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सोमवार, 23 नवंबर 2020

तुम्हारे धर्म की क्षय ------- राहुल सांकृत्यायन

वैसे तो धर्मों में आपस में मतभेद है। एक पूरब मुँह करके पूजा करने का विधान करता है, तो दूसरा पश्चिम की ओर। एक सिर पर कुछ बाल बढ़ाना चाहता है, तो दूसरा दाढ़ी। एक मूँछ कतरने के लिए कहता है, तो दूसरा मूँछ रखने के लिए। एक जानवर का गला रेतने के लिए कहता है, तो दूसरा एक हाथ से गर्दन साफ करने को। एक कुर्ते का गला दाहिनी तरफ रखता है, तो दूसरा बाईं तरफ। एक जूठ-मीठ का कोई विचार नहीं रखता, तो दूसरे के यहाँ जाति के भी बहुत-से चूल्हे हैं। एक खुदा के सिवा दूसरे का नाम भी दुनिया में रहने नहीं देना चाहता, तो दूसरे के देवताओं की संख्या नहीं। एक गाय की रक्षा के लिए जान देने को कहता है, तो दूसरा उसकी कुर्बानी से बड़ा सबाब समझता है। 
राहुल सांकृत्यायन 


इसी तरह दुनिया के सभी मजहबों में भारी मतभेद है। ये मतभेद सिर्फ विचारों तक ही सीमित नहीं रहे, बल्कि पिछले दो हजार वर्षों का इतिहास बतला रहा है कि इन मतभेदों के कारण मजहबों ने एक-दूसरे के ऊपर जुल्म के कितने पहाड़ ढाये। यूनान और रोम के अमर कलाकारों की कृतियों का आज अभाव क्यों दीखता है? इसलिए कि वहाँ एक मजहब आया जो ऐसी मूर्तियों के अस्तित्व को अपने लिए खतरे की चीज समझता था। ईरान की जातीय कला, साहित्य और संस्कृति को नामशेष-सा क्यों हो जाना पड़ा? – क्योंकि, उसे एक ऐसे मजहब से पाला पड़ा जो इन्सानियत का नाम भी धरती से मिटा देने पर तुला हुआ था। मेक्सिको और पेरू, तुर्किस्तान और अफगानिस्तान, मिस्र और जावा – जहाँ भी देखिये, मजहबों ने अपने को कला, साहित्य, संस्कृति का दुश्मन साबित किया। और खून-खराबा? इसके लिए तो पूछिये मत। अपने-अपने खुदा और भगवान के नाम पर, अपनी-अपनी किताबों और पाखण्डों के नाम पर मनुष्य के खून को उन्होंने पानी से भी सस्ता कर दिखलाया। यदि पुराने यूनानी धर्म के नाम पर निरपराध ईसाई बच्चे बूढ़ों, स्त्री-पुरुषों को शेरों से फड़वाना, तलवार के घाट उतारना बड़े पुण्य का काम समझते थे, तो पीछे अधिकार हाथ आने पर ईसाई भी क्या उनसे पीछे रहे? ईसामसीह के नाम पर उन्होंने खुलकर तलवार का इस्तेमाल किया। जर्मनी में इन्सानियत के भीतर लोगों को लाने के लिए कत्लेआम-सा मचा दिया गया। पुराने जर्मन ओक वृक्ष की पूजा करते थे। कहीं ऐसा न हो कि ये ओक ही उन्हें फिर पथभ्रष्ट कर दें, इसके लिए बस्तियों के आसपास एक भी ओक को रहने न दिया गया। पोप और पेत्रयार्क, इंजील और ईसा के नाम पर प्रतिभाशाली व्यक्तियों के विचार-स्वातन्‍त्रय को आग और लोहे के जरिये से दबाते रहे। जरा से विचार-भेद के लिए कितनों को चर्खी से दबाया गया – कितनों को जीते जी आग में जलाया गया। हिन्दुस्तान की भूमि ऐसी धार्मिक मतान्धता का कम शिकार नहीं रही है। इस्लाम के आने से पहले भी क्या मजहब ने मन्त्र के बोलने और सुनने वालों के मुँह और कानों में पिघले राँगे और लाख को नहीं भरा? शंकराचार्य ऐसे आदमी – जो कि सारी शक्ति लगा गला फाड़-फाड़कर यही चिल्लाते रहे थे कि सभी ब्रह्म हैं, ब्रह्म से भिन्न सभी चीजें झूठी हैं तथा रामानुज और दूसरों के भी दर्शन जबानी जमा-खर्च से आगे नहीं बढ़े, बल्कि सारी शक्ति लगाकर शूद्रों और दलितों को नीचे दबा रखने में उन्होंने कोई कोर-कसर उठा नहीं रक्खी और इस्लाम के आने के बाद तो हिन्दू-धर्म और इस्लाम के खूँरेज झगड़े आज तक चल रहे हैं। उन्होंने तो हमारे देश को अब तक नरक बना रखा है। कहने के लिए इस्लाम शक्ति और विश्व-बन्धुत्व का धर्म कहलाता है; हिन्दू-धर्म ब्रह्मज्ञान और सहिष्णुता का धर्म बतलाया जाता है; किन्तु क्या इन दोनों धर्मों ने अपने इस दावे को कार्यरूप में परिणत करके दिखलाया? हिन्दू मुसलमानों पर दोष लगाते हैं कि ये बेगुनाहों का खून करते हैं; हमारे मन्दिरों और पवित्र तीर्थों को भ्रष्ट करते हैं; हमारी स्त्रियों को भगा ले जाते हैं। लेकिन, झगड़े में क्या हिन्दू बेगुनाहों का खून करने से बाज आते हैं। चाहे आप कानपुर के हिन्दू-मुस्लिम झगड़े को ले लीजिये या बनारस के, इलाहाबाद के या आगरे के; सब जगह देखेंगे कि हिन्दुओं और मुसलमानों के छुरे और लाठियों के शिकार हुए हैं – निरपराध, अजनबी स्त्री-पुरुष, बूढ़े-बच्चे। गाँव या दूसरे मुहल्ले का कोई अभागा आदमी अनजाने उस रास्ते आ गुजरा और कोई पीछे से छुरा भोंक कर चम्पत हो गया। सभी धर्म दया का दावा करते हैं, लेकिन हिन्दुस्तान के इस धार्मिक झगड़ों को देखिये, तो आपको मालूम होगा कि यहाँ मनुष्यता पनाह माँग रही है। निहत्थे बूढ़े और बूढ़ियाँ ही नहीं, छोटे-छोटे बच्चे तक मार डाले जाते हैं। अपने धर्म के दुश्मनों को जलती आग में फेंकने की बात अब भी देखी जाती है। 

एक देश और एक खून मनुष्य को भाई-भाई बनाते हैं। खून का नाता तोड़ना अस्वाभाविक है, लेकिन हम हिन्दुस्तान में क्या देखते हैं? हिन्दुओं की सभी जातियों में, चाहे आरम्भ में कुछ भी क्यों न रहा हो अब तो एक ही खून दौड़ रहा है; क्या शकल देखकर किसी के बारे में आप बतला सकते हैं कि यह ब्राह्मण है और यह शूद्र। कोयले से भी काले ब्राह्मण आपको लाखों की तादात में मिलेंगे। और शूद्रों में भी गेहुएँ रंग वालों का अभाव नहीं है। पास-पास में रहने वाले स्त्री-पुरुषों के यौन-सम्बन्ध, जाति की ओर से हजार रुकावट होने पर भी, हम आये दिन देखते हैं। कितने ही धनी खानदानों, राजवंशों के बारे में तो लोग साफ कहते हैं कि दास का लड़का राजा और दासी का लड़का राजपुत्र। इतना होने पर भी हिन्दू-धर्म लोगों को हजारों जातियों में बाँटे हुए हैं। कितने ही हिन्दू, हिन्दू के नाम पर जातीय एकता स्थापित करना चाहते हैं। किन्तु, वह हिन्दू जातीयता है कहाँ? हिन्दू जाति तो एक काल्पनिक शब्द है। वस्तुतः वहाँ हैं ब्राह्मण – ब्राह्मण भी नहीं, शाकद्वीपी, सनाढ्य, जुझौतिया – राजपूत, खत्री, भूमिहार, कायस्थ, चमार आदि-आदि—। एक राजपूत का खाना-पीना, ब्याह-श्राद्ध अपनी जाति तक सीमित रहता है। उसकी सामाजिक दुनिया अपनी जाति तक महमूद है। इसीलिए जब एक राजपूत बड़े पद पर पहुँचता है, तो नौकरी दिलाने, सिफारिश करने या दूसरे तौर से सबसे पहले अपनी जाति के आदमी को फायदा पहुँचाना चाहता है। यह स्वाभाविक है। जब कि चौबीसों घण्टे मरने-जीने सबमें सम्बन्ध रखने वाले अपने बिरादरी के लोग हैं, तो किसी की दृष्टि दूर तक कैसे जायेगी? 

कहने के लिए तो हिन्दुओं पर ताना कसते हुए इस्लाम कहता है कि हमने जात-पाँत के बन्धनों को तोड़ दिया। इस्लाम में आते ही सब भाई-भाई हो जाते हैं। लेकिन क्या यह बात सच है? यदि ऐसा होता तो आज मोमिन (जुलाहा), अप्सार (धुनिया), राइन (कुँजड़ा) आदि का सवाल न उठता। अर्जल और अशरफ का शब्द किसी के मुँह पर न आता। सैयद-शेख, मलिक-पठान, उसी तरह का खयाल अपने से छोटी जातियों से रखते हैं, जैसा कि हिन्दुओं के बड़ी जात वाले। खाने के बारे में छूतछात कम है और वह तो अब हिन्दुओं में भी कम होता जा रहा है। लेकिन सवाल तो है – सांस्कृतिक और आर्थिक क्षेत्र में इस्लाम की बड़ी जातों ने छोटी जातों को क्या आगे बढ़ने का कभी मौका दिया? धार्मिक नेता हों, तो बड़ी-बड़ी जातों से शाही दरबार और सरकारी नौकरियाँ सभी जगहें बड़ी जातों के लिए सुरक्षित रहीं। जमींदार, ताल्लुकेदार, नवाब सभी बड़ी जातों के हैं। हिन्दुस्तानियों में से चार-पाँच करोड़ आदमियों ने हिन्दुओं के सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक अत्याचारों से त्रण पाने के लिए इस्लाम की शरण ली। लेकिन, इस्लाम की बड़ी जातों ने क्या उन्हें वहाँ पनपने दिया? सात सौ बरस बाद भी आज गाँव का मोमिन जमींदारों और बड़ी जातों के जुल्म का वैसा ही शिकार है, जैसा कि उसका पड़ोसी कानू-कुर्मी। हिन्दुओं से झगड़कर अंग्रेजों की खुशामद करके कौन्सिलों की सीटों, सरकारी नौकरियों में अपने लिए संख्या सुरक्षित करायी जाती है। लेकिन जब उस संख्या को अपने भीतर वितरण करने का अवसर आता है, तब उनमें से प्रायः सभी को बड़ी जाति वाले सैयद और शेख अपने हाथ में ले लेते हैं। साठ-साठ, सत्तर-सत्तर फीसदी संख्या रखने वाले मोमिन और अन्सार मुँह ताकते रह जाते हैं। बहाना किया जाता है कि उनमें उतनी शिक्षा नहीं। लेकिन सात सौ और हजार बरस बाद भी यदि वे शिक्षा में इतने पिछड़े हुए हैं, तो इसका दोष किसके ऊपर है? उन्हें कब शिक्षित होने का अवसर दिया गया? जब पढ़ाने का अवसर आया, छात्रवृत्ति देने का मौका आया, तब तो ध्यान अपने भाई-बन्धुओं की तरफ चला गया। मोमिन और अन्सार, बावर्ची और चपरासी, खिदमतगार और हुक्काबरदार के काम के लिए बने हैं। उनमें से कोई यदि शिक्षित हो भी जाता है, तो उसकी सिफारिश के लिए अपनी जाति में तो वैसा प्रभावशाली व्यक्ति है नहीं; और, बाहर वाले अपने भाई-बन्धु को छोड़कर उन पर तरजीह क्यों देने लगे? नौकरियों और पदों के लिए इतनी दौड़धूप, इतनी जद्दोजहद सिर्फ खिदमते-कौम और देश सेवा के लिए नहीं है, यह है रुपयों के लिए, इज्जत और आराम की जिन्दगी बसर करने के लिए। 

हिन्दू और मुसलमान फरक-फरक धर्म रखने के कारण क्या उनकी अलग जाति हो सकती है? जिनकी नसों में उन्हीं पूर्वजों का खून बह रहा है जो इसी देश में पैदा हुए और पले, फिर दाढ़ी और चुटिया, पूरब और पश्चिम की नमाज क्या उन्हें अलग कौम साबित कर सकती है? क्या खून पानी से गाढ़ा नहीं होता? फिर हिन्दू और मुसलमान के फरक से बनी इन अलग-अलग जातियों को हिन्दुस्तान से बाहर कौन स्वीकार करता है? जापान में जाइये या जर्मनी, ईरान जाइये या तुर्की सभी जगह हमें हिन्दी और ‘इण्डियन’ कहकर पुकारा जाता है। जो धर्मभाई को बेगाना बनाता है, ऐसे धर्म को धिक्कार! जो मजहब अपने नाम पर भाई का खून करने के लिए प्रेरित करता है, उस मजहब पर लानत! जब आदमी चुटिया काट दाढ़ी बढ़ाने भर से मुसलमान और दाढ़ी मुड़ा चुटिया रखने मात्र से हिन्दू मालूम होने लगता है, तो इसका मतलब साफ है कि यह भेद सिर्फ बाहरी और बनावटी है। एक चीनी चाहे बौद्ध हो या मुसलमान, ईसाई हो या कनफूसी, लेकिन उसकी जाति चीनी रहती है; एक जापानी चाहे बौद्ध हो या शिन्तो-धर्मी, लेकिन उसकी जाति जापानी रहती है; एक ईरानी चाहे वह मुसलमान हो या जरतुस्त, किन्तु वह अपने लिए ईरानी छोड़ दूसरा नाम स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं। तो हम-हिन्दियों के मजहब को टुकड़े-टुकड़े में बाँटने को क्यों तैयार हैं और इस नाजायज हरकतों को हम क्यों बर्दाश्त करें? 

धर्मों की जड़ में कुल्हाड़ा लग गया है; और, इसलिए अब मजहबों के मेलमिलाप की बातें कभी-कभी सुनने में आती हैं। लेकिन, क्या यह सम्भव है? “मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना” – इस सफेद झूठ का क्या ठिकाना अगर मज़हब बैर नहीं सिखाता तो चोटी-दाढ़ी की लड़ाई में हजार बरस से आज तक हमारा मुल्क पामाल क्यों है? पुराने इतिहास को छोड़ दीजिये, आज भी हिन्दुस्तान के शहरों और गाँवों में एक मजहब वालों को दूसरे मजहब वालों के खून का प्यासा कौन बना रहा है? कौन गाय खाने वालों को लड़ा रहा है। असल बात यह है – “मजहब तो है सिखाता आपस में बैर रखना। भाई को है सिखाता भाई का खून पीना।” हिन्दुस्तानियों की एकता मजहबों के मेल पर नहीं होगी, बल्कि मजहबों की चिता पर। कौए को धोकर हंस नहीं बनाया जा सकता। कमली धोकर रंग नहीं चढ़ाया जा सकता। मजहबों की बीमारी स्वाभाविक है। उसका, मौत को छोड़कर इलाज नहीं। 

एक तरफ तो वे मजहब एक-दूसरे के इतने जबर्दस्त खून के प्यासे हैं। उनमें से हर एक एक-दूसरे के खिलाफ शिक्षा देता है। कपड़े-लत्ते, खाने-पीने, बोली-बानी, रीति-रिवाज में हर एक एक-दूसरे से उल्टा रास्ता लेता है। लेकिन, जहाँ गरीबों को चूसने और धनियों की स्वार्थ-रक्षा का प्रश्न आ जाता है; तो दोनों बोलते हैं। गदहा-गाँव के महाराज बेवकूफ बख्श सिंह सात पुश्त से पहले दर्जे के बेवकूफ चले आते हैं। आज उनके पास पचास लाख सालाना आमदनी की जमींदारी है जिसको प्राप्त करने में न उन्होंने एक धेला अकल खर्च की और न अपनी बुद्धि के बल पर उसे छै दिन चला ही सकते हैं। न वे अपनी मेहनत से धरती से एक छटाँक चावल पैदा कर सकते हैं, न एक कंकड़ी गुड़। महाराज बेवकूफ बख्श सिंह को यदि चावल, गेहूँ, घी, लकड़ी के ढेर के साथ एक जंगल में अकेले छोड़ दिया जाये, तो भी उनमें न इतनी बुद्धि है और न उन्हें काम का ढंग मालूम है कि अपना पेट भी पाल सकें; सात दिन में बिल्ला-बिल्ला कर जरूर वे वहीं मर जायेंगे। लेकिन आज गदहा गाँव में महाराज दस हजार रुपया महीना तो मोटर के तेल में फूँक डालते हैं। बीस-बीस हजार रुपये जोड़े कुत्ते उनके पास हैं। दो लाख रुपये लगाकर उनके लिए महल बना हुआ है। उन पर अलग डाक्टर और नौकर हैं। गर्मियों में उनके घरों में बरफ के टुकड़े और बिजली के पंखे लगते हैं। महाराज के भोजन-छाजन की तो बात ही क्या? उनके नौकरों के लिए नौकर भी घी-दूध में नहाते हैं, और जिस रुपये को इस प्रकार पानी की तरह बहाया जाता है, वह आता कहाँ से है? उसके पैदा करने वाले कैसी जिन्दगी बिताते हैं? – वे दाने-दाने को मुहताज हैं। उनके लड़कों को महाराज बेवकूफ बख्श के कुत्तों का जूठा भी यदि मिल जाये, तो वे अपने को धन्य समझें। 

लेकिन, यदि किसी धर्मानुयायी से पूछा जाये, कि ऐसे बेवकूफ आदमी को बिना हाथ-पैर हिलाये दूसरे की कसाले की कमाई को पागल की तरह फेंकने का क्या अधिकार है तो पण्डित जी कहेंगे – “अरे वे तो पूर्व की कमाई खा रहे हैं। भगवान की ओर से वे बड़े बनाये गये हैं। शास्त्र-वेद कहते हैं कि बड़े-छोटे के बनाने वाले भगवान हैं। गरीब दाने-दाने को मारा-मारा फिरता है, यह भगवान की ओर से उसको दण्ड मिला है।” यदि किसी मौलवी या पादरी से पूछिये तो जवाब मिलेगा – “क्‍या तुम काफिर हो, नास्तिक तो नहीं हो? अमीर-गरीब दुनिया का कारबार चलाने के लिए खुदा ने बनाये हैं। राजी-ब-रजा खुदा की मर्जी में इन्सान का दखल देने का क्या हक? गरीबी को न्यामत समझो। उसकी बन्दगी और फरमाबरदारी बजा लाओ, कयामत में तुम्हें इसकी मजदूरी मिलेगी।” पूछा जाय – जब बिना मेहनत ही के महाराज बेवकूफ बख्श सिंह धरती पर ही स्वर्ग आनन्द भोग रहे हैं तो ऐसे ‘अन्धेर नगरी चौपट राजा’ के दरबार में बन्दगी और फरमाबरदारी से कुछ होने-हवाने की क्या उम्मीद? 

उल्लू शहर के नवाब नामाकूल खाँ भी बड़े पुराने रईस हैं। उनकी भी जमींदारी है और ऐशो-आराम में बेवकूफ बख्श सिंह से कम नहीं हैं। उनके पाखाने की दीवारों में अतर चुपड़ा जाता है और गुलाब-जल से उसे धोया जाता है। सुन्दरियों और हुस्न की परियों को फँसा लाने के लिए उनके सैंकड़ों आदमी देश-विदेशों में घूमा करते हैं। यह परियाँ एक ही दीदार में उनके लिए बासी हो जाती हैं। पचासों हकीम, डाक्टर और वैद्य उनके लिए जौहर, कुश्ता और रसायन तैयार करते रहते हैं। दो-दो साल की पुरानी शराबें पेरिस और लन्दन के तहखानों से बड़ी-बड़ी कीमत पर मँगाकर रक्खी जाती हैं। नवाब बहादुर का तलवा इतना लाल और मुलायम है जितनी इन्द्र की परियों की जीभ भी न होगी। इनकी पाशविक काम-वासना की तृप्ति में बाधा डालने के लिए कितने ही पति तलवार के घाट उतारे जाते हैं, कितने ही पिता झूठे मुकदमों में फँसा कर कैदखाने में सड़ाये जाते हैं। साठ लाख सालाना आमदनी भी उनके लिए काफी नहीं है। हर साल दस-पाँच लाख रुपया और कर्ज हो जाता है। आपको G.C.S.I., G.C.I.E., फर्जिन्द-खास फिरंग – आदि बड़ी-बड़ी उपाधियाँ सरकार की ओर से मिली हैं। वायसराय के दरबार में सबसे पहले कुर्सी इनकी होती है और उनके स्वागत में व्याख्यान देने और अभिनन्दन-पत्र पढ़ने का काम हमेशा उल्लू शहर के नवाब बहादुर और गदहा-गाँव के महाराजा बहादुर को मिलता है। छोटे और बड़े दोनों लाट इन दोनों रईसुल उमरा की बुद्धिमानी, प्रबन्ध की योग्यता और रियाया-परवरी की तारीफ करते नहीं अघाते। 

नवाब बहादुर की अमीरी को खुदा की बरकत और कर्म का फल कहने में पण्डित और मौलवी, पुरोहित और पादरी सभी एक राय हैं। रात-दिन आपस में तथा अपने अनुयायियों में खून-खराबी का बाजार गर्म रखने वाले, अल्लाह और भगवान यहाँ बिलकुल एक मत रखते हैं। वेद और कुरान, इंजील और बायबिल की इस बारे में सिर्फ एक शिक्षा है। खून-चूसने वाली इन जोंकों के स्वार्थ की रक्षा ही मानो इन धर्मों का कर्तव्य हो। और मरने के बाद भी बहिश्त और स्वर्ग के सबसे अच्छे महल, सबसे सुन्दर बगीचे, सबसे बड़ी आँखों वाली हूरें और अप्सराएँ, सबसे अच्छी शराब और शहद की नहरें उल्लू शहर के नवाब बहादुर तथा गदहा-गाँव के महाराज और उनके भाई-बन्धुओं के लिए रिजर्व हैं, क्योंकि उन्होंने दो-चार मस्जिदें दो-चार शिवाले बना दिये हैं; कुछ साधु-फकीर और ब्राह्मण-मुजावर रोजाना उनके यहाँ हलवा-पूड़ी, कबाब-पुलाव उड़ाया करते हैं। 

गरीबों की गरीबी और दरिद्रता के जीवन का कोई बदला नहीं। हाँ, यदि वे हर एकादशी के उपवास, हर रमजान के रोजे तथा सभी तीरथ-व्रत, हज और जियारत बिना नागा और बिना बेपरवाही से करते रहे, अपने पेट को काटकर यदि पण्डे-मुजावरों का पेट भरते रहे, तो उन्हें भी स्वर्ग और बहिश्त के किसी कोने की कोठरी तथा बची-खुची हूर-अप्सरा मिल जायेगी। गरीबों को बस इसी स्वर्ग की उम्मीद पर अपनी जिन्दगी काटनी है। किन्तु जिस सरग-बहिश्त की आशा पर जिन्दगी भर के दुःख के पहाड़ों को ढोना है, उस सरग-बहिश्त का अस्तित्व ही आज बीसवीं सदी के इस भूगोल में कहीं नहीं है। पहले जमीन चपटी थी। सरग इसके उत्तर के उन सात पहाड़ों और सात-समुद्रों के पार था। आज तो न उस चपटी जमीन का पता है और न उत्तर के उन सात पहाड़ों और सात समुद्रों का। जिस सुमेरु के ऊपर इन्द्र की अमरावती क्षीरसागर के भीतर शेषशायी भगवान थे, वह अब सिर्फ लड़कों के दिल बहलाने की कहानियाँ मात्र हैं। ईसाइयों और मुसलमानों के बहिश्त के लिए भी उसी समय के भूगोल में स्थान था। आजकल के भूगोल ने तो उनकी जड़ ही काट दी है। फिर उस आशा पर लोगों को भूखों रखना क्या भारी धोखा नहीं है। 

शुक्रवार, 23 नवंबर 2018

समाजवाद और धर्म - व्लादिमीर इल्चीच लेनिन

व्लादिमीर इल्यीच लेनिन ने 2005 में कम्युनिस्ट पार्टी और धर्म के बारे में एक छोटा आलेख लिखा था जो नोवाया झिज्न के अंक 28 में 3 दिसंबर, 1905 को प्रकाशित हुआ था। यह धर्म के बारे में कम्युनिस्ट पार्टी की नीति क्या होनी चाहिए इसे स्पष्ट करता है और एक महत्वपूर्ण आलेख है। 

र्तमान समाज पूर्ण रूप से जनसंख्या की एक अत्यंत नगण्य अल्पसंख्यक द्वारा, भूस्वामियों और पूँजीपतियों द्वारा, मज़दूर वर्ग के व्यापक अवाम के शोषण पर आधारित है। यह एक ग़ुलाम समाज है, क्योंकि "स्वतंत्र" मज़दूर जो जीवन भर पूँजीपजियों के लिए काम करते हैं, जीवन-यापन के केवल ऐसे साधनों के "अधिकारी" हैं जो मुनाफ़ा पैदा करने वाले ग़ुलामों को जीवित रखने के लिए, पूँजीवादी ग़ुलामी को सुरक्षित और क़ायम रखने के लिए बहुत ज़रूरी हैं।

मज़दूरों का आर्थिक उत्पीड़न अनिवार्यतः हर प्रकार के राजनीतिक उत्पीड़न और सामाजिक अपमान को जन्म देता है तथा आम जनता के आत्मिक और नैतिक जीवन को निम्न श्रेणी का और अन्धकारपूर्ण बनाना आवश्यक बना देता है। मज़दूर अपनी आर्थिक मुक्ति के संघर्ष के लिए न्यूनाधिक राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त कर सकते हैं, लेकिन जब तक पूँजी की सत्ता का उन्मूलन नहीं कर दिया जाता तब तक स्वतंत्रता की कोई भी मात्रा उन्हें दैन्य, बेकारी और उत्पीड़न से मुक्त नहीं कर सकती। धर्म बौद्धिक शोषण का एक रूप है जो हर जगह अवाम पर, जो दूसरों के लिए निरन्तर काम करने, अभाव और एकांतिकता से पहले से ही संत्रस्त रहते हैं, और भी बड़ा बोझ डाल देता है। शोषकों के विरुद्ध संघर्ष में शोषित वर्गों की निष्क्रियता मृत्यु के बाद अधिक सुखद जीवन में उनके विश्वास को अनिवार्य रूप से उसी प्रकार बल पहुँचाती है जिस प्रकार प्रकृति से संघर्ष में असभ्य जातियों की लाचारी देव, दानव, चमत्कार और ऐसी ही अन्य चीजों में विश्वास को जन्म देती है। जो लोग जीवन भर मशक्कत करते और अभावों में जीवन व्यतीत करते हैं, उन्हें धर्म इहलौकिक जीवन में विनम्र होने और धैर्य रखने की तथा परलोक सुख की आशा से सान्त्चना प्राप्त करने की शिक्षा देता है। लेकिन जो लोग दूसरों के श्रम पर जीवित रहते हैं उन्हें धर्म इहजीवन में दयालुता का व्यवहार करने की शिक्षा देता है, इस प्रकार उन्हें शोषक के रूप में अपने संपूर्ण अस्तित्व का औचित्य सिद्ध करने का एक सस्ता नुस्ख़ा बता देता है और स्वर्ग में सुख का टिकट सस्ते दामों दे देता है। धर्म जनता के लिए अफीम है। धर्म एक प्रकार की आत्मिक शराब है जिसमें पूँजी के ग़ुलाम अपनी मानव प्रतिमा को, अपने थोड़े बहुत मानवोचित जीवन की माँग को, डुबा देते हैं।

लेकिन वह ग़ुलाम जो अपनी ग़ुलामी के प्रति सचेत हो चुका है और अपनी मुक्ति के लिए संघर्ष में उठ खड़ा हुआ है, उसकी ग़ुलामी आधी उसी समय समाप्त हो चुकी होती है। आधुनिक वर्ग चेतन मजदूर, जो बड़े पैमाने के कारखाना-उद्योग द्वारा शिक्षित और शहरी जीवन के द्वारा प्रबुद्ध हो जाता है, नफरत के साथ धार्मिक पूर्वाग्रहों को त्याग देता है और स्वर्ग की चिन्ता पादरियों और पूँजीवादी धर्मांधों के लिए छोड़ कर अपने लिए इस धरती पर ही एक बेहतर जीवन प्राप्त करने का प्रयत्न करता है। आज का सर्वहारा समाजवाद का पक्ष ग्रहण करता है जो धर्म के कोहरे के ख़िलाफ संघर्ष में विज्ञान का सहारा लेता है और मज़दूरों को इसी धरती पर बेहतर जीवन के लिए वर्तमान में संघर्ष के लिए एकजुट कर उन्हें मृत्यु के बाद के जीवन के विश्वास से मुक्ति दिलाता है।

धर्म को एक व्यक्तिगत मामला घोषित कर दिया जाना चाहिए। समाजवादी अक्सर धर्म के प्रति अपने दृष्टिकोण को इन्हीं शब्दों में व्यक्त करते हैं। लेकिन किसी भी प्रकार की ग़लतफहमी न हो, इसलिए इन शब्दों के अर्थ की बिल्कुल ठीक व्याख्या होनी चाहिए। हम माँग करते हैं कि जहाँ तक राज्य का सम्बन्ध है, धर्म को व्यक्तिगत मामला मानना चाहिए। लेकिन जहाँ तक हमारी पार्टी का सवाल है, हम किसी भी प्रकार धर्म को व्यक्तिगत मामला नहीं मानते। धर्म से राज्य का कोई सम्बन्ध नहीं होना चाहिए और धार्मिक सोसायटियों का सरकार की सत्ता से किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीं रहना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति को यह पूर्ण स्वतन्त्रता होनी चाहिए कि वह जिसे चाहे उस धर्म को माने, या चाहे तो कोई भी धर्म न माने, अर्थात नास्तिक हो, जो नियमतः हर समाजवादी समाज होता है। नागरिकों में धार्मिक विश्वास के आधार पर भेदभाव करना पूर्णतः असहनीय है। आधिकारिक काग़ज़ात में किसी नागरिक के धर्म का उल्लेख भी, निस्सन्देह, समाप्त कर दिया जाना चाहिए। स्थापित चर्च को न तो कोई सहायता मिलनी चाहिए और न पादरियों को अथवा धार्मिक सोसायटियों को राज्य की ओर से किसी प्रकार की रियायत देनी चाहिए। इन्हें सम-विचार वाले नागरिकों की पूर्ण स्वतन्त्र संस्थाएँ बन जाना चाहिए, ऐसी संस्थाएँ जो राज्य से पूरी तरह स्वतंत्र हों। इन माँगों को पूरा किये जाने से वह शर्मनाक और अभिशप्त अतीत समाप्त हो सकता है जब चर्च राज्य की सामन्ती निर्भरता पर, और रूसी नागरिक स्थापित चर्च की सामन्ती निर्भरता पर जीवित था, जब मध्यकालीन, धर्म-न्यायालयीय क़ानून (जो आज तक हमारी दंडविधि संहिताओं और क़ानूनी किताबों में बने हुए हैं) अस्तित्व में थे और लागू किये जाते थे, जो आस्था अथवा अनास्था के आधार पर मनुष्यों को दण्डित करते, मनुष्य की अन्तरात्मा का हनन किया करते थे, और आरामदेह सरकारी नौकरियों तथा सरकार द्वारा प्राप्त आमदनियों को स्थापित चर्च के इस या उस धर्म विधान से सम्बद्ध किया करते थे। समाजवादी सर्वहारा आधुनिक राज्य और आधुनिक चर्च से जिस चीज़ की माँग करता है, वह है-राज्य से चर्च का पूर्ण पृथक्करण।

रूसी क्रांति को यह माँग राजनीतिक स्वतन्त्रता के एक आवश्यक घटक के रूप में पूरी करनी चाहिए। इस मामले में रूसी क्रान्ति के समक्ष एक विशेष रूप से अनुकूल स्थिति है, क्योंकि पुलिस-शासित सामन्ती एकतन्त्र की घृणित नौकरशाही से पादरियों में भी असन्तोष, अशान्ति और घृणा उत्पन्न हो गयी है। रूसी ऑर्थोडाक्स चर्च के पादरी कितने भी अधम और अज्ञानी क्यों न हों, रूस में पुरानी, मध्यकालीन व्यवस्था के पतन के वज्रपात से वे भी जागृत हो गये हैं, वे भी स्वतन्त्रता की माँग में शामिल हो रहे हैं। नौकरशाही व्यवहार और अफ़सरवाद के, पुलिस के लिए जासूसी करने के ख़िलाफ़- जो "प्रभु के सेवकों" पर लाद दी गयी है - विरोध प्रकट कर रहे हैं। हम समाजवादियों को चाहिए कि इस आन्दोलन को अपना समर्थन दें। हमें पुरोहित वर्ग के ईमानदार सदस्यों की माँगों को उनकी परिपूर्णता तक पहुँचाना चाहिए और स्वतन्त्रता के बारे में उनकी प्रतिज्ञाओं के प्रति उन्हें दृढ़ निश्चयी बनाते हुए यह माँग करनी चाहिए कि वे धर्म और पुलिस के बीच विद्यमान सारे सम्बन्धों को दृढ़तापूर्वक समाप्त कर दें। या तो तुम सच्चे हो, और इस हालत में तुम्हें चर्च और राज्य तथा स्कूल और चर्च के पूर्ण पृथक्करण का, धर्म के पूर्ण रूप से और सर्वथा व्यक्तिगत मामला घोषित किये जाने का पक्ष ग्रहण करना चाहिए। या फिर तुम स्वतन्त्रता के लिए इन सुसंगत माँगों को स्वीकार नहीं करते, और इस हालत में तुम स्पष्टतः अभी तक आरामदेह सरकारी नौकरियों और सरकार से प्राप्त आमदनियों से चिपके हुए हो। इस हालत में तुम स्पष्टतः अपने शस्त्रों की आध्यात्मिक शक्ति में विश्वास नहीं करते, और राज्य की घूस प्राप्त करते रहना चाहते हो। ऐसी हालत में समस्त रूस के वर्ग चेतन मज़दूर तुम्हारे ख़िलाफ़ निर्मम युद्ध की घोषणा करते हैं।

जहाँ तक समाजवादी सर्वहारा की पार्टी का प्रश्न है, धर्म एक व्यक्तिगत मामला नहीं है। हमारी पार्टी मज़दूर वर्ग की मुक्ति के लिए संघर्ष करने वाले अग्रणी योद्धाओं की संस्था है। ऐसी संस्था धार्मिक विश्वासों के रूप में वर्ग चेतना के अभाव, अज्ञान अथवा रूढ़िवाद के प्रति न तो तटस्थ रह सकती है, न उसे रहना चाहिए। हम चर्च के पूर्ण विघटन की मांग करते हैं ताकि धार्मिक कोहरे के ख़िलाफ़ हम शुद्ध सैद्धान्तिक और वैचारिक अस्त्रों से, अपने समाचारपत्रों और भाषणों के साधनों से संघर्ष कर सकें। लेकिन हमने अपनी संस्था, रूसी सामाजिक जनवादी मज़दूर पार्टी की स्थापना ठीक ऐसे ही संघर्ष के लिए, मज़दूरों के हर प्रकार के धार्मिक शोषण के विरुद्ध संघर्ष के लिए की है। और हमारे लिए वैचारिक संघर्ष केवल एक व्यक्तिगत मामला नहीं है, सारी पार्टी का, समस्त सर्वहारा का, मामला है। यदि बात ऐसी ही है, तो हम अपने कार्यक्रम में यह घोषणा क्यों नहीं करते कि हम अनीश्वरवादी हैं? हम अपनी पार्टी में ईसाइयों अथवा ईश्वर में आस्था रखने वाले अन्य धर्मावलम्बियों के शामिल होने पर क्यों नहीं रोक लगा देते?

इस प्रश्न का उत्तर ही उन अति महत्वपूर्ण अन्तरों को स्पष्ट करेगा जो बुर्जुआ डेमोक्रेटों और सोशल डेमोक्रेटों द्वारा धर्म का प्रश्न उठाने के तरीक़ों में विद्यमान हैं।

हमारा कार्यक्रम पूर्णतः वैज्ञानिक, और इसके अतिरिक्त भौतिकवादी विश्व दृष्टिकोण पर आधारित है। इसलिए हमारे कार्यक्रम की व्याख्या में धार्मिक कुहासे के सच्चे ऐतिहासिक और आर्थिक स्रोतों की व्याख्या भी आवश्यक रूप से शामिल है। हमारे प्रचार कार्य में आवश्यक रूप से अनीश्वरवाद का प्रचार भी शामिल होना चाहिए; उपयुक्त वैज्ञानिक साहित्य का प्रकाशन भी, जिस पर एकतन्त्रीय सामन्ती शासन ने अब तक कठोर प्रतिबन्ध लगा रखा था और जिसे प्रकाशित करने पर दण्ड दिया जाता था, अब हमारी पार्टी के कार्य का एक क्षेत्र बन जाना चाहिए। अब हमें सम्भवतः एंगेल्स की उस सलाह का अनुसरण करना होगा जो उन्होंने एक बार जर्मन समाजवादियों को दी थी-अर्थात हमें फ़्रांस के अठारहवीं शताब्दी के प्रबोधकों और अनीश्वरवादियों के साहित्य का अनुवाद करना और उसका व्यापक प्रचार करना चाहिए।

लेकिन हमें किसी भी हालत में धार्मिक प्रश्न को अरूप, आदर्शवादी ढंग से, वर्ग संघर्ष से असम्बद्ध एक "बौद्धिक" प्रश्न के रूप में उठाने की ग़लती का शिकार नहीं बनना चाहिए, जैसा कि बुर्जुआ वर्ग के बीच उग्रवादी जनवादी कभी-कभी किया करते हैं। यह सोचना मूर्खता होगी कि मज़दूर अवाम के सीमाहीन शोषण और संस्कारहीनता पर आधारित समाज में धार्मिक पूर्वाग्रहों को केवल प्रचारात्मक साधनों से ही समाप्त किया जा सकता है। इस बात को भुला देना कि मानव जाति पर लदा धर्म का जुवा समाज के अन्तर्गत आर्थिक जुवे का ही प्रतिबिम्ब और परिणाम है, बुर्जुआ संकीर्णता ही होगी। सर्वहारा यदि पूँजीवाद की काली शक्तियों के विरुद्ध स्वयं अपने संघर्ष से प्रबुद्ध नहीं होगा तो पुस्तिकाओं और शिक्षाओं की कोई भी मात्रा उन्हें प्रबुद्ध नहीं बना सकती। हमारी दृष्टि में, धरती पर स्वर्ग बनाने के लिए उत्पीड़ित वर्ग के इस वास्तविक क्रान्तिकारी संघर्ष में एकता परलोक के स्वर्ग के बारे में सर्वहारा दृष्टिकोण की एकता से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है।

यही कारण है कि हम अपने कार्यक्रम में अपनी नास्तिकता को न तो शामिल करते हैं और न हमें करना चाहिए। और यही कारण है कि हम ऐसे सर्वहाराओं को, जिनमें अभी तक पुराने पूर्वाग्रहों के अवशेष विद्यमान हैं, अपनी पार्टी में शामिल होने पर न तो रोक लगाते हैं, न हमें इस पर रोक लगानी चाहिए। हम वैज्ञानिक दृष्टिकोण की शिक्षा सदा देंगे और हमारे लिए विभिन्न "ईसाइयों" की विसंगतियों से संघर्ष चलाना भी जरूरी है। लेकिन इसका जरा भी यह अर्थ नहीं है कि धार्मिक प्रश्न को प्रथम वरीयता दे देनी चाहिये। न ही इसका यह अर्थ है कि हमें उन घटिया मत-मतान्तरों और निरर्थक विचारों के कारण, जो तेजी से महत्वहीन होते जा रहे हैं और स्वयं आर्थिक विकास की धारा में तेजी से कूड़े के ढेर की तरह किनारे लगते जा रहे हैं, वास्तविक क्रान्तिकारी आर्थिक और राजनीतिक संघर्ष की शक्तियों को बँट जाने देना चाहिए।

प्रतिक्रियावादी बुर्जुआ वर्ग ने अपने आप को हर जगह धार्मिक झगड़ों को उभाड़ने के दुष्कृत्यों में संलग्न किया है, और वह रूस में भी ऐसा करने जा रहा है-इसमें उसका उद्देश्य आम जनता का ध्यान वास्तविक महत्व की और बुनियादी आर्थिक और राजनीतिक समस्याओं से हटाना है जिन्हें अब समस्त रूस का सर्वहारा वर्ग क्रांतिकारी संघर्ष में एकजुट हो कर व्यावहारिक रूप से हल कर रहा है। सर्वहारा की शक्तियों को बाँटने की यह प्रतिक्रियावादी नीति, जो आज ब्लैक हंड्रेड (राजतंत्र समर्थक गिरोहों) द्वारा किये हत्याकाण्डों में मुख्य रूप से प्रकट हुई है, भविष्य में और परिष्कृत रूप ग्रहण कर सकती हैं। हम इसका विरोध हर हालत में शान्तिपूर्वक, अडिगता और धैर्य के साथ सर्वहारा एकजुटता और वैज्ञानिक दृष्टिकोण की शिक्षा द्वारा करेंगे - एक ऐसी शिक्षा द्वारा करेंगे जिसमें किसी भी प्रकार के महत्वहीन मतभेदों के लिए कोई स्थान नहीं है। क्रान्तिकारी सर्वहारा, जहाँ तक राज्य का संबंध है, धर्म को वास्तव में एक व्यक्तिगत मामला बनाने में सफल होगा। और इस राजनीतिक प्रणाली में, जिसमें मध्यकालीन सड़न साफ़ हो चुकी होगी, सर्वहारा आर्थिक ग़ुलामी के, जो कि मानव जाति के धार्मिक शोषण का वास्तविक स्रोत है, उन्मूलन के लिए सर्वहारा वर्ग व्यापक और खुला संघर्ष चलायेगा।


-नोवाया झिज्न, अंक 28, 3 दिसंबर, 1905

https://www.marxists.org/ से साभार 

रविवार, 30 अक्तूबर 2016

दीपावली : मनुष्य के सामुहिक श्रम और मेधा की विजय और प्रकृति के साथ उस के सामंजस्य का त्यौहार




नाजों में ज्वार और धान की फसलों में बीज पक चुके हैं। बस फसलों को काट कर तैयार कर घर लाने की तैयारी है। फसल घर आने के बाद लोगों के पास वर्ष भर का खाद्य होगा और भोजन की चिन्ता वैसी नहीं रहेगी जैसी कृषि आरंभ होने के पहले हुआ करती थी। जब हमें (मनुष्य) को फल संग्रह, शिकार और पशुपालन पर निर्भर रहना पड़ता था। उस अवस्था में मनुष्य लगभग खानाबदोश होता था। उसे हमेशा ऐसे इलाके की तलाश होती थी जहां पशुओं के लिए चारा बहुतायत में हो और अन्य खाद्य व उपयोगी पदार्थों की प्राकृतिक उपज सहज मिल जाती हो। संभवतः इन्हीं की तलाश में मनुष्य अफ्रीका में पैदा हो कर दुनिया के कोने कोने तक पहुँचा। पर कृषि का आविष्कार ही वह महत्वपूर्ण मंजिल साबित हुई जिस ने उसे एक स्थान पर घर और बस्तियाँ बसा कर रहने लायक परिस्थितियाँ उत्पन्न कीं। वर्षा ऋतु के अवसान पर जब फसलें खेतों में लहलहा रही हों। फसलों की नयनाभिराम हरितिमा सुनहरे रंग में परिवर्तित हो रही हो। तब मन अचानक ही उमग उठे, कोई ढोली अचानक ढोल पर थाप दे और ताल सुन कर नर-नारियों के पैर थिरक उठे यह स्वाभाविक ही है। खेतों में इकट्ठा हुए इस स्वर्ण को घर लाने के पहले उस के स्वागत में गांवों के लोग दीपमालाएँ सजा कर गांवों को जगमगा दें यही दीवाली पर्व है।

दीवाली मनुष्य की भौतिक समृद्धि का त्यौहार है, यह भौतिक समृद्धि किसी अतीन्द्रीय शक्ति की देन नहीं है अपितु वर्षों के श्रम और अनुभव के योग से मनुष्य ने स्वयं प्राप्त की है। खेतों से घर लाई जा रही इस समृद्धि के स्वागत के लिए हम बरसात से खराब हुए घरों  को हम साफ करते हैं, संवारते हैं, सजाते हैं। एक व्यवस्था बनती है जिस में ढंग से रहने और फसलों को संग्रह कर सुरक्षित करने के प्रयास सम्मिलित है। यह मनुष्य के श्रम की विजय का त्यौहार है जो उस के जीवन से अंधकार को दूर करता है। यह समृद्धि जो घर लाई जा रही है वह उस के श्रम से उत्पन्न हुई है। वही लक्ष्मी है, लक्ष्मी का एक नाम श्रमोत्पन्ना है।

जैसे जैसे मनुष्य की सामुहिक चेतना ने धार्मिक रूप ग्रहण किया। वैसे वैसे समृद्धि के इस त्यौहार के साथ घटनाएँ और मिथक जुड़ते चले गए। ऐतिहासिक रूप से देखें तो दीवाली सब से पहले भगवान महावीर के निर्वाण दिवस के रूप में जैन मनाने लगे। जैन पद्धति पूरी तरह नास्तिक पद्धति थी, उस का किसी आस्था या अतीन्द्रीय शक्ति से कोई संबंध न था। महावीर जिन्हों ने अपने कर्म से भगवान का दर्जा प्राप्त किया था उन की विदाई एक दुखद घटना के रूप में भी स्मृति में रखी जा सकती थी। लेकिन वे एक जीवन शैली निर्धारित कर गए थे। इस घटना को समृद्धि के त्यौहार के दिनों में एक दुखद घटना के रूम में मनाना मनुष्यों को न भाया जैन उसे प्रकाश पर्व के रूप में मनाने लगे। उस के कई वर्षों बाद जब सम्राट अशोक ने बोद्ध धर्म अंगीकार किया तो यह वही दिन था जब महावीर ने निर्वाण प्राप्त किया। बौद्ध धर्म अंगीकार करना अशोक का एक अंधकार से प्रकाश की और पदार्पण करना था। 56 ईस्वी पूर्व में हिन्दू राजा विक्रमादित्य का राज्याभिषेक हुआ  और वह दिन दीपमालिका के रूप में मनाया जाने लगा। ऐसा प्रतीत होता है कि दीपमालिका का आरंभ तभी से हुआ है।

ह काल ब्राह्मण धर्म के पुनरुत्थान का काल था। रामायण व महाभारत जैसे महाकाव्य इसी काल में लिपिबद्ध हुए। उस के बाद पुराणों की रचना हुई जो लगभग 600 ईस्वी तक चलती रही। तब राम के अयोध्या लौटने, बलि पर वामन की विजय, लक्ष्मी का विष्णु के साथ वरण, पाण्डवों का माता कुन्ती और पत्नी द्रौपदी के साथ वनवास और गुप्तवास से हस्तिनापुर वापस लौटने, नरकासुर पर विजय, देवताओं की रक्षा के लिए दुर्गा का विकराल काली रूप धारण करने आदि के मिथक इस त्यौहार के साथ जुड़ते चले गए। 

म यदि दीपावली पर होने वाली लक्ष्मी, गणेश, सरस्वती, काली व अन्य देवताओं की पूजा के विवरण में जाएँ तो हमें स्वयं ज्ञात हो जाएगा कि यह फसलों को घर लाने वाला समृद्धि का त्यौहार ही है। बाद में सिखों के तीसरे गुरू अमरदास जी द्वारा सिख पंथ को संस्थागत रूप देने, छठवें गुरू हरगोविंद जी की अन्य राजाओं के साथ मुक्ति और अमृतसर के स्वर्ण मंदिर के शिलान्यास के दिन  भी इसी त्यौहार के साथ जुड़ गए। 

नुष्य के खेती का आविष्कार कर लेने से उत्पन्न भौतिक समृद्धि को घर लाने का यह त्यौहार धीरे धीरे अनेक कथाओं कहानियों को स्वयं के साथ जोड़ता चला गया और एक प्रकार से यह भारतीय उपमहाद्वीप की विविधता को एक पर्व में समेट लेने के अद्भुत त्यौहार के रूप में हमारे बीच विद्यमान है। इस त्यौहार पर किसी एक धर्मावलंबियो का अधिकार नहीं है। यह भारत में जन्मे लगभग सभी धर्मों के अनुयायियों का त्यौहार है। हर त्यौहार एक बड़ी आर्थिक गतिविधि भी होता है, इस तरह मुसलमान, ईसाई, पारसी आदि अन्य भारतीय धर्मावलंबी भी इस त्यौहार से इस कदर जुड़ चुके हैं कि उन के योगदान के बिना इस त्यौहार को पूरा कर पाना संभव ही लगता है। यह त्यौहार जितना धार्मिक विश्वासियों का है उतना ही अपितु उस से अधिक उन अविश्वासियों का है जिन्हें हम नास्तिक के रूप में पहचानते हैं। मनुष्य की भौतिक समृद्धि में नास्तिकों का भी उतना ही योगदान है जितना कि आस्तिकों का। वे किसी देवता या ईश्वर को नहीं मानते, वे किसी तरह की अतीन्द्रीय शक्तियों की पूजा करने में विश्वास नहीं रखते लेकिन वे मनुष्य के श्रम का आदर करते हैं, उस की शक्ति को पहचानते हैं। समृद्धि के इस त्यौहार से वे कैसे अलग और अछूते रह सकते हैं। भारतीय महाद्वीप की अनेकता में एकता के इस रूप में वे भी शामिल हैं। वे मनुष्य के सामुहिक श्रम और मेधा की विजय और प्रकृति के साथ उस के सामंजस्य के त्यौहार के रूप में उसे मना सकते हैं, बल्कि उन्हें मनाना चाहिए।

रविवार, 28 दिसंबर 2014

'श्रीमती गजानन्द शास्त्रिणी' .... सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

भारत में धर्म और संस्कृति का ऐसा घालमेल हुआ है कि साम्प्रदायिक लोग तमाम सांस्कृतिक मूल्यों को धार्मिक मूल्य प्रदर्शित करते हुए वैसे ही साम्प्रदायिकता का औचित्य सिद्ध करने का प्रयास करते हैं जैसे साम्प्रदायिक लोग विवेकानन्द की छाप का झंडा उठा कर साम्प्रदायिकता उत्थान में जुट जाते हैं।

इन्हीं दिनों मुझे निराला जी की जनवरी 1938 में माधुरी मासिक में छपी कहानी 'श्रीमती गजानन्द शास्त्रिणी' पढ़ने को मिली। कहानी का आरंभिक अंश तमाम धर्मों के बारे में उन की समझ को अभिव्यक्त करता है। देखिए और निराला के व्यंग्य का आनन्द भी लीजिए ...

“श्रीमती गजानन्द शास्त्रिणी श्रीमान पं. गजानन्द शास्त्री की धर्मपत्नी हैं। श्रीमान शास्त्रीजी ने आपके साथ यह चौथी शादी की है -धर्म की रक्षा के लिए। शास्त्रिणी जी के पिता को षोडशी कन्या के लिए पैंतालीस साल का वर बुरा नहीं लगा -धर्म की रक्षा के लिए। वैद्य का पेशा अख्तियार किए शास्त्रीजी ने युवती पत्नी के आने साथ 'शास्त्रिणी' का साइन-बोर्ड टाँगा-धर्म की रक्षा के लिए। शास्त्रीणीजी उतनी ही उम्र में गहन पातिव्रत्य पर अविराम लेखनी चालना कर चलीं-धर्म की रक्षा के लिए। मुझे यह कहानी लिखनी पड़ रही है-धर्म की रक्षा के लिए।

इस से सिद्ध है, धर्म बहुत ही व्यापक है। सूक्ष्म दृष्टि से देखने वालों का कहना है कि नश्वर संसार का कोई काम धर्म के दायरे से बाहर नहीं। सन्तान पैदा होने के पहले से मृत्यु के बाद-पिण्डदान तक जीवन के समस्त भविष्य, वर्तमान और भूत को व्याप्त कर धर्म-ही-धर्म है।

जितने देवता हैं, चूँकि देवता हैं, इसलिए धर्मात्मा हैं। मदन को भी देवता कहा है। यह जवानी के देवता हैं। जवानी जीवन भर का शुभमुहूर्त है, सबसे पुष्ट कर्मठ और तेजस्वी देवता मदन, जो भस्म हो कर नहीं मरे, लिहाजा काल और काल के देवता, सब से ज्यादा सम्मान्य, फलतः क्रियाएँ भी सबसे अधिक महत्वपूर्ण, धार्मिकता को लिए हुए। मदन को कोई देवता न माने तो न माने, पर यह निश्चय है कि आज तक कोई देवता इन पर प्रभाव नहीं डाल सका। किसी धर्म शास्त्र या अनुशासन को यह मान कर नहीं चले, बल्कि धर्म, शास्त्र और अनुशासन के मानने वालों ने ही इन की अनुवर्तितता की है। यौवन को भी कोई कितना निन्द्य कहे, चाहते सभी हैं, वृद्ध सर्वस्व भी स्वाहा कर। चिन्ह तक लोगों को प्रिय हैं - खिजाब की कितनी खपत है? धातु पुष्ट करने की दवा सब से ज्यादा बिकती है। साबुन, सेण्ट, पाउडर, क्रीम, हेजलीन, वेसलीन, तेल-फुलेल, के लाखों कारखाने हैं इस दरिद्र देश में। जब न थे रामजी और सीताजी उबटन लगाते थे। नाम और प्रसिद्धि कितनी है- संसार की सिनेमा स्टारों देख जाइए। किसी शहर में गिनिए-कितने सिनेमा हाउस हैं। भीड भी कितनी- आवारागर्द मवेशी काइन्ज हाउस में इतने न मिलेंगे। देखिए-हिन्दू, मुसलमान, सिख, पारसी, जैन, बौद्ध, क्रिस्तान-सभी; साफा, टोपी, पगड़ी, कैप, हैट और पाग से लेकर नंगा सिर-घुटन्ना तक; अद्वैतवादी, विशिष्टाद्वैतवादी, द्वैतवादी, द्वैताद्वैतवादी, शुद्धाद्वैतवादी, साम्राज्यवादी, आतंकवादी, समाजवादी, काजी, सूफी से लेकर छायावादी तक, खड़े-बेड़े, सीधे-टेड़े,-सब तरह के तिलक-त्रिपुण्ड; बुरकेवाली, घूंघटवाली, पूरे और आधे और चौथाई बालवाली, खुली और मुंदी चश्मेवाली आँखें तक देख रही हैं; अर्थात् संसार के जितने धर्मात्मा हैं, सभी यौवन से प्यार करते हैं। इसलिए उन के कार्य को भी धर्म कहना पड़ता है। किसी के कहने-न मानने से वह अधर्म नहीं होता।...”

शनिवार, 10 सितंबर 2011

देवी पूजा और गणपति

वैसे तो यह पूरा पखवाड़ा कृषि उपज और समृद्धि से संबंध रखने वाले त्यौहारों का है, जिन के मनाए जाने वाले उत्सवों में मनुष्य के आदिम जीवन से ले कर आज तक के विकास की स्मृतियाँ मौजूद हैं। बेटी-बेटा पूर्वा-वैभव दोनों ईद के दिन ही पहुँचे थे। सारे देश के मुसलमान उस दिन भाईचारे, सद्भाव और खुशियों का त्योहार ईद मना रहे थे तो उसी दिन देश की स्त्रियों का एक बड़ा हिस्सा हरतालिका तीज का व्रत रखे था जिस में पति के दीर्घायु होने की कामना से देवी माँ की उपासना की जाती है। हाडौती अंचल में इस दिन अनेक परिवार रक्षाबंधन भी मनाते हैं। कहा जाता है कि जिन परिवारों में भूतकाल में राखी के दिन किसी का देहान्त हो गया हो वे परिवार श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन को अशुभ मानते हुए हरतालिका तीज को रक्षाबंधन मनाते हैं। मेरे ससुराल में रक्षाबंधन इसी दिन मनाया जाता है। दोनों बहिन-भाई रक्षाबंधन पर नहीं मिल पाये थे और उस के बाद इसी दिन आपस में मिल रहे थे। मेरे साले का पुत्र भी कोटा में ही अध्ययन कर रहा है, उस के लिए तो वह राखी का ही दिन था वह भी आ गया और हमारे घर पूरे दिन रक्षाबंधन की धूम रही। ईद के दिन मैं अपने मित्रों से ईद मिलने जाता हूँ, लेकिन उस दिन घर में ही मंगल होने से नहीं जा सका। 

गला दिन गणेश चतुर्थी का था। वे समृद्धि के देवता कहे जाते हैं। समृद्धि के साथ स्त्रियों का अभिन्न संबंध रहा है। जब तक मनुष्य अपने विकास क्रम में संपत्ति संग्रह करने की अवस्था तक नहीं पहुँच गया था, तब तक समृद्धि का अर्थ केवल और केवल मात्र एक नए सदस्य का जन्म ही था। एक नए सदस्य को केवल स्त्री ही जन्म दे सकती थी। वनोपज के संग्रह काल में वनोपज को संग्रह करने का काम भी स्त्रियाँ ही किया करती थीं। पौधों के जीवनचक्र को उन्हों ने नजदीक से देखा था, जिस का स्वाभाविक परिणाम यह हुआ था कि उन्हों ने ही सब से पहले कृषि का आरंभ किया था। वर्षाकाल के आरंभ में बोये गये बीजों से पौधों का भूमि से ऊपर निकल आना और वर्षा ऋतु के उतार पर उन में फूलों और फलों का निकल आना निश्चय ही समृद्धि का द्योतक था। ऐसे काल में समृद्धि के लिए किसी नारी देवता का अनुष्ठान एक स्वाभाविक बात थी। लेकिन हरतालिका तीज पर देवी पूजा के अगले ही दिन एक पुरुष देवता गणपति की पूजा करना कुछ अस्वाभाविक सा लगता है। लेकिन यदि हम ध्यान से अध्ययन करें तो पाएंगे कि गणपति वास्तव में पुरुष कम और स्त्री देवता अधिक है। (इस संबंध में आप अनवरत के पुरालेख गणेशोत्सव और समृद्धि की कामना और क्या कहता है गणपति का सिंदूरी रंग और उन की स्त्री-रूप प्रतिमाएँ? अवश्य पढ़ें।)

च्चे सुबह से ही कह रहे थे कि मम्मी इस साल गणपति घर ला कर बिठाने वाली है। मेरी उत्तमार्ध शोभा ने मुझ से इस का उल्लेख बिलकुल नहीं किया था। लेकिन मैं ने इस काम में कोई दखल दिया। सोचता रहा कि लाए जाएंगे तब देखा जाएगा। पर दुपहर तक का समय बच्चों से बतियाते ही गुजर गया। गणेश चतुर्थी से अगला दिन ऋषिपंचमी का है, और उस दिन मेरे यहाँ रोट बनते हैं। यह अनुष्ठान भी खेती और उस की उपज से उत्पन्न समृद्धि की कामना से जुड़ा है। इस दिन खीर बनती है। घर में चार सदस्य थे, इस कारण से कम से कम तीन किलो दूध की खीर तो बननी ही थी और दूध की व्यवस्था करनी थी। शाम को शोभा और मैं दोनों गूजर के यहाँ जा कर सामने निकाला हुआ भैंस का तीन किलो दूध ले आए और तीन किलो सुबह लेने की बात कह आए। जब वापस लौट रहे थे तो मार्ग में मूर्तिकार के यहाँ से गणपति की प्रतिमाएँ लाने वाले गणेश मंडलों के जलूस मिले। तब मैं ने शोभा से पूछा तो उस ने बताया कि उस की गणपति लाने की कोई योजना नहीं थी और वह वैसे ही बच्चों से बतिया रही थी। (रोट के बारे में कल चित्रों सहित ...)

बुधवार, 9 मार्च 2011

महिलाओं का समान अधिकार प्राप्त करने का संकल्प धर्म की सत्ता की समाप्ति की उद्घोषणा है

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस था। हिन्दी ब्लाग जगत की 90% पोस्टों पर महिलाएँ काबिज थीं। उन की खुद की पोस्टें तो थीं ही, पुरुषों की पोस्टों पर भी वे ही काबिज थीं। महिला दिवस के बहाने धार्मिक प्रचार की पोस्टों की भरमार थीं। कोई उन्हें देवियाँ घोषित कर रहा था तो कोई उन्हें केवल अपने धर्म में ही सुरक्षित समझ रहा था। मैं शनिवार-रविवार यात्रा पर था। आज मध्यान्ह बाद तक वकालत ने फुरसत न दी। अदालत से निकलने के पहले कुछ साथियों के साथ चाय पर बैठे तो मैं ने अनायास ही सवाल पूछ डाला कि क्या कोई धर्म ऐसा है जो महिलाओं को पुरुषों से अधिक या उन के बराबर अधिकार देता हो। जवाब नकारात्मक था। दुनिया में कोई धर्म ऐसा नहीं जो महिलाओं को पुरुषों के समान अधिकार देता हो। कोई उन्हें देवियाँ बता कर भ्रम पैदा करता है तो कोई उन्हें केवल पुरुष संरक्षण में ही सुरक्षित पाता है मानो वह जीती जागती मनुष्य न हो कर केवल पुरुष की संपत्ति मात्र हों। मैं ने ही प्रश्न उछाला था, लेकिन चर्चा ने मन खराब कर दिया। 
चाय के बाद तुरंत घर पहुँचा तो श्रीमती जी  टीवी पर आ रही एक प्रसिद्ध कथावाचक की लाइव श्रीमद्भागवतपुराण कथा देख-सुन रही थीं। साथ के साथ साड़ी पर फॉल टांकने का काम भी चल रहा था। फिर प्रश्न उपस्थित हुआ कि क्यों महिलाएँ धर्म की ओर इतनी आकर्षित होती हैं?  जो चीज उन्हें पुरुषों के समान अधिकार प्राप्त करने से रोक रही हैं, उसी ओर क्यों प्रवृत्त होती हैं। लाइव कथा में स्त्रियों की संख्या पुरुषों से दुगनी से भी अधिक थी। वास्तव में उन में से अधिक महिलाएँ तो वे थीं जो स्वतंत्रता पूर्वक केवल ऐसे ही आयोजनों में जा सकती थीं। लेकिन इन आयोजनों को करने में पुरुषों और व्यवस्था की ही भूमिका प्रमुख है। शायद इस लिए कि पुरुष चाहते हैं कि महिलाओं को इस तरह के आयोजनों में ही फँसा कर रखा जाए। इन के माध्यम से लगातार उन के जेहन में यह बात ठूँस-ठूँस कर भरी जाए कि पुरुष के आधीन रहने में ही उन की भलाई है।
न सब तथ्यों ने मुझे इस निष्कर्ष तक पहुँचाया कि महिलाओं की पुरुषों के समान अधिकार और समाज में बराबरी का स्थान प्राप्त करने का उन का संघर्ष तब तक सफल नहीं हो सकता जब तक कि वे धर्म से मुक्ति प्राप्त नहीं कर लेती। महिलाओं का समान अधिकार प्राप्त करने का संकल्प धर्म की सत्ता की समाप्ति की उद्घोषणा है। इस बात से महिलाओं को समान अधिकार प्रदान करने के विरोधी धर्म-प्रेमी बहुत चिंतित हैं।  आजकल ब्लाग जगत में  इस तरह के लेखों की बाढ़ आई हुई है और वे स्त्रियों को धर्म की सीमाओं में बांधे रखने के लिए न केवल हर तीसरी पोस्ट में पुरानी बातों को दोहराते हैं, अपितु एक ही पोस्ट को एक ही दिन कई कई ब्लागों पर चढ़ाते रहते हैं। मुझे तो ये हरकतें बुझते हुए दीपक की तेज रोशनी की तरह प्रतीत होती हैं।

शनिवार, 5 जून 2010

मनुष्य की मूलभूत जैवीय जरूरतें उस के विचारों को संचालित करती हैं।

विगत आलेख जनता तय करेगी कि कौन सा मार्ग उसे मंजिल तक पहुँचाएगा पर आई टिप्पणियों ने कुछ प्रश्न खड़े किए हैं, और मैं महसूस करता हूँ कि ये बहुत महत्वपूर्ण हैं। इन प्रश्नों पर बात किया जाना चाहिए।  लेकिन पहले बात उन टिप्पणियों की जो विभिन्न ब्लागों पर की गईँ। लेकिन अपने सोच के आधार वे अपना स्वतंत्र अस्तित्व भी रखती हैं और बहुत मूल्यवान हैं। मैं 'समय' के ब्लाग "समय के साये में" की बात कर रहा हूँ। उन्हों ने दूसरे ब्लागों पर की गई कतिपय टिप्पणियों को अपने ब्लाग पर एकत्र कर एक नई पोस्ट लिखी है  - "टिप्पणियों के अंशों से दिमाग़ को कुछ ख़ुराक - ४" आप चाहें तो वहाँ जा कर इन्हें पढ़ सकते हैं। वास्तव में दिमाग को कुछ न कुछ खुराक अवश्य ही प्राप्त होगी। 

डॉ. अरविंद मिश्र की टिप्पणी ने कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न खड़े किए, उन की टिप्पणी इस प्रकार है-

 Arvind Mishra,  4 June 2010 6:11 AM
मनुष्य किसी भी वाद और प्रायोजित नीतियों पर लम्बे समय नहीं चल सकता -इसके मेरे विचार से दो प्रमुख कारण हैं -एक तो राजनीतिक सोच से उद्भूत अभियान कालांतर में अपने सोच और उद्येश्यों से भटक जाते हैं ,दूसरे मनुष्य अपने जैवीय वृत्तिओं का ही दास होता है और वह अपना भला बुरा एक सहज बोध के जरिये भी समझ लेता है -जब तक उसकी मूलभूत जरूरतें किसी विचार पथ पर संपूरित होती रहती हैं वह उस पर रहता है और जैसे ही उसे लगता है की उसकी मूलभूत जैवीय जरूरतें पूरी होने में बाधाएं आ रही हैं वह उस रास्ते को छोड़कर दूसरा पकड़ लेता है (मैंने कुछ कुछ समय स्टाईल के शब्द लिए हैं आशा है आप तो समझ ही लेगें )
न की टिप्पणी की पहली पंक्ति ही इस प्रकार है -मनुष्य किसी भी वाद और प्रायोजित नीतियों पर लम्बे समय नहीं चल सकता।
स का अली भाई ने उत्तर देने का प्रयास करते हुए अपनी टिप्पणी में कहा -    किसी भी 'वाद' ( दर्शन ) बोले तो? धर्म वाद पे तो चल ही रहे हैं हजारों सालों से :)
ली भाई ने वाद को पहले दर्शन और फिर धर्म से जोड़ा है। अब यह तो डॉ. अरविंद जी ही अधिक स्पष्ट कर सकते हैं कि उन का वाद शब्द का तात्पर्य क्या था। लेकिन वाद शब्द का जिस तरह व्यापक उपयोग देखने को मिलता है उस का सीधा संबंध दर्शन और धर्म से है। दर्शन इस जगत और उस के व्यवहार को समझने का तार्किक और श्रंखलाबद्ध दृष्टिकोण है। हम उस के माध्यम से जगत को समझते हैं कि वह कैसे चलता है। उस की अब तक की ज्ञात यात्रा क्या रही है? क्या नियम और शक्तियाँ हैं जो उस की यात्रा को संचालित करती हैं? इन सब के आधार पर जगत के बारे में व्यक्ति की समझ विकसित होती है जो उस की जीवन शैली को प्रभावित करती है। धर्म का आधार निश्चित रूप से एक दर्शन है जो एक विशिष्ठ जीवन शैली उत्पन्न करता है। लेकिन व्यक्ति की अपनी स्वयं की समझ विकसित हो उस के पहले ही, ठीक उस के जन्म के साथ ही उस का संबंध एक जीवन शैली से स्थापित होने लगता है जो उस के परिवेश की जीवन शैली है। उसी जीवन शैली से वह अपनी प्रारंभिक समझ विकसित करता है। लेकिन एक अवस्था ऐसी भी उत्पन्न होती है जब वह अनेक दर्शनों के संपर्क में आता है, जो उसे यह विचारने को विवश करते हैं कि वह अपने परिवेश प्राप्त समझ में परिवर्तन लाए और उसे विकसित करे। यह विकसित होने वाली जीवन शैली पुनः व्यक्ति के विचारों को प्रभावित करती है। इस तरह जीवन शैली और दर्शन के मध्य एक द्वंदात्मक संबंध मौजूद है।
डॉ. अरविंद मिश्र ने आगे पुनः कहा है - -इसके मेरे विचार से दो प्रमुख कारण हैं -एक तो राजनीतिक सोच से उद्भूत अभियान कालांतर में अपने सोच और उद्येश्यों से भटक जाते हैं। 
पहले उन्हों ने कहा था -मनुष्य किसी भी वाद और प्रायोजित नीतियों पर लम्बे समय नहीं चल सकता।
मेरे विचार में वे दोनों स्थान पर एक ही बात कह रहे हैं। उन्हों ने यहाँ दो प्रकार की नीतियों का उल्लेख उल्लेख किया है, और जिस तरह किया है उस से ऐसा प्रतीत होता है कि नीतियों के और भी प्रकार हो सकते हैं। उन के बारे में तो डॉ. अरविंद जी ही बता पाएँगे। लेकिन यहाँ जिस वाद शब्द का प्रयोग किया है उस का अर्थ कोई भी विचारधारा हो सकती है जिसे व्यक्तियों के समूहों ने अपनाया हो। वह धर्म भी हो सकता है और राजनैतिक विचारधारा भी। वस्तुतः धार्मिक और राजनैतिक विचारधाराओं में भेद करना कठिन काम है। ये दोनों एक दूसरे से नालबद्ध दिखाई पड़ते हैं। जहाँ तक राजनैतिक सोच और वाद का प्रश्न है ये दोनों एक ही हैं। उन पर आधारित अभियान या उन नीतियों पर चलने में कोई भेद नहीं है। भटकने और लंबे समय तक नहीं चल पाने में भी कोई अंतर दिखाई नहीं देता। ये दोनों वाक्य इस बात को उद्घाटित करते हैं कि समय के साथ बदलती दुनिया में पुरानी विचारधारा अनुपयुक्त सिद्ध होती है और व्यक्ति और उन के समूह उस में परिवर्तन या विकास चाहते हैं।
डॉ. अरविंद जी ने यहाँ प्रायोजित शब्द का भी प्रयोग किया है। इस का अर्थ है कि कुछ व्यक्ति या उन के समूह अपने हित के लिए ऐसे अभियानों को प्रायोजित करते हैं। राजनैतिक शास्त्र का कोई भी विद्यार्थी इस बात को बहुत आसानी से समझता है कि सारी की सारी राजनीति वस्तुतः व्यक्तियों के समूहों के प्रायोजित अभियान ही हैं। प्रश्न सिर्फ उन समूहों के वर्गीकरण का है। कुछ लोग इन समूहों का वर्गीकरण धर्म, भाषा, लिंग आदि के आधार पर करते हैं, हालांकि हमारा संविधान यह कहता है कि इन आधारों पर राज्य किसी के साथ भेदभाव नहीं करेगा। लेकिन यह संविधान की लिखित बात है, पर्दे के पीछे और पर्दे पर यह सब खूब दिखाई देता है। एक दर्शन, विचारधारा और राजनीति वह भी है जो इन समूहों को आर्थिक वर्गों का नाम देती है। समाज में अनेक आर्थिक वर्ग हैं। राष्ट्रीय पूंजीपति है, अंतराष्ट्रीय और विदेशी पूंजीपति है। जमींदार वर्ग है, औद्योगिक श्रमिक वर्ग है, एक सफेदपोश कार्मिकों का वर्ग है। किसानों में पूंजीवादी किसान है, साधारण किसान है और कृषि मजदूर हैं।  भिन्न भिन्न वर्गों का प्रतिनिधित्व करने वाली पृथक-पृथक राजनीति भी है। सारी जनता का प्रतिनिधित्व करने वाला कोई राजनैतिक विचारधारा या दल नहीं हो सकता। क्यों कि विभिन्न वर्गों के स्वार्थ एक दूसरे के विपरीत हैं। स्वयं को सारी जनता का प्रतिनिधित्व करने वाला या सब के हितों की रक्षा करने का दावा करने वाले दल वस्तुतः मिथ्या भाषण करते हैं, और जनता के साथ धोखा करते हैं। वे वास्तव में किसी एक वर्ग या वर्गों के एक समूह का प्रतिनिधित्व कर रहे होते हैं। ऐसा नहीं है कि जनता उन के झूठ को नहीं पहचानती है। इस झूठ का उद्घाटन भी व्यक्तियों को अपने विचार में परिवर्तन करने के लिए प्रभावित करता है।
डॉ. अरविंद जी ने आगे जो बात कही है वह अत्यन्त महत्वपूर्ण है, वे कहते हैं - मनुष्य अपने जैवीय वृत्तिओं का ही दास होता है और वह अपना भला बुरा एक सहज बोध के जरिये भी समझ लेता है -जब तक उसकी मूलभूत जरूरतें किसी विचार पथ पर संपूरित होती रहती हैं वह उस पर रहता है और जैसे ही उसे लगता है की उसकी मूलभूत जैवीय जरूरतें पूरी होने में बाधाएं आ रही हैं वह उस रास्ते को छोड़कर दूसरा पकड़ लेता है। 
हाँ, उन से सहमत न होने का कोई कारण नहीं है। किसी भी मनुष्य की मूलभूत जैवीय जरूरतें ही वे मूल चीज हैं जो उस के विचारों और उन पर आधारित अभियानों को संचालित करती हैं। लेकिन अभियान एक व्यक्ति का तो नहीं होता। वास्तव में एक आर्थिक वर्ग के सदस्यों की ये मूलभूत जैवीय जरूरतें एक जैसी होती हैं जो उन में विचारों की समानता उत्पन्न करती हैं, एक दर्शन और एक राजनैतिक अभियान को जन्म देती हैं। इस तरह हम पाते हैं कि समूची राजनीति का आधार वर्ग  हैं, उस का चरित्र वर्गीय है। जब तक समाज में शासक वर्ग ही अल्पसंख्यक शोषक वर्गों से निर्मित है वह शोषण को बरकरार रखने के लिए उस का औचित्य सिद्ध करने वाली विचारधारा को प्रायोजित करता है। उस का यह छद्म अधिक दिनों तक नहीं टिकता और उसे अपना प्रभुत्व बनाए रखने के लिए विचारधारा के विभिन्न रूप उत्पन्न करने होते हैं।
डॉ अरविंद जी की टिप्पणी पर बात इतनी लंबी हो गई है कि शेष मित्रों की महत्वपूर्ण टिप्पणियों पर बात फिर कभी।