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गुरुवार, 12 अप्रैल 2012

क्या सर्वोच्च न्य़ायालय गरीब विद्यार्थियों के पक्ष में निर्णय देगा?

शिक्षा के अधिकार कानून द्वारा निजी विद्यालयों पर 25 प्रतिशत आर्थिक रूप से कमजोर विद्यार्थियों को प्रवेश देने की बाध्यता के विरुद्ध प्रस्तुत की गई याचिकाओं पर आज सर्वोच्च निर्णय निर्णय देने वाला है। लंबी सुनवाई के उपरान्त दिनांक 3 अगस्त 2011 को निर्णय को मुख्य न्यायाधीश एचएस कापड़िया, न्यायाधीश केएसपी राधाकृष्णन् तथा न्यायाधीश स्वतंत्र कुमार द्वारा सुरक्षित रख लिया गया था। इस मामले में  दो पृथक पृथक निर्णय दिए जाएंगे जिनमें से एक मुख्य न्यायाधीश एचएस कापड़िया का तथा दूसरा न्यायाधीश केएसपी राधाकृष्णन् का होगा। इस मामले में सोसायटी फॉर अनएडेड प्राइवेट स्कूल्स तथा इंडिपेंडेंट स्कूल्स फेडरेशन ऑफ इंडिया तथा कुछ अन्य ने चुनौती दी है कि इस कानून से राज्य के हस्तक्षेप के बिना विद्यालय संचालित करने के उन के अधिकार का उल्लंघन हुआ है। उन का यह भी कहना है कि 25 प्रतिशत विद्यार्थियों को निशुल्क प्रवेश देने से उन के संचालन के लिए आर्थिक स्रोत चुक जाएंगे। फिर भी ऐसा किया जाता है तो ऐसे विद्यालयों द्वारा जो व्यय इन 25 प्रतिशत विद्यार्थियों पर किया जाता है उस की सरकार द्वारा भरपाई की जानी चाहिए।  

देश की अधिकांश जनता का विश्वास है कि इस मामले में निर्णय गरीब विद्यार्थियों के पक्ष में होगा। निश्चय ही देश के बच्चों की शिक्षा की जिम्मेदारी वहन करना राज्य का कर्तव्य होना चाहिए। सभी विद्यालय राज्य के नियंत्रण में ही संचालित किए जाने चाहिए और विद्यालयों के स्तर में किसी तरह का कोई भेद नहीं होना चाहिए। लेकिन निजि विद्यालयों ने शिक्षा में समता को पूरी तरह नष्ट कर दिया है। जो लोग अपने बच्चों के लिए धन खर्च करने की क्षमता रखते हैं उन के लिए अच्छे और साधन संपन्न विद्यालय मुहैया कराने की छूट ने और सरकारी विद्यालयों के लगातार गिरते स्तर ने शिक्षा को एक उद्योग में बदल दिया है और इस उद्योग में निवेश कर के लोग अकूत धन संपदा एकत्र कर रहे हैं। एक निजि विद्यालय हर वर्ष अपनी संपदा में वृद्धि करते हैं। संरक्षकों की जेबें खाली कर नयी नयी इमारतें खड़ी की जाती हैं। सरकारी विद्यालयों से अधिक अच्छी शिक्षा प्रदान करने का दावा करने वाले इन विद्यालयों के कर्मचारियों को सरकारी विद्यालयों के कर्मचारियों की अपेक्षा बहुत कम वेतन दिया जाता है। उन्हें किसी तरह की सामाजिक सुरक्षा नहीं मिलती। राज्य सरकारों ने कहीं कहीं इन कर्मचारियों की सामाजिक सुरक्षा के लिए कानून बनाए भी हैं तो उन की पालना कराने वाला कोई नहीं है। 

क स्थिति यह भी है कि सरकारों के पास अच्छे विद्यालय खोले जाने के लिए पर्याप्त आर्थिक साधन नहीं हैं। ऐसे में जनता की जेबें खाली करने वाले विद्यालयों पर 25 प्रतिशत निर्धन विद्यार्थियों को निशु्ल्क शिक्षा प्रदान करने की जिम्मेदारी राज्य द्वारा सौंपी जाती है तो वह किसी प्रकार संविधान के प्रावधानों के विपरीत नहीं हो सकता। अपेक्षा की जानी चाहिए कि आज सर्वोच्च न्यायालय निर्धन विद्यार्थियों के पक्ष में अपना निर्णय. देगा।

रविवार, 5 फ़रवरी 2012

नैसर्गिक न्याय के सिद्धान्तों का अनुसरण करना ही होगा


सेना प्रमुख जनरल वी.के. सिंह की जन्मतिथि से सम्बन्धित विवाद पर सर्वोच्च न्यायालय अंतिम रूप से क्या निर्णय देता है, यह अभी भविष्य के गर्भ में है। उस से पूर्व 30 दिसंबर को रक्षा मंत्रालय ने एक आदेश जारी कर जनरल की उस याचिका को निरस्त कर दिया जिस में उन की जन्मतिथि को सेना के रिकार्ड में 10 मई 1950 के स्थान पर 10 मई 1951 दर्ज करने का निवेदन किया गया था। सेना के रिकार्ड में उन की दोनों तिथियाँ उन की जन्मतिथि के रूप में दर्ज हैं। उन की जितनी भी पदोन्नतियाँ हुई हैं उन पर विचार करते समय उन की जन्मतिथि 10 मई 1951 ही मानी गई थी। पिछले शुक्रवार को जनरल की याचिका पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने अटार्नी जनरल से पूछा कि क्या सरकार अपने 30 दिसंबर के निर्णय को वापस लेना चाहेगी? क्यों कि वह नैसर्गिक न्याय सिद्धान्तों के विपरीत प्रतीत होता है। अटार्नी जनरल ने इस पर सर्वोच्च न्यायालय को कहा कि वे इस संबंध में सरकार से निर्देश प्राप्त करेंगे। सर्वोच्च न्यायालय के इस कथन से स्पष्ट है कि सेना प्रमुख की शिकायत पर निर्णय करने के पूर्व सुनवाई का अवसर प्रदान नहीं किया गया।  
किसी भी कर्मचारी या अधिकारी की शिकायत पर आदेश करने के पूर्व उसे सुनवाई का अवसर प्रदान करना, उसे अपने पक्ष के समर्थन में सबूत और तर्क प्रस्तुत करने का अवसर देना नैसर्गिक न्याय के सिद्धान्त का प्रमुख अंग है। यदि देश की सरकार सेना प्रमुख की शिकायत का निस्तारण भी प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्तों का पालन किए बिना करती है तो इस से यह संदेश जाता है कि सरकार प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का पालन करने की परवाह नहीं करती।
किसी भी व्यक्ति के विरुद्ध निर्णय करने के पूर्व उसे सुनवाई का अवसर दिया जाना महत्वपूर्ण जनतांत्रिक अधिकार है इस अधिकार की अवहेलना करना सरकार के चरित्र पर प्रश्न चिन्ह उत्पन्न करता है कि वह व्यवहार में जनतांत्रिक भी है अथवा नहीं। पिछले दिनों भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाए जाने के लिए जन-लोकपाल कानून को बनाने के लिए अन्ना टीम द्वारा किए गए जनान्दोलन पर सरकार की ओर से जोरो से यह प्रश्न उठाया गया था कि आखिर अन्ना टीम क्या है जिस की बात पर सरकार विचार करे। वे किस प्रकार से सिविल सोसायटी का प्रतिनिधित्व करते हैं। इस बात पर जोर दिया गया था कि केवल चुनाव के माध्यम से चुन कर संसद और विधानसभाओं में पहुँचने वाले लोग ही सही जन प्रतिनिधि हैं।
लेकिन चुनाव के माध्यम से चुन कर संसद, विधानसभा और अन्य निकायों में पहुँच जाने से इन जनप्रतिनिधियों को किसी भी तरह के निर्णय जनता पर या जनता की इकाई किसी एक व्यक्ति पर अपना निर्णय थोप देने का अधिकार नहीं मिल जाता है। उन के द्वारा किए गए निर्णय साम्य, न्याय के सिद्धान्तों पर खरे उतरने चाहिए। तभी यह कहा जा सकता है कि देश में चुनी हुई सरकारें जनतांत्रिक पद्धति का अनुसरण कर रही है। वर्ना स्थिति यह बनती जा रही है कि चुनाव के माध्यम से बहुमत प्राप्त सरकार बना लेने को ऐसा माने जाने लगा है जैसे सरकार को पाँच वर्ष तक देश में तानाशाही चलाने का  अधिकार मिल गया है।
म इस घटना को इस परिदृश्य में भी देख सकते हैं कि यदि सरकार सेना प्रमुख को सुनवाई का अवसर प्रदान न कर के देश के सभी नियोजकों को यह संदेश देना चाहती है कि कर्मचारियों की शिकायतों पर निर्णय के लिए उन्हें सुनवाई का अवसर देने की कोई आवश्यकता नहीं है।  नियोजक कर्मचारियों पर अपनी मनमानी चला सकते हैं। यदि ऐसा संदेश नियोजकों तक पहुँचता है तो वे तो ऐसी मनमानी करने को तैयार बैठे हैं। वैसे भी देश में न्याय व्यवस्था की स्थिति ऐसी है कि कर्मचारी के विरुद्ध यदि कोई अन्याय हो और वह न्याय प्राप्त करने के लिए न्यायपालिका का रुख पकड़े तो उस मामले को नियोजक बरसों तक लटकाने में सफल रहते हैं। नियोजक मामले को सर्वोच्च न्यायालय तक ले जाने में समर्थ हैं जब कि इस के विपरीत एक कर्मचारी में इतनी भी शक्ति नहीं कि वह सर्वोच्च न्यायालय के किसी साधारण वकील से सलाह लेने की शुल्क अदा कर सके।
स मामले की सुनवाई विधिवत सुनवाई करने के पहले ही सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार को यह संकेत दे कर सही ही किया है कि देश में सभी नियोजकों को किसी भी कर्मचारी की शिकायत पर निर्णय करने के पहले नैसर्गिक न्याय के सिद्धांतों का पालन करना होगा और उसे अपने पक्ष के समर्थन में सुनवाई का अवसर देना होगा।

मंगलवार, 15 फ़रवरी 2011

वाह! सांसद जी ........ वाह ! ...... कमाल किया आप ने ! ...... अब जरा तैयार हो जाइए!

सासंद जी,
प हर बार इलाके में वोट मांगने आए। कुछ ने आप का विश्वास किया,  कुछ को आपने जैसे-तैसे-ऐसे-वैसे पटाया। आप के पिटारे में लाखों वोट इकट्ठे होते रहे और आप संसद में जाते रहे। वहाँ गए तो आप ने संविधान की कसम ली कि आप देश की जनता की भलाई के लिए काम करेंगे। आप वहाँ गए थे, सरकार चुने जाने के लिए नफरी बढ़ाने, कानून बनाने पर अपनी मोहर लगाने, जनता की बात कहने और उस के लिए लड़ने के लिए, जनता को न्याय दिलाने के लिए। पर क्या आप का कर्तव्य यह भी नहीं बनता था क्या कि आप कानून के रखवाले भी बने रहें। आप के सामने कानून की धज्जियाँ उड़ गईं, आप उन धज्जियों को घोल कर पी गए और  बीस बरस तक सांस भी नहीं ली। इस बीच आप न जाने क्या क्या कहते रहे, लेकिन यह बात कैसे इतने दिन पची रही। आप को कभी उलटी नहीं आई?

सांसद जी,
प के लिहाज से शायद यह पुण्य का काम था कि दारू की दुकानें बंद न हों, गरीब लोग परेशान न हों, दारू के अभाव में जहरीली दारू पी कर न मरें। इसीलिए आप की जुबान पर अब तक ताला पड़ा रहा। अब आपने जुबान खोली भी है तो उस जज का नाम नहीं बता रहे हैं, जिसे वह 21 लाख रुपए दिए गए थे। आप ये भी कह रहे हैं कि आप के पास साबित करने को सबूत नहीं हैं। आप ने व्यर्थ ही इतने बरसों तक बात को छुपाए रखने की मशक्कत की, वरना उस अपराध के सब से पहले सबूत तो आप ही थे। आप! लाखों की जनता के चुने हुए प्रतिनिधि, संसद सदस्य। इस सबूत को तो आपने ही नष्ट कर दिया, इस तरह आप ने अपराध किया। फिर इतने बरसों तक आप ने इस बात को छुपा कर एक और अपराध किया। अपराधी तो आप भी हैं ही। पर यह सब करने की जरूरत आप को क्या थी? 

सांसद जी, 
हीं ऐसी बात तो नहीं कि वे सभी दारूवाले आप के मिलने वाले हों, आप को चुनाव जीतने के लिए भारी-भरकम चंदा दिया हो, आप को सांसद बनाने में बड़ी भूमिका अदा की हो। आप को अपने इन हमदर्दों पर दया आ गई हो कि दुकानें बंद हो जाएंगी तो क्या खाएंगे? जिन्दा कैसे रहेंगे? अगला चुनाव कैसे लड़ेंगे? कहीं ऐसा तो नहीं कि जज साहब और इन दारूवाले मित्रों के बीच की कड़ी आप ही हों, और इसीलिए यह बात इतने दिन इसी लिए छुपा रखी हो।

सांसद जी,
र आप यह कैसे भूल गए कि आप उसी राज्य के सांसद हैं, जिस राज्य ने इन दुकानों को बंद करने का आदेश दिया था? आप यह कैसे भूल गए कि आप के प्रान्त से  एक जज हुए थे सु्प्रीम कोर्ट में, वी.आर. कृष्णा अय्यर और वे अभी तक जीवित ही नहीं हैं सक्रिय भी हैं। फिर भी आप ने यह बात खोल दी। अब मुझे यह समझ नहीं आ रहा है कि इस बात को खोलने के पीछे आप की मंशा क्या है? या फिर आप की मजबूरी क्या है? लेकिन अब आपने बात खोल ही दी है तो भुगतना तो पड़ेगा ही। थाने में आप के खिलाफ अपराध दर्ज हो गया है। ये सवाल मैं नहीं पूछ रहा हूँ, बल्कि बता रहा हूँ कि ऐसे ही सवाल पुलिस आप से पूछने वाली है। जरा तैयार हो जाइए!