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सोमवार, 31 अक्तूबर 2011

दीवाली खास क्यों?

पिछले महीने कुछ निजि कारणों से अपनी ब्लागरी में व्यवधान आया। दीवाली का त्यौहार भी उन में से एक कारण था। बेटी और बेटा दोनों बाहर हैं, तो परिवार के चारों जन ऐसे ही त्यौहारों पर मिलते हैं, दीवाली उन में खास है। मैं इस बार विचार करता रहा आखिर दीवाली में ऐसा क्या है कि वह खास हो गई। निश्चित रूप से उस का कारण धनतेरस, रूप चौदस (काली चौदस), लक्ष्मीपूजा, महावीर निर्वाण दिवस, गोवर्धन पूजा या भाई दूज आदि नहीं है। मेरे विचार से इस के खास होने का कारण इस का मौसम है। 
भारत की 70% जनता गाँवों में निवास करती है। कोई पाँच दशक पहले के भारत के गाँवों की सोचें तो मिट्टी की ईंटों की दीवारों पर खपरैल की छत वाले घरों की बस्तियाँ जेहन में नजर आने लगती हैं। बरसात इन घरों की स्थिति क्या बना देती होगी यह अनुमान किया जा सकता है। आश्विन मास की अमावस उत्तर भारत के लिए वर्षा का अंतिम दिवस होता है। इस के साथ ही घरों को सुधारने, अनाज आदि को संभालने का काम आरंभ हो जाता है। घरों की सफाई कर, उन की दीवारें छतें सुधार कर, उन्हें लीपना-पोतना फिर से निवास के अनुकूल बनाना अत्यावश्यक है। अब सब लोग अपने अपने घर को दुरुस्त कर अपने हिसाब से सजाएंगे तो उन में सजावट की प्रतियोगिता स्वतः ही जन्म लेती है। व्यापारी वर्षाकाल अपने अपने परिजनों के साथ अपने घरों में व्यतीत कर पुनः व्यापार के लिए घरों से निकल कर परदेस जाने की तैयारी में होते थे। उन के लंबे समय के लिए घरों से बाहर जाने के पहले भी त्योहार का माहौल स्वतः ही बन ने लगता है। 

स बीच मैं ने यह जानने की कोशिश भी की कि भारतीय इतिहास में दीवाली का प्रचलन वास्तव में कब आरंभ हुआ?  राम का वनवास से लंका विजय कर लौटना। कृष्ण का इंद्रपूजा बंद करवा कर गोवर्धन की पूजा आरंभ कराना जैसे मिथक तो बहुत सारे हैं। लेकिन वास्तविक प्रामाणिक ऐतिहासिक संदर्भ गायब दिखाई पड़ते हैं। पहले पहल जो संदर्भ मिलता है वह जैन तीर्थंकर महावीर के निर्वाण का मिलता है। इस से ऐसा लगता है कि पहले पहले दीवाली का उत्सव जैन धर्मावलंबियों ने मनाना आरंभ किया। उन में अधिकांश व्यापारी थे, वे वर्षा के बाद घरों से बाहर धनोपार्जन के लिए निकलते थे, उन का निकलने के पहले धन की देवी लक्ष्मी का पूजा जाना स्वाभाविक ही था। इस से बाद में लक्ष्मी पूजा का संदर्भ उस से जुड़ा। दोनों महाकाव्यों का संपादन ईसा पूर्व पहली शताब्दी में हुआ और गुप्तकाल में उन का गौरव बढ़ा। संभवतः गुप्त काल से ही दीवाली के इस त्यौहार से राम और कृष्ण के संदर्भ जुड़े तथा बाद में अन्य संदर्भ जुड़ते चले गए। अभी भी यह खोज का विषय ही है कि ऐतिहासिक रूप से दीवाली के त्यौहार का विकास किस तरह हुआ? शायद कुछ इतिहास के विद्यार्थी और शोधार्थी इस पर प्रकाश डाल सकें।

स बार सप्ताह के मध्य में दीपावली का त्योहार पड़ने से दोनों दीपावली के अवकाश, दोनों ओर के दो-दो साप्ताहिक अवकाश के साथ दो-तीन दिनों के अवकाश और ले लेने पर बाहर नौकरी कर रहे लोगों के पास नौ दिनों के अवकाश हो गए और उन्हें अपने घरों पर परिवार के साथ रहने का अच्छा अवसर प्राप्त हुआ। मेरे यहाँ भी इन दिनों बेटी-बेटे के साथ रहने से, साथ ही महत्वपूर्ण हो गया। ये नौ दिन सब ने बहुत आनंद से बिताए। जब दीवाली के पहले के पन्द्रह-बीस दिनों का स्मरण करता हूँ तो लगता है वे पूरे साल के सब से व्यस्त दिन थे। घर की सफाई, सजावट, फालतू सामानों को कबाड़ी के हवाले करना और यह काम पूरा होते ही दीवाली के पकवान बनाने की तैयारी। पुरुष तो फिर भी बाहर के कामों में ही लगे रहते हैं लेकिन स्त्रियाँ। उन्हें तो पूरे एक माह से फुरसत ही नहीं थी। लगता था जैसे वे सोयेंगी नहीं। मेरे यहाँ तो घर में अकेली स्त्री मेरी उत्तमार्ध शोभा ही थी। पिछले एक माह से वह सोती नहीं थी। बस काम करते करते थक कर बेहोश हो बिस्तर पर पड़ जाती थी। जब होश आता था तो फिर से काम में जुटी नजर आती थी। ऐसा लगता था उसे घर को घर बनाने का जुनून सवार था। बेटा कल चला गया था, आज सुबह बेटी को रेल में बिठा कर लौटने के पर कुछ घंटे उस ने विश्राम किया, निद्रा ली। लेकिन कुछ घंटे बाद ही फिर से घर को संवारने में जुट गई और शाम को जब मैं अदालत से घर लौटा तो पाया कि घर फिर से हम दो प्राणियों के निवास के लिए तैयार है। लोग कहते हैं कि दीवाली न आए तो घरों की सफाई न हो। मैं सोचता हूँ यदि स्त्रियाँ न होती तो पुरुष दीवाली किस तरह मनाते? शायद उस का स्वरूप बहुत भिन्न होता या फिर दीवाली ही नहीं होती। आप क्या सोचते हैं?

दीपावली पर बहुत मित्रों के शुभकामना संदेश ई-मेल से मिले। उन में से अधिकांश एक साथ अनेक पतों को भेजे गए थे। मैं यदि उन का उसी संदेश के उत्तर के रूप में धन्यवाद करता तो वह भी सभी लोगों को प्राप्त होता। मुझे यह उचित नहीं लगा और ई-मेल की निःशुल्क सुविधा का दुरुपयोग भी। मैं ने एकल संदेशों का उत्तर देने का प्रयत्न किया लेकिन सामुहिक संदेशों का नहीं। यहाँ उन सभी मित्रों को दीपावली के शुभकामना संदेश के लिए आभार व्यक्त करता हूँ।  कामना है कि उन की ही नहीं सभी की दीवाली अच्छी मनी हो और वे सभी वर्ष भर प्रगति करें, उन्हें अनन्त प्रसन्नताएँ प्राप्त हों और अगली दीवाली वे और बेहतर तरीके से अधिक प्रसन्नताओं के साथ मनाएँ!


मंगलवार, 20 सितंबर 2011

आज जन्मदिन की शुभकामनाएँ! किसे दें ?

आज  हिंदी ब्लॉगरों के जनमदिन ब्लाग के ब्लागर

हर दिल अजीज बी.एस. पाबला जी का जन्मदिन है

बुधवार, 21 सितम्बर, 2011










पाबला जी को असीम, अनन्त, अशेष शुभकामनाएँ!!!

शुक्रवार, 10 जून 2011

उत्तमार्ध को जन्मदिन की बधाई और शुभकामनाएँ!!!

३६ वर्ष का साथ कम नहीं होता, आपसी समझ विकसित करने के लिए। लेकिन पता नहीं क्यों? जैसे जैसे समय गुजरता जाता है, वैसे वैसे मतभेद के मुद्दे बदलते रहते हैं। साथ का ये ३६वाँ वर्ष तो बिलकुल वैसा ही था जैसे इन अंकों की शक्ल है। मतभेदों की चरम सीमा थी वह। शायद इन अंकों का ही प्रताप रहा हो। पर आपसी समझ भी ऐसी कि मतभेदों के बावजूद साथ गहरा होता गया।  जैसे ही अंक बदल कर ३७ हुआ कि मतभेद न्यूनतम स्तर पर आ गए। हालांकि अब ऐसा भी नहीं कि बरतन खड़कते न हों और आवाजें न होती हों। वे होती हैं, लेकिन शायद उतना होना यह सबूत पैदा करने के लिए भी जरूरी है कि हमारे बीच पति-पत्नी का वैधानिक रिश्ता कायम है।

मैं अपने बहुत खुशकिस्मत हूँ कि मुझे ऐसी जीवनसाथी मिली। न पहले की कोई जान पहचान, न देखा-दाखी। बस एक दूसरे के परिजनों ने तय किया और हमें बांध दिया गया, ऐसी मजबूत डोर से जो जीवन भर साथ निभाएगी। वह आज का वक्त होता तो ये बांधा जाना कानून की निगाह में अपराध होता। मैं बीस का भी नहीं और शोभा, सत्रह की हुई ही थी। पर तब यह सब अपराध नहीं था। मेरी तो बी.एससी. की परीक्षा हुई थी, एक प्रायोगिक परीक्षा शेष भी थी। समझता था, कि यह जल्दी सही नहीं, उसे टालने का अपनी बिसात भर प्रयत्न भी किया था, लेकिन तब कहाँ चल सकती थी, न चली। इतना संकोच था कि अपने सहपाठियों तक को बताया नहीं, बुलाया भी नहीं। केवल घनिष्ट मित्र ही साथ थे। बारात जैसे ट्रेन से वापस उतरी तो एक दम उस से अलग बुक स्टॉल पर जा खड़ा हुआ, पत्रिकाएँ देखने लगा। एक सहपाठी ने ट्रेन से उतरते देख पूछ भी लिया -कहाँ से आ रहे हो? मैं ने तपाक से उत्तर दिया था -बारात में गया था। उस ने घूंघट में दुल्हन को उतरते देखा तो फिर पूछा ये दुल्हन उसी बारात की दिखती है शायद। मैं ने उत्तर में हाँ कहा। सहपाठी जल्दी में था, सरक लिया और मुझे साँस में साँस आई। उस कॉलेज का अंतिम वर्ष था, उस से कई महिनों बाद मुलाकात हुई तो कहने लगा -शादी के मामले में भी हमें उल्लू बना दिया। 

दुल्हन का घूंघट मुझे कभी नहीं भाया। सप्ताह भर बाद ही जब हम बैलगाड़ी की सवारी करते हुए गाँव जा रहे थे, साथ में अम्मा भी थी, शोभा घूंघट लिए बैठी थी। मैं ने माँ से सवाल किया। जब मैं इस के साथ अकेला होता हूँ तो यह घूंघट में नहीं होती जब तुम्हारे साथ होती है तब भी नहीं। लेकिन जब हम दोनों सामने होते हैं तो घूंघट डाल लेती है और बोलती भी नहीं, क्यों? इस का कोई जवाब अम्मां के पास नहीं था। कम से कम अम्मां के सामने तो घूंघट से निजात मिली। परिवार में बाद में आने वाली बहुओं के लिए आसानी हो गई।

शादी के बाद शुरु हुआ प्रेम पनपने का सिलसिला। मैं कानून की पढ़ाई के लिए अक्सर शहर के बाहर रहता और शोभा वर्ष में कम से कम आधे समय अपने मायके में। मोबाइल तो मोबाइल टेलीफोन तक की सुविधा नहीं थी। बस डाक विभाग का सहारा था। हर सप्ताह कम से कम एक पत्र का आदान प्रदान अनिवार्य था। यूँ तीन-चार भी हुए कई सप्ताहों में। यूँ ही प्रेम गहराता गया और ऐसा रंग चढ़ा की कहा जा सकता है, चढ़े न दूजो रंग। कानून की पढ़ाई पूरी हुई। एक वर्ष बाद ही वकालत के लिए गृह नगर छो़ड़ कर तब के जिला मुख्यालय आ गया। वकालत में स्थापित होने के संघर्ष का दौर। आमदनी में खर्च चलाने की विवशता। फिर बच्चे हुए, घर में चहल पहल ह गई, रहने के मकान भी बना। बच्चे बड़े हुए तो अध्ययन के लिए बाहर चले गए। अध्ययन पूरा हुआ तो रोजगार ने उन्हें घर न टिकने दिया। एक उत्तर में तो दूसरे को दक्षिण जाना पड़ा। वे आते हैं तो बरसात की बदली की तरह। हमारे जीवन में कुछ नमी बढ़ा जाते हैं और चल देते हैं। साथ फिर हम दोनों ही रह जाते हैं। इस बीच कोई समय ऐसा नहीं था जब  बावजूद तमाम मतभेदों के हम दोनों मुसीबत और उल्लास के मौके पर साथ नहीं रहे हों। हमारे बीच मतभेद अब भी हैं, उन में से कुछ ऐसे भी हैं जो जीवन भर न सुलझाए जा सकेंगे, लेकिन साथ तब भी बना रहेगा। शायद यही सहअस्तित्व का सब से अनुपम उदाहरण है।  अब तो लगता ही नहीं हैं कि हम दो अलग-अलग अस्तित्व हैं। लगता है दोनों एक दूसरे के बिना अधूरे हैं, दोनों मिल कर ही एक हैं।    

प सोच रहे होंगे कि आज ऐसा क्या है जो मैं अपनी उत्तमार्ध शोभा का उल्लेख इस तरह कर रहा हूँ? ... तो बता ही देता हूँ। आज उस का जन्मदिन है। उसे जन्म दिन की बधाई और असंख्य शुभकामनाएँ!!! हमारा साथ ऐसा ही बना रहे।

शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2011

आप भुवनेश शर्मा को जानते हैं? नहीं, तो जानिए, और बधाई दीजिए

हुत बहुत दिनों से यह साध थी कि उस की शादी में जरूर जाउंगा, और अकेला नहीं, बल्कि सपत्नीक। लेकिन कहते हैं न कि सोचा हमेशा सधता नहीं। कल तक इरादा पक्का था। लेकिन एक काम ऐसा पड़ा कि उसे तुरंत करना जरूरी था। उसी में लगा रहा। रात तारीख बदलने तक उसे करता रहा। काम से उठने के पहले सोचा, अब सुबह जल्दी निकला जा सकता है। लेकिन उठते ही हाजत हाजिर, निपट भी लिया, लेकिन सहज नहीं हुआ। सुबह तीन-चार के बीच फिर जाना पड़ा, पर सहजता नहीं लौटी। लगा कि अब सुबह छह बजे की ट्रेन नहीं ही पकड़ पाएंगे। फिर जाना मुल्तवी कर दिया। कल दोपहर तक दूल्हे का फोन आया था। सर! आ रहे हैं न आप? मैं ने पूरी गर्मजोशी से कहा था, आ रहा हूँ। शाम को फिर फोन आया तो फिर गर्मजोशी दिखाई थी। लेकिन अगली सुबह होने के पहले हवा निकल गई। 
ब मैं डर रहा था कि दूल्हे का फोन आया तो क्या कहूंगा? जो हुआ वह बताऊँ या नहीं? फिर सोचा, मैं शादी में पहुँच जाता तो क्या कर लेता, ठीक बारात निकलने के पहले पहुँच पाता। थोड़ा विश्राम कर सूट पहन बारात में चल देता। फिर रिसेप्शन में स्वागत झेलता। दूल्हे के सिवा मैं किसी से परिचित नहीं था। और दूल्हे से भी बस आभासी परिचय ही था। पहली बार मिलते। लेकिन वह अधिकतर घोड़ी पर होता या फिर स्टेज पर दुलहिन के साथ। जैसे-तैसे शादी निपटती। दूल्हे को तो अभी फुरसत भी नहीं होती कि हमारी रवानगी लग जाती। नहीं जा पाए तो कोई बात  नहीं, दूल्हे को दुल्हिन के साथ घर बसा लेने दो फिर दो-चार महीने बाद चलेंगे। एक-दो दिनों का समय निकाल कर, जिस से उसे भी मेजबानी का सुख मिले और हम भी उन के साथ मिलें और उस इलाके को भी घूम-फिर कर देखें। मैं इसी तरह सोच रहा था कि उस का फिर फोन आ गया -सर! कहाँ तक पहुँचे? मैं ने सहज बता दिया कि मैं किस कारण से रवाना नहीं हो सका हूँ। यह भी कहा कि कोई बात नहीं दो-चार माह बाद आएंगे दो-एक दिन रुकेंगे। दूल्हे को कुछ तसल्ली होती लगी तो मैं ने कहा -तुम ही आओ दुलहिन को लेकर, दो-एक दिन रुको। तुम्हें इस इलाके में घुमा दें। अब शादी के दिन वैसे ही दूल्हे पर समय बहुत कम होता है। फोन पर बात खत्म हो गई। 
भुवनेश शर्मा
ब आप को बता दूँ कि ये दूल्हा महाशय वकील और हमारे अपने हिन्दी ब्लाग जगत के ब्लागीर भुवनेश शर्मा हैं। इन के तीन ब्लाग हिन्‍दी पन्‍ना, एक वकील की डायरी और Amazing Pictures हैं। ये आज रात्रि अपने ही नगर की आयुष्मति रश्मि को अपनी जीवन संगिनी बनाने जा रहे हैं। कल सुबह सूर्योदय की पहली किरण के साथ अपनी रश्मि को साथ ले कर घर लौटेंगे। अब हम इन के विवाह के साक्षी तो नहीं बन सके, लेकिन इन्हें अपनी ओर से बधाई तो दे ही सकते हैं। 
भुवनेश व रश्मि दोनों के आपस में जीवन-साथी बनने पर बहुत बहुत बधाइयाँ!!! और सफल प्रसन्नतायुक्त वैवाहिक जीवन के लिए अनन्त शुभकामनाएँ!!!
म ने दे दी हैं, आप भी दे ही दीजिए........

शनिवार, 1 जनवरी 2011

साहित्य की साधना : निखिल विश्व के साथ ऐकत्व अनुभव करने की साधना

नुष्य एक सामाजिक प्राणी है, इसलिए वह जिस प्रकार अपने क्रियाकलाप में सामाजिक बना रहता है, उसी प्रकार विकार में भी। उस के इस सामाजिकपन का ही परिणाम है कि वह -
  1. अपने आप को नाना रूपों में अभिव्यक्त करना चाहता है,
  2. अन्य लोगों के करने-धरने में रस लेता है,
  3. अपने इर्द-गिर्द की वास्तविक दुनिया को समझना चाहता है, तथा
  4. कल्पना द्वारा एक ऐसी दुनिया का निर्माण करने में रस पाता है जो वास्तविक दुनिया  के दोषों से रहित हो। 
ये ही चार मूल मनोभाव हैं जो मनुष्य को साहित्य की तथा अन्य अनेक प्रकार की रचनाओं के लिए उद्योगी बनाए रखते हैं। इस का अर्थ यह हुआ कि मनुष्य के जीवन में ही वे उपादान मौजूद हैं जो उसे साहित्य की सृष्टि के लिए प्रेरित करते हैं; साथ ही इन्हीं मूल मनोभावों का यह परिणाम है कि वह दूसरों की रचना देखने, सुनने और समझने में रस पाता है। वस्तुतः हम ऊपर से कितने ही खंड रूप और ससीम क्यों न हों, भीतर से निखिल जगत के साथ 'एक' हैं। साहित्य हमें प्राणीमात्र के साथ एक प्रकार की आत्मीयता का अनुभव कराता है। वस्तुतः हम अपनी उसी 'एकता' का अनुभव करते हैं।                                                                   -आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी  


इसी संदर्भ में गुरुदेव रविन्द्रनाथ कहते हैं-
... मैं जब रुपया कमाना चाहता हूँ तो मेरा रुपया कमाने की नाना भाँति की चेष्टाओं और चिंताओं के भीतर भी एकता वर्तमान रहती है। विचित्र प्रयास के भीतर केवल एक ही लक्ष्य की एकता अर्थकामी को आनन्द देती है। किन्तु यह एक्य अपने उद्देश्य में ही खंडित है, निखिल सृष्टि-लीला से युक्त नहीं है। पैसे का लोभी विश्व को टुकड़े-टुकड़े कर के -झपट्टा मार कर -अपनी धनराशियों को इकट्ठा करता है। लोभी के हाथ में कामना की वह लालटेन होती है जो केवल एक विशेष संकीर्ण स्थान पर अपने समस्त प्रकाश को 'संहत' करती है। बाकी सभी स्थानों से उस का सामंजस्य गहरे अन्धकार के रूप में घनीभूत हो उठता है। अतएव लोभ के इस संकीर्ण ऐक्य के साथ सृष्टि के ऐक्य का, रस-साहित्य, और ललित कला के ऐक्य का संपूर्ण प्रभेद है। निखिल को छिन्न करने से लोभ होता है और निखिल को एक करने से रस होता है। लखपति महाजन रुपए की थैली ले कर 'भेद' की घोषणा करता है, गुलाब 'निखिल' का दूत है, वह 'एक' की वार्ता को ले कर फूटता है। जो 'एक' असीम है, वही गुलाब के नन्हे हृदय को परिपूर्ण कर के विराजता है। कीट्स अपनी कविता में 'निखिल-एक' के साथ एक छोटे से ग्रीक पात्र की एकता की बात बता गए हैं; कह गए हैं कि 'हे नीरव मूर्ति ! तुम हमारे मन को व्याकुल कर के समस्त चिंताओं को बाहर ले जाते हो, जैसा कि असीम ले जाया करता है।' क्यों कि अखंड 'एक' ही मूर्ति, किसी आकार में भी क्यों न रहे, 'असीम' को ही प्रकाशित करती है; इसीलिए अनिर्वचनीय है। मन और वाक्य उस का  कूल-किनारा न पा कर लौट आया करते हैं। [ विश्वभारती पत्रिका चैत्र -1999, पृ.110-111]

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी पुनः कहते हैं -
साहित्य की साधना निखिल विश्व के साथ एकत्व अनुभव करने की साधना है, इस से वह किसी अंश में कम नहीं है। जो साहित्य नामधारी वस्तु लोभ और घृणा पर आधारित है, वह साहित्य कहलाने के योग्य नहीं है। वह हमें विशुद्ध आनंद नहीं दे सकता। 
हार, निद्रा, भय आदि मनोभाव समस्त प्राणियों में समान हैं। मनुष्य जब इन की पूर्ति करता रहता है तो वह अपने उस छोटे प्रयोजन में उलझा रहता है जो पशुओं के समान ही है। बहुत प्राचीन काल से पशु-सामान्य प्रवृत्तियों को मनुष्य ने तिरस्कार के साथ देखा है। वह इन तुच्छताओं से ऊपर उठ सका है, यही उस की विशेषता है। जो बातें हमें जिन तुच्छताओं का दास बना देती हैं; या तुच्छताओं को ही मनुष्य का असली रूप बताती हैं, वे मनुष्य के चित्त से उस के महत्व को, उस के वैशिष्ट्य को और उस के वास्तविक रूप को हटा देती हैं। वे लोभ और मोह का पाठ पढ़ाती हैं। साहित्य वे नहीं हो सकतीं, क्यों कि उन की शिक्षा से मनुष्य खंड की साधना करता है, विभेद और तुच्छता को बड़ा समझने लगता है और सारे विश्व के साथ एकत्व की अनुभूति से विरत हो जाता  है।  
...... सभी उद्धरण आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की पुस्तक साहित्य का साथी से

तो नये वर्ष में हम संकल्प लें,  कि हम मनुष्य हो कर मनुष्यता की ओर बढ़ेंगे, अपनी पशुता को सीमित करेंगे। सारे विश्व के ऐकत्व की ओर अपने कदम बढ़ाएंगे। 

कत्व के इसी नए संकल्प के साथ, नव-वर्ष सभी के लिए मंगलकारी हो!!!