने वाला न था। कमरे में बिस्तर खाली थे। रात केवल तीन घंटे ही सो सका था, मैं वापस रजाई के हवाले हो लिया। 

मैं स्नान कर के नीचे उतरा तब तक नौ बज चुके थे। नाश्ते की तैयारी थी। उस के बाद सगाई होनी थी। वैसे सगाई तो शादी होने के बहुत पहले ही हो जाया करती थी, जो रिश्ते के पक्के होने का प्रमाण होती थी। लेकिन सगाई अब दिखावे की होती है, और बहुत सारे लोग उसे न देखें तो उस का कोई अर्थ नहीं। इस लिए आम तौर पर लग्न झिलाने के दिन या  फिर शादी के दिन उस की रस्म पूरी की जाती है। देखने वाले यह देखते हैं कि सगाई में क्या क्या दिया गया? सगाई के पहले या बाद दुल्हन की गोद भरने की रस्म होती थी, उस का अस्तित्व अब खतरे में है। उस के साथ-साथ अंगूठी पहनाने की रस्म होने लगी है उसे नया नाम "रिंग सेरेमनी"  दे दिया गया है। यह काम भी सगाई के उपरांत निपटा लिया जाता है। कुल मिला कर समारोह  "सगाई कम गोद भराई उर्फ रिंग सेरेमनी" हो चुका है।

उधर शेड वाले हॉल  में जहाँ रात को भोजन हुआ था। वहाँ सगाई की तैयारी थी। आधे हॉल में गद्दे और उस पर सफेद चांदनी बिछी थी। एक तरफ बीचों बीच दूल्हे की चौकी थी, पंडित जी बैठे तैयारी कर रहे थे। बाकी आधे हॉल में दूल्हे की चौकी की तरफ मुहँ किये पचास कुर्सियाँ करीने से लगी थीं। हॉल के बाहर के मैदान में मेजें सजी थीं जिन पर नाश्ता लगाया जा रहा था। कुछ ही देर में नाश्ता शुरू हो गया। कोटा की जैसी कचौड़ियां, दही- चटनी, खम्मन ढोकला, कलाकंद और सेव-नमकीन। सब कुछ स्वादिष्ट था। जी चाहता था सब कुछ डट कर खाएँ, पर पेट और दिन में बनने वाले कच्चे भोजन का खयाल कर केवल चखा और कॉफी पी ली। अब तक बहुत मेहमान आ चुके थे। मेरे ससुर जी के अलावा ससुराल पूरी ही आ चुकी थी, साले, उन की पत्नियाँ (सालाहेलियाँ), उन के बच्चे, ब्याहता लड़कियाँ और उन के पति, बच्चे। नजदीक और दूर के लगभग सभी रिश्तेदार, सब आपस में बतियाने लगे। नए नए समाचार मिल रहे थे। किस किस का तबादला हुआ? किसे नौकरी मिली? कौन पास हुआ,  कौन फेल? किस का रिश्ता किस से होने जा रहा है?  आने वाले दो महिनों में किस किस की शादियाँ होने वाली हैं। कौन कौन पिता, दादा, मामा, नाना, चाचा, ताऊ, बुआ, मौसी आदि बन गए हैं।

नाश्ता चल रहा था कि उधर सगाई में चल कर बैठने का हुकुम हो गया। दुल्हन के पिता गैर हाजिर थे। उन्हों ने रात को ही मुझे बता दिया था कि वे अकलेरा जाएँगे जहाँ उन का पदस्थापन है क्यों कि उस दिन निर्वाचन की महत्वपूर्ण बैठक है और उस से मुक्ति नहीं मिल सकी है। मुझे कह गए थे सगाई के वक्त उन की कमी मैं पूरी करूँ। मै वहाँ पहुँचा तो, लेकिन वहाँ दुल्हन के मामा मौजूद थे। मैं वह जिम्मेदारी उन्हें पूरी करने को कह कर आजाद तो हो गया लेकिन इस जिम्मेदारी से बरी नहीं कि सब कुछ ठीक से संपन्न हो जाए। मैं अपने फूफाजी के पास आ बैठा और बतियाने लगा। वे अपने बड़े बेटे के साथ कोटा से आए थे जो यहीं पड़ोस के मेडीकल कॉलेज अस्पताल में सीनियर स्पेशलिस्ट रेडियोलॉजी है। उसे सप्ताह में दो दिन इमर्जेंसी सेवा के लिए झालावाड़ रहना पड़ता है, एक दिन अवकाश का मिल जाता है, सप्ताह में दो-तीन दिन अदालतों में गवाहियों के लिए जाना पड़ता है। बचा एक दिन उस दिन वह कोटा से आ कर डूयूटी कर वापस चला जाता है। बाकी दिन अस्पताल जूनियर स्पेशलिस्ट से काम चलाता है। हर सरकारी नौकरी में ये अतिरिक्त काम न केवल मूल काम में बाधक हो जाते हैं अपितु काम पर से केन्द्रीयता को हटा देते हैं। पूफाजी से ही पता लगा उन का एक बेटा अब भोपाल से रायपुर स्थानांतरित हो गया है और भिलाई रहता है। वहाँ तो हमारे संपर्क के एक ब्लागर भी हैं। तो हमने दोनों से फोन पर बात की और दोनों को मिलवा दिया। दोनों बहुत प्रसन्न हुए।

उधर सगाई का काम चलता रहा। दूल्हे और उस के परिजनों को सुंदर कपड़ों और उपहार दिए गए। सगाई संपन्न होते ही दूल्हे की दायीं ओर एक चौकी और लगाई गई वहाँ  दुल्हन को बैठाया गया। वहाँ दोनों ने एक दूसरे को अंगूठियाँ पहनाई गईं और दुल्हन की गोद भरी गई। यह समारोह भी संपन्न हुआ। मैं ने फूफाजी को कहा -शादी के पहले तक दूल्हा लेफ्टिस्ट होता है और शादी के बाद दुल्हन (पत्नी)। वे कहने लगे बात सही है। (जारी)

शनिवार, 15 नवंबर 2008

शादी के पहले की रात

रोका या टीका, सगाई, लग्न लिखना, भेजना, लग्न झिलाना, विनायक स्थापना, खान से मिट्टी लाना, तेल बिठाना, बासन, मण्डप, निकासी, अगवानी, बरात, द्वाराचार, तोरण, वरमाला, पाणिग्रहण, सप्तपदी, पलकाचार, विदाई, गृह-प्रवेश, मुहँ-दिखाई, जगराता आदि विवाह के मुख्य अंग हैं। इन सभी का अभी तक हाड़ौती में व्यवहार है। इन में बासन के लिए ताऊ रामपुरिया जी और रौशन जी ने सही बताया। वर के यहाँ बारात जाने के और वधू के यहाँ पाणिग्रहण के एक दिन पहले महिलाएं बैण्ड बाजे के साथ सज-धज कर कुम्हार के यहाँ जाती हैं और वहाँ से मिट्टी के मटका, उस पर एक घड़ा और उस पर ढक्कन सिर पर रख कर लाती हैं। इस तरह के कम से कम पाँच सैट जरूर लाए जाते हैं। जब महिलाएं बासन ले कर घर पहुंचती हैं तो द्वार पर वर या वधू के परिवार के जामाता उन के सिर पर से बासन उतार कर गणपति के कमरे में ला कर रखते हैं और इस के लिए बाकायदे जमाताओं को नेग (कुछ रुपए) दिए जाते हैं।

महिलाएँ बासन लेने चल दीं उस का ज्ञान मुझे सुड़ोकू भरते हुए दूर जाती बैंड की आवाजों से हुई। कोई पौन घंटे बाद वे बासन ले कर लौटी। सुडोकू हल करने में कुछ ही स्थान रिक्त रह गए थे कि साले साहब ने फिर से हाँक लगा दी। हम अखबार वहीं लपेट कर चल दिए। हमें बाकायदा तिलक निकाल कर 101 रुपए और नारियल दिया गया। हम ने अकेले सारे बासन उतारे, और कोई जामाता तब तक विवाह में पहुँचा ही नहीं था। महिलाएँ होटल के अंदर प्रवेश कर गईं थीं, हम बाहर निकल गए। हमें आजादी मिल गई थी। बेतरतीबी से जेब में रखे गए 101 रुपए पर्स के हवाले कर रहे थे कि साले साहब सामने पड़ गए, नोट हाथ में ले कर मजा लिया -मेहन्ताना कम तो नहीं मिला? मैं ने जवाब दिया -वही हिसाब लगा रहा हूँ। छह बासन उतारे हैं एक का बीस रुपया भी नहीं पड़ा कम तो लग रहा है। वे बोले -ये तो एडवांस है। अभी पूरी शादी बाकी है, कसर पूरी कर देंगे। वे हमें पकड़ कर फिर से लंगर में कॉफी पिलाने ले गए।

हम ने अपने एक पुराने क्लर्क को फोन किया था तो कॉफी पीते पीते वह मिलने आ गया। आज कल वह यहीं झालावाड़ में स्वतंत्र रूप से काम कर रहा है। कहने लगा -उस का काम अच्छा चल रहा है। कुछ पैसा बचा लिया है, मकान के लिए प्लाट देख रहा है। मेरे साथ सीखी अनेक तरकीबें खूब काम आती हैं। अनेक लोगों के पारिवारिक विवाद उस ने उन्हीं तरकीबों से सुलझा दिए हैं। तीन-चार जोड़ियों को आपस में मिला चुका है, घर बस गए हैं पति-पत्नी सुख से रह रहे हैं। यहाँ के वकील पूछते हैं, ये तरकीबें कहाँ से सीखीं? तो मेरा नाम बताता है। कहने लगा -भाई साहब, लोगों के घर बस जाते हैं तो बहुत दुआ देते हैं। वह गया तब महिलाएँ प्रथम तल पर ढोल और बैंड के साथ नृत्य कर रही थीं। बासन लाने के बाद महिलाओं का नृत्य करना परंपरा है। हम भी उस का आनंद ले रहे थे। महिलाओं, खास तौर पर लड़कियों और दो चार साल में ब्याही बहुओं ने इस के लिए खास तैयारी की थी। नाच तब तक चलता रहा जब तक नीचे से भोजन का बुलावा नहीं आ गया। तब तक आठ बज चुके थे। सब ने भोजन किया। वापस लौटे तो मैं ने शहर मिलने जाने को कहा तो हमारी बींदणी बोली हम भी चलते हैं। मैं, पत्नी और दोनों सालियाँ एक संबंधी के घर मिलने चले गए। वहाँ पता चला उन की पत्नी को हाथ में फ्रेक्चर है। लड़की पढ़ रही थी। वे चाय-काफी के लिए मनुहार करते रहे। उन की तकलीफ देख कर हम ने मना किया फिर भी कुछ फल खाने पड़े। रात को बारह बजे वहाँ से लौटे तो होटल में सब मेहमान बातों में लगे थे। हमारे कमरे में महिलाओं के सोने के बाद स्थान नहीं बचा था। मैं हॉल में गया तो वहाँ सभी पुरुष सोये हुए थे, फिर भी स्थान रिक्त था। मैं वहीं एक रजाई ले कर सोने की कोशिश करने लगा। स्थान, बिस्तर और रजाई तीनों ही अपरिचित थे, फिर बीच बीच में कोई आ जाता रोशनी करता किसी से बात करता। पर धीरे-धीरे नींद आ गई। जारी

शुक्रवार, 14 नवंबर 2008

मुख्यमंत्री का चुनाव क्षेत्र, शादी और सुड़ोकू

कोटा से आलनिया तक सड़क अच्छी थी। लेकिन जैसे ही आलनिया से चले सड़क की दुर्दशा देखने को मिली। मरम्मत की हुई थी। लेकिन वह बिलकुल बेतरतीब तरीके से, केवल काम चलाऊ। कार 40-45 कि.मि.प्रति घं. की गति से चली। कोटा जिले का अंतिम गांव पड़ा सुकेत, और उसके बाद आहू नदी का पुल था। नदी में अभी भरपूर पानी था। नदी के उस ओर झालावाड़ जिला शुरू हो गया।  बस यहीं से लगा कि मुख्यमंत्री के चुनाव क्षेत्र में आ गए हैं। सड़क पर गाड़ी दौड़ने लगी, कोई खड़का तक नहीं। पन्द्रह किलोमीटर कैसे निकले? पता ही नहीं चला। सड़क पर सफेदे के मार्क लगे हुए, सड़क के किनारे पेड़ों पर भी लाल-सफेद निशान बनाए हुए लगा जैसे सिविललाइन्स में आ गए। झालावाड़ में घुसते ही बायीं और एक नयी विशाल इमारत बनी थी, बिलकुल आधुनिक बाहर से पूरी की पूरी लाल पत्थरों से जड़ी। यह था "मिनि सचिवालय"। यहाँ से अब झालावाड़ जिले का प्रशासन चलता है। जिला कलेक्टर और उस के अधीन जिला मुख्यालय के सभी कार्यालय इसी मिनि सचिवालय में हैं। अभी अदालतें पुराने गढ़ में चल रही हैं लेकिन जल्दी ही वे भी इसी इमारत के पास बनी अदालतों की नयी इमारत में आने वाली हैं।

वसुंधरा राजे सिंधिया ने एक पिछड़े जिले को अपने चुनाव क्षेत्र के रूप में चुना था। जहाँ राज परिवार के प्रति विशेष श्रद्धा अभी कायम थी। उस का लाभ उन्हें मिला, इस विधानसभा क्षेत्र में उन्हें चुनौती देने का साहस अभी भी किसी को नहीं। झालावाड़ जिस की किसी रूप में कोई अहमियत नहीं थी, सिवा इस के कि जालिम सिंह झाला ने इसे बसाया और यहीं से राज चलाया। पास ही छह-सात किलोमीटर की दूरी पर पुराना एतिहासिक नगर झालरापाटन स्थित है जो चन्द्रभागा नदी के पूर्वाभिमुख बहने से तीर्थ है। वहीं वल्लभ संप्रदाय का प्रसिद्ध मंदिर है। ऐतिहासिक प्राचीन सूर्य मंदिर स्थित है। चन्द्रभागा के किनारे बना शिव मंदिर और उस में स्थित छह फुट ऊँचा शिवलिंग दर्शनीय है। सारा कारोबार भी इसी नगर में है। संस्कृति और धर्म सब कुछ यहीं। नतीजा यह कि झालावाड़ केवल प्रशासनिक नगर बन कर रह गया। कोई रोजगार नहीं तो आबादी भी सीमित ही रही।

वसुंधरा से रिश्ता जुड़ने के बाद यहाँ सब कुछ हुआ। पूरे नगर की गली-गली में लौह-जाल युक्त कंक्रीट की सड़कें बनीं, मिनि सेक्रेट्रियट बना। मेडीकल कॉलेज खुला और पूरा का पूरा अस्पताल नया बना। पुराना अस्पताल अब धऱाशाई कर दिया गया है, उस का भी पुनर्निर्माण चल रहा है। इस तरह एक अच्छा चिकित्सा केन्द्र यहाँ बन गया और लोग चिकित्सा के लिए यहाँ आने लगे। स्नातकोत्तर महाविद्यालय पहले से ही था, उस का भी विकास हुआ।  इंजिनियरिंग, पोलोटेक्नीक और आईटीआई खुले। बीएड कालेज खुले। बीएसटीसी पहले से ही झालरापाटन में था। लॉ-कॉलेज खुला।  विद्यार्थियों की संख्या यहाँ बढ़ गई,  कर्मचारी यहाँ आए और बाजार भी विकसित होने लगा। खेल के लिए क्रिकेट का अन्तर्राष्ट्रीय स्तर का स्टेडियम बना, उद्यान आदि बने। कुल मिला कर झालावाड़ तरक्की करने लगा। अब वह पहले की तरह सुस्त नहीं है, वहाँ गति पैदा हो चुकी है और जीवन बोलने लगा है।

हम होटल पहुंचे तो हमारे साले साहब की टीम वहाँ विराजमान थी, उन्हें आए हुए भी कोई एक घंटा ही हुआ था। वे रहने वाले तो मनोहरथाना के थे, लेकिन दूल्हा वाले झालावाड़ के उन्हें बारात ले कर जाने में असुविधा रही होगी। उन्हों ने हमारे साले साहब को यहीं बुलवा लिया था। वे भी मस्त थे, सारा इंतजाम दूल्हे वाले ही कर रहे थे, उन्हें कुछ नहीं करना पड़ रहा था। दुल्हन वाले सिर्फ मेहमान थे, और हम उन के भी मेहमान। होटल तीन मंजिला थी। भूतल रोज के ग्राहकों के लिए था। प्रथम तल शादी के मेहमानों के लिए आरक्षित और द्वितीय तल सारा मेडीकल कॉलेज/अस्पताल ने बुक करवा रखा था। उस में वे कर्मचारी रहते थे जो अकेले थे और जिन के परिवार वहाँ थे जहाँ से वे स्थानान्तरित हो कर आए थे। हमें भी पहले तल पर एक कमरा दे दिया गया, अ़टैच टायलट युक्त। उसी में हमने अपना सामान डाला। वह छह लोगों के लिए पर्याप्त था।

थोडी देर बाद साले साहब आए, हमें देख कर प्रसन्न हो गए। तुरंत चाय कॉफी की व्यवस्था की जिस का लंगर इसी तल्ले पर चल रहा था। तुरंत कॉफी आ गई। मैं ने सोचा आस पास कुछ टहल कर आऊँ,  दो घंटे कार जो चलाई थी। पर साले साहब ने रोक लिया, -कहीं मत जाना। बैंड वाला आ चुका है महिलाएँ बासन लेने जाएँगी। वापस आएँगी तो कौन उतारेगा? मैंने कहा -यार! हम तो अब सब से सीनियर हैं, हम से जूनियर चार-पाँच तो हो ही गए हैं। वे बोले -वे आएँगे तब ना, सब कल ही आएँगे। तब तक तो सब काम आप को ही करने होंगे। हम रुक गए। होटल का ही जायजा लिया। होटल के बाहर अच्छी खासी पार्किंग की जगह थी। एक अच्छा सा लॉन था जिस में दावत का स्थाई इंतजाम लगा था और होटल के पिछवाड़े एक टीन शेड में बड़ा सा रसोईघर था। एक और शेड था, बड़े हॉल जैसा जिस में शादी के दीगर कार्यक्रम हो सकते थे। हमने दरयाफ्त की तो पता लगा शाम का भोजन वहीं बन रहा है और उस हॉल नुमा शेड में ही खिलवाया जाएगा।

हम लौटे तब तक महिलाएँ बासन लेने जाने की तैयारी कर रही थीं। हमें कम से कम एक घंटा तो वहीं रुकना था, जब तक बासन नहीं लाए जाते। तब तक क्या करें? वहीं होटल के रिसेप्शन पर रुक गए, वहाँ अखबार थे जिन्हें सुबह ही पढ़ा जा चुका था। तब याद आया कि हमेशा समय की कमी से सुड़ोकू छूट जाती है। हमने तुरंत अखबार लपका और सुड़ोकू वाला पन्ना ले कर पेन निकाला और लगाने लगे अपनी गणित।