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शुक्रवार, 15 मई 2020

गौरैया


पता नहीं दोनों क्या कर रहे थे। लेकिन पर फड़फड़ाने की आवाजें बहुत जोर की थीं। फिर एक-एक कर तिनके गिरना शुरु हुए। मैं वहाँ से चला आया। कुछ देर बाद शोभा ने आ कर बताया कि उन्हों ने अपना घर गिरा कर नष्ट कर दिया है। मैं ने जा कर देखा तो सारी बालकनी में कबूतर का घोंसला गिरा पड़ा था, एक अंडा टूटा हुआ पड़ा था, उसकी जर्दी फ्लोर पर बिखरी थी। इसका मतलब था कि उनका अंडा कच्चा ही था। मैं तो यह समझे बैठा था कि अंडों से बच्चे निकल आए हैं, और उड़ने की कोशिश में घोंसले के तिनके नीचे गिरा रहे हैं। अब शाम पड़े ये बालकनी का कूड़ा साफ कर के धोने का काम और सिर पर आ गया था।

संतान की चाह रखने वालों का अंडा टूट कर गिर जाने से अच्छा नहीं लग रहा था। मन उदास हो गया था। सोच रहा था कि एक छोटी सी दुर्घटना कैसे जीवन को अंडे से खोल के बाहर निकलने के पहले ही समाप्त कर देती है। मुझे कबूतर जोड़े पर गुस्सा भी बहुत आया। आखिर वे वहाँ इस तरह क्यों फड़फड़ा रहे थे? मैं ने कबूतरों को इस तरह फड़फड़ाते हुए तब देखा था जब ऐसे ही अंडा फूटा था। तब भी उनका घौंसला इसी ए.सी. के ऊपर रखे गत्ते पर था। जोड़े की ऐसी ही हरकतों से गत्ता सरक कर लटक गया था और नीचे गिरने को था। मैं एक डंडे से उसे वापस ए.सी. पर सरकाना चाह रहा था कि कबूतर ने हरकत की और घोंसला अंडों समेत नीचे गिर गया। उस वक्त मुझे कुछ अपराध बोध था कि मेरी डंडे से गत्ता सरकाने की कोशिश उस दुर्घटना का पूरा नहीं तो आंशिक कारक जरूर था।

तभी एसी के ऊपर से चीं..चीं की आवाजें आईं। यह बड़े अचरज की बात थी। मैंने ऊपर देखा और आवाज पर गौर किया तो समझ गया कि वे गोरैया के बच्चों की आवाजें हैं। असल में एसी के ऊपर एक थर्माकोल चिपका हुआ गत्ता रखा था, जिससे पक्षी ए.सी. में तिनके न गिराएं। उस थर्माकोल में कुछ जगह थी। उसे अपनी चोंचों से खोद खोद कर गोरैया के जोड़े ने अपने घोंसले के लायक चौड़ा कर लिया था। वहाँ उसने अंडे दिए हुए थे। शायद उन से बच्चे निकल आए थे।

चीं चीं चीं ... गोरैया के बच्चे फिर गीत गा रहे थे। मेरी उदासी कुछ कम हो गयी।

शनिवार, 18 मई 2019

सल्फास एक्सपोजर

रसों 16 मई को दोपहर कोर्ट से वापस आने के बाद लंच लिया। मेरा सहायक शिवप्रताप कार्यालय का काम निपटा रहा था। मुझे याद आया कि साल भर के लिए गेहूँ के बैग खरीदे सप्ताह भर हो गया है, उन्हें अभी तक खोल कर स्टोरेज में नहीं डाला है। शिव के निपटते ही मैं ने उसे कहा- तुम मदद कर दो। मैं ने उस की सहायता से गेहूँ को स्टोरेज में डाला। शिव के जाने के बाद मुझे ऊँघ सी आने लगी तो मैं शयनकक्ष में जा कर लेट गया। बावजूद इसके कि एसी चल रहा था। मुझे नीन्द नहीं आई, कुछ बैचेनी से महसूस हुई। जैसे श्वासनली या भोजन नली में कुछ अटका सा है। मैं उठ कर शयनकक्ष से बाहर आया और अपनी टेबल पर बैठ कर अगले दिन का और लंबित काम देखने लगा। बैचेनी का जो अहसास हो रहा था वह काम करते हुए बिलकुल महसूस नहीं हुआ। 

शाम चार बजे करीब शोभा ने आ कर पूछा चाय बना लें। तो मैं ने हाँ कर दी। कुछ देर में उस ने मुझे कॉफी बना कर दे दी। मैं काम से निपटा तो मुझे लगा बाईं तरफ छाती में कुछ दर्द सा है फिर कुछ देर बाद दोनों कंधों और बाजुओं में भी दर्द का अहसास होने लगा। जो बैचेनी मुझे दोपहर के भोजन के बाद हुई थी वह फिर महसूस होने लगी, जो धीरे धीरे बढ़ रही थी। मैं ने तुरन्त तय किया कि मुझे डाक्टर के पास जाना चाहिए। डाक्टर गुप्ता शाम 5 बजे से बैठते हैं, मैं करीब साढ़े पाँच बजे उन के क्लिनिक के बाहर पहुँच गया। सामने ही मित्र दिनेश का डायग्नोस्टिक सेन्टर है। मैं जब कार पार्क कर रहा था तो वह दिखाई दे गया। मैं ने उसे इशारे से बुलाया। वह तुरन्त आ गया। मैं ने कहा मुझे सीने में दर्द और बैचेनी हो रही है, डाक्टर को दिखाने आया हूँ। मुझे अकेला देख वह भी मेरे साथ हो लिया। डाक्टर ने मेरी जाँच की। बीपी और पल्स बिलकुल नॉर्मल थे। डाक्टर ने मुझे तुरन्त ईसीजी कराने को कहा और दिनेश को हिदायत दी कि वह आ कर दिखाए। 

हम दिनेश के डायग्नोस्टिक सेंटर पर आ गए। बिजली गयी हुई थी। करीब आधा घंटा बाद आई। दिनेश ने सब से पहले मेरा ईसीजी किया और तुरन्त दिखाने के लिए डाक्टर के क्लिनिक पर दौड़ गया। दस मिनट बाद आ कर उस ने बताया कि ईसीजी नॉर्मल है बस एक स्थान पर मामूली वेरिएशन है इस कारण कल सुबह 2डी-इको कराने को कहा है, यह भी कहा है कि कोटा हार्ट अस्पताल में कराएँ तो बेहतर है। दो गोलियाँ लिख दी थीं। 

मैं घर आ गया। डाक्टर को दिखाने से मुझे और शोभा को संतुष्टि हो गयी थी। मैं ने अपने पड़ौसी केमिस्ट राज को डाक्टर का प्रेस्क्रिप्शन व्हाट्स एप्प पर भेजा और फोन किया। उसने तुरन्त मुझे गोलियाँ भिजवा दीं। इन में एक गोली एसिडिटी से बचाने को थी तो दूसरी खून का तनुकरण करने वाली। मैं ने डाक्टर की हिदायत के अनुसार तुरन्त ले ली। कुछ देर बाद मुझे अचानक याद आया कि दोपहर बाद जब हम गेहूँ को स्टोरेज में डाल रहे थे तो हरेक डिब्बे में एक-एक 10 ग्राम वाला सेल्फोस का पाउच डाला था। एक डिब्बे में गेहूँ का दूसरा कट्टा ठीक से खाली होने में समय लगा था। उस समय करीब आधा-पौन मिनट तक सल्फास की गंध नाक में चली गयी थी। यह बात मुझे तब तक याद ही नहीं आई थी। मैं डाक्टर को नहीं बता सका था। मैं ने गूगल किया तो पता लगा कि सल्फास से एक्सपोजर हो जाने पर मायोकार्डाइटिस (हृदय की पेशियों की सूजन) हो सकता है। मुझे एक्सपोजर अधिक नहीं हुआ था, लेकिन कुछ तो हुआ ही था,. मामूली असर तो हुआ ही होगा। 

रात को हलका भोजन, खिचड़ी खाई। दस बजे सोने गया तो फिर से बैचेनी महसूस हुई। छाती में रह रह कर हलका दर्द होने लगता था। कंधे और बाजू भी हलके दर्द कर रहे थे।, ऐसा लगता था जैसे उन की शक्ति का ह्रास हो गया हो। मैं निर्णय नहीं कर पा रहा था कि मुझे अस्पताल जाना चाहिए या रात घर पर ही निकाल देनी चाहिए। आखिर रात ग्यारह बजे बाद मैं ने केमिस्ट राज को फोन किया तो वह तुरन्त मेरे पास आया। मैं ने उसे बताया कि सल्फास एक्सपोजर हुआ था। उस के चेहरे पर मुस्कुराहट आई और कहा कि ऐसी कोई परेशानी वाली बात नहीं है। यदि दर्द बढ़े तो तुरन्त फोन करना मैं आ जाउंगा और किसी भी वक्त अस्पताल चल चलेंगे। 

मैं ने एक दर्द निवारक गोली और खाई और सो गया। रात दो बजे नीन्द खुली तो हालत वैसी ही थी। मैं पानी पी कर फिर सो गया। चार बजे फिर नीन्द खुल गयी और फिर दोबारा नहीं आयी। पाँच बजे मेरा वैसे ही उठने का समय होता है। मैं शयनकक्ष से हाल में आ गया और अपना कम्प्यूटर चालू कर अपना काम करने लगा। जिस से मेरा ध्यान मेरी बेचैनी से हट जाए। पाँच बजे शोभा भी उठ गयी। उसने मुझे कॉफी बना कर दी और उस के पहले खाली पेट खाने वाली गोली खाने को कहा। मैं ने शोभा के निर्देशों का अक्षरश अनुसरण किया। स्नानादि नित्यकर्म से निवृत्त होते ही शोभा ने उपमा बना दिया। मैं ने कुछ खाया। फिर कुछ आलस आने लगे तो मैं जा कर लेट गया। मुझे झपकी लग गयी। कोई बीस मिनट बाद उठा तो लगा कि अब बैचेनी नहीं है, किसी तरह का कोई दर्द नहीं है। कंधों और बाजुओँ में फिर से जान आ गयी है। मुझे लगा क सल्फास का असर जा चुका है। 

हम कोटा हार्ट अस्पताल साढ़े आठ बजे पहुँच गये। पता लगा कि हम बहुत जल्दी आ गये हैं। इको करना तो दस बजे आरंभ होगा। हम वापस घर आ सकते थे पर हमने वहीं रुकना ठीक समझा। फीस जमा की, नम्बर लगाया और वेटिंग लाउंज में आ बैठे। ओपीडी मे सफाई की जा रही थी। हमारा नंबर सवा दस बजे आया। दो मिनट में इको कर लिया। टेक्नीशियन ने बताया कि सब कुछ नोर्मल है। बीस मिनट में उस ने रिपोर्ट भी पकड़ा दी। हम घर लौट आए। सब कुछ ठीक था पर रात नीन्द न निकली थी। इसलिए दोपहर का भोजन कर के मैं सोया। खूब अच्छी नीन्द आई। शाम की चाय के बाद डाक्टर को दिखा कर आया। उसे बताया कि क्या हुआ था। वह सुन कर मुस्कुराया फिर उस ने सल्फास खाने से मर गए एक मरीज का किस्सा सुनाया। मैं वापसी में दिनेश के सेंटर हो कर आया। उस ने रिपोर्ट पढ़ कर कहा आप की हार्ट हेल्थ बहुत अच्छी है, आप दो-चार साल हार्ट की तरफ से निश्चिंत रह सकते हैं। 

रविवार, 27 फ़रवरी 2011

जीवन से विलग हुआ साहित्य महत्वहीन है

हिन्दी के शब्द 'साहित्य' और अंग्रेजी के 'लिटरेचर' (literature) का उपयोग अत्यन्त व्यापक किया जाता है। मेरे यहाँ कोई सेल्समेन आ कर घंटी बजाता है, वह कोई वस्तु बेचने के लिए उस के गुण-उपयोग समझाने लगता है। मुझे समय नहीं है, मैं उसे फिर कभी आने को कहता हूँ।  वह 'लिटरेचर रख लीजिए' कह कर एक पर्चा और दस पन्नों की किताब छोड़ जाता है। इन में किसी कंपनी के उत्पादों के चित्र और विवरण अंकित हैं। अब ये भी साहित्य है। हम धर्म संबंधी पाठ्य सामग्री को सहज ही धार्मिक साहित्य कह देते हैं, ज्योतिष विषयक पाठ्य सामग्री को ज्योतिष का साहित्य कहते हैं, दर्शन संबंधी पाठ्य सामग्री को दार्शनिक साहित्य कह देते हैं। लेकिन साहित्य शब्द का उपयोग केवल पुस्तकों तक ही सीमित नहीं रहता। लोक-साहित्य का अधिकांश अभी भी लिपिबद्ध नहीं है। वह लोक की के मुख में ही जीवित है, और बहुधा व्यवहृत भी, जिस में गीत, कहावतें, मुहावरे आदि हैं। इतना होने पर भी जब हिन्दी साहित्य या बांग्ला साहित्य कह देने से एक अलग अनुभूति होती है। यह उस का एक विशिष्ठ अर्थ है। यदि सभी पाठ्य सामग्री को हम व्यापक अर्थों में साहित्य मान लें तो उस में कुछ श्रेणियाँ खोजी जा सकती हैं। 
हली श्रेणी में हम ऐसी पाठ्य सामग्री पाते हैं जो हमारी जानकारी बढ़ाती हैं। उन्हें पढ़ने से हमें नई सूचनाएँ प्राप्त होती हैं। लेकिन वे हमारी बोध  क्षमता को  कहीं से छू भी नहीं पातीं। इसे हम सूचनात्मक साहित्य कह सकते हैं। दूसरी श्रेणी में हम दर्शन, गणित और विज्ञान आदि विषयों की सामग्री को रख सकते हैं जिन्हें हम विवेचनात्मक साहित्य कह सकते हैं। इस सामग्री के मूल में विवेकवृत्ति है जो भिन्न-भिन्न वस्तुओं, नियमों, धर्मों आदि के व्यवहार को स्पष्ट करती हैं। 
स तरह हम अनेक श्रेणियाँ खोज सकते  हैं। लेकिन पाठ्य सामग्री की एक श्रेणी है। कोई आवश्यक नहीं कि इस श्रेणी की पाठ्य सामग्री से हमें कोई नई सूचनाएँ प्राप्त हों ही। ये हमारी जानी हुई बातों को एक नई रीति से नए रूप में भी प्रस्तुत कर सकती हैं और बार-बार जानी हुई बातों को पढ़ने के लिए उत्सुक बनाए रखती है। यह सामग्री हमें सुख-दुख की वैयक्तिक संकीर्णता और दुनियावी झगड़ों से ऊपर ले जाती हैं और संपूर्ण मानवता, और उस से भी आगे बढ़ कर प्राणी मात्र के दुख-शोक, राग-विराग, आल्हाद-आमोद आदि को समझने के लिए एक दृष्टि प्रदान करती है। वह पाठक के हृदय को कोमल और संवेदनशील बनाती है जिस से वह क्षुद्र स्वार्थों को विस्मृत कर प्राणी मात्र के सुख-दुख को अपना समझने लगता है, सारी दुनिया के साथ आत्मीयता का अनुभव करता है। इसी भाव को सत्वस्थ होना कहा गया है। इस से पाठक को एक प्रकार का आनंद प्राप्त होता है जो स्वार्थगत दुख-सुख से परे है। इसे ही लोकोत्तर आनंद की संज्ञा भी दी जाती है। कविता, नाटक, उपन्यास, कहानी आदि इसी श्रेणी की पाठ्य सामग्री हैं। इसी को हम रचनात्मक साहित्य भी कहते हैं। यह सामग्री हमारे ही अनुभवों के ताने-बाने से एक नए रस-लोक की रचना करती है। साहित्य शब्द का विशिष्ठ अर्थ यही है।  
ही रचनात्मक साहित्य सारी दुनिया में बड़े चाव से पढ़ा जाता है। इसे लोग आग्रह के साथ पढ़ते हैं। यह मानव जीवन से उत्पन्न हो कर मानव जीवन को ही प्रभावित करता है। इसे पढ़ने के साथ ही हम जीवन के साथ ताजा और घनिष्ठ संबंध बनाते हैं। इस में मनुष्य की देखी, अनुभव की हुई, सोची, समझी बातों का सजीव चित्रण मिलता है। जीवन के जो पहलू हमें निकट से स्थाई रूप से प्रभावित करते हैं उन के विषय में मनुष्य के अनुभव को समझने का एक मात्र साधन यही साहित्यिक पाठ्य-सामग्री है। इस तरह यह उक्ति सही है कि भाषा के माध्यम से जीवन की अभिव्यक्ति ही 'साहित्य' है। इसे जीवन की व्याख्या भी कहा गया है। हम इसे इस तरह भी समझ सकते हैं कि जीवन की गति जहाँ तक है वहाँ तक साहित्य का क्षेत्र है, जीवन से विलग हुआ साहित्य महत्वहीन है।

शुक्रवार, 3 दिसंबर 2010

मेरी हड्डियाँ आर्सेनिक से बनी हैं।

वे पाँच बहुत इतराते हैं। हम हैं तो जीवन है। वह छठा? उस के लिए कहा जाता है कि वह घातक विष है, जीवन नष्ट करने वाला।
ब उन पाँचों के इतराने का वक्त ख़त्म हुआ। एक जगह उन पाँचों में से एक गायब पाया गया। उस के स्थान पर छठा मौजूद था, और जीवन बरकरार। 
नासा ने घोषणा की है कि उन्हों ने प्रकृति में ऐसा जीवित बैक्टीरिया पाया है जिसमें जीवन के लिए आवश्यक पाँच तत्वों कार्बन, हाइड्रोजन, नाइट्रोजन ऑक्सीजन फॉसफोरस और सल्फर में से फॉस्फोरस को आर्सेनिक से बदला गया और वह उस के बाद न केवल जीवित रहा अपितु उस ने प्रजनन भी किया। अब तक यह माना जाता था कि जीवन के लिए ये पाँच तत्व ही आवश्यक हैं। लेकिन आज उन में से एक अनावश्यक सिद्ध हो चुका है, उस के स्थान पर एक अन्य पाँचवें ने ले ली है। इस आविष्कार ने प्रकृति में जीवन के नए रूपों की संभावना को प्रबल किया है। कभी प्रकृति में ऐसा जीवन भी देखने को मिल सकता है जिस की कभी मनुष्य ने कल्पना भी न की हो। प्रकृति असीमित है और उस की संभावनाएँ भी, और जीवन वह अक्षुण्ण है। 
किसी दिन अखबार में यह समाचार हो सकता है कि एक बैक्टीरिया ने दूसरे से कहा, तुम पुरातनवादी! अभी तक फॉसफोरस इस्तेमाल करते हो। मुझे देखो! मैं ने उसे कभी से त्याग दिया है। मैं आर्सेनिक इस्तेमाल करता हूँ। कोई विज्ञापन दिखाई दे सकता है जिस में  खली टाइप कोई व्यक्ति यह कहता नजर आए, मैं विश्वचैम्पियन हूँ, मेरी हड्डियाँ आर्सेनिक से बनी हैं। हम विषकन्याओं के बारे में पढ़ते-सुनते आए हैं। पर यह बैक्टीरिया वह पहली विषकन्या है जिस के पास अपने शरीर में उर्जा संवाहक अणु में फॉस्फोरस के स्थान पर घातक विष आर्सेनिक (संखिया) मौजूद है।

सोमवार, 13 सितंबर 2010

लालच में कैद सोच !!!

निवार की सुबह जयपुर निकलना था। सुबह छह बजे महेश जी टैक्सी समेत आ गए। बरसात के कारण सड़क खराब थी। आम तौर पर जो मार्ग साढ़े तीन-चार घंटों में तय हो जाता है उस में साढ़े पाँच घंटे लग गए। हमें कई स्थानों पर जाना था। टैक्सी ड्राइवर टैक्सी को बाहर खड़ा रखता। हर बार जब भी हम काम से निपट कर टैक्सी पर लौटे ड्राइवर टैक्सी पर तैयार मिला। जयपुर से वापसी में हमें रात के साढ़े आठ बज गए। हम दोनों टैक्सी की पिछली सीट पर ही रहे थे। ड्राइवर से अधिक बात करने का अवसर नहीं मिला। लेकिन जैसे ही हम जयपुर से कुछ दूर गए होंगे। महेश जी ने लघुशंका के लिए कार रुकवाई और मुझे आगे बैठने को कहा, शायद उन्हें नींद आ रही थी। मैं आगे की सीट पर ड्राइवर के साथ आ गया।
मैं ने ड्राइवर से बातचीत आरंभ की। वह चूरू का रहने वाला था और कोटा में नौकरी कर रहा था। उस की उम्र यही कोई 20-25 वर्ष के बीच रही होगी। मुझे आश्चर्य हुआ कि वह घर से बहुत दूर नौकरी करता है। उसी ने बताया कि उसे चार हजार रुपए मिलते हैं और वह कोटा में टैक्सी मालिक के साथ ही रहता है, उस का भोजन भी वहीं बनता है। बात ही बात में वह बताने लगा कि जब टैक्सी ले कर काम पर निकलता है तो मालिक उसे पैसा नहीं देता। उसे सवारी से ही लेना पड़ता है चाहे टैक्सी के लिए डी़जल डलवाना हो या उस के अपने खर्चे के लिए हो। मालिक तो उसे खाने के पैसे भी नहीं देता और नाइट के पैसे भी नहीं देता। जब कि पैसेन्जर से वह नाइट के अलग पैसे चार्ज करता है। उस का कहना था कि खाने का जुगाड़ भी पैसेंजर के साथ ही करना होता है या फिर अपनी जेब से देना होता है।
मैं ने उस से पूछा कितने घंटे गाड़ी चलानी पड़ती है। बताने लगा, मैं 72 घंटे तक लगातार गाड़ी चला चुका हूँ। रात को दो बजे गाड़ी ले कर लौटा था। फिर चार बजे उठना पड़ा। अब आप के साथ हूँ। सुबह फिर पाँच बजे अगली बुकिंग पर जाना है। मैं ने कहा तुम बीच में विश्राम नहीं करते? उस का उत्तर था कि जब गाड़ी कहीं खड़ी होती है तो नींद निकाल लेता हूँ।  रात को बारह बजे के कुछ देर पहले गाड़ी मिडवे पर एक रेस्टोरेंट पर उस ने खड़ी की। दिन में उसने हमारे साथ ही भोजन किया था। मुझे लगा कि उसे भूख लगने लगी होगी। मैं ने ड्राइवर से पूछा तो कहने लगा वह चाय पिएगा। खाना खाएगा तो शायद नींद आने लगे। मुझे भय लगने लगा, हो सकता है थकान के कारण वह रास्ते में झपकी ले ले। मैं ने महेश जी को जगाया। पूछा कुछ खाना-पीना हो तो खा-पी लो।
हेश जी उतर कर आए तो कहने लगे दाल-रोटी खाएंगे। मैं ने ड्राइवर से फिर पूछा तो कहने लगा - मैं भी खा ही लेता हूँ। रात को दो बज जाएंगे वहाँ खाना मिलेगा नहीं। तीनों के लिए दाल-रोटी आ गई। हम आधे  घंटे में वापस गाड़ी में थे। रोटी खा लेने का असर ये हुआ कि मुझे झपकी लगने लगी। मैं जबरन अपनी नींद को रोकता रहा। ड्राइवर से बात करता रहा। उस ने बताया कि वह तीन-चार माह इस गाड़ी पर काम कर लेता है। फिर दो माह के लिए वापस गाँव चला जाता है। दूसरे ड्राइवर तो एक माह से अधिक काम नहीं कर पाते। मैं ने उसे कहा -तुम बीच में अपने मालिक से आराम का समय देने को नहीं कहते। वह बोला -अभी एक सप्ताह पहले कहा था तो मालिक कहने लगा मैं दूसरे ड्राइवर को बुला लेता हूँ, तुम सुबह हिसाब कर जाना। अब मुझे एक माह ही हुआ है वापस लौटे। बस दो माह और काम करूंगा, फिर गाँव जाऊंगा। हो सकता है इस बार इस मालिक के यहाँ काम पर न लौटूँ। रात ढाई बजे गाड़ी मेरे घर पर थी। मैं सोच रहा था -टैक्सी ऑपरेटर कमाने के चक्कर में न केवल ड्राइवरों का शोषण करते हैं बल्कि ड्राइवरों को आराम का पर्याप्त समय न दे कर वे सवारियों की जान के साथ भी खेलते हैं। सही है पैसा कमाने का जुनून और लालच ने लोगों की सोच को ही बंदी बना लिया है।