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रविवार, 7 अगस्त 2011

नाचते ही जा रहे हैं, अंकल सैम

कविता

नाचते ही जा रहे हैं, अंकल सैम


नाच ..!     नाच ...!     नाच ...! 
नाचते ही जा रहे हैं, अंकल सैम
 
तनिक रुक कर साँस तक नहीं लेते
उखड़ने लगी हैं साँसें, लड़खड़ाने लगे हैं पैर,
फिर भी 
नाचते ही जा रहे हैं, अंकल सैम


हतप्रभ, हताश लोग छोड़ने लगे हैं नाचघर
ब्लेक में खरीदी गई टिकटें बिखरने लगी हैं
नाचघर के बाहर
लोग चीख रहे हैं, रुको-रुको-रुको 
अब रुक भी जाओ, फिर भी रुक नहीं रहें हैं
नाचते ही जा रहे हैं, अंकल सैम

दिखाई नहीं दे रहे हैं उन्हें 
नाचघर छोड़ते हताश लोग
सुनाई नहीं दे रही हैं उन्हें 
लोगों की चीखें, चीत्कार 
अनिच्छा से थिरक रहे हैं अंग 
अनिच्छा से उठ रहे हैं पैर 
नाचते ही जा रहे हैं, अंकल सैम

 
नहीं रुकेंगे वे, रुक नहीं सकते वे
नाचते ही रहेंगे, नाचते ही रहेंगे 
देखो! देखो! देखो!
वे खुद नहीं नाच रहे हैं
हाथ, पैर, कमर और सिर 
पारदर्शी धागों से बंधे हैं 
धागे ही नचाए जा रहे हैं, और 
नाचते ही जा रहे हैं, अंकल सैम

कौन पकड़े है? इन धागों के सिरे
कौन है? जो नचाए जा रहा है
वही पवित्र (?) भूरी आँखों वाली बिल्ली 
निष्प्राण! वित्तीय पूंजी
उसी की पकड़ में है, सारे धागों के सिरे
वही नचाए जा रही है, और 
नाचते ही जा रहे हैं, अंकल सैम


है कोई! जो काट दे इन धागों को 
वरना, मर जाएंगे, अंकल सैम
कोई तो काटो, काट डालो इन धागों को
अरे! अन्न और कपास उपजाने वालों!
कारखानों में काम करने वालों!
पसीना बहा सब कुछ बनाने वालों 
अपने अपने औजार लाओ, और 
काट डालो इन धागों को
वरना, मर जाएंगे, अंकल सैम

नाच ..!     नाच ...!     नाच ...! 
नाचते ही जा रहे हैं, अंकल सैम


  • दिनेशराय द्विवेदी


बुधवार, 18 अगस्त 2010

पूंजी का अनियोजित निवेश विकास को अवरुद्ध करता है

गर तेजी से विस्तार पा रहे हैं। लेकिन केन्द्र और राज्य सरकारों के नगरीय विकास विभाग इस विस्तार से आँख मूंदे बैठे हैं। लोग नगरों में शरण पाते हैं तो उन्हें रहने को छप्पर तो चाहिए ही। रोजगार मिलने के बाद सब से पहले आदमी यही सोचता है कि उसे एक छत मिल जाए। वह उस की तलाश में लग जाता है। वह किराए का घर लेता है। जो हमेशा उस की जरूरत से बहुत छोटा होता है। जैसे तैसे कुछ बचाता है और एक अपना घर बनाने की जुगाड़ में लग जाता है। नगरों में जमीनें कीमती हैं और उस के बस की नहीं। लेकिन अपने घर की चाह बनी रहती है
सी चाह का लाभ उठाते हैं वे लोग जिन के पास लाठी है, जिनकी लाठी की राजनीतिज्ञों को जरूरत होती है और जिन के पास कुछ पैसा भी है। वे जमीनों पर कब्जा करते हैं, झुग्गियाँ डालते हैं और उन्हें किराए पर उठाते हैं, बेच भी देते हैं। सस्ती झुग्गी खरीद कर आदमी उसे पक्की करने में जुट जाता है। यह झुग्गी हमेशा अवैध होती है जब तक कि पूरी बस्ती के वोटों का दबाव सरकार पर नहीं बन जाता है। हमारे नगरीय विकास विभाग इन झुग्गियों के न बसने का और लोगों को आवास मुहैया कराने का कोई माकूल इलाज आज तक नहीं निकाल पाए। 
धर अनेक स्तरों वाला मध्यवर्ग भी बहुत बड़ा है, उसे झुग्गियाँ पसंद नहीं वह सस्ती जमीन चाहता है। नगरों के आसपास की खेती की जमीनें किसान बेच रहे हैं। उन्हें ऐसे ग्राहक मिल जाते हैं जो उन्हें इतना पैसा देने को तैयार हैं जिस से बेचना फायदे का सौदा हो जाए। खरीदने वाले लोग जमीन पर भूखंड बनाते हैं और फिर बेच देते हैं। वे अपना पैसा जल्दी निकालना चाहते हैं। सभी भूखंड जल्दी ही बिक जाते हैं। जब पहली बार ये भूखंड बिकते हैं तो बस्ती नहीं होती है। इन भूखंडों को वे ही लोग खरीदते हैं जिन के पास पैसा है और उन्हें खरीद कर छोड़ देते हैं, तब तक के लिए जब तक कि उन का अच्छा पैसा न मिलने लगे। फिर कोई जरूरतमंद आ कर उन पर मकान बनाता है। उसे देख कर कुछ लोग और आते हैं और मकान बनने लगते हैं। जमीन की कीमत बढ़ने लगती है। जब कुछ मकान बन जाते हैं तो लोग उसे बसती हुई बस्ती मान कर वहाँ अपने लिए कोई भूखंड खरीदने जाने लगते हैं। भूखंडों का बाजार बनने लगता है। लेकिन उन्हें उस कीमत में भूखंड नहीं मिलता जिस पर वे लेना चाहते हैं, जितनी उन की हैसियत है। उन की हैसियत के मुताबिक कीमत पर भूखंड मिलता है तो वहाँ जहाँ अभी बस्ती बसने नहीं लगी है। नगरों के आस पास मीलों तक के खेत बिक चुके हैं। उन पर भूखंड बना दिए गए हैं, बेच दिए गए हैं। लेकिन बस्तियाँ नहीं बस रही हैं। लोग बसना चाहते हैं। लेकिन वाजिब कीमत पर जमीन नहीं है। 
ध्य और उच्च मध्यवर्गीय लोगों की इन भूखंडों में करोड़ों-अरबों की पूंजी लगी है। इस पूंजी ने जो आवासीय योजनाएँ खड़ी की हैं। उन में न बाजार हैं और न ही अन्य सुविधाएँ। इन्हें लोग अपनी मरजी और जरूरत के अनुसार बना ही लेंगे। लेकिन पार्क और खेलने के स्थान? वे इन में कभी नहीं होंगे। भूखंडों को उन के मालिक  तब बेचेंगे जब उन की मर्जी के मुताबिक भाव मिलेगा। पूंजी के इस अनियोजित निवेश ने नगरों की बस्तियों के विकास को अवरुद्ध और बेतरतीब कर दिया है। सरकारों को इस से क्या? भारत तो इसी तरह निर्मित होगा, अनियोजित और अव्यवस्थित।

रविवार, 2 मई 2010

यह भ्रम भी एक दिन टूटेगा

ल एक मई, मजदूर दिवस था। हिन्दी ब्लाग जगत में बहुत आलेख इस विषय पर या मजदूरों से संबंधित विषयों पर पढ़ने को मिले। अखबारों और पत्रिकाओँ की यह रवायत बन गई है कि किसी खास दिवस पर उस से संबंधित आलेख लिखें जाएँ और प्रकाशित किए जाएँ।  टीवी चैनल भी उन का ही अनुसरण करते हैं और यही सब अब ब्लाग जगत में भी दिखाई दे रहा है। जैसे ही वह दिन निकल जाता है लोग उस विषय को विस्मृत कर देते हैं और फिर अगले खास दिन पर लिखने में जुट जाते हैं। इस दिवस पर लिखे गए अधिकांश आलेखों के साथ भी ऐसा ही था। सब जानते हैं कि मई दिवस क्यों मनाया जाता है। उसे दोहराने की आवश्यकता नहीं।
डेढ़ सदी से अधिक समय हो चला है उस दिन से जब 'कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणा पत्र' जारी किया गया था जिसे पिछली सदी के महान दार्शनिकों कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक ऐंगेल्स ने लिखा था। इस घोषणा पत्र में 'प्रोलेटेरियट' शब्द का प्रयोग किया गया था और उस का अर्थ स्पष्ट किया गया था, यह इस तरह था - 
By proletariat, the class of modern wage labourers who, having no means of production of their own, are reduced to selling their labour power in order to live. [Engels, 1888 English edition]
हिंदी में इसी प्रोलेटेरियट को सर्वहारा कहा गया। आज सर्वहारा शब्द को सब से विपन्न व्यक्ति का पर्याय मान लिया जाता है। जब कि मूल परिभाषा पर गौर किया जाए तो सर्वहारा का तात्पर्य उस 'आधुनिक उजरती मजदूर से है जिस के पास उत्पादन के अपने साधन नहीं होते और जो जीवन यापन के लिए अपनी श्रमशक्ति को बेचने के लिए मजबूर है"।
हाँ जिस 'श्रमशक्ति' का तात्पर्य केवल मनुष्य की शारीरिक ताकत से ही नहीं है। काम के दौरान या शिक्षा के फलस्वरूप मनुष्य जो कुशलता प्राप्त करता है वह भी उसी श्रमशक्ति का एक हिस्सा है। इस तरह कोई व्यक्ति जीवन यापन के लिए अपनी श्रमशक्ति को मुद्रा या वस्तुओं के बदले बेचने को बाध्य है तो  वह सर्वहारा ही है, उस से अलग नहीं।
दि हम अब पुनः सर्वहारा की परिभाषा पर गौर करें तो पाएंगे कि बहुत से लोग इस दायरे में आते हैं। मसलन इंजिनियर, डाक्टर, वकील, तमाम वैज्ञानिक, प्रोफेशनल्स और दूसरी क्षमताओं वाले लोग जो कि किसी न किसी संस्थान के लिए काम करते हैं और बदले में पारिश्रमिक प्राप्त करते हैं वे सभी उजरती मजदूर यानी सर्वहारा हैं। दुनिया में जो कुछ भी मानव द्वारा निर्मित है उन के द्वारा निर्मित हैं संचालित है। बस एक चीज है जो उन के पास नहीं  है और वह यह कि  उस का इन दुनिया नियंत्रण नहीं है। क्यों कि जो कुछ वे उत्पादित करते हैं वह पूंजी की शक्ल में रूपांतरित किया जा कर किसी और के द्वारा अपने अधिकार में कर लिया जाता है और फिर वे लोग पूंजी में रूपांतरित श्रम की ताकत पर दुनिया के सारे व्यापारों को नियंत्रित करते हैं। वे लोग जो दुनिया के मनु्ष्य समुदाय का कठिनाई से दस प्रतिशत होंगे इस तरह शेष नब्बे प्रतिशत लोगों पर नियंत्रण बनाए हुए हैं। 
मस्या यहीं है, इस सर्वहारा के एक बड़े हिस्से को पूंजी पर आधिपत्य जमाए लोगों ने यह समझने पर बाध्य किया हुआ है कि वे वास्तव में सर्वहारा नहीं अपितु उस से कुछ श्रेष्ठ किस्म के लोग हैं,  वे श्रमजीवी नहीं, अपितु बुद्धिजीवी हैं, और चाहें तो वे भी कुछ पूंजी पर अपना अधिकार जमा कर या दुनिया के नियंत्रण में भागीदारी निभा सकते हैं। तथाकथित बुद्धिजीवियों के सामने यह जो चारा लटका हुआ है वे उस की चाह में उस की ओर दौड़ते हैं। उन्हें यह पता नहीं कि यह चारा खुद उन के सर पर ही बांधा हुआ है जो उन के दौड़ने के साथ ही लगातार आगे खिसकता रहता है। इस बात से अनजान यह तबका लगातार चारे की चाह में दौड़ता रहता है। चारा लटके रहने का यह भ्रम जब तक बना हुआ है तब तक दुनिया की यह विशाल सर्वहारा बिरादरी चंद लोगों द्वारा हाँकी जाती रहेगी। जिस दिन यह भ्रम टूटा उस दिन उसे नहीं हाँका जा सकता। वह खुद हँकने को तैयार नहीं होगी। 
म जानते हैं कि भ्रम हमेशा नहीं बने रहते, दुनिया के सभी भ्रम एक दिन टूटे हैं। यह भ्रम भी एक दिन टूटेगा।

मंगलवार, 1 दिसंबर 2009

विपक्ष में तो अब बस जनता रह गई है, चूसे जाने के लिए

पिछले आलेख पर बड़े भाई ज्ञानदत्त जी की टिप्पणी थी .....
"ज्ञानदत्त G.D. Pandey 1 December, 2009 4:31 PM   मन्दी? कहां है मन्दी? रेल यातायात डील करते समय मुझे मन्दी नहीं दीखती। कितना सीमेण्ट, कोयला, स्टील, उर्वरक ... सब चले जा रहा है अनवरत। और बहुत कुछ जा रहा है पूर्वान्चल/बिहार को! मुझे बताया गया कि ग्रोथ रेट सात परसेण्ट के आस-पास है। विपक्ष जोर लगा कर भी मंहगाई को सफल चुनावी मुद्दा नहीं बना पाया। सो मन्दी तो मिथक है। जिसे हम सब एक्स्प्लेनेशन के लिये पाल रहे हैं"


लेकिन उन लाखों लोगों से पूछें जो मंदी के नाम पर छंटनी के फलस्वरूप बेरोजगार कर दिए गए हैं। उन से पूछें जिन से उन के  माथे पर छंटनी की तलवार लटका कर आठ घंटों के स्थान पर चौदह और सोलह घंटे काम लिया जा रहा है या उन से कम वेतनों पर काम करने की नयी सेवा शर्तें तय करा ली गई हैं। उन विद्यार्थियों से पूछें जिन के कैंपस सेलेक्शन के बाद अभी तक नियुक्तियों का पता नहीं है। जहाँ नियुक्तियाँ हो भी रही हैं वहाँ वेतन लगभग आधे कर दिए गए हैं। एक सोफ्टवेयर इंजिनियर को छह से दस हजार प्रतिमाह की नौकरी के प्रस्ताव मिल रहे हैं। उन के लिए मंदी है। नहीं है तो फिर जनता को झाँसा दे कर लूटा जा रहा है।

ज्ञान जी ने जो उदाहरण दिए हैं वे सब रेलवे से संबद्ध हैं। भारतीय रेलवे आबादी और उस की जरूरतों के मुकाबले बहुत छोटी हो गई है। उस के पास सवारियाँ ढोने को कम गाड़ियाँ हैं। जो हैं उन्हें चलाने के लिए पर्याप्त रेलपथ नहीं हैं। गाड़ियों की सूची इतनी व्यस्त है कि एक जरा सी भी बाधा से कई दिनों तक का मामला खराब हो जाता है। इधर कोटा के आसपास जो थर्मल बिजलीघर हैं उन के बारे में पिछले दिनों खबर थी कि कोयला समय पर नहीं पहुँचा, केवल सात दिनों का स्टॉक रह गया। जो व्यवसाय समाज की आवश्यकता से बहुत न्यून हो जाएगा वहाँ मंदी क्या असर दिखाएगी? लेकिन जिन व्यवसायों में पिछले सालों में मुनाफा बरस रहा था। सारी फालतू पूँजी वहीं समेट दी गई। अतिउत्पादन से वहाँ मंदी आनी ही थी। नतीजा यह हुआ कि बहुत सी इकाइयाँ बैठ गई और उन में लगी पूँजी की कीमत नगण्य हो गई। यही तो मंदी का गणित है।


कुछ क्षेत्रों में तेजी से पूँजी का बहना, उस का संकेन्द्रण और अतिउत्पादन। बाकी सब क्षेत्रों में तो मंदी नहीं दिखाई देगी। वहाँ तो पूँजी का अभाव महंगाई को ही बढ़ाएगा। यही कारण है कि एक ओर मंदी का विशाल दानव दिखाई पड़ता है तो दूसरी ओर महंगाई की दानवी मुहँ बाए खड़ी हो जाती है। आज की अर्थव्यवस्था में जो उत्पादन की अराजकता है। वही तो इन संकटों की जन्मदाता है। एक वर्ष प्याज और टमाटर के भाव आसमान पर होते हैं तो अगले वर्ष उसी की खेती बहुसंख्यक किसान करते हैं और फिर अतिउत्पादन से दोनों सड़ने लगते हैं। लागत न मिलने पर किसान आत्महत्या पर मजबूर हो जाते हैं।
सीमेंट, कोयला, स्टील और उर्वरक ये सब जीवन के लिए आधारभूत वस्तुएं हैं। इन के उत्पादन में मुनाफा कम है और लागत के लिए विशाल पूंजी की आवश्यकता है। इतनी बड़ी पूँजी कौन लगाए? इनमें मंदी का क्या असर हो सकता है? एक बात और, मंदी के बहाने बढ़ाई गई बेरोजगारी, वेतनों में कमी और महंगाई। उपभोक्ताओं की जेब में पहुँचने वाली धनराशि को बड़ी मात्रा में कम करती है और बाजार सिकुड़ता है। यह मंदी के प्रभाव में और तेजी लाती है।


मंदी तो है। मेरा कहना तो यही था कि अर्थव्यवस्था के नियोजन से इस मंदी पर काबू पाया जा सकता है।  किन हम आग लगने पर कुआँ खोदने दौड़ते हैं। पहले से पानी की व्यवस्था नहीं रखते या फिर आग न लगने देने के साधन नहीं करते। क्या हमें वे नहीं करने चाहिए? बड़े भाई ने विपक्षी दलों द्वारा महंगाई के मुद्दे का लाभ न उठा सकने पर निराशा जाहिर की है, पर विपक्षी दल है कहाँ? सब पक्ष में ही खड़े हैं कोई खुल कर खड़ा है तो कोई पर्दे के पीछे। विपक्ष में तो अब बस जनता रह गई है, चूसे जाने के लिए।

बुधवार, 10 जून 2009

उद्यम भी श्रम ही है

उद्यमैनेव सिध्यन्ति कार्याणि, न मनोरथै।
नहि सुप्तस्य सिंहस्य: प्रविशन्ति मुखे मृगा:॥   

हिन्दी के सक्रियतम ब्लागर (चिट्ठा जगत रेंक) श्री ज्ञानदत्त जी पाण्डेय ने उक्त श्लोक अपनी आज की पोस्ट उद्यम और श्रम में उदृत किया है।  इस श्लोक का अर्थ है कि कार्य  मात्र  मनोरथ से नहीं अपितु उद्यम से सिद्ध होते हैं। सोते हुए सिंह के मुख में मृग प्रवेश नहीं करता।  सिंह को अपने लिए आहार जुटाने के लिए किसी पशु को आखेट का उद्यम करना होता है।  क्षुधा होने पर सिंह का शिकार का मनोरथ बनता है। तत्पश्चात उसे पहले शिकार तलाशना होता है। फिर उचित अवसर  देख उस का शिकार करना पड़ता है। बहुधा उसे शिकार का पीछा कर के उसे दबोचना पड़ता है, मारना पड़ता है और फिर उसे खाना पड़ता है।
सिंह की शारीरिक आवश्यकता से मनोरथ उत्पन्न होता है, लेकिन इस मनोरथ की पूर्ति के लिए विभिन्न प्रकार के श्रम करने की जो श्रंखला पूरी करनी होती है उसे ही उद्यम कहा गया है।   हम पाते हैं कि श्रम उद्यम का अनिवार्य घटक है।  उस की दो श्रेणियाँ हैं।  पहली शारीरिक और दूसरी मानसिक।  सिंह की शारीरिक अवस्था उस में मनोरथ उत्पन्न करती है, अर्थात शिकार का विचार सिंह की भौतिक परिस्थितियों से उत्पन्न होता है। फिर भौतिक परिस्थितियों में किए गए अनुभव के आधार पर मानसिक श्रम और अपने भौतिक बल के आधार पर शारीरिक श्रम करना पड़ता है।
उक्त उद्धरण संस्कृत भाषा के साहित्य से लिया गया है।  वामन शिवराम आप्टे के संस्कृत हिन्दी शब्दकोष में उद्यम और श्रम से संबंधित शब्दों के अर्थ निम्न प्रकार बताए गए हैं-
उद्यमः  [उद्+यम्+घञ्] = 1.उठाना, उन्नयन 2. सतत् प्रयत्न, चेष्टा, परिश्रम, धैर्य।
उद्यमिन्  [उद्+यम्+णिनि] = परिश्रमी, सतत प्रयत्नशील।
उद्योगः  [उद्+युज्+घञ्] प्रयत्न, = चेष्टा, काम धंधा।
उद्योगिन् [उद्+युज्+घिणुन्] प्रयत्न, = चुस्त, उद्यमी, उद्योगशील।
श्रम् = 1.चेष्ठा करना, उद्योग करना, मेहनत करना, परिश्रम करना,  2.तपश्चर्या करना। 3. श्रांत होना, थकना, परिश्रान्त होना।
श्रमः [श्रम् + घञ्] 1.मेहनत, परिश्रम, चेष्टा, 2.थकावट, थकान, परिश्रांति 3. कष्ट, दुःख, 4. तपस्या, साधना 5. व्यायाम, विशेषतः सैनिक व्यायाम,  6. घोर अध्ययन। 
उक्त सभी शब्दों के अर्थों के अध्ययन से स्पष्ट है कि श्रम उद्यम का अविभाज्य अंग है। उस की उपेक्षा करने से उद्यम संभव नहीं है। मनोरथ की पूर्ति के लिए शारीरिक श्रम और मानसिक श्रम के संयोग को ही उद्यम कहा गया है।
ज्ञान जी ने उक्त आलेख में जिस तरह से श्रम को पूंजी के साथ वर्णित किया है,  उस का प्रभाव यह है कि श्रम तुच्छ है और श्रमिक को अपने हक की मांग नहीं करनी चाहिए, उसे उचित हक दिलाने वाले कानून नहीं होने चाहिए और उसे अपने साथ होने  वाले अन्याय के प्रति संगठित नहीं होना चाहिए। इस  का यह भी प्रभाव है कि आलेख को पढ़ने वाला व्यक्ति श्रम से कतराने लगे।  श्रम को उचित सम्मान नहीं देने और उसे एक निकृष्ठ मूल्य के रूप में स्थापित किए जाने से ही समाज में अकर्मण्यता की उत्पत्ति होती है।   आज यह मूल्य स्थापित हो गया है कि काम को ईमानदारी से करने वाला गधा है, उस पर लादते जाओ और जो काम न करे उस से  बच कर रहो। ज्ञान जी द्वारा प्रस्तुत उदाहरण केवल एक व्यक्ति के श्रम के बारे में है और एक बली और सशक्त पशु से उठाया गया है।  जहाँ केवल प्रकृति जन्य साधनों से जीवन यापन किया जा रहा है।  इस उदाहरण की तुलना में मनु्ष्य समाज अत्यधिक जटिल है।  मनुष्य ही एक मात्र प्राणी है जो प्रकृति से वस्तुओं को प्राप्त कर उन पर श्रम करते हुए उन का रूप परिवर्तित करता है उस के बाद उन्हें उपभोग में लेता है।
आज कल श्रम को एक श्रेष्ठ मूल्य मानने और उसे स्थापित करने के लिए प्रयत्नशील रहने के विचार को लगातार निम्न कोटि का प्रदर्शित करने का फैशन चल निकला है जो लगातार श्रमशील  लोगों में हीन भावना उत्पन्न करता है।  का प्रयास  इस में उन लालझंडा धारी लोगों का भी योगदान है जिन्हों ने पथभ्रष्ट हो कर श्रम के मूल्य को समाज में स्थापित करने के नाम पर इस मूल्य के साथ बेईमानी की है।  इसी मूल्य के नाम पर उन्हों ने श्रम जगत के साथ घोर विश्वासघात किया है।  लेकिन इस विश्वासघात से श्रम के एक श्रेष्ट मूल्य होने में कोई बाधा नहीं पड़ती।  किसी के कह देने से हीरा कोयला नहीं हो जाता, आग को शीतल कह देने से उस की जलाने की क्षमता पर कोई असर नहीं पड़ता। 
ज्ञान जी ने कोटा और सवाई माधोपुर के जो उदाहरण दिए हैं वे सही नहीं हैं।  संभवतः उन की जानकारी  इस मामले में वही रही जो उन्हें किसी से सुनने को मिली या जो माध्यमों द्वारा प्रचारित की गई।  इन दोनों  मामलों  के बारे में मेरे व्यक्तिगत अनुभव हैं और जो तथ्य हैं वे खुद उन उद्योगों के मालिकों द्वारा अपनी बैलेंसशीटस् से उद्भूत हैं।  इन मामलों के निपटारे में अदालतों में देरी भी प्रबंधकों द्वारा की गई है। जिस से जितना माल खिसकाया जा सके खिसका लिया जाए। फिर कंपनी बंद, श्रमिक किस से अपनी मजदूरी और लाभ प्राप्त करेंगे।  इन मामलों को अपने ब्लाग के माध्यम से उजागर करने की मेरी इच्छा रही है।  लेकिन समय का अभाव इस में बाधक रहा है। बहुत से दस्तावेज अवश्य मेरे कम्प्यूटर के हार्ड ड्राइव में अंकित हैं जिन्हें प्रस्तुत किया जा सकता है। कभी इस का अवसर हुआ तो अवश्य ही प्रस्तुत करने का प्रयत्न करूंगा।
मेरा व्यक्तिगत अनुभव है कि कभी भी कोई उद्योग किसी यूनियन की हड़ताल के कारण बंद नहीं होता।  लेकिन  उसे प्रत्यक्ष रुप में कारण प्रचारित करने में बहुत धन खर्च किया जाता है। बहुधा वास्तविक कारण कम लाभ के उद्योग से पूंजी निकाल कर अधिक लाभ के उद्योगों में निवेश करना होता है।  सभी उद्योग पुराने होने के कारण जीर्ण हो कर बंद होते हैं, पर अधिकांश पहले कारण से जीर्णावस्था प्राप्त होने के पहले ही उद्योगपतियों द्वारा बंद कर दिए जाते हैं। जब उद्योग को बंद करना होता है तो सब से पहले उद्योगपति विभिन्न  प्रशासनिक खर्चे बता जितनी पूंजी को काला कर अपनी जेब के हवाले कर सकते हैं कर लेते हैं।  जिस से वह उद्योग घाटा दिखाने लगता है।  फिर बैंकों से लिए गए उधार में कटौती चाहते हैं।  पुनर्चालन (रिवाईवल) के नाम पर उधार में छूट प्राप्त कर लेते हैं।  फिर उद्योग को चलाने का नाटक करते हैं।  इस के लिए वे हमेशा किसी ऐसी कंपनी को चुनते हैं जिसे कबाड़ा बेचने का अनुभव हो।  वह धीरे धीरे अपना काम करता है और उद्योग की अधिकांश संपत्ति को ठिकाने लगा देता है।  कंपनी को न चलने योग्य घोषित कर दिया जाता है।  श्रमिकों के बकाया के चुकारे के लिए कुछ शेष छोड़ा ही नहीं जाता।  उद्योगों की भूमि हमेशा उद्योग की कंपनी के पास लीज पर होती है।  सरकार उसे अधिग्रहीत कर लेती है।  उसी समय नेतागण उसे हड़पने के चक्कर में होते हैं।  उद्योग के लिए आरक्षित भूमि सस्ते दामों पर नेता लोग हथिया लेते हैं और उसे बाद में आवासीय और व्यावसायिक भूमि में परिवर्तित कर करोडों का वारा न्यारा कर लेते हैं।  श्रमिकों को कुछ नहीं मिलता।  उन में से अनेक और उन के परिजन आत्महत्या कर लेने को बाध्य होते हैं।  शेष अपनी लड़ाई लड़ने में अक्षम हो कर नए कामों पर चले जाते हैं।  कुल मिला कर काला धन बनाने वाला उद्यमी सरकार, सार्वजनिक बैंकों की पूंजी और श्रमिकों सब को धता बता कर अपनी पूँजी आकार बढा़ता है। यदि यही उद्यम है तो इसे दुनिया से तुरंत मिट जाना चाहिए। 
यह सही है कि हमारा कानून दिखाने का अधिक और प्रायोगिक कम है। इसे वास्तविक परिस्थितियों के अनुकूल बनाया जाना चाहिए।  न्याय व्यवस्था को चाक-चौबंद और तीव्र गति से निर्णय करने वाली होना चाहिए।  लेकिन उस के लिए कितने लोग संघर्ष करते दिखाई देते हैं? श्रम कानून संशोधित किए जाने चाहिए और उन की पालना भी सुनिश्चित की जानी चाहिए।  बीस वर्ष पहले श्रम कानून श्रमिकों के पक्ष में दिखाई देते थे।  उन्हें बदलने के लिए 1987 में एक बिल भी लाया गया था। जिसे स्वयं उद्योगपतियों की पहल पर डिब्बे में बंद कर दिया गया। क्यों कि उस बिल की अपेक्षा श्रम कानूनों को लागू करने वाली मशीनरी को पक्षाघात की अवस्था में पहुँचाना उन्हें अधिक उचित लगता था।  आज श्रम कानूनों की पालना नहीं हो रही है।  न्यायपालिका की सोच उसी तरह बदल दी गई है।  बिना एक भी कानून के बदले समान परिस्थितियों में जजों के निर्णय  श्रमिकों के पक्ष में होने के स्थान पर मालिकों के पक्ष में होने लगे हैं।  जजों की सोच को कंपनियों ने रिटायरमेंट के बाद काम देने का प्रलोभन दे दे कर बदल दिया है।

यह भी सही है कि उद्यम में पूंजी, श्रम और दिमाग सब लगते हैं।  दिमाग का काम भी श्रम ही है  और पूंजी भी संचित श्रम ही है। यदि उद्यमी को श्रम से प्रथक मानें तो भी प्रत्येक उद्यमी के साथ दसियों/ सैंकड़ों श्रमिक भी चाहिए। 
  आधुनिक श्रमजीवी (एक पूर्णकालिक सोफ्टवेयर इंजिनियर)
आमिर कसाब और अफजल गुरू वाला मामला भी न्याय प्रणाली के पक्षाघात का है।  उसे पक्षाघात से निकाला जाना जरूरी है।  यह तो कैसे हो सकेगा कि आप कुछ मामलों में चुन कर शीघ्र न्याय करें और शेष को  बरसों में निपटने के लिए छोड़ दें।  आमिर कसाब और अफजल गुरू को शीघ्र सजा दे कर भारतीय जनता के घावों को ठंडक अवश्य पहुँचाई जा सकती है,  लेकिन जनता के घावों को तो समूची न्याय प्रणाली को द्रुत और भ्रष्टाचारहीन बना कर ही किया जा सकता है।  जिस के लिए देश में सतत आंदोलन की आवश्यकता है।  अभी आमिर कसाब और अफजल गुरू के मामलों की रोशनी में दृढ़ इच्छा शक्ति के राजनैतिक दल या सामाजिक संस्थाएँ यह आंदोलन खड़ा कर सकती थीं।  लेकिन न्याय होने में किस की रुचि है?

गुरुवार, 28 मई 2009

महालक्ष्मी ताऊपने के बिना एकत्र क्यों नहीं होती? : जनतन्तर कथा (36)

 हे, पाठक!
अगली रात्रि का भी जब दूसरा प्रहर समाप्त होने को था, तब सनत ने संपर्क किया। दृश्यवार्ता में संपर्क बन जाने पर सूत जी बोले- सनत! मैं कल तुम्हें लक्ष्मी के भेद बताने वाला था। अब उसे ध्यान से श्रवण करो! लक्ष्मी सदैव श्रम से ही उत्पन्न होती है।  जल, वायु आदि पदार्थ प्रकृति में बिना मूल्य प्राप्त होते हैं।  लेकिन किसी गांव में जल का कोई स्रोत न हो,  और जल पर्वत की तलहटी के सोते से भर कर लाना हो तो ग्राम में लाया गया जल मूल्यवान हो जाता है।  उस में यह मूल्य उत्पन्न होता है जल को सोते से गांव तक लाने में किए गए श्रम से। केवल मनुष्य ही है जो प्राकृतिक वस्तुओं के स्थान व रूप बदल कर उन का उपयोग करता है।  इस तरह प्रकृति में प्राप्त वस्तुओं को मानवोपयोगी बनाने के लिए श्रम आवश्यक है।  इसी श्रम के योग से वस्तुओं में मूल्य उत्पन्न होता है।  एक हीरा भूमि के गह्यर में दबा होता है।  मनुष्य अपने श्रम से उसे पृथ्वी की गहराई से बाहर निकालता है और उसे तराश कर सुंदर व बहुमूल्य बना देता है। उस हीरे में जो भी मूल्य उत्पन्न होता है वह उसे गहराई से निकालने और तराशने में किए गए श्रम से उत्पन्न होता है।  प्राकृतिक वस्तुओं में श्रम के योग से उत्पन्न हुआ यही मूल्य लक्ष्मी है।  इसे हम प्रारंभिक लक्ष्मी कह सकते हैं।  यह आवश्यक नहीं कि श्रम सदैव ही मूल्य उत्पन्न करे।  यदि किया गया श्रम मानवोपयोगी नहीं तो वह कोई मूल्य उत्पन्न नहीं करेगा।  जैसे कोई कुएँ से बाल्टी भर पानी खींच कर बाहर निकाले और उस बाल्टी भर पानी को  फिर से कुएँ में डाल दे तो वह श्रम तो करेगा किन्तु उस से कोई मूल्य उत्पन्न नहीं होगा. लेकिन जब भी मूल्य उत्पन्न होता है तो वह श्रम से ही होता है। बिना श्रम के लक्ष्मी कभी उत्पन्न नहीं होती।
एक हीरा खान
हे, पाठक! 
सूत जी के इतना कहने पर सनत ने प्रश्न किया -लेकिन ताऊ कहते थे  "भाई आप श्रम से कितनी बडी लक्ष्मी पैदा कर सकते हैं? वो तो बिना ताऊपने के नहीं आ सकती, यह गारंटी है।  भले धीरु भाई की हिस्ट्री देख लिजिये. जो कि महान ताऊ थे।"
 सूत जी बोले -ताऊ ने बिलकुल सही कहा।  मनुष्य यदि अकेला श्रम करे तो कितना मूल्य उत्पन्न कर सकता है? बहुत थोड़ा न? जो उस के स्वयं के लिए पर्याप्त हो, या उस से कुछ अधिक।  मनुष्य के आरंभिक जीवन में ऐसा ही था।  उस का सारा दिन फल संग्रहण और शिकार में ही व्यतीत हो जाता था। दिन भर पूरा परिवार श्रम कर के भी केवल अपने जीवनयापन जितना ही जुटा पाता था।  लेकिन औजारों के आविष्कार और पशुपालन से यह संभव हुआ कि वह कुछ अधिक मूल्य उत्पन्न कर सके और कुछ खाद्य व अन्य जीवनोपयोगी सामग्री एकत्र कर सके।  जब उस ने औजार परिष्कृत कर लिए खेती का आविष्कार हुआ तो वह और अधिक मूल्य उत्पन्न उत्पन्न करने लगा।  वह इतना उत्पादन करने लगा कि उपयोग के उपरांत संग्रह योग्य उपयोगी पदार्थ बचने लगे।   यही वह लक्ष्मी थी जिसे मनुष्य ने सहेजा।
औद्योगिक क्रांति
वर्तमान युग की बात करें तो आज मनुष्य स्वयं अपने परिवार के उपयोग के लिए वस्तु उत्पादन के लिए ही श्रम करता ही नहीं है।  वस्तु उत्पादन आज इतना विकसित और जटिल हो चुका है कि प्रत्येक व्यक्ति समाज में अपने लिए एक विशिष्ठ दक्षता का कार्य तलाशता है और उसी पर श्रम करता है।  मुद्रा के आविष्कार ने इस तरह के श्रम को आसान किया है।  अब मनुष्य को किसी भी किए गए विशिष्ठ और दक्ष कार्य के बदले मुद्रा प्राप्त हो जाती है और वह उस से अपने लिए जीवनो पयोगी वस्तुएँ क्रय कर के प्राप्त कर सकता है।   इस तरह का विनिमय बहुत पहले आरंभ हो गया था।  लेकिन आज वह चरम पर है।  इसी विनिमय ने बाजार को उत्पन्न किया है।  इसी तरह धीरे धीरे श्रम सामुहिक होता गया।  भाप, तेल और विद्युत शक्ति का उपयोग उत्पादन में आरंभ होने ने ही यूरोप की औद्योगिक क्रांति को जन्म दिया।  जिस ने स्वाधीनता और जनतंत्र के मूल्य दुनिया में स्थापित किए।
सामुहिक-श्रम
 हे, पाठक!
सूत जी आगे बोले -अब काम समूहों में होते हैं।  हर कोई दूसरे के लिए श्रम करता है और श्रम का मूल्य मुद्रा में प्राप्त करता है।  श्रम  कर के वह जितना मूल्य उत्पन्न करता है।  वह उसे पूरा नहीं मिलता।  अपितु उसे मिलने वाला मूल्य इस बात से निश्चित होता है कि बाजार में विशिष्ठ प्रकार का श्रम करने वाले कितने लोग हैं? और उस तरह का श्रम करा कर मूल्य उत्पादित कराने वाले कितने?  दुनिया में एक श्रम बाजार बन गया है। दुनिया में उत्पादित उपयोगी वस्तुओं और सेवाओं का भी बाजार है।  बाजार में श्रंम  और उत्पादित वस्तुएं मुद्रा में मूल्य दे कर क्रय-विक्रय की जा सकती हैं।  किसी भी श्रम बाजार में सदैव श्रम विक्रय करने वालों की अधिकता बनी रहती है।  प्रारंभ में किसी नए प्रकार की विशिष्ठता के श्रम करने वालों की कमी रहती है तो श्रम का मूल्य बहुत अधिक प्राप्त होता है और वास्तव में उन के द्वारा उत्पादित किए जाने वाले मूल्य से भी अधिक हो सकता है।  किन्तु यह अत्यन्त अस्थाई होता है।   कुछ ही काल  में उस विशिष्ठ  श्रम को करने वाले अनेक लोग हो जाते हैं और बाजार में श्रम का मूल्य उत्पादित मूल्य से बहुत कम हो जाता है।  इस श्रम द्वारा उत्पादित मूल्य से उस श्रम के बदले चुकाया गया मूल्य बहुत कम होता है।  इन दोनों के अंतर का अतिरिक्त मूल्य सदैव ही उत्पादन के साधनों के स्वामियों के पास रहता है।  यही अतिरिक्त मूल्य एकत्र हो कर जब पुनः उत्पादन के उद्यम में लगाया जाता है तो वह पूंजी हो जाता है।  संग्रहीत अतिरिक्त मूल्य को ही टिप्पणीकार ज्ञानदत्त जी पाण्डे ने महालक्ष्मी कहा है और ताऊ का कथन भी उचित और यथार्थ कि ताऊपने के बिना यह महालक्ष्मी पैदा नहीं  हो सकती।  धनसंचय कर उत्पादन के उद्यम का स्वामी बनना और एक ऐसा तंत्र खड़ा करना जो लगातार अतिरिक्त मूल्य का सृजन करता रहे ताऊपना नहीं तो क्या है?  ऐसे ताऊओं को ही आज पूँजीपति कहा जाता है।  ताऊ लोग जहाँ अधिक से अधिक अतिरिक्त मूल्य प्राप्त कर अपने लिए और अधिक महालक्ष्मी पर आधिपत्य चाहते हैं,  वहीं श्रमजीवी जनता  इस महालक्ष्मी से अपने भाग का आशीर्वाद चाहती है।  ताऊ लोग अपनी महालक्ष्मी के बल पर एक-केन-प्रकरेण अपने प्रतिनिधियों को महा पंचायत में पहुँचाते हैं।  श्रमजीवियों के पास महालक्ष्मी की शक्ति नहीं,  लेकिन लक्ष्मी को उत्पन्न करने की शक्ति है।  वे अपनी शक्ति को सामूहिक रूप से संगठित करें तो ताऊ लोगों पर भारी पड़ सकते हैं।  श्रमजीवी जनता के पास संगठन ही एक मात्र मार्ग है जिस के बल पर वे अपने अधिक से अधिक प्रतिनिधि महापंचायत में पहुँचा सकते हैं।  नया तथ्य यह है कि हाल के चुनावों के बाद महापंचायत के 543 में से 300 चुने हुए सदस्य करोड़पति हैं।
इतना कह कर सूत जी ने सनत से पूछा- अब तो तुम्हें ज्ञानदत्त जी और ताऊ जी की टिप्पणियों में सार दिखाई दे रहा होगा? 
महाताऊ (पूंजीपति)
हे, पाठक!
इस पर सनत बोला - गुरूवर? प्रश्न का उत्तर तो मिल गया।  लेकिन आप की बात से मन में बहुत से नवीन प्रश्न उत्पन्न हो गए हैं।  लगता है मुझे बहुत कुछ पढ़ना पड़ेगा, समझना पड़ेगा। जिस तरह के व्यवसाय में हूँ उस में तो यह बहुत आवश्यक भी है।  सोचता हूँ एक बार मरकस बाबा की "पूँजी" को आद्योपांत पढ़ डालूँ और उस के बाद ही आप से कुछ बात करूँ।
सूत जी बोले -अवश्य पढ़ो।  वह एक महत्वपूर्ण पुस्तक है जो डेढ़ सौ वर्ष पुरानी होने पर भी बहुत से संशयों का निवारण करती है।  उस का अध्ययन कर तुम भविष्य के लिए नए मार्ग के बारे में कुछ विचार कर सकोगे। रात्रि बहुत हो चुकी है।  मैं अब विश्राम करूंगा, और हाँ ये लम्पी दृश्यवार्ता से मुझे अधिक देर नहीं सुहाती कष्ट होने लगता है।  तुम कभी सप्ताह भर का अवकाश ले कर नैमिषारण्य आ जाओ।  यहाँ खूब बतियाएँगे, वाद-विवाद-संवाद करेंगे और एक दूसरे से सीखेंगे।  मुझे भी तुम जैसे प्रश्न करने वाले नौजवानों से ही तो ऊर्जा मिलती है।  लगातार पढ़ने-सीखने की आवश्यकता बनी रहती है।  सत्य कहता हूँ जिस दिन पढ़ना-सीखना बंद हो जाएगा उस दिन मेरा सूत मृत्यु को प्राप्त हो जाएगा।

बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....

सूत जी ने माना, वे सठिया गए हैं : इस युग का प्रधान वैषम्य : जनतन्तर कथा (35)

हे, पाठक! 
सूत जी को नैमिषारण्य पहुँचे तीन दिन व्यतीत हो गए।  चौथे दिन वे कार्यालय पहुँच कर पीछे से दो माह में हुई गतिविधियों के बारे में जानकारी ले रहे थे कि चल दूरभाष ने आरती सुना दी।  दूसरी ओर सनत था  -गुरूवर प्रणाम!  मैं भी सकुशल इधर लखनऊ पहुँच गया हूँ।  यहाँ आ कर मैं ने दो माह के हिन्दी चिट्ठे देखे। पता लगा एक हिन्दी चिट्ठे अनवरत पर जनतन्तर कथा के नाम से श्रंखला लिखी जा रही थी और उस में आप और हम दोनों पात्र के रूप में उपस्थित हैं।  हमारे बीच का अधिकांश वार्तालाप भी ज्यों का त्यों वहाँ लिखा गया है।  राजधानी में अन्तिम  रात्रि को आप ने लाल फ्रॉक वाली बहनों और मरकस बाबा के बारे में जो कुछ बताया था उसे तो वहाँ जैसे का तैसा लिख दिया गया।  पर आज ब्लाग पर एक टिप्पणी अच्छी नहीं लगी।
सूत जी - क्यों अच्छी नहीं लगी? ऐसा उस में क्या है?
सनत --गुरूवर! मैं यह आप को बता नहीं सकता। आप को खुद ही 'अनवरत' चिट्ठे पर जा कर पढ़ना चाहिए। हाँ, एक और चिट्ठे  'शहीद भगत सिंह विचार मंच, संतनगर' में उस टिप्पणी की प्रतिक्रिया में आलेख लिखा है जिस में मरकस बाबा का शक्तिशाली समर्थन किया गया था।  पर अनवरत के चिट्ठाकार ने उस आलेख की भाषा पर आपत्ति की और उस चिट्ठे ने इस आपत्ति को संवाद के उपरांत स्वीकार कर लिया।
सूत जी - कुछ बताओगे भी या पहेलियाँ ही बुझाओगे?
सनत -गुरूवर! आप स्वयं पढ़िए, मैं ने दोनों चिट्ठों के पते आप के गूगल चिट्ठी पते पर भेज दिए हैं। मैं रात्रि दूसरे प्रहर आप से अन्तर्जाल पर दृश्य-वार्ता में भेंट करता हूँ।  प्रणाम!

हे, पाठक!
सूत जी ने दिन में अनवरत चिट्ठे पर पूरी जनतन्तर कथा पढ़ डाली। उस पर आई टिप्पणियाँ पढ़ीं और मन ही  मन मुस्कुराते रहे।  तदनन्तर उन्हों ने दूसरे चिट्ठे का आलेख भी पढ़ा।  उन की मुस्कुराहट में वृद्धि हो गई।  साँयकाल अपनी कुटिया में वापस लौटे और रात्रि के दूसरे प्रहर की प्रतीक्षा करने लगे।  रात्रि का दूसरा प्रहर समाप्त होते होते सनत से संपर्क हुआ।  वह देरी के लिए क्षमायाचना कर रहा था। पर सूत जी ने देरी को गंभीरता से नहीं लिया।  वे तो सनत से बात करना चाहते थे। दोनों ने वार्ता आरंभ की....
सनत -गुरूवर! आप ने पढ़ा सब कुछ?
सूत जी -  हाँ, पढा। जनतंतर कथा रोचक है।  इस में तो भारतवर्ष के गणतंत्र बनने से ले कर आज तक की चुनाव कथा संक्षेप में बहुत रोचक रीति से लिखी है।
सनत -आप ने अंतिम आलेख और उस पर टिप्पणियाँ पढ़ीं?
सूत जी -  हाँ सब कुछ पढ़ा है, और वह   'शहीद भगत सिंह विचार मंच, संतनगर'  भी पढ़ लिया है।
सनत- तो आप को बुरा नहीं लगा?
सूत जी -  बिलकुल बुरा नहीं लगा,  अपितु बहुत आनंद आया।  बहुत दिनों बाद इस तरह का विमर्श पढ़ने को मिला।
सनत -मैं तो आप के प्रति टिप्पणी पढ़ कर असहज हो गया था बिलकुल   'शहीद भगत सिंह विचार मंच, संतनगर' की तरह।
सूत जी -  मुझे तो आनंद ही आया।  वह क्या ..... ज्ञानदत्त पाण्डे ... यही नाम है न टिप्पणी करने वाले सज्जन का?
सनत - हाँ, यही नाम है।
सूत जी - सनत! ज्ञानदत्त पाण्डे जी सही कहते हैं, मैं यथार्थ में सठियाने लगा हूँ।
सनत -गुरूवर! आप इसे स्वीकारते हैं?
सूत जी -हाँ भाई, स्वीकारता हूँ। यथार्थ को स्वीकारने में क्यों आपत्ति होनी चाहिए? सठियाया व्यक्ति जब कोई बात करता है तो उस से अनायास ही कुछ बातें छूट जाती हैं।  संभवतः यह आयु का ही दोष है।  जब व्यक्ति को लगता है कि उस के पास अब बहुत कम समय रह गया है तो वह अपनी बात को संक्षिप्त बनाने में चूक जाता है। संभवतः इसे ही सठियाना कहते हैं। मेरी भी तो आयु बहुत हो चली है। मुझे ही पता नहीं कितने वर्ष का हो चला हूँ। संभवतः उन्नीस-बीस शतक तो हो लिए होंगे।  उस दिन त्रुटि मुझ से ही हुई थी।  तुम भी उसे भाँप नहीं सके।

हे, पाठक! 
सूत जी की इस स्वीकारोक्ति से सनत स्तम्भित रह गया। उस ने सूत जी से पूछा -कैसी त्रुटि? गुरूवर!  मुझे भी तो बताइए। मैं भी जान सकूं कि क्या है जो आप ने नहीं बताया और मैं भी नहीं भाँप सका?
सूत जी - उस दिन मैं ने तुम्हें बताया था कि ......
..... जब भाप के इंजन के आविष्कार ने उत्पादन में  क्रान्ति ला दी, तो लक्ष्मी उत्पादन के साधनों में जा बसी है।  उत्पादन के ये साधन ही पूंजी हैं।  जिस का उन पर अधिकार है उसी का दुनिया  में शासन है।  उत्पादन के वितरण के लिए बाजार चाहिए।  इस बाजार का बंटवारा दो-दो बार इस दुनिया को युद्ध की ज्वाला में झोंका चुका है।  लक्ष्मी सर्वदा श्रमं से ही उत्पन्न होती है इसी लिए उस का एक नाम श्रमोत्पन्नाः है।  तब उस पर श्रमजीवियों का अधिकार होना चाहिए पर वह उन के पास नहीं है। 
सनत -हाँ, बताया था गुरूवर! पर इस में क्या त्रुटि है, सब तो स्पष्ट है।
सूत जी -नहीं सब स्पष्ट नहीं है।  यहाँ लक्ष्मी के दो स्वरूप हैं। उन के भेद बताना मुझ से छूट गया था।  इस भेद को सब से पहले मरकस बाबा ने ही स्पष्ट किया। वही तो उन का सब से महत्वपूर्ण सिद्धान्त है। और देखो, मैं उस रात तुम्हें वही बताना विस्मृत कर गया।
सनत - गुरूवर! कैसे दो स्वरुप और उन के भेद, कौन सा महत्वपूर्ण सिद्धान्त?
जी सूत -वही संक्षेप में तुम्हें फिर बता रहा हूँ, जिस से तुम्हारे मन में कोई संशय नहीं रह जाए।
सूत जी आगे कुछ बता पाते उस के पहले ही विद्युत प्रवाह चला गया।  सनत का घर अंधेरे में डूब गया।  कम्प्यूटर भी कुछ ही देर का मेहमान था। सूत जी को सनत का चेहरा दिखाई देना बंद हो गया।  दृश्यवार्ता असंभव हो चली।
सनत बोला- गुरूवर! विद्युत प्रवाह बंद हो गया।  कथा यहीं छूटेगी।
कोई बात नहीं कल फिर बात करेंगे।
हे, पाठक!
कथा का यह अध्याय भी चिट्ठे की सीमा के बाहर जा रहा है।  हम भी आगे की कथा कल ही वर्णन करेंगे।
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....

कल की कथा में पढ़िए....
महालक्ष्मी  ताऊपने के बिना एकत्र क्यों नहीं होती?