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बुधवार, 9 दिसंबर 2009

दुल्हन ले आए, ताऊ-ताई को छोड़ आए




भारतीय विवाह एक बहुत जटिल और संष्लिष्ट समारोह है। इस में बहुत से सूत्र इस तरह एक दूसरे से गुंथे होते हैं कि अनेक गुत्थियों को समझना बहुत कठिन होता है। एक मित्र के पुत्र का विवाह था। मित्र के पिता तो बहुत वर्ष पहले गुजर गए। मित्र के काका अभी मौजूद हैं। हालांकि वृद्ध हो चुके हैं। मित्र जब भी गांव जाता हमेशा उन से कहता कि बेटे की शादी है, काकाजी आप को उस की बारात में चलना है।  शादी में काका जी दो दिन पहले ही आ गए। परिवार में सब से बड़ी उम्र के पुरुष। परिवार और मित्र जो भी जिस जिस समारोह में पहुँचा उन से मिल कर प्रसन्न होता। वे अधिक चल फिर नहीं रहे थे, लेकिन वे एक स्थान पर बैठे सब का अभिवादन स्वीकार करते और आशीर्वाद देते। 

बारात 350 किलोमीटर बसों से जानी थी। कुछ कारें भी साथ थीं। दस घंटे जाने का सफर और इतना ही आने का भी। और करीब बारह से चौदह घंटे का ठहराव. काका जी की अवस्था देख मित्र के मन में आया कि उन्हें बारात में बहुत कष्ट होगा। उन्हें आराम न मिलेगा, कहीं सर्दी में उन का स्वास्थ्य खराब न हो जाए। मित्र ने उन से अपने मन की बात कह दी। वे नाराज हो गए। कहने लगे मेरे पहले पोते का ब्याह है औऱ मैं ही न जाऊँ बारात में यह कैसे हो सकता है। कुछ देर बाद मैं पहुँचा तो मित्र ने बताया कि काकाजी मान नहीं रहे हैं। उन से बारात के कष्ट बता कर न जाने को कहा तो नाराज हो गए, बोल ही नहीं रहे हैं। मैं ने कहा सही बात है, उन्हें नहीं ले जाओगे तो बारात का क्या आनंद होगा। उन की तीन बेटियाँ, दामाद, एक बेटा-बहू साथ जा रहे हैं सब संभाल लेंगे। तुम उन से जा कर कहो कि मैं तो मजाक कर रहा थाष आप के बिना कोई बारात कैसे जा सकती है। यह बात मित्र ने कही तो काका जी खुश हो गए और बारात में गए और सकुशल वापस भी लौट आए। एक जरा सी बात ने काकाजी को नाराज किया और शादी में कुछ घंटों के लिए ही सही प्रसन्नता के स्थान पर अवसाद आ गया था वह दूर हो गया।

बारात जिस दिन जाना था उस से पहली रात मेरा हाजमा खराब हो गया। रात को अम्लता ने बहुत कष्ट दिया। मैं किसी तरह बारात में जाने से बच गया था। आज जब दुल्हन के लिए आशीर्वाद समारोह में पहुँचा तो वहाँ एक और विचित्र घटना पता लगी। बारात की एक बस रात को 12 बजे ही रवाना हो गई और करीब आधे बाराती उस से वापस रवाना हो गए। चार घंटे बाद जब दुल्हन की विदाई हुई तो बारात की फाइनल खेप वहाँ से रवाना हुई। दुल्हे के ताऊ भाँवर के बाद आ कर होटल के कमरे में कुछ आराम करने के लिए लेटे और उन्हें नींद लग गई। उसी कमरे में कुछ देर बाद ताई वहाँ आई तो बिस्तर खाली देख वह भी कुछ देर आराम के लिए लेट गई। होटल में और कोई बाराती था नहीं, तो उन्हों ने कमरे को अंदर से बंद कर दिया। बारात की दूसरी बस रवाना हो गई और ताऊ-ताई सोते रह गए। जब बस आधी दूर आ गई होटल वालों ने कमरे संभालना आरंभ किया तो एक कमरा बंद पाया। ताऊ-ताई को जगा कर कमरा खुलवाया गया। बारात को मोबाइल से खबर भेजी गई। ताऊ-ताई को दुल्हन के पिता ने बस में बिठा कर विदा किया। वे सकुशल वापस पहुँच भी गए। पर नाराज तो वे हो ही गए थे कि आखिर बारात उन्हें छोड़ कर कैसे आ गई। वे गुस्से के मारे या लज्जा के कारण आशीर्वाद समारोह में नहीं आए। अब उन्हें मनाने में मित्र को कई महिने लगेंगे, हो सकता है साल भी लगें। मुझे ही जा कर मनाना होगा। वैसे ताऊ-ताई थोड़ा साहस जुटाते और आशीर्वाद समारोह में इस विचित्र दुर्घटना का आंनंद ले कर शामिल होते तो समारोह का आनंद कुछ और ही होता।

स दूल्हे के पिता और बारात व्यवस्थापक यदि बारात की फाइनल खेप रवाना होते समय होटल के कमरे ठीक से चैक कर लेते तो यह घटना नहीं होती। उन की इस एक गलती ने समारोह का मजा खराब कर दिया। हालांकि पुराने जमाने की शादियाँ इसी तरह की विचित्र घटनाओं के लिए अविस्मरणीय बन जाती थीं और बार बार स्मरण की जाती हैं।

गुरुवार, 4 जून 2009

डॉ. अरविन्द जी मिश्रा, तो सुनिए उस्ताद बिस्मिल्लाह खान से शहनाई पर राग मालकौंस

पिछली चिट्ठी "सुनें,राग मालकौंस ! तनाव शैथिल्य से मुक्ति पाने का प्रयास करें"  पर डॉक्टर अरविंद जी मिश्रा ने टिप्पणी करते हुए फरमाइश की थी ........
ये तो सुन लिया ! किसी और का गाया हुआ है दिनेश जी ? या फिर केवल वाद्ययंत्र से निकला मालकौंस सुनने को मिल सकता है ?
तो फिर देर किस बात की है? सुनिए आप के ही नगर बनारस के हीरक शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्लाह खान की शहनाई पर राग मालकौंस में यह बंदिश...................
 
यह कैसा भी तनाव मिटा सकती है...
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सुनें,राग मालकौंस ! तनाव शैथिल्य से मुक्ति पाने का प्रयास करें।

आज डॉ0 अरविंद मिश्रा ने अपने ब्लाग क्वचिदन्यतोअपि..........! पर लिखा है कि बर्लिन और अमेरिका में विगत २५ वर्षों से शोधरत भारतीय मूल की अमेरिकन नागरिक वैज्ञानिक डॉ जैस्लीन ए मिश्रा ने  कल  बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के अकैडमी स्टाफ कालेज में संपन्न हुए एक रोचक व्याख्यान में शास्त्रीय संगीत के मानव शरीर पर प्रभावों के बारे में चर्चा की जिसे  टाईम्स आफ इंडिया के आज केअंक में भी कवर किया गया है।  डॉ जैस्लीन ए मिश्रा डॉ. अरविंद मिश्रा जी की चाची हैं। 

इस व्याख्यान में डॉ जैस्लीन ए मिश्रा कहा कि उन्हों ने अपने शोध के दौरान यह पाया  है की राग मालकौंस की तनाव शैथिल्य में अद्भुत भूमिका है !

यहाँ मैं उस्ताद आमिर खान द्वारा गाया गया राग मालकौंस सुनिए, इसे कुछ दिन दोहराएँ और देखें वास्तव में यह आप के तनाव को शिथिल करता है या नहीं।  प्रतिक्रिया से अवश्य अवगत कराएँ।


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गुरुवार, 25 सितंबर 2008

"जन गण मन" दुनिया का सर्वश्रेष्ठ राष्ट्र-गान है।

अनवरत पर कल एक ई-मेल का उल्लेख किया गया था, जो मुझे अपनी बेटी से मिला था। मैं ने इस मेल को आगे लोगों को प्रेषित करने के स्थान पर अपने इस ब्लॉग पर सार्वजनिक किया। बाद में पता लगा कि वह ई-मेल किसी की शरारत थी। नवभारत टाइम्स ने आज यूनेस्को के एक अधिकारी के हवाले से इस ई-मेल द्वारा फैलाई जा रही सूचना को गलत ठहराया है।



अभिषेक ओझा, संजय बेंगाणी  और Dr. Amar Jyoti, ने इस समाचार पर संदेह व्यक्त किया। Suitur   जी ने मुझे सूचित किया कि नवभारत टाइम्स में इस मेल को भ्रामक बताया गया है।  ab inconvenienti   जी को तो मुझ पर बहुत क्रोध आया और उन्हों ने लिखा


खेद है की आप उम्र के छठे दशक में भी अफवाहों पर न केवल भरोसा कर लेते हैं, बल्कि उन्हें क्रॉसचैक किए बिना ही प्रसारित कर जनता को भ्रमित भी करते हैं.
कुछ इसी तरह का 'होक्स' मोबाइल कंपनियों, दैनिक भास्कर और सेवन वंडर्स फाउन्देशन ने 'आज नहीं तो ताज नहीं' कैम्पेन को देश की इज्ज़त, देशप्रेम के साथ जोड़कर खेला था. दुखद और शर्मनाक की आप वकील होते हुए भी इन 'ख़बरों' की असलियत समझने में नाकाम हैं!
 उन्हों ने यह बिलकुल सही कहा कि मैं ने उम्र के छठे दशक में भी अफवाहों पर न केवल भरोसा किया, बल्कि उसे क्रॉसचैक किए बिना ही प्रसारित कर जनता को भ्रमित भी किया। 

मैं उन का यह आरोप सहर्ष स्वीकार करता हूँ, मैं सातवें, आठवें, नवें, दसवें और इस के बाद भी कोई दशक आए तो भी इस भ्रम में रहने का प्रयत्न करूंगा। इस की कोई सजा हो तो वह भी भुगतने को तैयार रहूँगा। लेकिन? ...

...... लेकिन यह अफवाह बहुत मन-मोहक  थी। इस पर शरीर और मन के कण कण से विश्वास करने को मन करता था। सच कहिए तो यह अफवाह मेरी मानसिक बुनावट में एकदम फिट हो गई। एक क्षण के लिए अविश्वास हुआ भी, और मैं ने बेटी से बात भी की। वह खुद इस खबर को पा कर इतनी उल्लास में थी कि उस ने इतना ही कहा कि "मुझे यह खबर मिली और मैं ने आगे सरका दी"।

कुछ भी हो। वह राष्ट्र-गान जो मेरे देश का है, जिसे सुनने को कान तरसते हैं, जिसे सुन कर रोमांच हो उठता है, उस के लिए यह सुनने को मिले कि वह सर्वोत्तम घोषित किया गया है। कान क्यों न उसे स्वीकार करें? क्यों मन उस पर संदेह करे? क्यों वहाँ बुद्धि बीच में आनंद के उन क्षणों का कचरा करने को इस्तेमाल की जाए?

यूनेस्को के खंडन के बाद भी मेरे लिए वह गान दुनिया का सर्वोत्तम राष्ट्र-गान है और मरते दम तक रहेगा। यूनेस्को के उस खंडन का मुझ पर कोई असर नहीं होने का और उन धिक्कारों का भी जो मुझे इस अपराध के लिए मिले। मुझे करोड़ों धिक्कार मिलें, मैं उन्हें गगन से बरसते, महकते फूलों की तरह स्वीकार करूंगा। मुझे इस की कोई भी सजा दी जाए, उसे भी स्वीकार करूंगा। फिर भी यही कहूंगा कि मेरा राष्ट्र-गान "जन गण मन" दुनिया का सर्वोत्तम राष्ट्र-गान है।

शनिवार, 5 जुलाई 2008

अफरोज 'ताज' की बगिया के आम

हिन्दी, उर्दू और हिन्दुस्तानी पर पाठकों की भरपूर टिप्पणियाँ प्राप्त हुईं। इस से इस विषय की व्यापकता और सामयिकता तो सिद्ध हो ही गई। साथ ही इस बात को भी समर्थन मिला कि लिपि और शब्द चयन के भिन्न स्रोतों के चलते भी आम हिन्दुस्तानी ने शब्द चयन की स्वतंत्रता का त्याग नहीं किया है। उस की भाषा में नए शब्द आते रहे, और शामिल होते रहे। नए शब्द आज भी आ रहे हैं और भाषा के इस सफर में शामिल हो रहे हैं। वे कहीं से भी आएँ, लेकिन जब एक बार वे शामिल हो जाते हैं तो फिर हिन्दुस्तानी शक्ल अख्तियार कर लेते हैं।
ल चिट्ठाकार समूह पर एक साथी ने लेपटाप के लिए हिन्दी में सुंदर सा शब्द सुझाया। लेकिन अधिकांश लोग उसे कुछ और कहने को तैयार ही न थे। लेपटापों की किस्मत कि वे हिन्दुस्तानी में इस तरह रम गए हैं कि अब उन का बहुवचन लेपटाप्स नहीं होता, यही हाल कम्प्यूटरों का हुआ है। कम्पाउण्डर की पत्नी तो बहुत पहले से ही कम्पोटरनी और खाविंद कम्पोटर जी हो चुके हैं। न्यायालय लिखने में बहुत खूबसूरत हैं, लेकिन बोलने में अदालत, कचहरी ही जुबान की शोभा बढ़ाते नजर आते हैं। भले ही न्याय को सब जानते हों, लेकिन अद्ल अभी भी अनजाना लगता है। साहिब चार शताब्दी पहले ही तुलसी बाबा की जीभ ही नहीं कलम पर चढ़ चुका था, और अपने आराध्य राम को इस से निवाज चुके थे।
ज-कल हिन्दी न्यूज चैनलों पर छाई हुई उड़न तश्तरी ने 'बेहतरीन आलेख के लिए बधाई' का बिण्डल हमें पकड़ाया और टिपिया कर उड़न छू हो गई। उस के लौट कर आने की प्रतीक्षा है। कुश भाई एक सार्थक मारवाड़ी कहावत भेंट कर गए। सिद्धार्थ जी को आलेख के विश्लेषण से अपनी धारणा को मजबूती मिली। उन्हों ने बताया भी कि कैसे बीबीसी की हिन्दुस्तानी सर्वि्स यकायक दो भागों में विभाजित हो कर हिन्दी और उर्दू सर्विसों में बदल गई। लावण्या जी ने अमरीका से कि वे कैसे अमरीकियों की बोली से पहचान लेती हैं कि बोलने वाला किस प्रांत से है। उन्हों ने ही 'ताज' के आलेख को पुष्ट करते हुए यह भी बताया कि 'उर्दू को "छावनी" या फौज की भाषा भी कहा जाता था'। सजीव सारथी ने आलेख को बढिया बताया तो संजय जी पूछते रह गए कि उर्दू हिन्दी एक हुई या दोनों अलग अलग रह गईं। (या दोनों खिलाड़ी आउट?)
ज्ञान भाई हम से पंगा लेने से चूक गए। यह अच्छा मौका था, फिर मिले न मिले? वैसे हमारा उन से वादा रहा कि हम ऐसे मौके बार-बार देते रहेंगे। हमें उन का इन्डिस्पेंसीबल समझ ही नहीं आ रहा था, शब्दकोष तक जाना अपरिहार्य हो गया। हम उन से सहमत हैं कि भाषा का उद्देश्य संम्प्रेषण है, और कोई भी गन्तव्य तक जाने का लम्बा रास्ता नहीं चुनना चाहता। चाहे राजमार्ग छोड़ कर पगडण्डी पर, या चौबदार की नज़र बचा कर गोरे साहब के बंगले से गुजरने की जोखिम ही क्यों न उठानी पड़े। जोखिम उठाए बगैर जिन्दगी में मजा भी क्या? बाजार से खरीद कर खाया आम वह आनंद नहीं देता जो पेड़ पर चढ़, तोड़ कर खाया देता है। जिन आमों का आप सब ने आनंद प्राप्त किया वे हम अफरोज 'ताज' की बगिया से तोड़ कर लाए थे, बस आप को अपने पानी में धो कर जरूर पेश किए हैं। अब जब सब ने इसे मीठा बताया है, तो इस का श्रेय बाग के मालिक को ही क्यों न मिले? स्पेक्ट्रम खूब चलता है, और चलेगा। यूँ तो आवर्त-सारणी के पहले हाइड्रोजन से ले कर आखिरी 118वें प्रयोगशालाई तत्व उनूनोक्टियम तक का अपना वर्णक्रम है। लेकिन स्पेक्ट्रम कान में पड़ते ही कानों में न्यूटन की चकरी की चक-चक, आषाढ़ की बरसात की पहली बूंदों की जो झमाझम गूंजती है और आँखों के सामने जो इन्द्रधनुष नाचता है उस का आनंद कहीं और नहीं।
स आलेख को अफलातून जी की सहमति भी मिली और शिव भाई को भी अच्छा लगा। अभय तिवारी ने भी व्याकरण को ही भाषा का मूलाधार माना लेकिन उन्हें मलाल है कि दुनियाँ में दूसरी सब से ज्यादा बोले जाने वाली भाषा की हालत निहायत मरियल क्यों है। हम उन को कहते हैं आगे के दस साल देखिए, फिर कहिएगा। अभिषेक ओझा ने विश्लेषण को बढ़िया बताया, अजित वडनेरकर का शब्दों का सफर इसे पहले से ही हिन्दुस्तानी कहता आ रहा है। उन्हें तो अफसोस इस बात का है कि बोलने वाले तो इसे विकसित करते रहे लेकिन लिखने वाले भाषा के शुद्धतावादियों के संकीर्णता ने इसे अवरुद्ध कर दिया। पूनम जी ने बधाई के साथ शुक्रिया भेंट किया। दीपक भारतदीप ने हमारे आप के लिखे को निस्सन्देह रूप से हिन्दुस्तानी ही कहा और गेयता को पहली शर्त भी।
घोस्ट बस्टर जी बहस में पड़ना नहीं चाहते, उन की तरफ से हिन्दी हो या उर्दू काम चलना चाहिए। कुल मिला कर उन का वोट हिन्दुस्तानी के खाते में ड़ाल दिया गया। जर्मनी से राज भाटिया जी ने अपनी हिन्दी में बहुत गलतियाँ बताते हुए चुपचाप हमारी हाँ में हाँ मिलाई, तो डाक्टर अनुराग चौंक गए। मनीष भाई को विषय पसंद आया। अरविंद जी को उर्दू प्रिय है संप्रेषणीयता के लिए। वैसे भी प्रवाहपूर्ण संभाषण में उर्दू हिन्दी का भेद कहाँ टिक पाता है? एक और डाक्टर अमर कुमार जी शरबत छोड़ने को तैयार नहीं। आप करते रहें गिलास पकड़ कर तब तक इन्तजार कि जब तक शक्कर और पानी अलग अलग न हो जाएँ। अलबत्ता उन के शब्द भंडार में सभी शब्द हिन्दुस्तानी ही पाए गए। उन के लिए यह बहस बेकार ही थी। लेकिन टिप्पणी उन की कारगर निकली।
अब इस आलेख में भी हमारा कुछ नहीं है। हमने बस आरती उतार दी है, बतर्ज ते..रा तुझको... अरपण क्या... ला...गे मे....रा।
अब आप बताइये कि इस आलेख की भाषा हिन्दी है, या उर्दू या फिर हिन्दुस्तानी?
यह भी बताइएगा कि अगर हिन्दी-उर्दू में प्रयोग में आने वाले तमाम शब्दों का एक हिन्दुस्तानी शब्दकोष इस जन-जाल पर आ जाए तो किसी को असुविधा तो नहीं होगी?
हाँ उड़न तश्तरी के चालक महाराज समीर लाल जी अब तक आत्मसात कर चुके होंगे। उन का इंतजार है।
कबीर बाबा कह गए हैं ....
लाली तेरे लाल की, जित देखूँ तित लाल।
लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल।।
स का मतलब समझ जाएँ तो आप बताइयेगा
या फिर पढ़िएगा गीता .....
नासतो विद्यते भावः नाभावो विद्यते सत्।

गुरुवार, 3 जुलाई 2008

हिन्दी, उर्दू और हिन्दुस्तानी

चिट्ठाकार समूह पर कल भाई अविनाश गौतम ने पूछा कि 'संस्करण' के लिए उर्दू शब्द क्या होगा तो अपने अनुनाद सिंह जी ने जवाब में जुमला थर्राया कि अपने दिनेशराय जी कहते हैं कि हिन्दी और उर्दू एक ही भाषाएँ हैं और आप संस्करण के लिए उर्दू शब्द पूछ रहे हैं। मेरे खयाल से आप को समानार्थक अरबी या फारसी शब्द चाहिए। और अविनाश जी का आग्रह पुनः आया कि अरबी हो या फारसी या बाजारू आप को पता हो तो बता दीजिए। आग्रह माना गया और शब्द खोज पर शब्द बरामद हुआ वह "अशीयत" या "आशियत" था। इस के साथ ही और भी कुछ खोज में बरामद हुआ।
नॉर्थ केरोलिना स्टेट युनिवर्सिटी के कॉलेज ऑफ ह्युमिनिटीज एण्ड सोशल साइंसेज के विदेशी भाषा एवं साहित्य विभाग मे हिन्दी-उर्दू प्रोग्राम के सहायक प्रोफेसर Afroz Taj अफरोज 'ताज' ने उन की पुस्तक Urdu Through Hindi: Nastaliq With the Help of Devanagari (New Delhi: Rangmahal Press, 1997) में हिन्दी उर्दू सम्बन्धों पर रोशनी डाली है यहाँ मैं उन के विचारों को अपनी भाषा में प्रस्तुत करने का प्रयत्न कर रहा हूँ:

दक्षिण एशिया में एक विशाल भाषाई विविधता देखने को मिलती है।  कोई व्यक्ति कस्बे से कस्बे तक. या शहर से दूसरे शहर तक, या एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र तक यात्रा करे तो वह  लहजे में, परिवर्तन, बोलियों में परिवर्तन, और भाषाओं में परिवर्तन देखेगा। भाषाओं के मध्य उन्हें विलग करने वाली रेखाएं अक्सर अस्पष्ट हैं। वे एक दूसरे में घुसती हुई, घुलती हुई, मिलती हुई धुंधला जाती हैं।  यहाँ तक कि एक ही सड़क, एक ही गली  में बहुत अलग-अलग तरह की भाषाएँ देखने को मिलेंगी। एक  इंजीनियरिंग का छात्र, एक कवि, एक नौकर और एक मालिक सब अलग-अलग लहजे, शब्दों और भाषाओं में बात करते पाए जाएँगे।
फिर वह क्या है?  जिस से हम एक भाषा को परिभाषित कर सकते हैं। वह क्या है जो भाषा को अनूठा बनाता है?



क्या वह उस के लिखने की व्यवस्था अर्थात उस की लिपि है? या वह उस का शब्द भंडार है? या वह उस के व्याकरण की संरचना है? हम एक भाषा को उस के लिखने के तरीके या लिपि से पहचानने का प्रयास करते हुए केवल भ्रमित हो सकते हैं। अक्सर असंबन्धित भाषाऐं एक ही लिपि का प्रयोग करती हैं। किसी भी भाषा का रूपांतरण उस की मूल ध्वनियों और संरचना को प्रभावित किए बिना एक नयी लिपि में किया जा सकता हे। विश्व की अधिकांश भाषाओं ने अपनी लिपि अन्य भाषाओं से प्राप्त की है। उदाहरण के रूप में अंग्रेजी, फ्रांसिसी और स्पेनी भाषाओं ने अपनी लिपियाँ लेटिन से प्राप्त की हैं। लेटिन के अक्षर प्राचीन ग्रीक अक्षरों से विकसित हुए हैं। जापानियों ने अपने शब्दारेख चीनियों से प्राप्त किए हैं। बीसवीं शताब्दी में इंडोनेशियाई और तुर्की भाषओं ने अरबी लिपि को त्याग कर रोमन लिपि को अपना लिया। जिस से उन की भाषा में कोई लाक्षणिक परिवर्तन नहीं आया। अंग्रेजी को मोर्स कोड, ब्रेल, संगणक की द्वि-अँकीय लिपि में लिखा जा सकता है। यहाँ तक कि देवनागरी में भी लिखा जा सकता है, फिर भी वह अंग्रेजी ही रहती है।  

तो केवल मात्र व्याकरण की संरचना ही है, जिस के लिए कहा जा सकता है कि उस से भाषा को चिन्हित किया जा सकता है। लिपि का प्रयोग कोई महत्व नहीं रखता, यह भी कोई महत्व नहीं रखता कि कौन सी शब्दावली प्रयोग की जा रही है? एक व्याकरण ही है जो नियमित और लाक्षणिक नियमों का अनुसरण करता है। ये नियम क्रिया, क्रियारूपों, संज्ञारूपों, बहुवचन गठन, वाक्य रचना आदि हैं, जो एक भाषा में लगातार एक जैसे चलते हैं, और विभिन्न भाषाओं में भिन्न होते हैं। इन नियमों का तुलनात्मक अध्ययन हमें एक भाषा को दूसरी से पृथक करने में मदद करते हैं। इन अर्थों में हिन्दी और उर्दू जिन की व्याकरणीय संरचना एक समान और एक जैसी है, एक ही भाषा कही जाएँगी।  

हिन्दी और उर्दू का विकास कैसे हुआ? और इस के दो नाम क्यों है? इस के लिए हमें भारत की एक हजार वर्ष के पूर्व की भाषाई स्थिति में झांकना चाहिए। भारतीय-आर्य भाषा परिवार ने दक्षिण एशिया में प्राग्एतिहासिक काल में आर्यों के साथ प्रवेश किया और पश्चिम में फारसी काकेशस से पूर्व में बंगाल की खाड़ी तक फैल गईं। संस्कृत की परवर्ती बोलियाँ जिन में प्रारंभिक हिन्दी की कुछ बोलियाँ, मध्यकालीन पंजाबी, गुजराती, मराठी और बंगाली सम्मिलित हैं, साथ ही उन की चचेरी बोली फारसी भी इन क्षेत्रों में उभरी। पूर्व में भारतीय भाषाओं ने प्राचीन संस्कृत की लिपि देवनागरी को विभिन्न रूपों में अपनाया। जब कि फारसी ने पश्चिम में अपने पड़ौस की अरबी लिपि को अपनाया। हिन्दी अपनी विभिन्न बोलियों खड़ी बोली, ब्रजभाषा, और अवधी समेत मध्य-उत्तरी भारत में सभी स्थानों पर बोली जाती रही।

लगभग सात शताब्दी पूर्व दिल्ली के आसपास के हिन्दी बोलचाल के क्षेत्र में एक भाषाई परिवर्तन आया। ग्रामीण क्षेत्रों में ये भाषाएँ पहले की तरह बोली जाती रहीं। लेकिन दिल्ली और अन्य नगरीय क्षेत्रों में फारसी बोलने वाले सुल्तानों और उन के फौजी प्रशासन के प्रभाव में एक नयी भाषा ने उभरना आरंभ किया, जिसे उर्दू कहा गया।  उर्दू ने हिन्दी की पैतृक बोलियों की मूल तात्विक व्याकरणीय संरचना और शब्दसंग्रह को अपने पास रखते हुए, फारसी की नस्तालिक लिपि और उस के शब्द संग्रह को भी अपना लिया। महान कवि अमीर खुसरो (1253-1325) ने उर्दू के प्रारंभिक विकास के समय फारसी और हिन्दी दोनों बोलियों का प्रयोग करते हुए फारसी लिपि में लिखा। 

विनम्रता पूर्वक कहा जाए तो सुल्तानों की फौज के रंगरूटों में बोली जाने वाली होच-पोच भाषा अठारवीं शताब्दी में सुगठित काव्यात्मक भाषा में परिवर्तित हो चुकी थी।

यह महत्वपूर्ण है कि शताब्दियों तक उर्दू मूल हिन्दी की बोलियों के साथ कन्धे से कन्धा मिला कर विकसित होती रही। अनेक कवियों ने दोनों भाषाओं में सहजता से रचनाकर्म किया। हिन्दी और उर्दू में अन्तर वह केवल शैली का है। एक कवि समृद्धि की आभा बनाने के लिए उर्दू-फारसी के सुंदर, परिष्कृत शब्दों का प्रयोग करता था और दूसरी ओर ग्रामीण लोक-जीवन की सहजता लाने के लिए साधारण ग्रामीण बोलियों का उपयोग करता था। इन दोनों के बीच बहुमत लोगों द्वारा दैनंदिन प्रयोग में जो भाषा प्रयोग में ली जाती रही उसे साधारणतया हिन्दुस्तानी कहा जा सकता है।
क्यों कि एक हिन्दुस्तानी की रोजमर्रा बोले जाने वाली भाषा किसी वर्ग या क्षेत्र विशेष की भाषा नहीं थी, इसी हिन्दुस्तानी को आधुनिक हिन्दी के आधार के रूप में भारत की ऱाष्ट्रीय भाषा चुना गया है।  आधुनिक हिन्दी अनिवार्यतः फारसी व्युत्पन्न साहित्यिक उर्दू के स्थान पर संस्कृत व्युत्पन्न शब्दों से भरपूर हिन्दुस्तानी है। इसी तरह से उर्दू के रूप में हिन्दुस्तानी को पाकिस्तान की राष्ट्रीय भाषा के रूप में अपनाया गया। क्योंकि वह भी आज के पाकिस्तान के किसी क्षेत्र की भाषा नहीं थी।
इस तरह जो हिन्दुस्तानी भाषा किसी की वास्तविक मातृभाषा नहीं थी वह आज दुनियाँ की दूसरी सब से अधिक बोले जाने वाली भाषा हो गई है और सबसे अधिक आबादी वाले भारतीय उप-महाद्वीप में सभी स्थानों पर और पृथ्वी के अप्रत्याशित कोनों में भी समझी जाती है।