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गुरुवार, 12 नवंबर 2009

भाजपा की गुटबाजी और अंतर्कलह के कारण के कारण काँग्रेस की पौ-बारह

ल जैसे ही नामांकन का दौर समाप्त हुआ। मौसम बदलने लगा। अरब सागर से उत्तर की ओर बढ़ रहे तूफान का असर कोटा तक पहुँच ही गया। बादल तो सुबह से थे ही, शाम को बूंदा-बांदी आरंभ हो गयी। रात को भी कम-अधिक बूंदा-बांदी होती रही। सुबह उठा तो बाहर नमी और शीत थी, साथ में हवा थी। मैं अखबार ले कर दफ्तर में बैठा तो दरवाजा खुला रख कर बैठना संभव नहीं हुआ। उसे बंद करना ही पड़ा। मेरे अपने वार्ड से एक वकील साथी ज्ञान यादव को काँग्रेस से टिकट मिला है। मैं ने अखबार में नाम देखना चाहा तो वहाँ मेरे  वार्ड से पर्चे भरने वाले काँग्रेस प्रत्याशी का उल्लेख ही नहीं था। और भी कुछ वार्डों के प्रत्याशियों के नाम गायब थे। इतने में ज्ञान टपक पड़े। मुझ से मोहल्ले की स्ट्रेटेजी समझने के लिए। मैं  ने अपने हिसाब से उन्हें सब कुछ बताया। मैं ने उन से सोलह तारीख तक मुक्ति मांग ली कि मैं बाहर रहूँगा।

सबूतों पर चटका लगाएँ
महापौर के लिए अरूणा-रत्ना मैदान में

अंतिम दिन के पहले तक सब से बड़ा सस्पैंस इस बात का रहा कि महापौर पद की उम्मीदवार कौन होंगी। आखिर सुबह के अखबारों से खबर लगी कि घोषणा करने की पहल काँग्रेस ने की। उस ने नगर की एक महिला चिकित्सक रत्ना जैन को अपना उम्मीदवार बनाया। उम्मीदवार होने तक वह पार्टी की साधारण सदस्या भी नहीं थी। जब उसे बताया गया कि उसे चुनाव लड़ना है तो वह अपने अस्पताल में मरीज देख रही थी। कोई पूर्व राजनैतिक जीवन नहीं होने के कारण उस की छवि स्वच्छ है। अपना स्वयं का अस्पताल होने से प्रशासन का अनुभव भी है। अस्पताल सस्ता है और निम्न से मध्यम वर्ग के लोगों को उत्तम चिकित्सा प्रदान करता है। स्वयं उन के और उन के बाल रोग विशेषज्ञ पति के लोगों के प्रति विनम्र और सहयोगी व्यवहार के कारण वे नगर में लोकप्रिय हैं। काँग्रेस ने अपने सदस्यों के स्थान पर उन्हें महापौर का प्रत्याशी बना कर पहले ही लाभ का सौदा कर लिया है। भाजपा ने अपनी बीस वर्षों से सदस्या रही अरुणा अग्रवाल को अपना प्रत्याशी बनाया है। लोग उन्हें जानते हैं। लेकिन राजनैतिक जीवन के अतिरिक्त उन की कोई अन्य उपलब्धि नहीं रही है। वे बीस वर्षों में अपना कोई स्वतंत्र व्यक्तित्व नहीं बना सकीं। इस कारण वे डॉ. रत्ना जैन से उन्नीस ही पड़ती हैं। यदि उन्हें जीतना है तो उन्हें बहुत मेहनत करनी पड़ेगी। इन दो उम्मीदवारों के अलावा चार और भी महापौर के पद के लिए उम्मीदवार हैं जिन में एक बसपा की हैं।

गता है कि इस बार भाजपा राष्ट्रीय स्तर से ले कर स्थानीय स्तर तक गुट युद्ध की शिकार है। अंतिम समय पर महापौर और पार्षदों के प्रत्याशी चुने जाने का नतीजा यह हुआ कि भाजपा प्रत्याशी की चुनावी रैली फीकी रही। बहुत से महत्वपूर्ण व्यक्ति उन की रैली से गायब रहे और गुटबाजी का सार्वजनिक प्रदर्शन हो गया। प्रमुख नेताओं ने यहाँ तक कह दिया कि जिन ने टिकट दिया है वही प्रत्याशी को जिता ले जाएंगे। 
सबूतों पर चटका लगाएँ 



पैदल निकाली नामांकन रैली, बडे नेता रहे गायब
चतुर्वेदी समर्थकों का वर्चस्व
 इस सारी परिस्थिति ने काँग्रेस को उत्साह से भर दिया है। उन के सांसद ने भाषण दिया कि 'जीत के लिए करें पूरी मेहनत' लेकिन फिर भी नहीं थमा बगावत का दौर  दोनों दलों के कुल मिला कर 79 बागी चुनाव मैदान में उतर ही गए। लेकिन भाजपा के बागी तो लगभग हर एक वार्ड में मौजूद हैं, जब कि काँग्रेस के केवल सोलह में।
चुनाव प्रचार का आरंभ आज से हो जाना था। लेकिन सुबह से हो रही बरसात ने उस को बाहर न आने दिया। अदालत में जिस तंबू में वकीलों का क्रमिक भूख हड़ताल करने वालों का दल बैठता था वह बरसात में तर हो गया। भूख हड़तालियों को अदालत के अंदर जा कर टीन शेड के नीचे शरण लेनी पड़ी। एक तो हड़ताल और ऊपर से बरसात। अदालत में कोई नजर नहीं आया। हमने अपने मित्रों को अदालत में न पाकर फोन किए तो पता लगा वे घरों से आए ही नहीं थे। दिन भर की बरसात ने सरसों और गेहूँ की खेती करने वालों के चेहरों पर रौनक पैदा कर दी है। मैं सोच रहा हूँ कि कल सुबह तक तो बरसात रुकेगी और सुबह घनी धुंध हो सकती है। पर दोपहर तक धूप निकल आए तो अच्छा है। परसों सुबह आरंभ होने वाली मेरी यात्रा ठीक से हो सकेगी।

चित्र में डॉ. रत्ना जैन अपने समर्थकों के बीच, चित्र  दैनिक भास्कर से साभार

बुधवार, 11 नवंबर 2009

कोटा निगम में महिलाओं का बाहुल्य होगा





वैसे तो कोटा संभाग के वकील हड़ताल पर हैं, लेकिन अदालत तो रोज ही जाना होता है। कोटा में स्टेशन से नगर को जाने वाले मुख्य मार्ग के एक और जिला अदालत परिसर है और दूसरी ओर कलेक्ट्रेट परिसर। बहुत सी अदालतें कलेक्ट्रेट परिसर में स्थित हैं। रोज हजारों लोगों का इन दोनों परिसरों में आना जाना लगा रहता है। पिछले 75 दिनों से वकीलों की हड़ताल के कारण लोगों की आवाजाही बहुत कम हो गयी है। आकस्मिक और  अत्यंत आवश्यक कामो के अतिरिक्त कोई नया काम नहीं हो रहा है। पुराने मुकदमे जहाँ के तहाँ पड़े हुए हैं। यहाँ तक कि सुबह 10.30 बजे से दोपहर 2.00 बजे तक तो जिला अदालत परिसर के दोनों द्वार आंदोलनकारी बंद कर उन पर ताला डाल देते हैं और एक तीसरे दरवाजे के सामने उन का धरना लगा होता है। जिस से कोई भी न तो अदालत परिसर में प्रवेश कर पाता है और न ही बाहर निकल पाता है। वकील धरने पर होते हैं या फिर सड़क पर या कलेक्ट्रेट परिसर की चाय-पान की दुकानों पर। दोपहर दो बजे के बाद ही अदालतें आकस्मिक और आवश्यक कामों का निपटारा कर पाती हैं। इस से पहले वे पुराने मुकदमों की तारीखें बदलने का काम करती हैं। इन 75 दिनों में पेशी पर हाजिर न हो पाने के लिए किसी मुलजिम की जमानत जब्त नहीं की गई है और न ही कोई वारंट जारी हुआ है। नए पकड़े गए मुलजिमान की जमानतें अदालतें अपने विवेक और कानून के मुताबिक ले लेती हैं या नहीं लेती हैं। न्यायिक प्रशासन ठप्प पड़ा है, लेकिन सरकार को कोई असर नहीं है। उस के लिए समाज में न्याय न होने से कोई अंतर नहीं पड़ता।

स क्षेत्र में हडताल के कारण छाए इस सन्नाटा पिछले तीन दिनों से टूटा है। अब यहाँ सुबह 10 बजे से ढोल बजते सुनाई देते हैं। लोग गाते-नाचते, नारे लगाते प्रवेश करते हैं। एक तरह का हंगामा बरपा है। लगता है जैसे नगर में कोई उत्सव आरंभ हो गया है। राजस्थान के 46 नगरों में आरंभ हुआ यह उत्सव नगर के स्थानीय निकायों के चुनाव का है। इन में राज्य के 4 नगर निगम, 11 नगर परिषद एवं 31 नगर पालिकाएँ सम्मिलित हैं।  जिन के लिए 1 हजार 612 पार्षद चुने जाएँगे। अब तक किसी भी निकाय के लिए चुने गए पार्षद ही उन के महापौर या अध्यक्ष का चुनाव करते थे लेकिन नगरपालिका कानून में संशोधन के उपरांत अब महापौर और अध्यक्ष को सीधे जनता चुनेगी। इस तरह  के लिए चुनाव कराए जाएंगे। राज्य में जयपुर के अतिरिक्त कोटा, जोधपुर, एवं बीकानेर के नगर निगमों के चुनाव होने जा रहे हैं।


कोटा में 60 वार्डों के लिए पार्षदों के पदों के लिए नामांकन भरना परसों आरंभ हुआ था। लेकिन दोनों प्रमुख दलों काँग्रेस और भाजपा द्वारा प्रत्याशियों की सूची अंतिम नहीं किए जाने के कारण पहले दिन कोई तीन-चार लोगों ने ही नामांकन दाखिल किया। दूसरे दिन भी सुबह तक प्रत्याशियों की सूची अंतिम नहीं हुई इस कारण गति कम ही रही। लेकिन तीसरे और अंतिम दिन तो जैसे ज्वार ही आ गया था। इन तीन दिनों के लिए शहर से स्टेशन जाने वाली मुख्य सड़क पर यातायात पूरी तरह रोक दिया गया था। सारा  यातायात पास वाली दूसरी सहायक सड़क से निकाला जा रहा था। लेकिन आज तो स्थिति यह थी कि उस सड़क को भी दो किलोमीटर पहले के चौराहे से यातायात के लिए बंद कर दिया था। केवल छोटे वाहन जा सकते थे। शेष यातायात एक किलोमीटर दूर तीसरी समांनान्तर सड़क से निकाला जा रहा था। वैसे इस मार्ग के लिए नगर में चौथी कोई सड़क उपलब्ध भी नहीं है।
 भीड़-भाड़ वाले माहौल को देख कर मैं एक बजे घर से रवाना हुआ था। लेकिन मुझे तीन चौराहों पर रोका गया और यह जानने के बाद ही कि मैं वकील हूँ और अदालत जाना चाहता हूँ मेरे वाहन को उस ओर जाने दिया गया। अदालत पहुँचा तो वहाँ चारों ओर कान के पर्दे फाड़ देने की क्षमता रखने वाले ढोल बज रहे थे। हर ढोल के साथ माला पहने कोई न कोई प्रत्याशी या तो पर्चा दाखिल करने जा रहा था या भर कर वापस लौट रहा था। रौनक थी, भीड़ थी और शोर था। इस बार नगर निकायों के चुनाव में महिलाओं को पचास प्रतिशत आरक्षण मिला है इस कारण से तीस पद तो महिलाओं के लिए आरक्षित हैं ही, कोटा में तो महापौर का पद भी महिला करे लिए आवश्यक है। इस तरह चुनी जाने वाला नगर निगम महिला बहुमत वाला होगा जिस में 31 महिलाएँ और 30 पुरुष होंगे। महिलाएँ तो अनारक्षित वार्डों से भी चुनाव लड़ सकती हैं। ऐसे में यह भी हो सकता है कि महिलाओं की संख्या और भी अधिक और पुरुष और भी कम हो जाएँ। हालांकि यह हो पाना अभी संभव नहीं है।
पर्चा दाखिल करने आई प्रत्येक महिला के साथ कम से कम पन्द्रह बीस महिलाएँ जरूर थीं। जिन में घरेलू महिलाओं की संख्या दो तिहाई से अधिक ही दिखाई दी। वे समूह में इकट्ठा चल रही थीं और पुरुषों की तरह भीड़ नहीं दिखाई दे रही थीं। वे अनुशासित लगती थीं। लगता था किसी समारोह के जलूस की तरह हों। जैसे विवाह में वे बासन लेने या माता पूजने के लिए समूह में निकलती हैं। महिलाएँ कम ही इस तरह सार्वजनिक स्थानो पर आती जाती हैं। लेकिन जब भी जाती हैं वे सुसज्जित अवश्य होती हैं। इन की उपस्थिति ने अदालत परिसर और कलेक्ट्रेट परिसर के बीच की चौड़ी सडक को रंगों से भर दिया था। तीन बजे बाद पर्चा दाखिल होने का समय समाप्त होने के बाद रौनक कम होती चली गई। चार बजते बजते तो वहाँ वही लोग रह गए जो रोज रहा करते हैं।

दोनों ही दलों के प्रत्याशियों की घोषणा से जहाँ कुछ लोगों को प्रसन्नता हुई थी वहीँ बहुत से लोग नाराज भी थे कि जम कर गुटबाजी हुई है। भाजपा में अधिक असंतोष नजर आया। भाजपा का नगर कार्यालय उस रोष का शिकार भी हुआ। वहाँ कुछ नाराज लोग ताला तोड़ कर घुस गए और सामान तोड़ फोड़ दिए जिन में टीवी, पंखे आदि भी सम्मिलित हैं। आज शाम को जब मैं दूध लेने बाजार गया तो पता लगा कि भाजपा के असंतुष्ट गुटों ने साठों वार्डों में अपने समानान्तर प्रत्याशी खड़े कर दिए हैं। अब नगर पन्द्रह दिनों के लिए चुनाव उत्सव के हवाले है। इन पन्द्रह दिनों में बहुत दाव-पेंच सामने आएँगे। आप को रूबरू कराता रहूँगा।

मंगलवार, 26 मई 2009

इस युग का प्रधान वैषम्य : जनतन्तर कथा (34)

 
 हे, पाठक!
सूत जी ने शीतल जल ग्रहण किया।  कण्ठ में नमी पहुँची तो आगे बोले -सनत! तुम लाल फ्रॉक वाली बहनों के बारे में जानना चाहते थे कि ये अलग क्यों हैं? लेकिन पहले कुछ और बातें जान लो।  पशु पालन के युग में लक्ष्मी गैयाएँ हुआ करती थीं। उन के पीछे युद्ध लड़े गए। फिर जब कृषि आरंभ हो गई और राजशाही का य़ुग आया तो लक्ष्मी ने भू-संपत्ति का रूप ले लिया।  लेकिन जब भाप के इंजन के आविष्कार ने उत्पादन में  क्रान्ति ला दी  तो लक्ष्मी उत्पादन के साधनों में जा बसी है।  उत्पादन के ये साधन ही पूंजी हैं।  जिस का उन पर अधिकार है उसी का दुनिया  में शासन है।  उत्पादन के वितरण के लिए बाजार चाहिए।  इस बाजार का बंटवारा दो दो बार इस दुनिया को युद्ध की ज्वाला में झोंका चुका है।  लक्ष्मी सर्वदा श्रमं से ही उत्पन्न होती है इसी लिए उस का एक नाम श्रमोत्पन्नाः है।  तब उस पर श्रमजीवियों का अधिकार होना चाहिए पर वह उन के पास नहीं है।  पूँजी के साम्राज्य की विषद व्याख्या सब से पहले मरकस बाबा ने की।  उन्हों ने बताया कि इस युग का सब से प्रधान वैषम्य यही है कि श्रमोत्पन्ना पर श्रमजीवियों का अधिकार नहीं है।  जब तक यह वैषम्य हल नहीं होता तब तक समाज में अमानवीयता रहेगी, युद्ध रहेंगे, बैर रहेगा।  इतिहास में हल हुए वैषम्यों का अध्ययन कर उन्हों ने वर्तमान वैषम्य को हल करने के मार्ग का अनुसंधान किया कि दुनिया के श्रमजीवी एक हो कर श्रमोत्पन्ना पर सामुहिक रुप से अधिकार कर लें।  इसी अवस्था को उन्हों ने समाजवाद कहा।  यह भी कहा कि इस अवस्था में श्रमजीवी श्रम के अनुपात में अपना-अपना भाग प्राप्त करते हुए उत्पादन के साधनों को इतना विकसित करें कि मामूली श्रम से प्रचुर उत्पादन होने लगे।  तब ऐसी अवस्था का जन्म होगा जिस में लोग यथाशक्ति श्रम करेंगे और आवश्यकतानुसार उपभोग करने लगेंगे।  ये लाल फ्रॉक वाली बहनें स्वयं को उन  मरकस बाबा की ही अनुयायी कहती हैं।  ये अन्य दलों से इसीलिए भिन्न हैं, क्यों कि ये उस  वैषम्य को हल करने को प्रतिबद्ध होने की बात कहती हैं, जब कि अन्य दल इस वैषम्य को शाश्वत मानते हैं और पूँजी लक्ष्मी की सेवा में जुटे हैं। 

हे, पाठक!
सूत जी इतना कह कर रुके।  जल पात्र से दो घूँट जल और गटका।  इसी बीच सनत फिर पूछ बैठा -गुरूवर! जब लाल फ्रॉक वाली सब बहनें इस वैषम्य को हल करने को प्रतिबद्ध हैं तो फिर इन के अलग अलग खेमे क्यों हैं?  और आपस में मतभेद क्यों हैं?
सूत जी बोले -मरकस बाबा ने यह भी बताया था कि लक्ष्मी की इस नयी अवस्था के स्वरूप ने श्रमजीवियों को पुरानी भू-संपत्ति की प्रधानता की अवस्था की अपेक्षा नयी स्वतंत्रताएँ प्रदान की हैं।  इसी नयी अवस्था ने किसानों को उन के अथाह मानव श्रम का लक्ष्मी के विस्तार के लिए उपयोग करने के लिए सामंतों की पराधीनता से मुक्ति दिलाई।  उसी ने मनुष्यों को स्वतंत्रता की सौगात दी। जिस से मनुष्य किसी एक सामंत का बन्धुआ नहीं रहा।  इसी अवस्था ने बाजार को जन्म दिया।  जिस में उत्पादन साधनों के स्वामी अपने माल को कहीं भी किसी को भी विक्रय कर सकते थे और मुक्त श्रमजीवी भी कहीं भी किसी को भी अपने श्रम को बेच सकते थे।  मुक्त बाजार और श्रमजीवियों की आवश्यकता ने सामंती शासनों को  नष्ट करने का बीड़ा उठाया और दुनिया के एक बड़े भाग को उस से मुक्त करा दिया।  आधुनिक जनतंत्र को जन्म दिया, वयस्क मताधिकार से शासन चुनने का अधिकार दिया।  दुनिया के लोगों को एक नया सुखद अहसास हुआ।  इस सुखद अहसास के चलते नए वैषम्य का वर्षों तक अहसास ही नहीं हुआ।  मरकस बाबा ने कहा था कि जब य़ह अवस्था चरम विकास पर पहुँच कर पतन की ओर बढ़ने लगेगी, जब  वैषम्य अत्यन्त तीव्र हो उठेगा तभी इसे हल करना संभव हो सकेगा,  तब तक नयी अवस्था का आगमन दुष्कर होगा।  लेकिन एक बार स्वर्ग द्वार दृष्टिगोचर हो जाने पर कौन रुकता है? यदि मृत्यु पश्चात स्वर्ग प्राप्ति सुनिश्चित हो जाए तो लोग तुरंत मृत्यु के वरण को तैयार रहने लगेंगे।  तो नए नए विश्लेषण आने लगे, नए नए सिद्धान्त प्रतिपादित हुए, उन के अनुरूप ही कार्यनीतियाँ तय होने लगीं।  इन्हीं  ने मरकस बाबा के अनुयायियों में मतभिन्नता उत्पन्न की और विश्व में सैंकड़ों दल उत्पन्न हो गए।  भारतवर्ष में ही इन की संख्या सौ से कम न होगी। 

हे, पाठक! 
सूत जी तनिक रुके तो सनत का अगला प्रश्न तैयार था।  -इस तरह तो इन बहनों को श्रम जीवियों का विपुल समर्थन प्राप्त होना चाहिए था। विगत बाईस वर्षों से लग भी रहा था कि जहाँ ये पैर जमा लेती हैं, वह अंगद का पाँव हो जाता है।  फिर यह क्या हुआ कि इन की संख्या इस बार आधी ही रह गई? 
सूत जी बोले -सनत! लगता है आज मुझे सारी रात निद्रा नहीं लेने दोगे।  मुझे सुबह नैमिषारण्य के लिए प्रस्थान करना ही है।  मैं तुम्हारे इस प्रश्न का तो उत्तर दे रहा हूँ।  अब अगला प्रश्न मत करना।  हाँ जिज्ञासाएँ उत्पन्न हों तो  उन्हें स्वयँ अपने प्रयत्न से भी शान्त करने का प्रयास करना सीखो।  फिर कभी भी तुम नैमिषारण्य आ सकते हो। वहाँ तुम्हारी जिज्ञासाओं को शान्त करने के साथ बहुत से मुनिगण भी इस का लाभ उठा सकेंगे। 
-गुरूवर! जैसी आज्ञा।  आप विश्राम करें मैं ने आप को आज बहुत सताया, उस के लिए क्षमा करें? सनत संकोच से बोला। 
हे, पाठक! 
सूत जी ने आज अंतिम रूप से बोलना आरंभ किया -सनत!  इन लाल फ्रॉक वाली बहनों का मुख्य काम था श्रम जीवियों निकट बने रहना, उन में एकता स्थापित करना और उस का विस्तार करना। लेकिन एक अवसर प्राप्त होते ही वे संप्रदायवाद के विरोध के बहाने लक्ष्मी-साधकों के सहयोग में आ खड़ी हुईं।  जिन श्रमजीवियों की एकता स्थापित की थी, श्रेष्ठ रोजगार के वैकल्पिक साधनों की व्यवस्था किए बिना उन के रोजगार के वर्तमान साधनों को छीनने के लिए तत्पर हो गईं और राज्य शक्ति का उपयोग किया।  अंत में एक ऐसे बिंदु पर जिस का कोई स्पष्ट प्रभाव श्रमजीवी जनता पर नहीं पड़ रहा था, लक्ष्मी-साधकों का साथ छोड़ कर कथित संप्रदायवादियों के साथ खड़े हो गए।   जब जनता के पास जाने का समय आया तो क्षुद्र लक्ष्मी-साधकों के साथ तीसरे मोर्चे का दिवा स्वप्न संजोने लगे। इन गतिविधियों ने श्रमजीवियों के बीच वर्षों में कमाई गई विश्वसनीयता को खंडित कर दिया।जब विश्वसनीयता खंडित होती है तो सात जन्म तक साथ निभाने का वचन लेने वाले पति-पत्नी भी एक दूसरे के नहीं रहते तो श्रमजीवी उन का साथ क्यों न छोड़ देते? यही उन के साथ हुआ।  उन्हें जनता ने सही सबक सिखाया है।  बल्कि यह सबक सिखाने में जनता ने बहुत देर कर दी।  यह सबक तो उसी समय सिखाना चाहिए था जब ये बहनें विपथगामी हो गयी थीं। 
सूत जी ने अंतिम वाक्य कहा तो सनत बोल पढ़ा।  गुरुवर! अब आप विश्राम करें।  आप ने उत्तर भी दे दिया और अनेक ज्वलंत प्रश्न मेरे मस्तिष्क में छोड़ दिए हैं।  आप की आज्ञा से स्वयं इन प्रश्नों का उत्तर खोजने का प्रयत्न करूंगा।  पर लगता है मुझे शीघ्र ही नैमिषारण्य आना पड़ेगा,  और आते रहना पड़ेगा।

हे, पाठक!
सूत जी प्रातः नैमिषारण्य के रवाना हो गए।  सनत उन्हें रेलगाड़ी में बिठा कर आया।  गाड़ी चल देने के उपरांत सनत सोच रहा था,  नैमिषारण्य यात्रा शीघ्र ही करनी पड़ेगी।  हो सकता है वहाँ बार बार जाना पड़े।  सनत के लिए जनतन्तर कथा यहाँ समाप्त नहीं हुई थी, यह तो आरंभ था। 
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....

गुरुवार, 21 मई 2009

उत्सव मत्तता और शांतम् ज्वालाः : जनतन्तर कथा (31)

हे, पाठक!
अगले तीन दिन तक सूत जी और सनत दोनों विभिन्न दलों के कार्यालयों में गए और लोगों से मिलते रहे।  बैक्टीरिया दल में उत्सव का वातावरण था जैसे उन्होंने परमबहुमत प्राप्त किया हो और जैसे वे संविधान को ही बदल डालेंगे।  उत्सव मनाने वाले लगता था मत्त हो उठे हैं। किसी को यह ध्यान ही नहीं था कि अभी भी  दल बहुमत से बहुत दूर है।  गठबंधन के खेतपति जोड़ने पर भी बहुमत नहीं था।  किन्तु नेता आत्मविश्वास से भरपूर नजर आते थे। वे जानते थे कि अब स्थिति यह आ गई है कि समर्थन देने वालों की पंक्तियाँ लग लेंगी।  हुआ भी यही।  पुराने समय में किसी राजा द्वारा किसी नगर पर विजय प्राप्त  कर लेने के उपरांत नगर के श्रेष्टीगण जिस तरह नजराना ले कर उपस्थित होते थे वैसे ही छोटे छोटे दल जो पहले से ही छोटे थे या फिर जो नाई के यहाँ केश सजवाते सजवाते मुंडन अथवा मुंडन के समीप के किसी केश विन्यास को प्राप्त कर बैठे थे पंक्ति बद्ध हो कर थाल सजा लाए थे। थाल सुंदर सजीले कपड़ों से आवृत थे। लेकिन उन के नीचे कठिनाई से विजय प्राप्त करने वाले खेतपतियों के सिर हिलते दिखाई पड़ जाते थे।  इन में एक व्यक्ति सर्वाधिक चिंतित दिखाई पड़ता था।  पिछले दिनों इस के लिए नए घर का संधान किया जा रहा था जो चुनाव परिणामों के उपरांत रोक दिया गया था।  उसे लगता था कि इस बार कांटों का ताज पहनाया गया है उसे।  वह लगातार कह रहा था कि निवेश बढाना पड़ेगा, नियोजन उत्पन्न करना पड़ेगा। वरना .... वरना क्या? लोग यहाँ से धक्का मारने में देरी भी नहीं करेंगे।

हे, पाठक!
उधर वायरस दल में कल तक जो मायूसी का वातावरण था वह अब कुछ कम होने लगा था।  वहाँ कुछ थे जो इन परिस्थितियों की प्रतीक्षा में थे।  वे तुरंत उठ खड़े हुए थे और प्रतीक्षारत प्रधान जी के दल मुखिया का पद त्याग देने के विचार का स्वागत कर रहे थे।  लगता था कि घरेलू अखाड़ा जो बहुत दिनों से किसी मल्ल की प्रतीक्षा में था उसे शीघ्र ही बहुत से मल्ल मिलने वाले हैं।  पर तभी भारतीय संस्कृति आड़े आ गई।  शोक के दिनों में तो खटिया पर सोने और पादुकाएं धारण करने की भी मनाही होती थी ऐसे में अखाड़ा कैसे सजाया जा सकता था।  पर लोग तो अखाड़े के निकट जा खड़े हुए थे। यहाँ तक कि पड़ौसी ताक झाँक करने लगे थे कि कब जोर आरंभ हो और वे अपनी मनोरंजन क्षुधा का अंत करें।  अंत में कुछ बुजुर्गो ने संस्कृतिवटी की कुछ खुराकें दीं तो प्रतीक्षारत प्रधान जी महापंचायत में दलप्रधान बने रहने को तैयार हो गए।  बेचारा अखाड़ा फिर रुआँसा हो गया।  जिन लोगों ने जोर करने की ठान ली थी वे अपने घरों को जाकर अभ्यासरत हो गए, जिस से निकट भविष्य में अवसर मिलने पर अखाड़े में पिद्दी साबित न हों।  

हे, पाठक!
इन लोगों ने मायूसी हटाने का एक बहाना और तलाश लिया था।  वे कह रहे थे, आखिर अच्छी शास्त्रीय कविता, या संगीत समझ पाना हर किसी के बस की बात नहीं।  हम समझ रहे थे कि लोग हमारी इस कला को आसानी से आत्मसात कर लेंगे।  संस्कारी लोग हैं, प्रसन्न होंगे और खूब तालियाँ बजाएंगे।  लेकिन अब पता लगा कि लोगों को तो शास्त्रीय कला को देखे वर्षों ही नहीं शताब्दियाँ हो चुकी हैं। वे न ताल समझते हैं और न राग-रागिनियों का ही कोई ज्ञान उन में है। यहाँ तक कि उन्हें काव्य के सब से प्रचलित छंदों तक का ज्ञान नहीं रहा है।  रामायण और महाभारत के छंद तो दूर रहे। वे तो मानस की चौपाई, दोहा सोरठा तक नहीं समझते।  उन्हें तो सीधे सादे सुंदरकांड के मध्य में भी फिल्मी धुनों में सजे भजनों और कीर्तनों की आदत हो गई है।  वे गायक को क्या समझें उन्हें तो चीखते आधुनिक यंत्रों की आदत पड़ चुकी है।  अब हम अपने अभियान में पहले शास्तीय संगीत और छंदशास्त्र सिखाएंगे जिस से वे हमारी इन शास्त्रीय कलाओं को सीख सकें।  सब से अधिक शीतलता इस बात से पहुँची थी कि उन्हें ही पराजय का मुख नहीं देखना पड़ा है, लाल फ्राक वाली बहनें भी तो बुरी तरह पराजित हुई हैं।  उन में से अनेक ने इस बात के लिए ईश्वर को धन्यवाद दिया कि लाल फ्रॉक वाली बहनों के प्रेमी उन्हें सताने को नहीं आएंगे और आए भी तो उन्हें मारने के ताने तो मुख में होंगे।

हे, पाठक!
 अब सूत जी को नेमिषारण्य से बुलावे आने लगे हैं।  वहाँ बहुत से मुनिगण उन की कथा से दो माह से वंचित हैं। वे जनतंतरकथा का उन के श्रीमुख से श्रवण करना चाहते हैं और वार्तालाप कर अपनी सुलगती जिज्ञासाओं को भी शान्त करना चाहते हैं।  कहीं ऐसा न हो कि जिज्ञासाओं की लपटें इतनी प्रबल हो जाएं कि नेमिषारण्य की हरियाली को संकट हो जाए।  सूत जी ने उत्तर भेज दिया है कि वे अधिक दिनों राजधानी में न रुकेंगे।  बस वे इस बात की प्रतीक्षा कर रहे हैं कि महापंचायत में प्रधान के अभिषेक का समरोह देख जाएँ, उन की मंत्रीपरिषद की सूरत देख लें। उस के बाद वे राजधानी में एक पल को भी न रुकेंगे तुरंत नेमिषारण्य के लिए प्रस्थान कर देंगे।




बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....

रविवार, 17 मई 2009

सब से बड़ा अंतर्विरोध शासक शक्तियों और जनता के बीच : जनतन्तर कथा (30)

हे, पाठक! 
सनत और सूत जी प्रातः नित्य कर्म से निवृत्त होते उस के पूर्व ही माध्यमों ने परिणामों के रुझान दिखाना आरंभ कर दिया।  प्रारंभिक सूचनाओं से ही अनुमान हो चला था कि सरकार तो बैक्टीरिया दल का गठबंधन ही बनाएगा।  वायरस दल पिछड़ने लगा और उन के एक नेता से पूछा गया कि यह क्या हो रहा है? तो वे कहने लगे अभी तो पूरब और दक्खिन के परिणाम आ रहे हैं, हिन्दी प्रदेशों के आने दीजिए।  लेकिन उधर के परिणामों ने भी उन्हें निराशा ही परोसी।  बैक्टीरिया दल में उत्साह का वातावरण छा गया, भक्तगण फुदकने लगे।  नाना प्रकार के वाद्ययंत्र बजाने वाले स्वतः ही आ गए बजाने लगे। बहुत से लोग नृत्य करने लगे।  ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे उन्हें कुबेर की नगरी लंका या इन्द्रलोक का साम्राज्य मिल गया हो।  जैसे-जैसे दिन चढ़ता गया वैसे वैंसे उन की प्रफुल्लता बढ़ती गई। 


हे, पाठक!
इधर उत्सव मनाया जा रहा था उधर दूसरे शिविरों में बहुत मायूसी थी।  वायरस दल को तो साँप सूंघ गया था। पहले जहाँ बढ़-चढ़ कर माध्यमों के अभिकर्ताओं का स्वागत किया जाता था, आज उन से अनायास ही चिढ़ पैदा हो रही थी।  अनेक लोग जनता को ही कोस रहे थे।  उन्हें छोटी-छोटी बातें भी गालियाँ जैसी प्रतीत हो रही थीं।  बैक्टीरिया दल का साथ छोड़ कर अपना राग अलापने वाले सब घाटे में रहे थे, उन का सफाया हो गया था।  कल तक जो सरकार बनाने के स्वप्न देख रहे थे, आज वहाँ सन्नाटा था।  वायरस दल का साथ छोड़ जिन ने बैक्टीरिया दल का हाथ थामा था उन के पौ-बारह हो गए थे।  लाल फ्रॉक वाली बहनों के घर भी मातम था।  जनता का साथ छोड़ने का उन्हें भी बहुत नुकसान उठाना पड़ा था।  पहले अपनी धीर-गंभीर बातों से जिस तरह वे लोगों का मन मोह लेती थीं। आज उस का भी अभाव हो गया था।  अपनी ऊपरी मंजिल पर बहुत जोर डालने पर भी वह प्रकाशवान नहीं हो रही थी।  कोई सिद्धान्त ही आड़े नहीं आ रहा था जिस के पीछे मुहँ छुपा लेतीं।


हे, पाठक!
परम आदरणीय माताजी और गंभीर हो गई थीं, उन की गंभीरता ने उन के सौन्दर्य को चौगुना बढ़ा दिया था।  वे घोषणा कर चुकी थीं कि महापंचायत में उन का नेता अर्थशास्त्री ही रहेगा और जनता से किए गए सब वादे पूरे किए जाएँगे।  अर्थशास्त्री जी राजकुमार की चिरौरी कर रहे थे कि महापंचायत के बाहर उन्हों ने जो कौशल प्रदर्शित किया है उस से अब वे अंदर भी नेतृत्व करने के योग्य हो गए हैं।  लेकिन राजकुमार को आखेट की सफलता ने मत्त कर दिया था। वह वन को हिंस्र पशुओं से हीन कर उसे उपवन बनाने की शपथ ले रहा था।  सब से अधिक धूम थी तो परामर्श की थी।  विजय वरण करने वाले कह रहे थे कि वह सब को एकत्र कर मंत्रणा करेंगे।  तो पराजय स्वीकारने वाले भी सब को एकत्र कर मंत्रणा करने की इच्छा रखते थे।  जिस से अगले युद्ध के लिए अभी से तैयारी आरंभ की जाए।  अगले दिन दक्खिन की रानी यान से राजधानी आने वाली थी उस का कार्यक्रम स्थगित हो गया था।  उस से पहले साँय उस से मिलने जाने वाले वीर बाहुबली के पूरे दिन दर्शन ही नहीं हुए।  वह कहाँ?  किस ?  अनुष्ठान में व्यस्त थे पता नहीं लग रहा था। 


हे, पाठक! कब दुपहरी हुई पता ही नहीं लगा।  बाहर गर्मी कितनी बढ़ गई थी? इस का अहसास नहीं था।  दोपहर का भोजन वहीं कक्ष में ही मंगा लिया गया था।  वहीं दिन अस्त हो गया।  रात के भोजन  लिए सूत जी सनत के साथ भोजनशाला पहुँचे तो स्थान रिक्त होने की प्रतीक्षा करनी पड़ी।  भोजनशाला  ने आज विशिष्ठ व्यंजन बनाए थे।  दोनों भोजन कर बाहर नगर में निकले तो जलूसों का शोर देखने को मिला। विजय के अतिरेक में कोई दुर्घटना न हो ले इस लिए बहुत लोगों ने अपनी दुकानें शीघ्र ही बन्द कर दी थीं।  आखिर दुकान की हानि होती तो कोई उस की भरपाई थोड़े ही करता।  दोनों शीघ्र ही वापस यात्री आवास लौट आए।  सनत पूछने लगा -गुरूवर! यह क्या हुआ?  इस की तो कल्पना ही नहीं थी?
-ऐसा नहीं कि कल्पना ही नहीं थी।  वास्तव में जनतंत्र में सब से बड़ा अतर्विरोध शासक शक्तियों और जनता के बीच ही रहता है।  शासक शक्तियों को कुछ अंतराल के उपरांत जनता से स्वीकृति लेनी होती है जिस की एक पद्यति बना ली जाती है। पद्यति शासक शक्तियों के अनुकूल होते हुए भी जनता उसे भांप लेती है।  वह शासक की शक्ति को सीमित रखने का प्रयत्न करती है।  जैसे शासक जनता को बाँट कर रखना चाहता है वैसे ही वह भी शासक शक्ति के प्रतिनिधियों को बाँट कर रखना चाहता है।  जिस से वह जितनी शासक शक्तियों से अधिक  से अधिक राहत प्राप्त कर सके।
इतना कहते कहते सूत जी अपनी शैया पर विश्राम की मुद्रा में आ गए।  सनत कुछ पूछना चाहता था।  लेकिन फिर यह सोच कर कि सुबह पूछेगा स्वयं भी अपनी शैया पर विश्राम के लिए चला गया।

बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....

शनिवार, 16 मई 2009

कौन चुनता है खेतपति? कौन बनाता है सरकारें? : जनतन्तर कथा (29)



हे, पाठक!
प्रातःकाल के नित्यकर्म से निवृत्त हो कर सूत जी और सनत यात्री आवास से बाहर बहुत गर्मी थी। अभी दोपहर होने में समय था लेकिन सूरज प्रखरता पर था हवा गर्म हो चुकी थी।  राजधानी में होने वाले खेतपतियों के ठेकेदारों की चहल-पहल बढ़ चली थी।  माध्यम  सुबह से ही उन की हलचलों की सूचनाओं के साथ अपनी अपनी आंकड़ेबाजी प्रदर्शित करने में लगे थे।  उधर महापंचायत में नेतृत्व के इच्छुक आँकड़ेबाजी में व्यस्त थे। कौन सी चिड़िया फाँसी जा सकती है? सूत जी ने कहा -सनत! हम दो माह से घूम रहे हैं।  आज हमारा तो मन दिन में यात्री आवास में ही विश्राम करने का है।  तुम क्या कर रहे हो?
सनत बोला -मैं जरा ठिकानों की टोह ले कर आता हूँ।  कैसे कैसे प्रहसन चल रहे हैं?
 दोनों ने एक अच्छे स्थान पर प्रातः कलेवा किया।  सूत जी को वापस यात्री आवास छोड़ सनत टोह में निकल लिया।

हे, पाठक!
सायँकाल सनत वापस लौटा, दिन भर के समाचार सुनाने लगा। ये वही समाचार थे जो सूत जी को दिन भर में  माध्यमों से प्राप्त हो चुके थे। कुछ नया नहीं था। सनत ने वही प्रश्न फिर सूत जी के सामने रखा।  महापंचायत पर किस का आधिपत्य होगा? जनता किसे चुनेगी? क्या कल वही परिणाम देखने को मिलेंगे जिन का अनुमान लगाया जा रहा है?
सूत जी बोले  -सनत परिणाम भी एक दिवस भर में आ लेंगे।  लेकिन वह महत्वपूर्ण नहीं है। मैं तुम्हारे प्रश्नों का उत्तर देता हूँ पर पहले तुम्हें मेरे कुछ प्रश्नों का उत्तर देना होगा।

-गुरुवर पूछें। सनत बोला।
गणतंत्र बनने से ले कर आज तक अनेक चुनाव हुए हैं, सरकारें बनी हैं, बिगड़ी हैं, नयी आई हैं।  तुम बताओ कि सब से अधिक लाभ इन सरकारों से या व्यवस्था से किस को हुआ है?
 प्रश्न बहुत गंभीर था।  सनत  देर तक सोचता रहा।

हे, पाठक!
सनत सोच कर बोला -सब से अधिक लाभ तो देश के उद्योगपतियों ने उठाया है।  उस से कुछ कम लाभ उन लोगों ने उठाया है जो देश भर में कृषि भूमि और नगरीय भूमि पर आधिपत्य. रखते हैं।
-बस यही मैं तुम से कहलाना चाहता था।  वैसे  भारत में लगी विदेशी पूँजी के बारे में तुम्हारा क्या सोचना है? सूत जी ने फिर प्रश्न किया।
सनत फिर कुछ देर सोच कर बोला -विदेशी पूँजी भी देश से बहुत लाभ कमा कर ले जाती है।
-तो सर्वाधिक लाभ कमाने वाले हुए उद्योगपति, भू-स्वामी और विदेशी पूँजी के स्वामी। यही, यही तीनों अब तक महापंचायतें चुनते आए हैं और सरकारें बनाते आए हैं।  ये ऐसे लोगों को वे सारे साधन उपलब्ध कराते हैं जिस से चुनाव जीता जा सकता है।  चुनाव की प्रक्रिया को इतना महँगा और जटिल बना दिया है कि इन तीनों की कृपा के बिना कोई चुनाव जीत कर खेतपति बनने की कल्पना तक नहीं कर सकता।  इस लिए जो भी चुन कर खेतपति बनता है वह इन्हीं का होता है।  वे इस का भी पूरा ध्यान रखते हैं कि वे उसी के बने रहें।  इसलिए यह भ्रम है कि खेतपति को जनता चुनती है, खेतपति महापंचायत में एकत्र हो कर सरकार चुनते हैं और शासन जनता का है।  वास्तव में ये तीनों ही मिल कर सब कुछ चुनते हैं।
सनत यह सत्य सुन कर सकते में आ गया।

हे, पाठक!
-पर जनता तो इस भ्रम में है कि सब कुछ वही चुनती है।  वह तो समझती है कि यह जनतंत्र है। सनत बोला।  हाँ, वह प्रारंभ में यही समझती थी।  लेकिन जनता को बहुत काल तक भ्रम में नहीं रखा जा सकता। वह अब समझने लगी है।  जब वह इस सत्य को बिलकुल नहीं समझती थी या उस का केवल एक छोटा भाग ही इस सत्य को समझता था, तब लगातार बैक्टीरिया दल को बहुमत मिलता रहा।  लेकिन जब उस का भ्रम टूटने लगा तो उस ने बैक्टीरिया दल को कमजोर किया।  बहुत उथल-पुथल के उपरांत वायरस दल सामने आया।  इस दल का चेहरा भिन्न था इसलिए उस के बारे में जनता को भ्रम रहा।  फिर भ्रम टूटा तो उसे भी जनता ने मजबूत नहीं होने दिया वापस कमजोर किया।  विकल्पहीनता की स्थिति में बहुत से छोटे-छोटे दल अस्तित्व  में आ गए हैं।  इन तीनों का काम बढ़ गया है।  अब उन्हें इस तरह इन छोटे-छोटे दलों को एकत्र करना है कि महापंचायत और देश के शासन पर उन का अधिकार बना रहे।
सनत चुपचाप सुन रहा था।  सूत जी रुके तो बोला -गुरूवर आप ने तो आँखें खोल दीं।
सूत जी बोले बहुत रात हो गई है।  कल का दिन बहुत महत्वपूर्ण है। असली आँकड़ेबाजी तो कल मतसंग्रह यंत्रों से बाहर निकलनी है।  तुम्हें बहुत व्यस्त रहना होगा।  अब शयन  करो।

बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....

शुक्रवार, 15 मई 2009

नीली, पीली, हरी लाल सब पर्चियों में एक ही नाम : जनतन्तर कथा (28)

हे, पाठक!
जैसे वामन ने दो चरणों में ब्रह्मांड नाप दिया था, वैसे ही चुनाव आयोग ने पाँच चरणों में भारतवर्ष नाप दिया।  मतसंग्राहक यंत्रों में भारतवर्ष  के आने वाले वर्षों का वर्षफल लिख दिया गया है। परिणाम की प्रतीक्षा है। लेकिन जिन्हें आस लगी है वे अविलंब शुरू हो चुके हैं।  अपने बल पर कोई भी महापंचायत का मुखिया बनने लायक नहीं लग रहा है।  आंकड़ेबाजी और आंकड़े बाजी शुरू हो गई है। दूरभाष खड़काए जा रहे हैं।  पिछले दिनो जो लोग एक दूसरे के निन्दा रस का आनंद बरसा रहे थे, वे अब आपस में प्रेम की पींगें बढ़ा रहे हैं।  एक ओर पतंगें आसमान में उड़ने की तैयारी कर रही हैं, दूसरी ओर लोग मोटे मोटे धागों में पत्थर बांध कर डालने को लंगर तैयार कर रहे हैं।  किस रंग की पतंग पर लंगर डाला जाए? पतंग को हवा लगे उस से पहले ही लंगर डाल दिया जाए। कहीं कोई दूसरा न डाल ले।

हे, पाठक!
सनत और सूत जी ने संध्या विश्राम में बिताई।  प्रातः उठ कर सनत सूत जी की डाक देखते देखते जोर से बोला -गुरुवर, बरेली से किसी कायचिकित्सक अमर कुमार संदेसा है....
क्या? पढ़ कर सुनाओ!
सनत पढ़ने लगा ......
हे ज्ञानश्रेष्ठ, इन क्षणभँगुर आवत जावत नट व नटनियों पर आप पर्याप्त मसि व्यय कर चुके,
अब त्राहिमाम के असफ़ल जाप से दुःखार्त जन की सुधि लेय ।
उनकी पीड़ा का यदि कोई श्रवण भर कर ले, यही उनका सँतोष है ।
पीड़ा को सह , उपजे सँतोष व निराश आशाओं पर जीवित रहने के अनोखे सुख के प्रसँग का समावेश कर, हे ज्ञानश्रेष्ठ !

संदेसा सुन सूतजी मुसकाए, बोले - वाकई अमर है।  याज्ञवल्क्य का शिष्य ऐसी बात  कर सकता है।  अब इस ने कहा है तो बात माननी पड़ेगी।  शिष्य तैयार हो जाओ आज बस्ती चलते हैं।
शिष्य ने दूरभाष खड़काया, वाहन का प्रबंध किया।  प्रातःकालीन कर्मों से निवृत्त हो चल दिए बस्ती में।

हे, पाठक!
एक स्थान पर भीड़ लगी थी।  लोग पुराने, मैले कपड़े पहने खड़े थे।  वाहन रोका गया। यह इन्सानों की मंडी थी।  सैंकड़ों लोग दिन भर को बिकने को तैयार थे। खरीददारों की कमी थी।  इन में बेलदार, कुली थे, और औजार लिए राजगीर थे। लोग निकट आए, उन की आँखों में आस थी।
आप से मतदान किस किस ने किया।  कुछ पूछते ही वापस दूर हो लिए।
एक बोला -मैं ने किया है। काम बंद था। लोग घर बुलाने आए मैं चला गया मत दे आया।
बुलाने न आते तो? सनत ने पूछा।
-तो न जाता।  मत देने से हम को मिलता क्या है।  साल में दस पन्द्रह दिन की मजदूरी कोई भी खा जाता है।  मजदूरी दिला दे ऐसा तो कोई इंतजाम किसी पंचायत ने आज तक नहीं किया।
-ये लोग दूर क्यों चले गए? सनत ने पूछा।
-उन ने वोट नहीं डाला। उन का नाम यहाँ नहीं गाँव में है। अब मत देने कोई गाँव कैसे जाएगा?
काम कितने दिन मिलता है?
कभी मिलता है, कभी नहीं मिलता। कभी बीमारी-सीमारी से नहीं जा पाते। महीने में पन्द्रह-बीस दिन कर लेते हैं।
इस संक्षिप्त साक्षात्कार के उपरांत सनत और सूत जी आगे चल दिए।  एक बस्ती में पहुँचे। बस्ती में गंदगी में खेलते बच्चे थे और झुग्गियों के बाहर बैठे कुछ बूढ़े।  सनत ने एक वृद्ध से पूछा -जवान लोग नजर नहीं आ रहे। वृद्ध ने सनत को अजीब निगाहों से घूरा, फिर बोला  -सब काम पर गए हैं। 
-काम पर कहाँ गए हैं?
-जिन के पास काम है वे अपने अपने काम पर गए हैं। जिन के पास नहीं है वे तलाश करने गए हैं। कहीं सड़क किनारे भीड़ में दिख जाएंगे।
आप ने मत डाला?
क्यों न डालेंगे? हम हर बार मत डालते हैं।  उधर उस्ताद रहता है वही हर बार नेताओं से बात करता है। जिस को कहता है डाल देते हैं।  घंटा भर में डाल कर वापस आ जाते हैं।  कभी दो दिन की, कभी तीन दिन की मजूरी मिलती है।
-मत पैसा लेकर डालते हैं आप?
-सब डालते हैं। उस दिन कोई काम पर नहीं जाता।  काम पर सिर्फ एक दिन की मजूरी मिलती है। नेता मत के दिनों में ही आते हैं।  फिर कोई इधर नहीं आता।  काम होने पर हम जाते हैं तो सूरत नहीं पहचानते। उस्ताद हमारे हमेशा काम आता है।
सनत सूत जी आगे चल दिए।

हे, पाठक!
दोनों एक बहुमंजिला भवनों के पास एक पान की गुमटी पर रुके।  पान वाले से बात की  - इधर चुनाव का क्या हाल रहा?   
-कुछ खास नहीं। आधे लोग भी मत देने नहीं गए।  जो गए उन में दोनों तरफ के थे।  किस ने किस को मत डाला पता नहीं पर लगता है इधर का मामला 19-20 ही रहा होगा। सब डाल आते तब भी यही रहता।
दोनों दिन भर घूमते रहे।  साँझ को वापस लौटे तो नतीजा वही था।  लोग अनमने थे।  या तो मत देना नहीं चाहते थे, या फिर सोचते थे कि किसी को डाल दो क्या फऱक पड़ता है।  उन पर तो कोई फरक पड़ना नहीं है।  जीवन जैसे चल रहा है वैसे ही चलेगा।
हे, पाठक!
रात को भोजन कर विश्राम करने लगे तो सनत ने पूछा -गुरूवर,  मैं ने पूछा था, जनता किस को वरेगी तो आप हँस दिए थे कहा था कुछ दिन में पता लग जाएगा।  तो आप क्यों हँसे थे?  और आप का आशय क्या था?  आज तो बता दें।
सूत जी बोले -सनत! जनता किसी को नहीं वरती।  वरे तो तब जब वरने के लिए विकल्प हों।  नीली, पीली, हरी लाल सब पर्चियों में एक ही नाम लिखा है।  किसी को उठा लो चुना तो वही जाएगा।
-गुरुवर बात पल्ले नहीं पड़ी।
-बहुत रात हो गई, अब सो लो। कल बात करेंगे।
सूत जी कुछ ही देर में खर्राटे भरने लगे। सनत देर तक सोचता रहा कि गुरूवर क्या कहना चाहते हैं?
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....

मंगलवार, 12 मई 2009

लालटेन भभका क्यों? मर्दुआ लपका क्यों? : जनतन्तर कथा (28)

हे, पाठक! 
अगला दिन राजधानी में मतदान का दिन था।  सूतजी सनत के साथ दिन भर राजधानी में मतदान के नजारे करते रहे।  राजधानी में अधिक उत्साह दिखाई नहीं दिया।  राजधानी में अनेक महत्वपूर्ण राजनेता अपने अपने क्षेत्र छोड़ कर मतदान करने पहुँचे।  माध्यम दिन भर उन के चित्र दिखाते रहे।  बैक्टीरिया दल के मुखिया की बेटी जो सारे चुनाव परिदृश्य में जो साड़ी पहने भारतीय महिला की छवि परोसती रही,  मतदान के दिन अपने जीवनसाथी के साथ नए फैशन की पोशाक में दिखाई दी।   जैसे दौड़ में भाग लेने आई हो।  सूत जी ने सनत से कहा, "तुम्हारा मीडिया की मुख्य खबर आज यह पोशाक बनने वाली है।"   राजधानी का दूसरा बड़ा समाचार यह भी था कि चुनाव कराने कराने वाले विभाग के मुखिया का नाम ही मतदाता सूची से अन्तर्ध्यान हो गया।  हड़कम्प मचा तो तत्काल किसी दूसरी सूची में उन का नाम तलाश कर उन का मत डलवा दिया गया।  संभवतः उन्हें अहसास हुआ हो कि आम मतदाता का क्या हाल होता होगा?

हे, पाठक! 
उधर बैक्टीरिया दल के मुखिया के बेटे के श्री मुख से आपत्कालीन मसाला बत्ती की तारीफ सुनी तो दल के गायकों ने एक स्वर से राग दरबारी में कोरस आरंभ कर दिया।  राजकुमार तो मात्र जिन का साथ चाहता था उन्हें बताना चाहता था कि उन के पास बैक्टीरिया दल के अलावा कोई मार्ग शेष नहीं है।  पर कोई पड़ोसी की मसाला बत्ती की तारीफ करे तो  घर की लालटेन को तो भभकना ही था।  उधर दो पत्तियों की तारीफ हुई तो दक्खिन में सूरज उगते उगते बादलों की ओट चला गया। रैली स्थगित हो गई।  मसाला बत्ती अपनी तारीफ सुन कर गदगद हो उठी, उसने दाँत बर्राए और सफाई दी कि देखिए हमरी सरकार गठबंधन की हैं, उसे छोड़ कर कइसे जा सकत हैं।  अइसे तो हमरा घर बार ही बरबाद नहीं न हो जाई। हम कहीं नहीं जा रहे हैं।  इस से अभिनय से जिन की त्योरियाँ चढ़ी थीं वापस यथा स्थान आ गईं। उधर वायरस दल में भी हलचल हो चली  सारे छत्रप एक साथ एक ही यान में इकट्ठा किए।  घोषणा की गई कि हमारा यान भरा भरा है और अब चलने ही वाला है। हम चल ही देते जो पाँचवा दौर बीच में पहाड़ सा न खड़ा होता। मसाला बत्ती जिस से सब से अधिक दूर भागती थी उसी मरदुआ  ने उस का हाथ पकड़ कह दिया- जे हमरी साथी हैल देखो हम एकई सीट मैं धँसे हैं साथ साथ।  मसाला बत्ती ने वहाँ भी दाँत बर्रा दिए। फोटू खिंच गए।  क्या फोटू था?  बहुतों को तुरंत बरनॉल की जरूरत पड़ गई। वायरस दल में शीतलता की लहर दौड़ पड़ी।  लगा जैसे बहुत सारे वातानुकूलक एक साथ चला दिए गए हों।  मन फुदकने लगा,  पुष्पवर्षा  होने लगी, प्रशस्तिगान के स्वर ऊँचे हो गए।

हे, पाठक! 
मसाला बत्ती वापस घर पहुँची तो पड़ोसी पूछने लगे -यह क्या हुआ ?  तुम तो कहती थी जहाँ वह मरदुआ होगा तुम फटकोगी भी नहीं, जहाँ वह होगा हम उस देहरी पर नहीं चढेंगी।   मरदुआ ने सब के सामने तुम्हारा हाथ पकरा, तुमने सारी बत्तीसी दिखा दी।
मसाला बत्ती बोली -हम क्या करती? हमें थोड़े ना पता था, मरदुआ उधर जा धमकेगा। हम ने तो बुलाया नहीं था।   मरदुआ पिच्छे से आ धमका टप्प से बइठ गवा हमरी बगल में अउर हमरा हाथ पकर कै ऊँचा कर दीन,   ऊपर से फोटू भी खींच रहीन।  अब हम सब के सामने रोने तो बैठने से रहीं।  फिर रिस्तेदारी देखीं। हम कुछ कहतीं तो रिस्तेदारी न बिगड़ती।  हमरा घर ही दाँव पे न लग जाता।  मसाला बत्ती कहते कहते रुआँसी हुई तो
 देख कर लालटेन को तसल्ली हुई गई, उस का भभकना बंद हुआ गया।  वह फिर से  जलने लगी पर तब तक लालटेन का गोला काला पड़ गया था। रोशनी अंदर ही घुट रही थी।


हे, पाठक! 
इस सारे प्रहसन को देख सनत ने सूत जी से पूछा -इस का अर्थ क्या हुआ, गुरूवर?
सूत जी बोले  -इस का अर्थ यह हुआ कि न तो लालटेन को रोशनी करने से मतलब  है न मसाला बत्ती को अंधेरा मिटाने से।  इन्हें मतलब है सिर्फ खुद को अच्छी दुकान में सजे रहने से।
-गुरूवर! समझ गया, सब समझ आ गया।  दुकानों को मतलब है कि उन के पास इतना माल सजा रहे कि ग्राहक बाहर से न सटक ले।  पर इस बार समझ नहीं आ रहा कि कौन महापंचायत को वरेगा?  जनता किस को इस लायक समझेगी? -सनत ने फिर प्रश्न किया।   इस प्रश्न को सुन कर सूत जी को हँसी आ गई। बोले -एक दो दिन में इस प्रश्न का उत्तर भी तुम्हें मिल जाएगा।  अभी कुछ प्रतीक्षा करो।
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....

रविवार, 10 मई 2009

पादुका प्रहार का फैशन और नयी महापंचायत की चौसर : जनतन्तर कथा (27)

हे, पाठक!
यात्री-निवास पहुँच कर सूत जी ने स्नान-ध्यान किया।  भोजनशाला पहुँचे तब वहाँ भोजन का अंतिम दौर चल रहा था।  भोजन पा कर वापस अपने कक्ष पहुँचे तो अर्धरात्रि हो चुकी थी।  तभी चल-दूरभाष से आरती का स्वर उभरा  -जय जगदीश हरे....    दूसरी ओर सनत था।
-गुरुवर कहाँ हो? सूत जी ने बताया कि वे रात्रि विश्राम स्वामी पद्मनाभ की विश्राम स्थली तिरुवनंतपुरम में कर रहे हैं।
सनत-गुरुवर, समाचार देखे सुने?
सूत जी-नहीं आज तो समय नहीं मिला, कुछ विशेष है क्या?
सनत-चौथे दौर का प्रचार अभियान थमते ही महा पंचायत की चौसर शुरू हो चुकी है।  चाचा वंश के राज कुमार ने बैक्टीरिया दल की और से पासा फैंक दिया है।  लालटेन की प्रतिद्वंदी आपत्कालीन मसाला-बत्ती की प्रशंसा कर दी कि यह सीधे विद्युत से ऊर्जा प्राप्त करती है और उसे सहेज कर रखती है, जिसे आपत्काल में काम लिया जा सकता है।  यह कोसी की बाढ़ के बाद लोगों के बहुत काम आई।  यह भी कहा कि बैक्टीरिया दल लाल फ्रॉक का सहयोग प्राप्त कर सकता है।  इस से लालटेन भभक उठी  है, उस का कांच का गोला कभी भी तड़क सकता है। मैं  राजधानी पहुँच गया हूँ।   यहाँ का मतदान भी देख लेंगे और आगे का सारा खेल तो यहीं होना है।  आप राजधानी कब पहुँच रहे हैं?
सूत जी- बस, कल प्रातः स्वामी के दर्शन कर आगे की योजना को अंतिम रूप देता हूँ फिर भी कोशिश रहेगी कि मतदान आरंभ होते होते राजधानी पहुँच लूँ।
सनत- ठीक है गुरूवर आप विश्राम कीजिए।  मैं  राजधानी में  आप की प्रतीक्षा करूंगा।

हे, पाठक!  
सूत जी बुरी तरह थके हुए थे,  शैया पर जा लेटे।  सोचने लगे, सत्तावन वर्ष पूर्व आरंभ हुई भारतवर्ष के गणतंत्र की यह यात्रा आज कहाँ पहुँच चुकी है?   भारतीय गंणतंत्र यथार्थ में एक अनूठा प्रयोग स्थल हो गया है, जहाँ मानव समाज के विकास की कथा कुछ पृथक रीति से अंकित हो रही है।   वे  आज यहाँ केरल में आर्थिक विकास के स्तर और लोगों की सामाजिक-राजनैतिक चेतना के स्तर को देख कर बहुत प्रभावित हुए थे।  वे सोच रहे थे कि शायद पूरे भारतवर्ष मे ऐसा हो सकता था।  यदि गणराज्य और उस के दूसरे प्रान्तों की पंचायतों ने भी यहाँ की भांति भूमि सुधार और शिक्षा के मामलों में आजादी के आंदोलन के दौरान घोषित नीति को दृढ़ता से लागू करने  के लिए वैसी  प्रतिबद्धता दिखाई होती जैसी  केरल की पहली प्रान्तीय सरकार ने दिखाई थी।  यद्यपि उस प्रतिबद्धता  के कारण ही उस पहली पंचायत का ही वर्ष  में  जबरन अवसान कर दिया गया।  लेकिन पंचायत की प्रतिबद्धता ने जनता को उस स्तर तक शिक्षित कर दिया था कि आने वाली पंचायतें इन दोनों पक्षों की उपेक्षा नहीं कर पाई।  तब शायद देश में भी यहाँ की तरह दो ही राजनैतिक दल या ध्रुव होते। .... विचारते विचारते ही सूत जी निद्रामग्न हो चुके थे।

हे, पाठक!  
सूत जी दूसरे दिन साँयकाल राजधानी पहुँच गए।  मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है।  वह अकेला नहीं रह सकता।  सन्यास धारण कर लेने के उपरांत भी उसे किसी का साथ तो चाहिए ही।  सनत पहले ही राजधानी पहुँच चुका था।  उन्हों ने उसे भी अपने पास ही बुला लिया।  अब दोनों साथ हो लिए थे।  अगले दिन राजधानी के सभी खेतों के प्रतिनिधियों के लिए मतदान होना था।  यहाँ पिछले दिनों बहुत अनूठी घटनाएँ हुई थीं।  चुनाव के आरंभ में ही बैक्टीरिया दल के एक नेता पर पादुका प्रहार हुआ था।  जिस का असर ये हुआ कि राजधानी क्षेत्र में बैक्टीरिया दल ने अपने दो सशक्त उम्मीदवारों को बदल दिया था।  एक तरह से बैक्टीरिया दल ने अपने पूर्व अपराध की स्वीकारोक्ति कर ली थी।  सूत जी जानते थे कि मतदाता की स्मृति बहुत क्षीण होती है।  वे अवश्य ही इस स्वीकारोक्ति के उपरांत बैक्टीरिया दल को माफ कर देंगे और बैक्टीरिया दल माफी का लाभ  प्राप्त करने में सफल हो लेगा।   इस पादुका प्रहार ने फैशन की जगह ले ली थी।  अब तक के चुनाव प्रचार में उस के अनोखे उदाहरण सामने आए।  यहाँ तक कि महापंचायत के वर्तमान मुखिया और वायरस दल के घोषित मुखिया भी इस के प्रहारों से न बच सके।  पर पादुका प्रहार का यह फैशन अहिंसक ही बना रहा और उस ने किसी को भी भौतिक चोट नहीं पहुँचाई।  यद्यपि बहुत से मीमांसकारों ने इस पर चिंताएँ प्रकट करते हुए पत्र-पत्रिकाओं के पृष्ठ रंग डाले।  पर सूत जी जानते थे कि पादुका प्रहार एक फैशन की तरह आया है और फैशन की तरह चला जाएगा।   एक फैशन और चला कि पहले पहल पादुका प्रहार के लक्ष्य बने नेताओं ने इसे अपनी अहिंसा की नीति के अंतर्गत प्रहारकों को क्षमा कर दिया।  लेकिन इस महानता का कार्य करने में वायरस दल के नेता पिछड़ गए।

बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....

शुक्रवार, 8 मई 2009

सूत जी पद्मनाभस्वामी की विश्रामस्थली में : जनतन्तर कथा (26)

हे, पाठक!

विचरण की थकान से निद्रा गहरी आई, उठने का मन नहीं था फिर भी सूत जी ने स्वभावगत् रुप से सूर्योदय पूर्व ही शैया त्याग दी।  प्रातःकालीन नित्यकर्म से निवृत्त हो छनी हुई तमिल कॉफी का आनंद लिया।  अब  चेन्नई में रुकना निरर्थक था।  सोचा, जब यहाँ तक आ ही गए हैं तो तिरुअनंतपुरम चल कर पद्मनाभस्वामी के दर्शन भी कर लिए जाएँ।  हालांकि वहाँ लोग बहुत पहले ही मतदान कर चुके थे।  लेकिन उस से क्या इस दक्षिणी तटखंड और उस के लोगों का साक्षात तो हो ही सकता था।  जानकारी की तो पता लगा दस बजे नित्य ही वहाँ के लिए विमान है, मात्र तीन-चार घड़ी की यात्रा।  सूत जी दोपहर होने के पहले ही पद्मनाभ स्वामी के विश्राम स्थल पहुँच गए। कहते हैं परशुराम के फरसे को समुद्र में डुबोने पर यह धरती जल से बाहर आ गई थी।  विमान से स्वामी का मंदिर देख कर ही मन प्रसन्न हो गया।

हे, पाठक! 
विश्राम के लिए मंदिर के निकट ही यात्री आवास भी मिल गया।  पहुँच कर भोजन किया, तनिक विश्राम और फिर स्वामी के दर्शन।  फिर निकले नगर भ्रमण को।  लोग काम में लगे थे।  विचित्र नगर था। स्त्रियाँ खूब दिखाई पड़ती थीं, लगभग पुरुषों के बराबर।  हर काम में और हर स्थान पर।  नगर का प्रत्येक प्राणी सजग दीख पड़ता था।  बहुत जानकारियाँ मिली। नगर शिक्षा का बड़ा केन्द्र है, प्राचीन काल से ही।  नगर में एक प्राचीन वेधशाला भी है।  सूत जी ने नगर और खंड के बारे में और जानना चाहा तो पता लगा उष्ण मौसम, समृद्ध वर्षा, सुंदर प्रकृति, जल की प्रचुरता, सघन वन, लम्बे समुद्र तट और चालीस से अधिक नदियाँ यहाँ की विशेषता हैं। सच ही यह अपने नाम की तरह ईश्वर का घर प्रतीत हुआ। आदिकालीन भारतीय द्रविड़ों के अतिरिक्त आर्य, अरबी, यहूदी, मिश्रित वंश तथा आदिवासी यहाँ की जनसंख्या का निर्माण करते हैं और लगभग सभी शिक्षित। हिन्दू, ईसाई, इस्लाम,बौद्ध, जैन, पारसी, सिक्ख और बहाई धर्मावलम्बी यहाँ मिल जाएँगे।  अद्वैत के आचार्य आदिशंकर की जन्म स्थली।  शेष भारतवर्ष से ढाई गुना अधिक लगभग 819 जन प्रति वर्ग किलोमीटर की सघन जनसंख्या में स्त्री-पुरुष बराबर हैं अपितु कुछ स्त्रियाँ ही अधिक हैं।  स्त्री-प्रधान समुदाय आज भी हैं।  शिक्षा, स्वास्थ्य और गरीबी उन्मूलन में तृतीय विश्व का सब से अग्रणी खंड बना।  जनसंख्या की स्थिरता प्राप्त यह खंड आज विश्व के अग्रणीय देशों के साथ खड़ा है।  क्या नहीं था इस खंड में?
 हे, पाठक!
भारतवर्ष की स्वतंत्रता के दस वर्ष उपरांत पहली बार खंडीय पंचायत गठित हुई और पहली ही बार जन ने लाल फ्रॉक को राज्य चलाने का अधिकार दिया।  वे लाए तीव्र विकास के लिए तीव्र परिवर्तन।  महापंचायत को यह सब रास नहीं आया। लाल फ्रॉक की खंडीय पंचायत को हटा दिया गया।  लेकिन बीज नष्ट नहीं हो सका।  उस के बाद मिश्रित जन ने जो इतिहास रचा वह अद्वितीय है।  इसी से इस खंड को राजनीति की प्रयोगशाला का नाम मिला।  गठबंधनों का शासन जो आज पूरे भारतवर्ष का भाग्य है, वह इस खंड मे पहली बार हुआ और फिर एक परंपरा बन गया।  स्पष्ट रूप से दो मुख्य गठबंधन सामने आए।  यदि इन गठबंधनों को हम दल मान लें तो एक द्विदलीय प्रणाली यहाँ विकसित है। जब भी जन को कोई पाठ पढ़ाना होता है तो वह एक गठबंधन को अस्वीकार कर दूसरे को अवसर प्रदान करते हैं।  दोनों के मध्य प्रतियोगिता ने खण्ड को विश्व में मान दिलाया।


हे, पाठक! 
सूत जी को देर रात्रि तक यह सारी जानकारी मिली।  उन की रुचि वर्तमान महापंचायत के लिए हो रहे चुनाव के परिणामों की थी।  उन्हों ने अनेक लोगों से पूछताछ की।   सभी दलों के लोगों से मिले।  लेकिन आश्चर्य कि लगभग सभी लोग परिणाम के प्रति आश्वस्त और सब की राय एक जैसी।  ऐसा कहीं नहीं हुआ था।  सब स्थानों पर लोग अपने अपने दलों के बढ़चढ़ कर प्रदर्शन करने की आशा रखते थे, लेकिन यहाँ सब कुछ विपरीत था।  सब लोगों का एक ही मत था 19-20, अर्थात बहुत अंतर दोनों गठबंधनों के मध्य नहीं रहेगा।  या तो दो खेतपति इसके अधिक, या फिर दो खेतपति उस के अधिक।

 बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....

गुरुवार, 7 मई 2009

माला के मनकों को जुड़ा रखने के लिए मजबूत धागे का सूत्र कहाँ मिलेगा : जनतन्तर कथा (25)

हे, पाठक!
अगली प्रातः सूत जी द्रविड़ चेतना के केन्द्र चैन्नई में थे।  सभ्यता विकसित होते हुए भी बर्बर आर्यों से पराजय की कसक को यहाँ जीवित थी। लेकिन उसे इस तरह सींचा जा रहा था जिस से इस युग में सत्ता की फसलें लहलहाती रहें।  प्रकृति के कण कण को मूर्त रूप से प्रेम करने वाला आद्य भारतीय मन उस पराजय को जय में बदलने को आज तक प्रयत्नशील है।  सब से पहले तो उस ने विजेता के नायक देवता को इतना बदनाम किया वह देवराज होते हुए भी खलनायक हो गया।   उस के स्थान पर लघुभ्राता तिरुपति को स्थापित करना पड़ा।  यहाँ तक कि जो थोडा़ बहुत सम्मान वर्षा के देवता के रूप में उस का शेष रह गया था उसे भी तिरुपति के ही एक अवतार ने अपने बचपन में ही गोवर्धन पूज कर नष्ट कर डाला।  पूरा अवतार चरित्र फिर से उसी मूर्त प्रेम को स्थापित करने में चुक गया।  वह मूर्त प्रेम आज भी इस खंड में इतना जीवन्त है कि अपने आदर्श को थोड़ी भी आंच महसूसने पर अनुयायी स्वयं को भस्म करने तक को तैयार मिलेंगे। 

हे, पाठक!
सुबह कलेवा कर नगर भ्रमण को निकले तो सूत जी को सब कहीं चुनाव श्री लंकाई तमिलों के कष्टों के ताल में गोते लगाता दिखाई दिया।  दोनों प्रमुख दल तमिलों के कष्ट में साथ दिखाई देने का प्रयत्न करते देखे।  लेकिन यहाँ भी स्वयं कर्म के स्थान पर विपक्षी का अकर्म प्रदर्षित करने वही चिरपरिचित दृष्य दिखाई दिया जो अब तक की भारतवर्ष यात्रा में सर्वत्र दीख पड़ता था।  दोनों ही दलों में सब तरह से घिस चुका वही पुराना नेतृत्व था।  जिस में अब कोई आकर्षण नहीं रह गया था।  कोई नया नेतृत्व जो द्रविड़ गौरव में फिर से प्राण फूँक दे, दूर दूर तक नहीं था।  हर कोई पेरियार और अन्ना का स्मरण करता था।  लेकिन वह ज्ञान और सपना दोनों अन्तर्ध्यान थे।  सूत जी दोनों दलों के मुख्यालय घूम आए।  सारी शक्ति यहाँ भी मुख्यतः निष्प्राण प्रचार में लगी थी।  दोनों ही अपनी जीत के प्रति आश्वस्त और हार के प्रति शंकालु दिखे। आत्मविश्वास  नाम को भी नहीं था।

हे, पाठक! 
जहाँ सत्तारूढ़ दल अपनी उपलब्धियाँ गिना रहा था वहीं विपक्षी उन की कमियों को नमक मिर्च लगा कर बखान कर रहे थे।  पर जनता? वह स्तब्ध थी, तय ही नहीं कर पा रही थी कि वह किसे चुने और किसे न चुने?  सभी राशन की दुकान पर रुपए किलो का चावल देने का वायदा कर रहे थे।  एक मतदाता कह रही थी कि चावल तो हम रुपए किलो राशन दुकान से ले आएंगे, लेकिन नमक का क्या? वही सात रुपए किलो? और एक कप चाय तीन रुपए की? क्यूँ नहीं कोई ऐसी व्यवस्था करने की कहता कि जितना दिन भर में कमाएँ उस से दो दिन का घर चला लें।  कम से कम कुछ तो जीवन सुधरे।  उस औरत के प्रश्न का उत्तर किसी के पास नहीं था।  नगर और औद्योगिक बस्तियों में मतदान के लिए कोई उत्साह नहीं था।  मतसूची में दर्ज आधे लोग भी मतदान केन्द्र तक पहुँच जाएँ तो ठीक वरना जो मत डालेंगे वे ही आगे का भविष्य लिख देंगे।

हे, पाठक!  
सूत जी, आस पास के कुछ ग्रामों में घूम-फिर अपने यात्री निवास लौटे तो बुरी तरह थक चुके थे।  भोजन कर सोने को शैया पर आए तो दिन भर की यात्रा पर विचार करते रहे।  ग्रामों में चुनाव के प्रति तनिक उत्साह तो था।   लेकिन निराशा वहाँ भी दिखाई दी।  स्थानीय समस्याओं के हल और विकास के प्रति राजनेताओं की उदासीनता की कथाएँ हर स्थान पर आम थीं।  सूत जी भारतवर्ष में अब तक जहाँ जहाँ गए थे वहाँ यह एक सामान्य बात दिखाई दे रही थी कि विकास की भरपूर आकांक्षाएँ लोगों के मन में थीं।   लेकिन उस के लिए मौजूदा राजनैतिक ढ़ाँचे पर विश्वास उतना ही न्यून था।  विश्वास की हिलोरें भारतवर्ष को किस ओर ले जाएंगी इस का संकेत तक कहीं दिखाई नहीं दे रहा था।  सब कहीं जनता की आकांक्षाएँ एक जैसी थीं।  लेकिन उन आकांक्षाओं को कहाँ दिशा और राह मिलेगी?  यह कहीं नहीं दिखाई देता था।  लगता था पूरा भारतवर्ष अब भी खंड खंड में बंटा हुआ था।  वे सोचने लगे।  इस माला का धागा इतना कमजोर है कि कहीं टूट न जाए।  किस तरह वह सूत्र मिलेगा जिन से एक नया मजबूत धागा बुना जा सके, जिस में  इस माला के धागे के टूटने और बिखर जाने के पहले  माला के मनकों को फिर से एक साथ पिरो दे।  सोचते सोचते निद्रा ने उन्हें आ घेरा।

बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....

मंगलवार, 5 मई 2009

लाल फ्रॉकों को वायरस-बैक्टीरिया विहीन मंडल की आस : जनतन्तर कथा (24)


हे, पाठक!
प्रातः सनत की निद्रा टूटी तो देखा गुरूवर कक्ष में नहीं हैं।  घड़ी में सुबह के साढ़े नौ बज रहे थे।   यह विजया का असर था जो वह देर तक सोया रहा।  कई दिनों से प्रातः उठने पर भी वह थका थका सा महसूस करता था।  लेकिन आज थकान बिलकुल गायब थी।  यह सब विजयारानी का असर था।  पर गुरूवर कहाँ गए?  शायद स्नानघर में हों? पर उस का द्वार खुला था और वहाँ कोई नहीं था। वह शैया से उतरा तो देखा जलपात्र के नीचे एक पत्र लगा है। वह पढ़ने लगा......

वत्स!   
चिरजीवी हो!
तुम्हारे साथ सायंकाल और रात्रि अच्छी बीती।  लेकिन कर्म का मोह से नाता ठीक नहीं। प्रातः विमान उपलब्ध है उसी से बंग देश जा रहा हूँ।  यात्रीआवास में नगर में रहो तब तक रह सकते हो। वहाँ का भुगतान नैमिषारण्य करेगा।  दूरभाष का क्रमांक तुम्हारे पास है।  वार्तालाप करते रहना।  ..... सूत

हे, पाठक! 
उधर सूत जी लाल फ्रॉक वाली बहनों के क्षेत्र में पहुँच चुके थे।  विमानपत्तन से यात्री आवास की राह में देखा तो यहाँ वैसी ही रौनक थी, जैसी पिछले पच्चीस वर्षों से चली आ रही थी।  नयापन कुछ नहीं दिखा।  केवल यह दिखाई दिया कि बैक्टीरिया दल से नाता तोड़ चुकी बहना फिर से बैक्टीरिया दल के साथ कंधा भिड़ा रही थी।  चुनाव प्रचार में वही पुराने लटके-झटके थे।  सूत जी जानते थे कि सब परेशान हैं लेकिन लाल फ्रॉकों का यह किला नहीं टूट रहा है।  इस बार कुछ जरूर कुछ बातें ऐसी हो गई हैं कि जिन के चलते उन के किले में सेंध लगने की संभावना कही जा रही है।  लेकिन ऊपर से तो नहीं लगा कि बहुत अधिक अंतर आएगा।  यात्री आवास पहुँचते ही वहाँ का प्रबंधक उन के कक्ष में आ गया।  प्रणाम कर बोला -महाराज आप के लिए श्रेष्ठतम व्यवस्था जो हम से हो सकती थी कर दी है, फिर भी हमें महसूस हो रहा है कि कुछ कमी जरूर है।  लेकिन अब चुनाव के इस समय में हम अधिक कुछ नहीं कर पाए हैं।  आप को कुछ कमी लगे तो बताइयेगा, हम उसे दूर करने का प्रयत्न करेंगे। 

हे, पाठक!

सूत जी तुरंत समझ गए, अब प्रबंधक मस्का लगा रहा है।  बोले -भैया थकान तो कल शिष्य उतार चुके हैं, हमें मालिश की आवश्यकता नहीं है।  तुम तो यह बताओ चुनाव का माहौल कैसा है?
- कोई बड़ा अंतर तो नहीं लग रहा है पर एक उद्योग लगते-लगते चला गया उस का मलाल जरूर है, पर उस के लिए तो ममता ब्हेन को ही दोषी माना जा रहा है। 
-पर नन्दीग्राम?
-हाँ, वह बदनामी जरूर हाथ लगी है पर उस का असर वहीं रहेगा, अन्यत्र नहीं।  और वहाँ भी ताकत बराबर की लग रही है।  फिर इस बार जो छोटे दलों के साथ मोर्चा लगाया है, उस से लाल बहनें बहुत उत्साहित हैं, उन के बच्चे भी।  उन को लगता है कि पिछली बार की संख्या में कुछ वृद्धि कर लें।
- तुम भी लाल फ्राक के दल में तो नहीं?
प्रबंधक खिसियानी हँसी हँसता हुआ बोला।  -महाराज! आप तो अन्तर्यामी हैं।  सब जानते हैं।  हम इधर यात्री आवास के प्रबंधक हैं हमें अपना आवास गृह चलाना है।
सूत जी समझ गए, इस तिल से तेल नहीं निकलेगा। बोले - ठीक है, ठीक है।   किसी दिन लाल फ्रॉक को हटना पड़ेगा तो तुम्हारे जैसे लोगों का उस में सर्वाधिक योगदान होगा।  हमें स्नान, ध्यान से निवृत्त होने में दो घड़ी समय लगेगा, फिर कलेवा करेंगे और नगर भ्रमण के लिए निकलेंगे।
-जो, आदेश महाराज! प्रबंधक करीब करीब पैरों तक झुक आया था, फिर पीछे मुड़ कर कक्ष के बाहर निकल गया।

हे, पाठक! 
सूत जी कलेवा कर यात्री आवास से निकले तो सीधे बड़े दल के कार्यालय पहुँचे।  दल के किसी वरिष्ठ से मिलना चाहते थे।  लेकिन सब वरिष्ठ चुनाव प्रचार में लगे थे। मुख्यालय में केवल प्रवक्ता मिला।  उस ने सूत जी का स्वागत किया।
-महाराज! बहुत दिनों में पधारे।  हम से कोई भूल हुई जो बिसर ही गए?
-नहीं वत्स! हम न किसी को बिसरते हैं और न ही किसी को स्मरण करते हैं।  जब जन को जैसी आवश्यकता होती है वैसी कथाएँ लिखते हैं, छापते हैं और सुनाते हैं।  तुम यह बताओ कि कैसा चल रहा है?
-हम अपने कार्यक्रम पर आगे बढ़ रहे हैं, जैसा हमने दल के 1964 के राजनैतिक कार्यक्रम में निश्चित किया था और बाद के प्लेनमों में जैसा उसे आगे बढ़ाया है।  हम ने पहले समान विचार वालों का मोर्चा बनाया, उस की शक्ति बढ़ाई, अब नजदीकी साथियों को अपने साथ खड़ा करने की राह पर हैं।
-पर तुम्हारे ही बंधु कहते हैं कि राजनैतिक कार्यक्रम तो डब्बे में बंद कर दिया गया है।  कोई न तो जनवादी क्राँति को स्मरण करता है और न ही जनता के जनवाद को।  वे कहते हैं प्लेनम से कार्यक्रम आगे नहीं बढ़ाया है, अपितु संशोधित कर दिया है और दल संशोधनवाद के रास्ते जा कर पूरी तरह संसदवादी हो गया है।  क्या अब यह समझ बन चुकी है कि संसदीय रीति से क्राँति होगी?
-महाराज! अब आप मुझे संकट में डाल रहे हैं। इतने गंभीर प्रश्नों का उत्तर मेरा जैसा साधारण प्रवक्ता कैसे दे सकेगा? इन का उत्तर देने के लिए तो पॉलित ब्यूरो की बैठक करनी होगी।  वैसे भी अभी क्राँति का विषय स्थगित है। अभी तो चुनाव के माध्यम से संसद में ही अपनी शक्ति वृद्धि करनी है।  उस के लिए भूमि तैयार है।
-लेकिन, जो दल साथ लगे हैं, उन से कैसे लाभ होगा?
 -होगा क्यों नहीं? देखिए, इन सब दलों का हमारे खंड में कुछ न कुछ प्रभाव तो है ही।  बूंद बूंद से सागर भरता है। हम खंड में आगे न भी बढ़ पाए तो भी जो प्रभाव ममता ब्हेन और बैक्टीरिया दल के अवसरवादी गठबंधन से हुआ है, वह तो नष्ट हो ही लेगा। हम वर्तमान स्थिति को तो बनाए रख सकते हैं। उधर इन स्थानीय दलों के प्रभाव से उन के राज्यों में कुछ पंच हमारे ले आएँगे।  हमें पूरा विश्वास है कि इस बार हमारी शक्ति पहले से अधिक होगी।  साथी दलों को मिला कर हमारी संख्या बैक्टीरिया और वायरस दलों से अधिक नहीं तो बराबर तो हो ही सकती है।  फिर प्वाँर जी से डेटिंग चल रही है, चुनाव उपरांत साइकिल, लालटेन और बंगला भी हमारे साथ आने को ललचाएगा।  हमें पंचायत प्रधानी का शौक है नहीं, किसी को भी प्रधानी देंगे तो बात बन सकती है। वायरस-बैक्टीरिया विहीन मंडल बनाने का अवसर तो है ही। 
- अच्छा हम चलेंगे, हमें दक्खिन भी जाना है। सूत जी उठने लगे तभी एक कार्यकर्ता रसगुल्ले और गन्ने का रस ले कर आ पहुँचा।

हे, पाठक! 
प्रवक्ता ने सूत जी को फिर से बिठा लिया।  रसगुल्ले चखने का लालच तो उन्हें भी था।  रसगुल्ले पा कर वे पुनः यात्री आवास पहुँचे।  कक्ष में ही भोजन मंगवाया और सायँ सूर्यास्त पूर्व जगाने के लिए प्रबंधक को आदेश दे विश्राम करने लगे।  रात्रि को ही दक्षिण के लिए जो निकलना था।

बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....

रविवार, 3 मई 2009

सूत-सनत का रात्रि विश्राम, चाचा वंश और विकल्प की चर्चा : जनतन्तर कथा (23)

हे, पाठक! 
मन भर कर रबड़ी छक लेने के बाद भोजन मात्र औपचारिकता रह गई थी।  भोजनशाला में अधिक देर नहीं लगी।  सूत जी, सनत और उस का शिष्य तीनों भोजन कर बाहर आए तो अर्धरात्रि में अभी भी पाँच घड़ी समय शेष था।  सनत के शिष्य को तो घर जाना था।   तीनों पैदल ही टहलने निकले।  सनत शिष्य को दूर तक छोड़ आए।   बात करते करते वापस  सितारा पहुँचे।   बातें करने के लालच में सनत रात सूत जी के साथ ही रुक गया।  सनत बता रहा था कि इस बार पता ही नहीं लग रहा है कि जनता क्या करेगी?  सूत जी चाचा वंशजों के बारे में जानना चाहते थे।

हे, पाठक!
दोनों गुरू चेले शैयासीन हो कर बतियाने लगे।  सनत बता रहा था।  चाचा वंश के माँ बेटे तो संसद में पहुँच ही रहे हैं।  पर इधर विद्रोही ने भी नाटक कम नहीं किया।  पर माया ने उसे खूब अन्दर पहुँचाया।  कोई दूसरा दल होता तो शायद इतनी साहस नहीं दिखाता।  सूत जी ने सहमति व्यक्त की -हाँ, यह तो सही है कि वह महिला यदि सही रास्ते पर चले तो साहसी तो बहुत है।   दलित उस के पीछे चल भी पड़े हैं, लेकिन उन में भी दल में वही लोग उच्च स्थान हथियाये हुए हैं जिन्हों ने गलत तरीकों से पैसा बना लिया है।   इसी से उस के जीते हुए प्रत्याशी अवसर मिलने पर कहीं भी खिसकने को तैयार मिलते  हैं।  उस ने कुछ सवर्णों को अवश्य आकर्षित किया है।  लेकिन दल में धनिक दलितों और गरीब दलितों का द्वैत भी बन चला है, सत्ता और आरक्षण का लाभ धनिक ही उठा रहे हैं, यह द्वैत माया को अवश्य ही ले डूबेगा।   -गुरूदेव आप सच कहते हैं, ऐसा ही हो रहा है।   सनत सूत जी की हाँ में हाँ मिलाता जा रहा था।   -पर जिस तरह बहुत सारे दल खंड में मैदान में आ गए हैं उस में बैक्टीरिया दल को कुछ अतिरिक्त लाभ मिल सकता है।

हे, पाठक!
सनत बोला तो इस बार सूत जी ने भी हाँ भर दी कि हो सकता है पहले की अपेक्षा कुछ बढ़त मिल जाए।  लेकिन बैक्टीरिया दल के पास अब आगे बढ़ने को कुछ रह भी नहीं गया है। वह यथास्थिति में फँस कर रह गई है।  गरीबों के लिए उस के पास कुछ भी नया नहीं है।  वह केवल और केवल वर्तमान अर्थव्यवस्था की गति को तेज करने का प्रयत्न करती है।  अर्थव्यवस्था की गति तेज होती है तो आम लोगों को उस का तनिक लाभ मिलता ही है।  उसी के भरोसे यह जनता में विश्वास बनाए हुए है। जिस दिन यह टूटेगा।  तब लोग इसे छोड़ भागेंगे।   सूत जी की इस बात पर सहमति व्यक्त करते हुए सनत कहने लगा  -छोड़ तो अभी भी भाग लें, यदि कोई दूसरा विकल्प हो।  इस समय कोई विकल्प खड़ा होने ले तो जनता के बीच काम कर सब को किनारे कर सकता है।  लेकिन हालात ऐसे हैं, कोई विकल्प सामने आ ही नहीं रहा है।  लोग जनतंतर से ऊबने लगे हैं, मत डालने से कतराने लगे हैं।  सोचते हैं, मत देने से कुछ बदल तो रहा नहीं है। दे कर भी क्या करें? वैसे लाल फ्राक वाली बहनें कोशिश में लगी तो हैं।

हे, पाठक! 

इस अंतिम बात पर सूत जी सनत से सहमत न हो सके।  कहने लगे -पिटे पिटाए स्वयंभुओं को एकत्र करने भर से विकल्प नहीं खड़े होते।  स्थाई और दीर्घकालीन विकल्प पीड़ित जनता के संगठनों को एक साथ एक लक्ष्य के साथ एकत्र करने से ही खड़ा हो सकता है।   जो भी इन्हें एकत्र कर लेने का कठोर श्रम करेगा और अपने नेतृत्व में विश्वास पैदा कर सकेगा वही इन का नेतृत्व कर सकता है।  सनत ने एक आह भरी  - न जाने कब ऐसा होगा?  सूत जी ने सनत में विश्वास जगाया -होगा अवश्य होगा।  परिस्थितियों से जनता सीख रही है।  जब दाल पकने लगेगी देगची का ढक्कन स्वयमेव ही भाप को बाहर निकलने को सरक लेगा।  सूत जी बोले अब रात बहुत हो चली है।   कुछ निद्रा भी ले लें।  सुबह फिर आगे की योजना भी बनानी है।  दोनों गुरू-शिष्य शीघ्र ही खर्राटे लेने लगे।   सनत शिष्य बुद्धिमान था जो यहाँ से सरक लिया।  वरना इधर रुक जाता तो उसे तो खर्राटों में सारी रात जागना ही पड़ता।

बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....