@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: सांसद
सांसद लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
सांसद लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

रविवार, 15 जुलाई 2012

विवशता को कब तक जिएंगे श्रमजीवी?

अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन का कहना है कि सभी देशों में भविष्य निधि के लिए कानून होना चाहिए जिस से औद्योगिक कर्मचारियों के भविष्य के लिए कुछ निधि जमा हो जो उन की अच्छी बुरी स्थिति में काम आए। सेवानिवृत्ति की आयु के उपरान्त उन्हें पेंशन मिलती रहे। भारत में इस के लिए कर्मचारी भविष्य निधि योजना कानून और भविष्य निधि तथा पेंशन योजना लागू है। कानून में प्रावधान है कि यह योजना किन किन नियोजनों में लागू होगी। इस योजना के अंतर्गत वेतन की 12 प्रतिशत राशि कर्मचारी के वेतन से प्रतिमाह नियोजक द्वारा काटी जाती है और काटी गई राशि के बराबर राशि नियोजक को उस में मिला कर योजना में जमा करानी पड़ती है। औद्योगिक कर्मचारियों के लिए भविष्य निधि और योजना से मिलने वाली पेंशन बहुत बड़ा संबल है।


मारे नियोजक इसे कभी ईमानदारी से लागू नहीं करते। उन्हें लगता है कि उन पर कर्मचारियों के वेतन की 12 प्रतिशत राशि का बोझ और डाल दिया गया है। लेकिन यह तो सभी उद्योगपतियों को उन का उद्योग आरंभ होने के पूर्व ही जानकारी होती है और होनी चाहिए कि उन्हें कर्मचारी को वेतन के अतिरिक्त क्या क्या देना होगा। फिर भी नियोजकों की सदैव यह मंशा होती है कि वे कर्मचारियों को देय वेतन और अन्य सुविधाओं में जितनी कटौती कर सकते हैं कर लें। आखिर कर्मचारियों के श्रम से ही तो कच्चे माल का मूल्य बढ़ता है और उस बढ़े हुए मूल्य में से जितना नियोजक बचा लेता है वही तो उस का मुनाफा है। इस फेर में अनेक उद्योग तो ऐसे हो गए हैं जिन में कभी न्यूनतम वेतन तक कर्मचारियों को नहीं दिया जाता। यहाँ तक कि कर्मचारियों से साधारण मजदूरी की दर से ओवरटाइम कार्य कराया जाता है।

 
वे लोग जो संसद और विधानसभाओं में बैठ कर कानून बनाते हैं वास्तव में उन पर यह जिम्मेदारी भी होनी चाहिए कि वे उन कानूनों की पालना भी करवाएँ। लेकिन यह तो बहुत दूर की बात है। वे स्वयं उन कानूनों की पालना नहीं करना चाहते। कल मेरे नगर में एक गैस ऐजेंसी की संपत्ति इसीलिये कुर्क कर ली गई कि उस ने अपने संस्थान में भविष्य निधि योजना को लागू नहीं किया। भविष्य निधि योजना द्वारा उन्हें योजना के लागू होने की सूचना देने के बाद भी उन्होंने कर्मचारियों का भविष्य निधि अंशदान योजना में जमा नहीं कराया। उसे वसूल करने के लिए योजना को ऐजेंसी की संपत्ति कुर्क करनी पड़ी। इस ऐजेंसी पर भविष्यनिधि योजना 2007 में ही लागू हो चुकी थी। लेकिन ऐजेंसी घरों पर सिलेंडर जा कर लगाने वाले कर्मचारियों को अपना मान ही नहीं रही थी और इसी आधार पर विरोध कर रही थी। ऐजेंसी मालिकों ने इस के लिए अधिकारियों पर राजनैतिक दबाव भी डाला। पूर्व अधिकारी डर कर कार्यवाही रोकते भी रहे। लेकिन नए नौजवान भविष्य निधि आयुक्त ने आखिर कुर्की कर ली। कुर्की के बाद ऐजेंसी ने कुछ लाख रुपए नकद जमा कराए तथा शेष का चैक दिया। तब जा कर कुर्की को समाप्त किया गया। यदि यह किसी सामान्य नियोजक के साथ होता तो एक सामान्य बात होती। पर यह उस ऐजेंसी के साथ हुआ जिस के स्वामी भाजपा के एक पूर्व सांसद और मंत्री के परिवार के सदस्य हैं और यह ऐजेंसी उन्हें अपने पालक के सांसद और मंत्री होने के कारण ही मिली थी। जिस देश के कानून बनाने वाले ही उस का पालन न करें। वहाँ कानून को विवश श्रमजीवी जनता के सिवा कौन मानेगा? और वह भी कब तक इस विवशता को जिएगी?

मंगलवार, 15 फ़रवरी 2011

वाह! सांसद जी ........ वाह ! ...... कमाल किया आप ने ! ...... अब जरा तैयार हो जाइए!

सासंद जी,
प हर बार इलाके में वोट मांगने आए। कुछ ने आप का विश्वास किया,  कुछ को आपने जैसे-तैसे-ऐसे-वैसे पटाया। आप के पिटारे में लाखों वोट इकट्ठे होते रहे और आप संसद में जाते रहे। वहाँ गए तो आप ने संविधान की कसम ली कि आप देश की जनता की भलाई के लिए काम करेंगे। आप वहाँ गए थे, सरकार चुने जाने के लिए नफरी बढ़ाने, कानून बनाने पर अपनी मोहर लगाने, जनता की बात कहने और उस के लिए लड़ने के लिए, जनता को न्याय दिलाने के लिए। पर क्या आप का कर्तव्य यह भी नहीं बनता था क्या कि आप कानून के रखवाले भी बने रहें। आप के सामने कानून की धज्जियाँ उड़ गईं, आप उन धज्जियों को घोल कर पी गए और  बीस बरस तक सांस भी नहीं ली। इस बीच आप न जाने क्या क्या कहते रहे, लेकिन यह बात कैसे इतने दिन पची रही। आप को कभी उलटी नहीं आई?

सांसद जी,
प के लिहाज से शायद यह पुण्य का काम था कि दारू की दुकानें बंद न हों, गरीब लोग परेशान न हों, दारू के अभाव में जहरीली दारू पी कर न मरें। इसीलिए आप की जुबान पर अब तक ताला पड़ा रहा। अब आपने जुबान खोली भी है तो उस जज का नाम नहीं बता रहे हैं, जिसे वह 21 लाख रुपए दिए गए थे। आप ये भी कह रहे हैं कि आप के पास साबित करने को सबूत नहीं हैं। आप ने व्यर्थ ही इतने बरसों तक बात को छुपाए रखने की मशक्कत की, वरना उस अपराध के सब से पहले सबूत तो आप ही थे। आप! लाखों की जनता के चुने हुए प्रतिनिधि, संसद सदस्य। इस सबूत को तो आपने ही नष्ट कर दिया, इस तरह आप ने अपराध किया। फिर इतने बरसों तक आप ने इस बात को छुपा कर एक और अपराध किया। अपराधी तो आप भी हैं ही। पर यह सब करने की जरूरत आप को क्या थी? 

सांसद जी, 
हीं ऐसी बात तो नहीं कि वे सभी दारूवाले आप के मिलने वाले हों, आप को चुनाव जीतने के लिए भारी-भरकम चंदा दिया हो, आप को सांसद बनाने में बड़ी भूमिका अदा की हो। आप को अपने इन हमदर्दों पर दया आ गई हो कि दुकानें बंद हो जाएंगी तो क्या खाएंगे? जिन्दा कैसे रहेंगे? अगला चुनाव कैसे लड़ेंगे? कहीं ऐसा तो नहीं कि जज साहब और इन दारूवाले मित्रों के बीच की कड़ी आप ही हों, और इसीलिए यह बात इतने दिन इसी लिए छुपा रखी हो।

सांसद जी,
र आप यह कैसे भूल गए कि आप उसी राज्य के सांसद हैं, जिस राज्य ने इन दुकानों को बंद करने का आदेश दिया था? आप यह कैसे भूल गए कि आप के प्रान्त से  एक जज हुए थे सु्प्रीम कोर्ट में, वी.आर. कृष्णा अय्यर और वे अभी तक जीवित ही नहीं हैं सक्रिय भी हैं। फिर भी आप ने यह बात खोल दी। अब मुझे यह समझ नहीं आ रहा है कि इस बात को खोलने के पीछे आप की मंशा क्या है? या फिर आप की मजबूरी क्या है? लेकिन अब आपने बात खोल ही दी है तो भुगतना तो पड़ेगा ही। थाने में आप के खिलाफ अपराध दर्ज हो गया है। ये सवाल मैं नहीं पूछ रहा हूँ, बल्कि बता रहा हूँ कि ऐसे ही सवाल पुलिस आप से पूछने वाली है। जरा तैयार हो जाइए!

सोमवार, 23 अगस्त 2010

सांसदो के साथ-साथ एम्मेले और कारपोरेटर लोगों की तनख़वाह भी बढ़ानी चाहिए

पेशे से मैं एक वकील हूँ, अपने मुवक्किलों की ओर से अदालत में पैरवी करता हूँ, उन्हें सलाह देता हूँ और इस के अलावा उन की ओर से कुछ अन्य कानूनी काम भी करता हूँ। मेरी आमदनी का जरीया मेरी वकालत ही है। मुकदमे लड़ने के अलावा जो काम हैं उन में से कम से कम आधे कामों के लिए मुझे फीस मिल जाती है जो चालू दर के  मुताबिक होती है। मुकदमे लड़ने के लिए मुझे जो फीस मिलती है वह मुकदमा शुरू होने के वक़्त तय होती है और मुकदमे के दौरान किस्तों में मिलती रहती है। लगभग आधी फीस मुकदमे के आख़िर में जा कर मिलती है। मुकदमे चार-पाँच साल की अवधि से ले कर बीस-तीस वर्ष की अवधि तक चलते रहते हैं। मुकदमा जितना लंबा चलता है, उस मुकदमे में मिलने वाली फीस की वास्तविक कीमत में मोर्चा लगता रहता है। मुकदमे की फीस में मेरे दफ्तर के खर्चे भी शामिल होते हैं जो तय की गई फीस के लगभग आधे के बराबर होते हैं। मैं कभी किसी लंबे चलने वाले मुकदमे के निपट जाने के बाद हिसाब करता हूँ तो पता लगता है फीस में मोर्चा ही रह गया लोहा तो खत्तम। दफ्तर का खर्चा जेब से लगा। लेकिन फिर भी सब कुछ चलता रहता है, रवायत की तरहा। जब किसी मुलाज़िम या  तनख़वाह लेने वाली जमातों की तन्ख़्वाह बढ़ाई जाती है तो बड़ी कोफ़्त होती है। मियाँ मीर तक़ी 'मीर' का ये शैर याद आने लगता है....
कोफ़्त से जान लब पर आई है
हम ने क्या चोट दिल पे खाई है
जिन सांसदों को हम ने चुन के संसद में भेजा, जब उन की तनख़्वाह बढ़ने की चर्चा होने लगी तो हमारी भी जान जलने लगी कि 'आखिर इन की तनख़्वाह क्यों बढ़ाई जा रही है?' ये जान तब तक जलती रही जब तक तनख़्वाह बढ़ नहीं गई। जब तनख्वाह बढ़ने की खबर पढ़ ली तो जान पर ठंडक पड़ी। जब पढ़ लिया कि बेचारों की तनख्वाह पचास हजार भी नहीं थी वह भी अब जा कर हुई है, तो उन पर दया आने लगी। उधर दिल्ली में रहने का खर्चा ही कितना है, कैसे अब तक अपना खर्चा चला रहे होंगे। वो तो ग़नीमत है के जो भी मिलने जाता है कुछ चावल गांठ में जरूर बांध ले जाता है वर्ना दि्ल्ली में रहने के लाले पड़ जाते। सुना है सरकार ने मकान मुहैया करा रखे हैं वर्ना तो किराए का मकान लेने में भी परेशानी आ जाती। एक तो कोई देता नहीं। (स्साला एमपी है बाद में खाली न करे तो, और किराया भी न दे तो क्या कल्लेंगे) ये भी सुना है के उन को रेल, मोटर हवाई जहाज का किराया भी सरकार देती है, वरना होता ये के एक बार दिल्ली चले जाते तो वापस घर कैसे लौटते? या घर आ जाते तो संसद में कैसे पहुँचते? गैरहाजरी लग जाती। शायद तनख्वाह भी कट जाती (मुझे नहीं मालूम कि गैर हाजरी लगने पर उन की तनख़्वाह कटती है या नहीं?)  मुलाज़िम लोगों का जब तनख़्वाह में ग़ुजारा नहीं होता, तो वे बख़्शीश पे ग़ुजारा करते हैं। ऐसा ही कोई जुग़ा़ड़ ये एमपी लोग भी जरूर किया करते होंगे, सब नहीं तो ज़्यादातर ज़रूर किया करते होंगे। 
ब आज कल जितनी महंगाई हो गई है उस में तो पचास हजार भी कहाँ लगेंगे। वे मुलायम और लालू यूँ ही थोड़े ही संसद में उठ-उठ कर पड़ रहे थे। आख़िर कोई तो वज़ह रही ही होगी। सुना है लालू जी ने तो फिर भी घास-वास खाने की आद़त डाल रक्खी है, बेचारे मुलायम क्या करेंगे? उन का ये उठ-उठ पड़ना वाक़ई वाज़िब था। अब खबर आ रही है कि वेतन बढ़ा कर अस्सी हज़ार से कम से कम एक रुपया तो अधिक कर ही दिया जाएगा। वाकई सरकार बड़ी ग़रीब नवाज है। अब लालू-मुलायम जैसों की सोच रही है तो कभी न कभी हमारे लिए सोचने का नंबर आ ही जाएगा, इस अहसास से ही गुदगुदी होने लगती है। तनख़्वाह इतनी कर दी जाए तो फिर सांसद लोगों की थोड़ी तो परेशानी कम हो ही जाएगी और वे शायद अपने वोटरों के बीच ज़्यादा आने लगेंगे। फिर अदालत में भी कुछ चक्कर ज़्यादा लगने लगेंगे। फिर हमें राशन कार्ड दुरुस्त करवाने को शायद कारपोरेटर  को तलाशना न पड़े सांसद जी से ही काम चला लिया करेंगे।  
मुझ से पूछो तो इन की तनख़्वाह कम से कम एक लाख जरूर कर दी जानी चाहिए। इस से बड़े फ़ायदे होंगे। कम तनख़्वाह वालों को अपनी-अपनी तनख़्वाह बढ़ाने में सुभीता हो जाएगा। वे सांसद जी से कह सकेंगे और वे टाल नहीं सकेंगे। अभी तो वे ये कह देते हैं कि हमें ही कितनी तनख़्वाह मिलती है? मैं तो कहता हूँ के एम्मेले लोगों और कारपोरेटरों की तनख़वाह भी बढ़ा देनी चाहिए। मुंसीपेल्टी के सड़क बुहारने वाले, और नाली में घुस कर कचरा निकालने वाले भी अपनी बोलने की आज़ादी का इस्तेमाल कर पाएँगे। अभी तो ठेकेदार उन को सरकारी न्यूनतम मजदूरी का आधा देता है। कहता है बाकी आधी में से मुझे कारपोरेटरों और मुंसीपेल्टी के अफ़सरों का घर जो चलाना पड़ता है।