@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: भ्रष्टाचार
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सोमवार, 31 अक्तूबर 2022

मोरबी का पुल हादसा

ल शाम गुजरात के मोरबी में हुई दुर्घटना आज टीवी पर छायी हुई है। दुर्घटना बहुत बड़ी है। अब तक 134 लोगों के मरने और 100 से अधिक के घायल होने की पुख्ता जानकारी है। लापता लोगों की जानकारी भी लापता है।



यह कोई 100 बरस पुराना पुल है। इसे मरम्मत के लिए कोई सात माह पहले बन्द किया गया था। मरम्मत का ठेका एक कंपनी को दिया था। जिसका काम इलेक्ट्रोनिक घड़ियाँ और अन्य इलेक्ट्रोनिक वस्तुओं के उत्पादन का काम है। पर मुनाफा कमाने के लिए कंपनियाँ कैसे भी काम कर लेती हैं। इस ठेके में मरम्मत और अगले अनेक वर्षों के लिए पुल की देखभाल और संचालन का काम भी सम्मिलित है। कंपनी उस पर प्रवेश के लिए 17 रुपए प्रति व्यक्ति भी वसूल कर रही है।

यह पुल मात्र साढ़े चार फुट के लगभग चौड़ा है। इस पर एक व्यक्ति पैदल आ रहा हो तो शेष स्थान बस इतना बचता है कि सामने से आने वाला दूसरा व्यक्ति बगल से निकल जाए। यदि दो व्यक्ति साथ चल रहे हों तो सामने से आने वाले व्यक्ति को जाने देने के लिए एक व्यक्ति को हट कर दूसरे के पीछे आना पड़ेगा। इस पुल को तीन दिन पहले खोल दिया गया। आश्चर्य की बात है कि पुल पर तीन दिन से एक बार में सैंकड़ों अर्थात 500 व्यक्ति उस पुल पर चढ़ रहे थे। जबकि पुल की क्षमता 100 व्यक्तियों द्वारा एक बार में उपयोग करने की है। ऐसा लगता है रखरखाव रखने वाली कंपनी ने पुल को यातायात के साधन के रूप में नहीं बल्कि एक पर्यटन स्थल के रूप में बदल दिया था और कमाई कर रही थी। यह तथ्य भी सामने आयी है कि मरम्मत के बाद पुल को चालू करने के पहले नगर पालिका से एनओसी प्राप्त करनी थी और नगर पालिका ने ऐसी अनुमति नहीं दी थी पुल उसके बिना ही उपयोग में लिया जा रहा था। इस का मुख्य कारण कारपोरेट द्वारा मुनाफे के लालच से जनता की असीम लूट ही है।


नगर पालिका की ड्यूटी थी कि यदि पुल को बिना अनुमति चालू कर दिया था तो उसके उपयोग को रुकवाती और यह सुनिश्चित करती कि एक बार में उस पर 100 से अधिक लोग न चढ़ सकें। नगर पालिका के पास स्टाफ होता है जो अवैध निर्माण और संचालन पर निगाह रखता है। पर देश भर के नगर निकायों के तमाम ऐसे निगरानी स्टाफ पूरी तरह से भ्रष्टाचार में ऊब डूब है। जो पांच दस प्रतिशत ईमानदार स्टाफ है वह ठेकेदारों और उनसे संबंधित राजनीतिक लोगों द्वारा प्रतिशोध लेने से भयभीत रहता है और ऐसी घटनाओं से आँख मूंद लेता है। इसी कारण हर शहर में अवैध इमारतों, निर्माणों की भरमार हो चुकी है। फुटपाथ तो दुकानदारों की बपौती है। उस पर उन्हीं का माल फैला रहता है। यहाँ तक कि फुटपाथ के बाद का स्थान पार्किंग से भरा रहता है। सड़क पर यातायात अक्सर फँसा रहता है। जनता यह सब बर्दाश्त करती रहती है।

लेकिन जब राजनीतिक लोगों और पूंजीपतियों ठेकेदारों का भ्रष्टाचारी गठजोड़ लोगों की जाने लेने लगे तो जनता तत्काल उफनने लगती है। यह उफान भी सोडावाटरी होता है। तत्काल पुलिस ठेकेदार के कुछ कर्मचारियों को गिरफ्तार कर मुकदमा बनाती है। लेकिन पीछे पीछे भ्रष्टाचारी गठजोड़ काम करता रहता है। जो मुकदमे बनाए जाते हैं उनमें सबूत होते ही नहीं या फर्जी होते हैं। दसियों साल मुकदमा चलने के बाद सारे मुलजिम बरी हो जाते हैं। राजनीतिक लोगों और पूंजीपतियों ठेकेदारों का भ्रष्टाचारी गठजोड़ बना रहता है।

गुजरात में सारा प्रशासन भाजपा के हाथों में है केन्द्र् में भी उनकी सरकार है। प्रधानमंत्री का मन भटक कर टूटे पुल के पीड़ितों के आसपास भटक रहा है जाँच की घोषणा कर दी गयी है। लेकिन कोई राजनेता यह नहीं कह रहा है कि ठेकेदार, पालिका और सरकारी कर्मचारियों के साथ साथ उनसे यह सब काम करवाने में लिप्त रहे राजनेता भी दंडित किए जाएंगे। कौन अपनी माँ को डाकिन कहता है।

दो चार दिन हल्ला रहेगा। फिर चुनाव होगा। परिणाम आ जाएंगे। अफसर कर्मचारी जिन पर मुकदमा किया जाएगा वे सब बरी हो जाएंगे। किसी राजनेता पर कोई आँच नहीं आएगी और जनता फिर सो कर खर्राटे लेने लगेगी या फिर हिन्दू मुसलमान करते हुए धर्म की अफीम की पिनक में डूब जाएगी।

मंगलवार, 30 अक्तूबर 2018

पूजा-पाठ के फेर में क्यों पड़ूं?



दुर्घटना में बाबूलाल के पैर की हड्डी टूट गई और वह तीन महीने से दुकान नहीं आ रहा है। पूरे दिन दुकान छोटे भाई जीतू को ही देखनी पड़ती है। आज सुबह करीब 11:45 बजे मैं उसकी दुकान पर पहुंचा तो वह दुकान शुरू ही कर रहा था। 

जीतू
मैंने उससे पूछा - तुम दुकान आने में काफी लेट हो जाते हो। 

तो वह कहने लगा- भाई साहब सुबह पूजा पाठ करने में दो-तीन घंटे लग जाते हैं। 

मैंने पलट कर पूछा - पूजा में दो-तीन घंटे क्यों लगते हैं, और पूजा करने की जरूरत क्या है? 

वह कहने लगा- भगवान को तो मानना पड़ता है, पूजा भी करनी पड़ती है। 

मैंने उसे कहा - तुम्हारा भगवान न्याय प्रिय है। हर व्यक्ति को कर्म के अनुसार फल देता है, बुरे कर्मो वालों को बुरा फल देता है, अच्छे कर्म वालों को अच्छा फल देता है। तो फिर यह पूजा पाठ करने से मिलने वाले फल पर क्या प्रभाव पड़ेगा? अगर पूजा-पाठ पाठ भजन-कीर्तन उपवास-व्रत से फर्क पड़ता है। तो फिर यह सब रिश्वत या चमचागिरी की तरह नहीं है क्या? और यदि ऐसा है तो फिर तुम्हारा भगवान किसी रिश्वतखोर अफसर या भ्रष्ट नेता की तरह नहीं है क्या?

यह सुनने पर जीतू हंसने लगा। तब वहां उस वक्त एक और ग्राहक नागपाल जी खड़े थे। वह कहने लगे - भाई मैं तो कोई पूजा पाठ नहीं करता। भगवान होगा तो होगा। पूजा पाठ से ना तो वह प्रसन्न होगा, और ना ही पूजा पाठ नहीं करने से अप्रसन्न होगा। फिर मैं इस पूजा-पाठ के फेर में क्यों पड़ूं?

रविवार, 1 जनवरी 2012

शक्ति, जिस से लुटेरे थर्रा उठें

अनवरत के सभी पाठकों और मित्रों को नव वर्ष पर शुभकामनाएँ!!!
नया वर्ष आप के जीवन में नयी खुशियाँ लाए!!

भारतीय जनगण को इस वर्ष निश्चित रूप से विगत वर्षों की अपेक्षा अधिक शुभकामनाओं की आवश्यकता है। ऐसी शुभकामनाओं की जो उन्हें आने वाली विकट परिस्थितियों का सामना करने की शक्ति प्रदान करें। विगत वर्ष हम ने भारतीय जनगण के बीच उठता एक ज्वार देखा। इस ज्वार का उभार अप्रत्याशित तो नहीं था लेकिन वह था अद्भुत। देश की राजधानी की सड़कों पर लहलहाते हुए सैंकड़ों हजारों तिरंगे। हर कोई भारत माता की जय और इन्कलाब जिन्दाबाद के नारे लगाता हुआ। ऐसा लगता था यह उभार सब कुछ बदल डालेगा। एक और नामी गिरामी लोग भ्रष्टाचार के आरोप में जेल की चारदिवारी के भीतर थे तो दूसरी ओर जनता एक छोटे कद के गांधी टोपीधारी वृद्ध के पीछे चलती दिखाई देती थी। ऐसा लगता था जैसे इस देश से भ्रष्टाचार को समूल उखाड़ फेंका जाएगा। उस वृद्ध में एक दृढ़ता दिखाई देती थी। जीवन में किए गए संघर्षों और उन से प्राप्त सफलताओं की दृढ़ता। और उस दृढ़ता का नमूना हमें दिखाई भी दिया। सरकार उस वृद्ध की दृढ़ता, उस के पीछे उमड़ते जन सैलाब के सामने झुकती दिखाई दी। संसद ने एक संकल्प पारित किया कि वह जल्दी ही भ्रष्ट लोगों को पहचानने, उन्हें अभियोजित कर दंडित करने के लिए मजबूत कानून बनाएगी। 

सैलाब सिमट गया। जनता के प्रारूप पर विचार करते करते उसे एकदम गायब कर दिया गया और फिर एक सरकारी विधेयक संसद के सामने लाया गया जो एकदम सरकारी था। ठीक वैसा ही सरकारी जैसा होता है। सरकारी विधेयक के साथ जो प्रस्तावना और उद्देश्य जुड़े होते हैं कानून बनने के बाद अक्सर उस उद्देश्य के विपरीत परिणाम देने लगता है। मैं ठेकेदार श्रम (उन्मूलन) अधिनियम 1970 की याद दिलाना चाहता हूँ। जिस का उद्देश्य था कि वह उद्योगों में स्थाई प्रकृति के कामों की पहचान के लिए मशीनरी बनाएगा जिन में ठेकेदारी श्रम का उन्मूलन किया जाए। लेकिन हुआ उस का बिलकुल उलट। इस कानून ने ठेकेदारी श्रम को एक कानूनी जामा पहना दिया। यहाँ तक कि सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों में भी अधिक से अधिक स्थाई प्रक्रियाएँ ठेकेदारों के हवाले कर दी गईं। फिर सीधे सीधे वे क्षेत्र भी जद में आ गए जहाँ कभी ठेकेदार श्रमिक थे ही नहीं। यहाँ तक कि बड़े बड़े नगरों के निगमों से लेकर छोटी छोटी नगर पालिकाएँ नगरों की सफाई के लिए ठेकेदारों के हवाले कर दी गईं। अब जिन श्रमिकों को वहाँ नियोजित किया जाता है उन्हें न्यूनतम वेतन तक नहीं मिलता। मिले भी कैसे न्यूनतम वेतन की दर पर तो ठेके दे दिए जाते हैं। फिर टैक्स, अफसरों और नेताओं को खिलाया जाने वाला धन ठेकेदार उसी में से निकालता है। जितने श्रमिक कागजों पर नियोजित किए जाते हैं उस से आधे श्रमिक भी वास्तव में नियोजित नहीं किए जाते। इस से एक लाभ तो यह होता है कि सरकार को बेरोजगारी की दर को कम दिखाने में सुभीता होता है और दूसरे नेताओं तथा अफसरों के घर काला धन आसानी से एकत्र होता रहता है। नगरों में गंदगी के ढेर लगे होते हैं। जिन के बीच जनता जीती रहती है। 

ठीक इसी तर्ज पर एक विधेयक आया और फिर स्थाई संसदीय समिति के वर्कशाप में डिजाइन करने को भेज दिया गया। कुछ महिनों बाद संसद ने वर्कशाप से डिजाइन हो कर आया हुआ विधेयक संसद के निचले सदन ने पारित कर दिया लेकिन उपरी सदन में बहुमत के चक्र में ऐसा पड़ा कि सरकार बचाना मुश्किल हो गया। आधी रात तक सदन चलाने के बाद सदन को स्थगित कर सरकार बचाई गई और ठीकरा विपक्ष के मत्थे थोप दिया गया। अब प्रधानमंत्री का बयान आ रहा है कि सरकार भ्रष्टाचार से लड़ने को कटिबद्ध है। वह संसद के अगले सत्र में एक मजबूत कानून बनाएगी। संसद में चल रही इस बहस के बीच एक बुरी बात यह हुई कि मजबूत कानून की मांग करने वाले वृद्ध और उस की टीम बीच मैदान में जनता विहीन हो गयी। मैदान खाली पड़ा रहा। फिर वृद्ध की सेहत की आड़ में आंदोलन स्थगित हो गया। आखिर राजधानी की सड़कों पर तिरंगे लहराने वाली जनता अचानक क्यों अपने घरों में वापस चली गई थी। 

नता कभी गलत फैसले नहीं करती। वह जान रही है कि भ्रष्टाचारियों को दंडित कराने के लिए कोई भी मशीनरी कोई भी कानून सफल नहीं हो सकता। अभी तो कानून बनने में पेच हैं, फिर उसे लागू करने में पेच होंगे उस के आगे फिर अदालती पेच-ओ-खम भी देखने होंगे। अर्थात यह सारा खेल बहुत लंबा है। फिर जिन्हों ने इस के पीछे आंदोलन करने का बीड़ा उठाया वे ही जब ये कहने लगें कि कानून भ्रष्टाचार नहीं मिटा सकेगा केवल उसे साठ प्रतिशत तक कम कर सकता है। कम हुए भ्रष्टाचार से जनता को राहत क्या मिलेगी? क्या महंगाई कम हो सकेगी? क्या पेट्रोल के दाम किसी स्तर पर बढ़ने से रुक जाएंगे। क्या बेरोजगारों को काम मिलने लगेगा? क्या बच्चों की पढ़ाई महंगी होना बन्द हो जाएगा? क्या न्यूनतम मजदूरी में कोई अपना पेट भर सकेगा और पेट भरने के बाद यदि बीमार हुआ तो क्या इलाज करवा सकेगा? क्या देश के सब लोगों को तन ढकने को पर्याप्त कपड़ा और रात को सोने के लिए छत मिल सकेगी? क्या उन्हें मरने के पहले अदालतों से न्याय मिल सकेगा? ऐसे ही बहुत से प्रश्न हैं जिन से जनगण रोज जूझता है। उसे आशा थी कि एक भ्रष्टाचार पर काबू पाने की कोई मशीनरी आ जाएगी तो उसे थोड़ी राहत मिलेगी। लेकिन पिछले छह माह में कानून पर बहस के दौरान जितने पेच-ओ-खम उस ने देखे हैं। उसे निराशा हुई है। वह जानने लगी है कि भ्रष्टाचार मिटाने की इस कानूनी किताब से उस के कष्टों में कोई कमी नहीं होने वाली है। यही कारण था कि जनगण फिर से अपने कामों में जुटा दिखाई देने लगा है।
नगण जानने लगा है कि कोई एक सूत्र है जो दिखाई नहीं देता है और इन सब बिन्दुओं को आपस में जोड़े रखता है। जब तक किसी भी आंदोलन के कार्यक्रम से जनता के सारे कष्टों में कमी के सूत्र आपस में जुड़ते न दिखाई देने लगें वह उस के साथ न जुड़ेगी। वह यह भी जानती है कि जब तक श्रमजीवी जनगण की संगठित मजबूत शक्ति ऐसी किसी भी लड़ाई के पीछे नहीं होगी वह लड़ाई उस का भाग्य बदलने की लड़ाई नहीं हो सकती। श्रमजीवी जनगण की मजबूत संगठित एकता का निर्माण स्वयं जनगण को ही करना होगा। हम जो लोग इस एकता की ताकत को समझ चुके हैं वे किसी न किसी स्तर पर इस के निर्माण के लिए भी जुटे हैं। तो देर किस बात की जो भी इस सूत्र पर विश्वास करता है वह आज से ही अपने घर, मुहल्ले, गांव, नगर, कार्य स्थल पर इस एकता के निर्माण में क्यों न जुट जाए? आज नव वर्ष पर जनगण के लिए सब से बड़ी और श्रेष्ठ शुभकामना  यही है कि इस वर्ष में जनगण अधिक से अधिक एकता का निर्माण करे और अधिक बड़ी शक्ति के रूप में उभर कर सामने आए। ऐसी शक्ति कि जिस से लुटेरे थर्रा उठें।

बुधवार, 19 अक्तूबर 2011

इंडिया अगेन्स्ट करप्शन को जनतांत्रिक राजनैतिक संगठन में बदलना ही होगा

इंडिया अगेन्स्ट करप्शन की कोर कमेटी के दो सदस्यों पी वी राजगोपालन और राजेन्द्र सिंह ने अपने आप को टीम से अलग करने का निर्णय लिया है, उन का कथन है कि अब आंदोलन राजनैतिक रूप धारण कर रहा है। हिसार चुनाव में कांग्रेस के विरुद्ध अभियान चलाने का निर्णय कोर कमेटी का नहीं था। उधर प्रशान्त भूषण पर जम्मू कश्मीर के संबंध में दिए गए उन के बयान के बाद हुए हमले की अन्ना हजारे ने निन्दा तो की है लेकिन इस बात पर अभी निर्णय होना शेष है कि जम्मू-कश्मीर पर उन के अपने बयान पर बने रहने की स्थिति में वे कोर कमेटी के सदस्य बने रह सकेंगे या नहीं। इस तरह आम जनता के एक बड़े हिस्से का समर्थन प्राप्त होने पर भी इंडिया अगेन्स्ट करप्शन की नेतृत्वकारी कमेटी की रसोई में बरतन खड़कने की आवाजें देश भर को सुनाई दे रही हैं। 

न्ना हजारे जो इस टीम के सर्वमान्य मुखिया हैं, बार बार यह तो कहते रहे हैं कि उन की टीम किसी चुनाव में भाग नहीं लेगी, लेकिन यह कभी नहीं कहते कि वे राजनीति नहीं कर रहे हैं। यदि वे ऐसा कहते भी हैं तो यह दुनिया का सब से बड़ा झूठ भी होगा। राजनीति करने का यह कदापि अर्थ नहीं है कि राजनीति करने वाला कोई भी समूह चुनाव में अनिवार्य रूप से भाग ले। यदि कोई समूह मौजूदा व्यवस्था के विरुद्ध या उस के किसी दोष के विरुद्ध जनता को एकत्र कर सरकार के विरुद्ध आंदोलन का संगठन करता है तो तरह वह राज्य की नीति को केवल प्रभावित ही नहीं करता अपितु उसे बदलने की कोशिश भी करता है तथा इस कोशिश को केवल और केवल राजनीति की संज्ञा दी जा सकती है। इस तरह हम समझ सकते हैं कि विगत अनेक वर्षों से अन्ना हजारे जो कुछ कर रहे हैं वह राजनीति ही है। 

दि कोई समूह या संगठन राजनीति में आता है तो उस संगठन या समूह को एक राजनैतिक संगठन का रूप देना ही होगा। उस की सदस्यता, संगठन का जनतांत्रिक ढांचा, उस के आर्थिक स्रोत, आय-व्यय का हिसाब-किताब, उद्देश्य और लक्ष्य सभी स्पष्ट रूप से जनता के सामने होने चाहिए। लेकिन इंडिया अगेंस्ट करप्शन के साथ ऐसा नहीं है, वहाँ कुछ भी स्पष्ट नहीं है। यदि इंडिया अगेंस्ट करप्शन को अपना जनान्दोलन संगठित करना है तो फिर उन्हें अपने संगठन को जनता के संगठन के रूप में संगठित करना होगा, उस संगठन का संविधान निर्मित कर उसे सार्वजनिक करना होगा, उस के आर्थिक स्रोत और हिसाब किताब को पारदर्शी बनाना होगा। संगठन के उद्देश्य और लक्ष्य स्पष्ट करने होंगे। इस आंदोलन को एक राजनैतिक स्वरूप ग्रहण करना ही होगा, चाहे उन का यह संगठन चुनावों में हिस्सा ले या न ले। यदि ऐसा नहीं होता है तो इस आंदोलन को आगे विकसित कर सकना संभव नहीं हो सकेगा।

बुधवार, 31 अगस्त 2011

राज में बहुत पोल है तो तुम भी किसी पोल में घुस जाओ

ल आंदोलन के बाद के पहले दिन का उल्लेख आधा ही कर पाया। राजस्थान में अदालतों में दोपहर का भोजनावकाश 1.30 से 2.00 बजे तक का होता है। लेकिन हाथ में काम को तुरंत तो छोड़ा नहीं जा सकता। इस लिए कभी कभी अदालत से मुक्त होने में 1.45 तक का समय हो जाता है। जब अदालत देर से उठती है तो फिर 2.00 बजे फिर से बैठ नहीं पाती। अक्सर जज को अदालत में आने में ढाई बज जाते हैं। हम लोग भी दोपहर की चाय पर पोने दो बैठते हैं तो फिर उठने तक सवा दो हो जाते  हैं और अदालत तक पहुँचने में हमें भी ढाई बज जाते हैं। अदालत में काम ढाई बजे ही आरंभ हो पाता है। कल भी यही हुआ मुझे एक अदालत से निकलते निकलते 1.40 बज गए। परिसर के मुख्य द्वार पर एक नेताजी उर्फ सेवानिवृत्त सरकार समर्थक कर्मचारी यूनियन के नेता मिल गए। सारे जीवन कर्मचारियों से पैसा खर्च कराते और उन के छोटे मोटे काम कराते रहे।
मुझे देखते ही नेताजी ने जोरदार नमस्ते किया। मैं ने भी उन्हें जवाब दिया। वे किसी के साथ भ्रष्टाचार की समस्या पर बात कर रहे थे। बिलकुल सरकारी पार्टी के सांसदों जैसी भाषा बोल रहे थे। कह रहे थे "साहब भ्रष्टाचार मिट सकता है क्या?  दो चार दिन गुब्बारा फूला रहेगा, फिर इस की हवा निकल जाएगी। गुब्बारे में फिर से हवा भरी जाएगी तो फिर निकल जाएगी। कब तक हवा भरते रहेंगे? एक दिन गुब्बारा बेकार हो जाएगा।" मैं ने उन्हें तसल्ली से सुना। फिर उन्हें एक किस्सा सुनाने लगा, जिसे मैं ने पैंतीस बरस पहले पढ़ा था। बताया जाता है कि यह सच्चा किस्सा है। होगा तो ग्वालियर से संबंधित कोई न कोई ब्लागर इस की ताईद भी कर देंगे। अब आप को भी वह किस्सा संक्षेप में बता ही देता हूँ।

हुआ यूँ कि ग्वालियर राज्य का एक ब्राह्मण युवक  राज दरबार में अच्छा पद प्राप्त करने की इच्छा लिए काशी से विद्या अध्ययन कर लौटा। राजा के दरबार में पहुँचना आसान न था। वहाँ हर किसी की पहुँच न थी। युवक ने किसी तरह जुगाड़ किया और राजा के सामने उपस्थित हो गया। राजा को उसने अपना परिचय दिया और कहा कि आप तो विद्वानों की पहचान रखते हैं इस लिए वह उपस्थित हुआ है कि उसे उस की योग्यता के अनुरूप दरबार में कोई काम मिल जाएगा। लेकिन राजा ने उस से पूछा कि वह दरबार तक कैसे पहुँचा? यहाँ तो हर कोई पहुँच नहीं सकता। युवक ने उसे बताया कि आप के राज में बड़ी पोल (छिद्र) है। राजा ने उसे कहा कि वह भी किसी पोल में घुस ले। युवक ने राजा को कहा कि आप के राज में वह आप की आज्ञा के बिना किसी पोल में कैसे घुस सकता है? उसे राजाज्ञा दे दी जाए। राजा ने आदेश लिखवाया "युवक कहता है कि ग्वालियर के राज में बड़ी पोल है, इस लिए उसे आज्ञा दी जाती है कि वह किसी पोल में घुस जाए।" राजाज्ञा पर राजा की मुहर अंकित कर दी गई, युवक उसे ले कर दरबार से चला आया। 

युवक ने ग्वालियर पहुँचने वाले मार्गों में से एक पर नगर के बाहर उस ने एक पेड़ पर रस्सी बांधी और सड़क के दूसरी ओर रस्सी का दूसरा सिरा पकड़ कर बैठ गया। कोई भी वाहन आता तो वह रोक लेता और राजाज्ञा होने की बात कह कर उस से महसूल वसूल करता। कुछ दिनों में उस के पास पैसा इकट्ठा हो गया। उस ने कुछ कर्मचारी रख लिए। उन से काम कराने लगा, खुद निगरानी रखता। कोई छह माह बाद उस ने कर्मचारियों से कहा कि अब राजा ग्वालियर से बाहर जाएँ और जब वापस आएँ तो उनका वाहन रोक दिया जाए। कर्मचारियों ने एक दिन राजा का वाहन रोक दिया। राजा को आश्चर्य हुआ कि उस का वाहन कौन रोक सकता है। उसने अपने अंगरक्षकों से पूछताछ करने को कहा। अंगरक्षकों ने पूछताछ करने पर बताया कि एक पंडित है जो कहता है कि यहाँ राजाज्ञा से हर वाहन पर महसूल लगता है राजा को भी देना होगा। राजा ने महसूल दे कर वाहन को नगर प्रवेश कराने का आदेश दिया और कहा कि पंडित को दरबार में हाजिर किया जाए।

गले दिन पंडित दरबार में हाजिर हुआ तो उस से पूछा गया कि वह महसूल किस हक से वसूल करता है। तो उस ने कहा कि वह राजाज्ञा से करता है। राजा ने राजाज्ञा बताने को कहा तो पंडित ने वही आदेश सामने कर दिया जिस में किसी भी पोल में घुसने का आदेश दिया गया था। राजा ने स्वीकार किया कि उस के राज में पोल है। राजा ने राजस्व विभाग में एक नगर प्रवेश राजस्व का विभाग स्थापित कर दिया और पंडित को उस का मुखिया नियुक्त किया। अब ग्वालियर प्रवेश के सभी मार्गों पर चुंगी नाके स्थापित कर दिए गए और नगर प्रवेश शुल्क वसूल किया जाने लगा। 

मैं ने उक्त किस्सा नेताजी को सुना कर कहा कि भ्रष्टाचार भी इसी तरह की पोल में घुस जाने की राजाज्ञाओं से चलता है। यदि उसे मिटाना है तो राजा पर चोट करनी होगी। नेता जी ने तुरंत हाँ भर दी। कहने लगे -वही तो मैं कह रहा हूँ कि भ्रष्टाचार ऐसे नहीं मिटेगा, उस के लिए तो पूरी व्यवस्था ही बदलनी होगी। मैं ने घड़ी देखी तो दो बजने को थे। यदि मैं दो बजने तक चाय पर नहीं पहुँचा तो साथी मुझ पर दंड कर सकते थे। मैं ने नेताजी को अलविदा कहा और तेजी से केंटीन की ओर कदम बढ़ा दिए।

मंगलवार, 30 अगस्त 2011

आन्दोलन के पहले चरण के उपरान्त पहला दिन

न्ना अस्पताल में हैं। खबर है कि पहले उन का भार लगभग 500 ग्राम प्रतिदिन की दर से कम हो रहा था। अब जो कुछ तरल खाद्य वे ले रहे हैं उस से यह गिरावट 200 ग्राम प्रतिदिन रह गई है। दो दिन में वह स्थिति आ जाएगी कि उन का भार गिरना बंद हो जाएगा और उस के बाद उन्हें फिर से अपना वजन बढ़ाना होगा। आखिर अभी तो संघर्ष का आरंभ है। परिवर्तन की इस बयार को बहुत दूर तक जाना पड़ेगा। 

आंदोलन के बाद आज अदालत का पहला दिन था। अन्ना के अनशन के दौरान अदालतों में जरुरी काम ही हो पा रहे थे। लोगों को जिन में न्यायार्थियों से ले कर वकील, वकीलों के लिपिक, टंकणकर्ता, न्यायाधीश और न्यायालयों के कर्मचारी सभी सम्मिलित हैं, इस आंदोलन ने कमोबेश प्रभावित किया था। आज जब मैं अदालत पहुँचा तो कार को पार्क करने के लिए मुश्किल से स्थान मिला। वहीं मैं समझ चुका था कि आज अदालत में लोगों की संख्या बहुत होगी। होनी भी चाहिए थी। पिछले 12 दिनों से काम की गति मन्थर जो हो चली थी। इस सप्ताह में फिर ईद और गणेश चतुर्थी के अवकाश हैं। कुल तीन दिन काम के हैं। इस कारण से जिन लोगों के काम अटके हैं वे सभी आज अदालत अवश्य पहुँचे होंगे। मैं ने अपना काम निपटाना आरंभ किया तो 1.30 बजे भोजनावकाश तक केवल दो-तीन काम शेष रह गए थे। 

दालत में चर्चा का विषय था कि क्या भ्रष्टाचार कम या समाप्त हो सकता है? मेरा जवाब था कि कम तो हो ही सकता है, समाप्त भी हो सकता है। पिछले पाँच-छह वर्ष से वकालत कर रहे एक वकील का कहना था कि यह संभव ही नहीं है। यदि धन का लेन-देन बन्द हो जाएगा तो बहुत से काम रुक ही जाएंगे। मैं ने उस से पूछा कि तुम कौन से काम के लिए कह रहे हो? उस का उत्तर था, 'पेशी पर गैरहाजिर होने वाले मुलजिम की जमानत जब्त होने और उस का गिरफ्तारी वारंट निकल जाने पर वह जिस दिन जमानत कराने के लिए अदालत आता है तो हमें उस के मुकदमे की तुरंत पत्रावली देखने की आवश्यकता होती है। जिसे देखने का कोई नियम नहीं है। पत्रावली देखने के लिए निरीक्षण का आवेदन करना होता है और अगले दिन निरीक्षण कराया जाता है। जब कि कुछ रुपए देने पर बाबू तुरंत पत्रावली दिखा देता है। यह काम बाबू को पैसे दिए बिना क्यों करेगा? मैं ने कहा आवेदन प्रस्तुत करने पर पत्रावली निरीक्षण का नियम है। समस्या केवल इतनी है कि यह तुरंत नहीं हो सकता। यह प्रबंध करने का दायित्व न्यायाधीश का है। हम अदालत के न्यायाधीश से निवेदन कर सकते हैं। यदि वहाँ संभव न हो तो जिला न्यायाधीश से अधिवक्ता परिषद का प्रतिनिधि मंडल मिल कर अपनी यह परेशानी बता सकता है। यह निर्धारित किया जा सकता है कि किन कामों के लिए तुरंत पत्रावली देखा जाना आवश्यक है और उन कामों को सूचीबद्ध किया जा सकता है। सूचीबद्ध कामों के लिए पत्रावली निरीक्षण हेतु तुरंत उपलब्ध कराए जाने का सामान्य निर्देश जिला न्यायाधीश सभी न्यायालयों को भेज सकते हैं। वैसी स्थिति में फिर किसी पत्रावली को देखने के लिए बाबू को घूस देने की आवश्यकता नहीं होगी। 

स उदाहरण से समझा जा सकता है कि यदि हमें व्यवस्था को भ्रष्टाचार से मुक्त बनाना है तो हमें हर क्षेत्र में बहुत से ऐसे नियम बनाने होंगे और स्थाई आदेश जारी करने होंगे जिस से आवश्यक और उचित कामों के लिए घूस नहीं देनी पड़े। लेकिन इस काम के लिए हर क्षेत्र के लोगों को समस्याएँ प्रशासकों के सामने रखनी होंगी जिस से उन के लिए नियम बनाए जा सकें या स्थाई आदेश जारी किए जा सकें।

रविवार, 28 अगस्त 2011

ये कैसा देश है भला ये कैसा आशियाँ?

न्ना का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को देश भर में जिस तरह का समर्थन प्राप्त हुआ वह अद्भुत था। लेकिन इस के पीछे उन हजारों कार्यकर्ताओं का श्रम भी था, जो गाँव गाँव, नगर नगर और गली गली में सक्रिय थे। ये वे कार्यकर्ता थे जो किसी न किसी रूप में अन्याय का लगातार विरोध करते रहे थे और जिन का एक न्याय संगत व्यवस्था की स्थापना में विश्वास था। महेन्द्र 'नेह' ऐसे ही एक कार्यकर्ता थे। जिन्हों ने न केवल इस आंदोलन में एक सक्रिय कार्यकर्ता की भूमिका अदा की अपितु आंदोलन की कोटा इकाई को नेतृत्व प्रदान करने में प्रमुख रहे। उन के इस सक्रिय योगदान के साथ साथ उन के गीतों ने भी इस आंदोलन के लिए चेतना की मशाल जगाने का काम किया। कल मैं ने उन का एक गीत यहाँ प्रस्तुत किया था जो इन दिनों आंदोलन के बीच बहुत लोकप्रिय हुआ। आज मैं एक और गीत यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ। यह गीत चालीस-बयालीस वर्ष पहले रचा गया था। शायद तब जब लोकपाल बिल का विचार सब से पहले पैदा हुआ था। समय समय पर इसे लोकप्रियता मिली और आज इस आंदोलन के बीच फिर से लोकप्रिय हो उठा।


ये कैसा देश है भला ये कैसा आशियाँ? 
  • महेन्द्र 'नेह'
 
ये कैसा देश है भला ये कैसा आशियाँ 
भूखों को यहाँ गोलियाँ प्यासों को बर्छियाँ!

है पैसा बड़ा, आदमी छोटा बहुत यहाँ
इन्सान से दस्तूर है खोटा बहुत यहाँ 
मलबा समझती आदमी को ऊँची हस्तियाँ!

मेहनत यहाँ दौलत के शिकंजों में कसी है
जनता यहाँ महंगाई के जबड़ों में फँसी है
बालू के ढेर पर तड़पती जैसे मछलियाँ!

घर-घर से उभरती है  मुफलिसी की कहानी
सड़कों में भटकती है परेशान जवानी
कैंसर से सिसकती हैं यहाँ बीमार बस्तियाँ!

कर्जे के मकाँ में उम्मीदें क़ैद हैं यहाँ 
डण्डा लिए दरोगाजी मुस्तैद हैं यहाँ 
हैं आदमी पे हावी यहाँ खाकी वर्दियाँ!

जनतंत्र नाम का यहाँ गुण्डों का राज है
इन्सानी खूँ के प्यासे दरिन्दों का राज है 
ज़िन्दा चबा रहे हैं आदमी की बोटियाँ!

बदलेंगी उदास ये तारीक फ़िजाएँ
होंगी गरम ये धमनियाँ ये सर्द हवाएँ
लाएंगी रंग एक दिन ये सूखी अँतड़ियाँ!

उट्ठेंगे इस ज़मीन से जाँबाज जलजले
मिट जाएंगे जहान से नफरत के सिलसिले
जीतेगा आदमी जलेंगी मोटी कुर्सियाँ!
 


शनिवार, 27 अगस्त 2011

सच के ठाठ निराले होंगे

धर अन्ना हजारे बारह दिनों से अनशन पर हैं। दिन में अनेक बार चिकित्सक उन की देह परीक्षा करते हैं। छठे सातवें दिन से ही सरकार इस प्रतीक्षा में थी कि चिकित्सक रिपोर्ट करें तो कुछ अन्ना के साथ लगे लोगों का मनोबल टूटे और सरकार अन्ना जी को अस्पताल पहुँचा दे। लेकिन जब जब भी चिकित्सकों ने उन की परीक्षा की तब तब सरकार को निराश होना पड़ा। वजन जरूर कम हो रहा था। लेकिन शरीर सामान्य था। रक्तचाप सामान्य, गुर्दे सामान्य, उन्हें काम करने में कोई परेशानी नहीं आ रही थी। ऊपर से वे बीच बीच में मंच पर आ कर जिस जोश से नारे लगाते थे। अन्ना इस्पात पुरुष साबित हुए। आज भी उन्हें यह कहते सुना गया कि अभी तीन-चार दिन उन्हें कुछ नहीं होगा। लालू यादव उन के 12 दिनों के अनशन पर रिसर्च कराना चाहते हैं कि उन में ऐसा क्या है जो भोजन का एक अंश भी ग्रहण किए बिना भी 12 दिनों तक सामान्य रह सकते हैं? संसद का प्रस्ताव पारित हो जाने के बाद जब अन्ना ने घोषणा की कि यह आधी जीत है तो उस के साथ ही उन्हों ने लालू जी की शंका का समाधान भी कर दिया कि यह ब्रह्मचर्य का प्रताप है, इसे वे समझ सकते हैं जिन्हों ने हमेशा स्त्री को माँ, बहिन व बेटी समझा हो। वे तो कदापि नहीं समझ सकते जो अपनी शक्ति बारह संतानों को जन्म देने में व्यय कर देते हैं। 

धी जीत का जश्न देश भर में आरंभ हो चुका है। नगर में पटाखों की आवाजें गूंज रही हैं। 28 अगस्तजश्न का रविवार होगा। सोमवार को जब सब संस्थान खुलेंगे तो वह दिन एक नया दिन होगा। जिन लोगों ने इस आंदोलन को पूरी ईमानदारी और सच्चाई के साथ जिया है उन के लिए आने वाले दिन आत्मविश्वास के होंगे। वे कोशिश करेंगे तो इस आत्मविश्वास का उपयोग वे अपने आसपास फैली भ्रष्टाचार की गंदगी को साफ करने में कर सकते हैं। जिन लोगों ने सदाचार को अपने जीवन में आरंभ से अपनाया और जमाने की लय में न चल कर अपने आप को अलग रखते हुए छुटका कद जीते रहे, उन का कद लोगों को बढ़ा हुआ दिखाई देने लगेगा। जो लोग गंदगी में सने हुए धन बल के मोटे तले के जूते पहन कर अपना कद बड़ा कर जीते रहे। कल से अपने जूते कहीं छुपाएंगे। धीमे स्वर में यह भी कहेंगे कि यह सब कुछ दिन की बात है राजनीति उन के रास्ते के बिना चल नहीं सकती, नई बिसात पर काले घोड़े फिर से ढाई घर कूदने लगेंगे। ऐसे लोगों से सावधान रहने और उन्हें किनारे लगाने के काम में लोगों को जुटना होगा। 

हाँ कोटा में इंडिया अगेन्स्ट करप्शन की कमान एक नौजवान के हाथों में थी जो कभी गणित का स्कॉलर रहा। एक धनिक परिवार से होते हुए भी अपने मूल्यों से समझौता करना स्वीकार नहीं कर के अपना पारिवारिक कारोबार त्याग कर नौकरी करने चल पड़ा था।  परिवार को उस के मूल्य अपनाने पड़े। अप्रेल से आज तक वही नौजवान अपने साथियों के साथ राजनीति की चालों को दरकिनार करते हुए दृढ़ता से आंदोलन का संचालन करता रहा। हमारे जनकवि-गीतकार महेन्द्र 'नेह' ने भी इस आंदोलन में प्रमुख भूमिका अदा की उन के संघर्षों के लंबे अनुभवों का लाभ आंदोलन ने उठाया। एक चिकित्सक 16 अगस्त से ही अनशन पर थे। दो दिन पहले पुलिस मजिस्ट्रेट का आदेश ले कर उन्हें उठाने आई लेकिन उन्हें उन के निश्चय से नहीं डिगा सकी। लेकिन चिकित्सक समुदाय ने उन्हे अगले दिन समुदाय के हितों को ध्यान में रखते हुए अत्यावश्यक चिकित्सा लेने को बाध्य किया। लेकिन आज फिर वे क्रमिक अनशन पर पाण्डाल में उपस्थित थे। महेन्द्र भी आज अनशन पर थे। इस बीच उन के कुछ पुराने गीतों को कार्यकर्ता ले उड़े और उन की हजारों प्रतियाँ बना कर लोगों के बीच वितरित कीं। मैं आज महेन्द्र से मिलने अनशन स्थल पर पहुँचा तो मुझे भी वे गीत छपे पर्चे मिले। उन्हीं में से एक गीत से आप को रूबरू करवा रहा हूँ। यह गीत कोई बारह वर्ष पूर्व लिखा गया था। आज इसे पढ़ कर लगता है कि कवि केवल भूतकाल और वर्तमान की ही पुनर्रचना नहीं करता, वह भविष्यवाणियाँ भी करता है। 
सच के ठाठ निराले होंगे
  • महेन्द्र 'नेह'
सच के ठाठ निराले होंगे
झूठों के मुहँ काले होंगे!

जाने कब धनिया के घर में
सुचमुच ही उजियाले होंगे!

बूढ़ी अम्मा - दादाजी के 
खत्म आँख के जाले होंगे!

आग लगेगी काले धन में
तार-तार घोटाले होंगे!

आने वाले दिन बस्ती में
आफ़त के परकाले होंगे!

सत्ता की संगीनें होंगी
करतब देखे भाले होंगे!

दुबके होंगे कायर घर में
सड़कों पर दिलवाले होंगे!



मंगलवार, 23 अगस्त 2011

सच बोले मनमोहन

खिर बुलावा आया, मंत्री जी से भेंट हुई। आखिर आठवें दिन मंत्री जी ने उन को समझने की कोशिश की। वे कितना समझे, कितना न समझे? मंत्री जी ने किसी को न बताया। थोड़ी देर बाद प्रधान मंत्री जी की अनशन तोड़ने की अपील आई। सब से प्रमुख मंत्री की बातचीत के लिए नियुक्ति हुई। आंदोलनकारियों के तीन प्रतिनिधि बातचीत के लिए निकल पड़े। इधर अन्ना का स्वास्थ्य खराब होने लगा डाक्टरों ने अस्पताल जाने की सलाह दी। अन्ना ने उसे ठुकरा दिया। स्वास्थ्य को स्थिर रखने की बात हुई तो अन्ना बोले मैं जनता के बीच रहूंगा। अब यहीँ उन की चिकित्सा की कोशिश हो रही है। उन्होंने ड्रिप लेने से मना कर दिया है। सरकार कहती है कि वह जनलोकपाल बिल को स्थायी समिति को भेज सकती है यदि लोकसभा अध्यक्ष अनुमति प्रदान कर दें। स्थाई समिति को शीघ्र कार्यवाही के लिए भी निर्देश दे सकती है। लेकिन संसदीय परम्पराओं की पालना आवश्यक है।

रकार संसदीय परंपराओं की बहुत परवाह करती है। उसे करना भी चाहिए क्यों कि संसद से ही तो उस पहचान है। संसदीय परंपराओं की उस से अधिक किसे जानकारी हो सकती है? पर लगता है इस जानकारी का पुनर्विलोकन सरकार ने अभी हाल में ही किया है। चार माह पहले तक सरकार को इन परंपराओं को स्मरण नहीं हो रहा था। तब सरकार ने स्वीकार किया था कि वह 15 अगस्त तक लोकपाल बिल को पारित करा लेगी। स्पष्ट है कि सरकार की नीयत आरंभ से ही साफ नहीं थी। उस की निगाह में भ्रष्टाचार कोई अहम् मुद्दा कभी नहीं रहा। उस की निगाह में तो जनता को किसी भी प्रकार का न्याय प्रदान करना अहम् मुद्दा कभी नहीं रहा। सरकार के एजेंडे में सब से प्रमुख मुद्दा आर्थिक सुधार और केवल आर्थिक सुधार ही एक मात्र मुद्दा हैं। जीडीपी सरकार के लिए सब से बड़ा लक्ष्य है। आंदोलन के आठ दिनों में भ्रष्टाचार से त्रस्त देश की जनता जिस तरह से सड़कों पर निकल कर आ रही है उस से सरकार की नींद उड़ जानी चाहिए थी। पर दुर्भाग्य की बात यह है कि उन्हें अभी भी नींद आ रही है और वह सपने भी देख रही है तो आर्थिक सुधारों और जीडीपी के ही। सोमवार को प्रधान मंत्री ने जब आंदोलन के बारे में कुछ बोला तो उस में भी यही कहा कि “दो दशक पहले शुरू किए गए आर्थिक सुधारों ने भारत के बदलाव में अहम भूमिका निभाई है। इसकी वजह से भारत सबसे तेजी से बढ़ रही अर्थव्यवस्थाओं में से एक हो गया है। उन्होंने कहा कि अगर हम रफ्तार की यही गति बनाए रखते हैं तो हम देश को 2025 तक दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा जीडीपी वाला देश बना सकते हैं”। यह जीडीपी देश का आंकड़ा दिखाती है देश की जनता का नहीं। देश की जनता उन से यही पूछ रही है कि यह जीड़ीपी किस के घर गिरवी है? जनता तो गरीबी, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार से त्रस्त है।

निश्चय ही प्रधानमंत्री को एक राजनैतिक व्यक्तित्व होना चाहिए। लेकिन हमारे प्रधानमंत्री राजनैतिक व्यक्तित्व बाद में हैं पहले वे मनमोहक अर्थशास्त्री हैं। उन का मुहँ जब खुलता है तो केवल अर्थशास्त्रीय आँकड़े उगलता है। वे शायद मिडास हो जाना चाहते हैं। जिस चीज पर हाथ रखें वह सोना हो जाए। वे देश की जनता को उसी तरह विस्मृत कर चुके हैं जिस तरह राजा मिडास भोजन और बेटी को विस्मृत कर चुका था। जब वह भोजन करने बैठा तो भोजन स्पर्श से सोना हो गया। जिसे वह खा नहीं सकता था। दुःख से उसने बेटी को छुआ तो वह भी सोने की मूरत में तब्दील हो गई। प्रधानमंत्री का मुख भी अब कुछ सचाई उगलता दिखाई देता है जब वे देख रहे हैं कि लोग तिरंगा लिए सड़कों पर आ चुके हैं। सोमवार के बयान में उन्हों ने कहा कि “इसके लिए न्यायिक व्यवस्था में सुधार करना होगा। तेजी से मामलों के निपटान और समय से न्याय मिलने की प्रक्रिया से भ्रष्टाचार दूर करने में खासी मदद मिलेगी। इससे संदेश जाएगा कि जो लोग कानून तोड़ेंगे, वे खुले नहीं घूम सकते”।

तो अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री को यह सच पता लग चुका है? हो सकता है यह सच उन्हें पहले से पता हो। लेकिन वे विस्मृत कर रहे हों। यह हो सकता है कि उन्हें यह सच अब जा कर पता लगा हो। मेरा अपना ब्लाग तीसरा खंबा की पहली पोस्ट में ही यह बात उठाई गई थी कि देश में न्यायालयों की संख्या कम है और इस का असर देश की पूरी व्यवस्था पर पड़ रहा है। यह बात देश के मुख्य न्यायाधीश ने बार बार सरकार से कही। पर सरकार ने हमेशा की तरह इस बात को एक कान से सुना और दूसरे से निकाल दिया। शायद वे सोचते थे क्या आवश्यकता है न्याय करने की? क्या आवश्यकता है नियमों को तोड़ने और मनमानी करने वाले लोगों को दंडित करने की? जब जीडीपी बढ़ जाएगी तो सब कुछ अपने आप ठीक हो जाएगा। इस जीडीपी के घोड़े पर बैठ कर उन्हें सच नजर ही नहीं आता था। अब जनता जब सड़कों पर निकल आई है औऱ प्रधानमंत्री का जीडीपी का घोड़ा ठिठक कर खड़ा हो गया है तो उन्हें न्याय व्यवस्था का स्मरण हो आया है। काश यह स्मरण सभी राजनीतिकों को हो जाए। न्याय व्यवस्था ऐसी हो कि न्याय जल्दी हो और सच्चा हो। सभी को उस पर विश्वास हो।

सोमवार, 22 अगस्त 2011

भ्रष्टाचार से मुक्ति के लिए लंबा और सतत संघर्ष जरूरी

ब ये सवाल उठाया जा रहा है कि क्या जन-लोकपाल विधेयक के ज्यों का त्यों पारित हो कर कानून बन जाने से भ्रष्टाचार समाप्त हो जाएगा? यह सवाल सामान्य लोग भी उठा रहे हैं और राजनैतिक लोग भी। जो लोग वोट की राजनीति को नजदीक से देखते हैं, उस से प्रभावित हैं  और हमारी सरकारों तथा उन के काम करने के तरीकों से भी नजदीकी से परिचित हैं उन के द्वारा यह प्रश्न उठाया जाना स्वाभाविक है। लेकिन आज यही प्रश्न कोटा में राजस्थान के गृहमंत्री शान्ति धारीवाल ने कुछ पत्रकारों द्वारा किए गए सवालों के जवाब में उठाया। मुझे इस बात का अत्यन्त क्षोभ है कि एक जिम्मेदार मंत्री इस तरह की बात कर सकता है। जनता ने जिसे चुन कर विधान सभा में जिस कर्तव्य के लिए भेजा है और जिस ने सरकार में महत्वपूर्ण मंत्री पद की शपथ ले कर कर्तव्यों का निर्वहन करने की शपथ ली है वही यह कहने लगे कि इस कर्तव्य का निर्वहन असंभव है तो उस से किस तरह की आशा की जा सकती है। यह इस देश का दुर्भाग्य है कि आज देश की बागडोर ऐसे ही लोगों के हाथों में है। मौजूदा जनतांत्रिक राजनैतिक व्यवस्था में यह जनता की विवशता है कि उस के पास अन्य किसी को चुन कर भेजे जाने का विकल्प तक नहीं है। ऐसी अवस्था में जब रामलीला मैदान पर यह प्रश्न पूछे जाने पर कि आप पार्टी क्यों नहीं बनाते, खुद सरकार में क्यों नहीं आते अरविंद केजरीवाल पूरी दृढ़ता के साथ कहते हैं कि वे चुनाव नहीं लड़ेंगे तो उन की बात तार्किक लगती है। 

स्थिति यह है कि विधान सभाओं और संसद के लिए नुमाइंदे चुने जाने की जो मौजूदा व्यवस्था है वह जनता के सही नुमाइंदे भेजने में पूरी तरह अक्षम सिद्ध हो चुकी है। उसे बदलने की आवश्यकता है। जब तक वह व्यवस्था बदली नहीं जाती तब तक चुनावों के माध्यम से जनता के सच्चे नुमाइंदे विधायिका और कार्यपालिका में भेजा जाना संभव ही नहीं है। वहाँ वे ही लोग पहुँच सकते हैं जिन्हें इस देश के बीस प्रतिशत संपन्न लोगों का वरदहस्त और मदद प्राप्त है। वे इस चुनावी व्यवस्था के माध्यम से चुने जा कर जनप्रतिनिधि कहलाते हैं। लेकिन वे वास्तव में उन्हीं 10-20 प्रतिशत लोगों के प्रतिनिधि हैं जो इस देश को दोनों हाथों से लूट रहे हैं। देश में फैला भ्रष्टाचार उन की जीवनी शक्ति है। इसी के माध्यम से वे इन कथित जनप्रतिनिधियों को अपने इशारों पर नचाते हैं और जन प्रतिनिधि नाचते हैं। 

भ्रष्टाचार के विरुद्ध जो आंदोलन इस देश में अब खड़ा हो रहा है वह अभी नगरीय जनता में सिमटा है बावजूद इस के कि कल हुए प्रदर्शनों में लाखों लोगों ने हिस्सा लिया। ये लोग जो घरों, दफ्तरों व काम की जगहों से निकल कर सड़क पर तिरंगा लिए आ गए हैं और वंदे मातरम्, भारत माता की जय तथा इंकलाब जिन्दाबाद के नारों से वातावरण को गुंजा रहे हैं। भारतीय जनता के बहुत थोड़ा हिस्सा हैं। लेकिन यह ज्वाला जो जली है उस की आँच निश्चय ही देश के कोने कोने तक पहुँच रही है। पूरे देश में विस्तार पा रही इस अग्नि को रोक पाने की शक्ति किसी में नहीं है। यह आग ही वह विश्वास पैदा कर रही है जो दिलासा देती है कि भ्रष्टाचार से मुक्ति पाई जा सकती है। लेकिन जन-लोकपाल विधेयक के कानून बन जाने मात्र से यह सब हो सकना मुमकिन नहीं है। यह बात तो इस आंदोलन का नेतृत्व करने रहे स्वयं अन्ना हजारे भी स्वीकार करते हैं कि जन-लोकपाल कानून 65 प्रतिशत तक भ्रष्टाचार को कम कर सकता है, अर्थात एक तिहाई से अधिक भ्रष्टाचार तो बना ही रहेगी उसे कैसे समाप्त किया जा सकेगा? 

लेकिन मेरा पूरा विश्वास है कि  जो जनता इस आंदोलन का हिस्सा बन रही है जो इस में तपने जा रही है उस में शामिल लोग अभी से यह तय करना शुरू कर दें कि वे भ्रष्टाचार का हिस्सा नहीं बनेंगे तो भ्रष्टाचार को इस देश से लगभग समाप्त किया जा सकता है। भ्रष्टाचारी सदैव जिस चीज से डरता है वह है उस का सार्वजनिक रूप से भ्रष्ट होने का उद्घोष। जहाँ भी हमें भ्रष्टाचार दिखे वहीं हम उस का मुकाबला करें, उसे तुरंत सार्वजनिक करें। एक बार भ्रष्ट होने का मूल्य समाज में सब से बड़ी बुराई के रूप में स्थापित होने लगेगा तो भ्रष्टाचार दुम दबा कर भागने लगेगा। अभी उस के लिए अच्छा वातावरण है, लोगों में उत्साह है। यदि इसी वातावरण में यह काम आरंभ हो जाए तो अच्छे परिणाम आ सकते हैं। जो लोग चाहते हैं कि वास्तव में भ्रष्टाचार समाप्त हो तो उन्हें एक लंबे और सतत संघर्ष के लिए तैयार हो जाना चाहिए।

गुरुवार, 18 अगस्त 2011

आने वाले दिन बताएंगे, बिगड़ैल बच्चा 'अ' अनार वाला लिखता है या नहीं?

खिर सूर्योदय से आरंभ होने वाला दिन ने अपने रंग दिखाने आरंभ किया। जिन की मति मारी गई थी उन के इशारों पर आंदोलन के नेताओं को हिरासत में लेना आरंभ कर दिया। सत्ता की यह वही प्रवृत्ति है जिस के चलते 1975 में आपातकाल लगा था। तब पूरे देश को एक जेल में तब्दील कर दिया गया था। तब भी जनता में विश्वास करने वालों को पूरा विश्वास था कि भारत में जनतंत्र की जड़ें इतनी मजबूत हैं कि तानाशाही अधिक दिन नहीं चल सकती। इस बार तो अन्ना को हिरासत में लिए जाने के बाद ही जनता ने अपना रंग दिखाना आरंभ कर दिया। यह रंग ऐसा चढा़ कि शाम होते होते उन्हें नेताओं को छोड़ने का निर्णय करना पड़ा। 


न्ना ने कोई अपराध तो किया नहीं था। जब वे अपने फ्लेट से निकले तो इमारत से बाहर निकलने के पहले ही उन्हें उठा लिया गया था। पुलिस के पास इस के अलावा कोई चारा नहीं था कि यह कहा जाए कि उन्हें शान्ति भंग की आशंका से गिरफ्तार किया जा रहा है। फिर से अंग्रेजी राज से चले आ रहे एक जन विरोधी कानून का सहारा पुलिस और सरकार ने लिया। जिस का सीधा सीधा अर्थ था कि यदि उन्हें गिरफ्तार नहीं किया जाता तो वे कोई ऐसा संज्ञेय अपराध करते जिसे उन की गिरफ्तारी के बिना नहीं रोका जा सकता था। उन्हें फिर मजिस्ट्रेट के सामने लाया गया। ऐसा मजिस्ट्रेट जो सीधे सरकार का नौकर था, उस ने मान लिया कि यदि अन्ना को छोड़ दिया गया तो वे वे शांति भंग करेंगे या लोक प्रशान्ति को विक्षुब्ध करेंगे और अन्ना से शांति भंग न करने के लिए व्यक्तिगत बंध पत्र भरने पर रिहा किए जाने का हुक्म दिया। इस हुक्म को स्वीकार करने का कोई कारण नहीं था। लोक प्रशान्ति को तो सरकार खुद कब से पलीता लगा चुकी थी। कार्यपालक मजिस्ट्रेट यदि अपने विवेक और न्यायदृष्टि से काम लेता तो उसे पुलिस को आदेश देना चाहिए था कि अन्ना को गलत हिरासत में लिया गया है उन्हें तत्काल स्वतंत्र किया जाए। लेकिन कार्यपालक मजिस्ट्रेटों में इस दृष्टि का होना एक अवगुण माना जाने लगा है। अब तो यह स्थिति यह हो चली है कि न्यायिक मजिस्ट्रेट तक इस स्तर पर अपनी न्यायदृष्टि का प्रयोग नहीं करते। 


लेकिन तब तक लोग सड़कों पर उमड़ने लगे थे। जिस डर से सरकार ने अन्ना और उन के साथियों को गिरफ्तार किया था। वही डर अब कई गुना हो कर सामने आ गया था। शाम तक सरकार को अहसास हो चला था कि वह गलतियों की अपनी श्रंखला में कुछ गलतियाँ और पिरो चुकी है। निवारक कार्रवाई (Preventive action) के जिस खोखले कानूनी तर्क को आधार बना कर ये गिरफ्तारियाँ दिल्ली पुलिस ने की थीं वह खोखला सिद्ध हुआ था। वह आग को रोकने के लिए जिस द्रव का उपयोग  उस ने पानी समझ कर किया था वह पेट्रोल निकला था। शाम को उन्हों ने अन्ना को बिना शर्त छोड़ने की घोषणा की। लेकिन तब तक बंदर की पूँछ अन्ना के हाथ आ चुकी थी और वे उसे छोड़ने को तैयार नहीं थे। अन्ना तो अनशन के लिए निकल चुके थे। सरकार ने इस के लिए उन्हें जेल में स्थान दिया। उन्हें स्थान मिले तो वे बाहर निकलें। उन्हें बाहर निकाला जाए तो कैसे बाहर मार्ग कहाँ था। वहाँ तो पहले ही कितने ही अन्ना ही जुट चुके थे। 


रात निकली, एक नया सूर्योदय हुआ, एक नया दिन आरंभ हो गया। जैसे जैसे सूरज चढ़ता गया लोग घरों से निकल कर सड़कों पर आते रहे। ऐसा लगने लगा जैसे सारी दिल्ली सड़कों पर उतर आई है। यह आलम केवल दिल्ली का नहीं था। सारा देश जाग उठा था। सरकार और संसद के व्यवसनी संसद के अधिकारों और गरिमा की दुहाई देते फिर रहे हैं। लेकिन अधिकार तो हमेशा कर्तव्यों के साथ जुड़े हैं। संसद के पास लोकपाल के लिए संसद अपना कर्तव्य निभाने से रोकने के लिए कोई सफाई नहीं है। सवाल खड़ा किया जा रहा है कि सिविल सोसायटी का नाम लेकर कुछ हजार लोगों को साथ लिए कोई आएगा और ससंद को कहेगा कि हम जैसा कहते हैं वैसा कानून बनाओ तो क्या संसद बना देगी? संसद को इस काम के लिए चार दशक जनता ने दिए। संसद स्लेट पर अक्षर तक नहीं बना सकी, वह सिर्फ आड़ी तिरछी लकीरें खींच कर मिटाती रही। अब बिगड़ैल बच्चे का हाथ पकड़ कर उस की माँ उसे सिखा रही है कि अनार वाला 'अ' ऐसे लिखा जाता है तो बिगड़ैल बच्चा कह रहा है। मैं 'अ' नहीं बनाता, मुझे तो लकीरें ही खींचनी हैं। आने वाले दिन बताएंगे कि बिगड़ैल बच्चा 'अ' अनार वाला लिखता है या नहीं? 


सोमवार, 15 अगस्त 2011

सूर्योदय से आरंभ होने वाला दिन बताएगा कि आगे क्या होने वाला है?

मैं सैडल डेम की पिकनिक के बारे में आप को बता रहा था। लेकिन वे बातें फिर कभी। आज मैं उन्हें रोक कर  कुछ अलग बात करना चाहता हूँ। आज भारत की अंग्रेजी राज से मुक्ति का दिवस था। हम इसे स्वतंत्रता दिवस कहते हैं। लेकिन स्वतंत्रता दिवस और आजादी शब्द बहुत अमूर्त हैं। इस जगत में कोई भी कभी भी परम स्वतंत्र या आजाद नहीं हो सकता। जगत का निर्माण करने वाले सूक्ष्म से सूक्ष्म कण से लेकर बड़े से बड़ा पिंड तक स्वतंत्र नहीं हो सकता। विज्ञान के विद्यार्थी जानते हैं कि भौतिक जगत में भी अनेक प्रकार के बल प्राकृतिक रूप से अस्तित्व में हैं कि परम स्वतंत्रता एक खामखयाली ही कही जा सकती है। इसलिए जब भी हम स्वतंत्रता और आजादी की बात करते हैं तो वह किसी न किसी विषय से संबंधित होती है। यहाँ हमारा आजादी का दिन या स्वतंत्रता दिवस जिसे भारत भर ने आज 15 अगस्त को मनाया उसे हमें सिर्फ ब्रिटिश राज्य की अधीनता से स्वतंत्र होने के सन्दर्भ में ही देखा जा सकता है। अन्य संदर्भों में उस का कोई अर्थ नहीं है। 

लेकिन जब भारत अंग्रेजी राज से मुक्ति के लिए संघर्ष कर रहा था तब संघर्षरत लोग केवल अंग्रेजी राज से ही मुक्ति की कामना से आपस में नहीं जुड़े थे। उन में सामन्ती शोषण से मुक्ति, पूंजीवाद के निर्मम शोषण से मुक्ति, जातिवाद के जंजाल से मुक्ति के साथ साथ अशिक्षा, गरीबी, बदहाली से मुक्ति की कामना करने वाले लोग भी शामिल थे। उस में वे लोग भी शामिल थे जो अपना सामन्ती ठाठ बचाए रखना चाहते थे और वे लोग भी शामिल थे जो पूंजी के बल पर देश में सर्वोच्च प्रभुत्व कायम करना चाहते थे। इन विभिन्न इरादों के बावजूद सब का तात्कालिक लक्ष्य अंग्रेजी राज से मुक्ति प्राप्त करना था। उन में अन्तर्विरोध होते हुए भी वे साथ चले। अलग अलग चले तब भी एक दूसरे को सहयोग करते हुए चले। अंततः देश ने अंग्रेजी राज से मुक्ति प्राप्त कर ली। अंग्रेजी राज से मिली इस आजादी के तुरंत बाद ही अलग अलग उद्देश्यों वाले लोग अलग होने लगे। इस आजादी का बड़ा हिस्सा फिर से देश की सामंती ताकतों और पूंजीपतियों ने हथिया लिया। शेष जनता को आजादी के बाद से अब तक मात्र उतना ही मिला जो उस ने आजाद देश की सरकार से लड़कर लिया।

किसानों को जमींदारी शोषण से मुक्ति के लिए लड़ना पड़ा। जमीन जोतने वाले की हो यह आज भी सपना ही है। मजदूरों ने जितने अधिकार हासिल किए सब लड़ कर हासिल किए। मजदूरों के हक में कानून बने लेकिन उन्हें लागू कराने के लिए आज तक मजदूरों को लड़ना पड़ रहा है। कोई पूंजीपति, यहाँ तक कि जनता की चुनी हुई संस्थाएँ और सरकारें तक उन कानूनों का पालन नहीं करती हैं। भारत की केन्द्र सरकार और प्रत्येक राज्य सरकार कानून के अंतर्गत न्यूनतम मजदूरी तय करती है लेकिन वह मजदूरों को केवल वहीं मिलती है जहाँ उस से कम मजदूरी पर मजदूर नहीं मिलता। शेष स्थानों पर मजदूर को न्यूनतम मजदूरी मांगने और सरकारी महकमे में शिकायत करने पर काम से हटा दिया जाता है। सरकारी महकमा उस मजदूर के हकों की रक्षा करने की न तो इच्छा रखता है और न ही उसे इतने अधिकार दिए गए हैं कि वह मजदूर को तुरंत या कुछ दिनों या महिनों में सुरक्षा प्रदान कर सके। कुल मिला कर कानून बने पड़े हैं। लेकिन उन्हीं कानूनों का पालना सरकार करवाती है जिन की पालना करने के लिए मजबूत लोग सामने आते हैं। आज भी इस देश में मजबूत लोग केवल भू-स्वामी, पूंजीपति, गुंडे, बाहुबली, संगठित अपराधी और उन की सेवा में नख से शिखा तक लिप्त राजनेता और अफसर ही हैं। सारे कानून उन्हीं के लिए बनते हैं। जो कानून मजदूरों और किसानों के नाम से बनते हैं उन की धार भी इन मजबूत लोगों के ही हक में ही चलती है। 
 
दाहरण के बतौर हम ठेकेदार मजदूरी उन्मूलन अधिनियम 1970 को देखें तो नाम से लगेगा कि यह ठेकेदार मजदूरी का उन्मूलन करने के लिए बनाया गया कानून है। लेकिन व्यवहार में देखें तो पता लगेगा कि यह कानून ठेकेदार मजदूरी की प्रथा को बचाने और उसे मजबूत बनाने का काम कर रहा है। अब तो इस की आड़ ले कर नियमित सरकारी कर्मचारियों से लिए जाने वाले काम इसी प्रथा के अंतर्गत न्यूनतम मजदूरी की दर पर ठेकेदार को दे कर करवाए जा रहे हैं। सरकारी काम पर लगे इन ठेकेदार मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी कभी नहीं मिलती। जितने मजदूर लगाने के लिए ठेका दिया जाता है उतने मजदूर काम पर लगाए भी नहीं जाते। यह सब चल रहा है। इसे चलाने वाली शक्ति का नाम भ्रष्टाचार है। इस भ्रष्टाचार में लिप्त वही मजबूत लोग हैं जिन का उल्लेख मैं ऊपर कर आया हूँ।

भ्रष्टाचार को मिटाने के लिए कानून बनाने की बात चल रही है। जनता की ओर से सिविल सोसायटी सामने आ कर खड़ी हुई तो जनता ने उस का समर्थन किया। बवाल बढ़ा तो सरकार समझ गई कि अब कानून बनाना पड़ेगा। सरकार ने हाँ कर दी। सिविल सोसायटी ने अपना विधेयक बताया तो सरकार अड़ गई कि ये नहीं हो सकता विधेयक बनाने का काम सरकार का है उसे कानून में तब्दील करने का काम संसद का है। आप सिर्फ सलाह दे सकते हैं। सिविल सोसायटी ने सरकारी विधेयक को देखा और कहा कि यह भ्रष्टाचार मिटाने का नहीं उसे और मजबूत करने और भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने वाले का मुहँ बन्द करने का काम करेगा। सिविल सोसायटी आंदोलन पर अड़ गई और सरकार उसे रोकने पर अड़ गई। आज का आजादी का दिवस इसी माहौल में मनाया गया। पहले राष्ट्रपति ने भ्रष्टाचार को कैंसर घोषित कर दिया, उन का आशय था कि वह ठीक न होने वाली बीमारी है। फिर सुबह प्रधानमंत्री बोले कि सरकार इस कैंसर से लड़ने को कटिबद्ध है। सिविल सोसायटी के नेता अन्ना हजारे अनशन पर अड़े हैं। सरकार उन की ताकत को तौलना चाह रही है। तरह तरह के भय दिखा रही है। ठीक वैसे ही जैसे रामकथा का रावण अशोक वाटिका में कैद कर के सीता को दिखाया करता था। लेकिन सीता तिनके की सहायता लेकर उस भय का मुकाबला करती रही जब तक कि राम ने रावण को परास्त नहीं कर दिया। 

रकार के दिखाए सभी भय आज शाम उस वक्त ढह गए जब अन्ना अपने दो साथियों के सामने अचानक राजघाट पर बापू की समाधि के सामने जा कर बैठ गए। तब सामन्य रुप से राजघाट पहुँचने वाले लगभग सौ लोग वहाँ थे। जब खबर मीडिया के माध्यम से फैली तो लोग वहाँ पहुँचने लगे। ढाई घंटे बाद जब अन्ना वहाँ से उठे तो दस हजार से अधिक लोग वहाँ जमा थे। तिनका इतना मजबूत और भय नाशक हो सकता है इस का अनुमान शायद सरकार को नहीं रहा होगा। अन्ना घोषणा कर चुके है कि सुबह अनशन होगा। वैसे भी अनशन को स्थान की कहाँ दरकार है? वह तो मन से होता है, और कहीं भी हो सकता है। अन्ना जानते हैं कि भ्रष्टाचार तभी समाप्त हो सकता है जब वह सारी व्यवस्था बदले,  जिस के लिए भ्रष्टाचार का जीवित रहना आवश्यक है। उन्हों ने आज शाम के संबोधन में उस का फिर उल्लेख किया है और पहले भी करते रहे हैं। व्यवस्था परिवर्तन क्रांति के माध्यम से होता है और क्रान्तियाँ जनता करती है,  नेता, संगठन या फिर राजनैतिक दल नहीं करते। वे सिर्फ क्रान्तियों की बातें करते हैं। जब जनता क्रान्ति पर उतारू होती है तो वह अपना नेता भी चुन लेती है, संगठन भी बना लेती है और अपना राजनैतिक दल भी। जनता क्रान्ति तब करेगी जब उसे करनी होगी। लेकिन क्या तब तक सुधि लोग चुप बैठे रहें। वे जनता की तात्कालिक मांगों के लिए लड़ते हैं। तात्कालिक मांगों के लिए जनता की ये लड़ाइयाँ ही जनता को क्रान्ति के पथ पर आगे बढ़ाती है। 
 
रकार समझती है कि उन का बनाया लोकपाल कानून तात्कालिक जरूरतों को पूरा कर सकता है। सिविल सोसायटी की समझ है कि भ्रष्टाचार इस से रुकने के स्थान पर और बढ़ेगा और भ्रष्टाचार के विरुद्ध उठती आवाजों के गले में पट्टा बांध दिया जाएगा। सरकार कानून बनाने के मार्ग पर बढ़ रही है। लेकिन सिविल सोसायटी अपनी समझ जनता के सामने रख रही है कि केवल वैसा कानून भ्रष्टाचार को रोकने में कामयाब हो सकता है जैसा उस ने प्रस्तावित किया है। सिविल सोसायटी के पास जनता के सामने अपना विचार रखने का जो तरीका हो सकता है वही वह अपना रही है, सरकार अपना तरीका अपना रही है। ये जनता को तय करना है कि वह किस के साथ जाती है। अभी तो लग रहा है कि जनता सिविल सोसायटी के साथ खड़ी हो रही है। अन्ना के अनशन को आरंभ होने में अभी देरी है। लेकिन जनता पहले ही उस जगह पहुँच गई है जहाँ अनशन होना था और दिल्ली सरकार ने गिरफ्तारियाँ आरंभ कर दी हैं। इस रात के बाद होने वाले सूर्योदय से आरंभ होने वाला दिन बताएगा कि आगे क्या होने वाला है?
 

मंगलवार, 28 जून 2011

"शाबास बेटी, तुमने ठीक किया"

निशा, शायद यही नाम है, उस का। उस का नाम रजनी या सविता भी हो सकता है। पर नाम से क्या फर्क पड़ता है? नाम खुद का दिया तो होता नहीं, वह हमेशा नाम कोई और ही रखता है जो कुछ भी रखा जा सकता है। चलो उस लड़की का नाम हम सविता रख देते हैं।

ह ग्यारह वर्ष से जीएनएम  यानी सामान्य नर्सिंग और दाई का काम कर रही है। ग्यारह साल कम नहीं होते एक ही काम करते हुए। इतना अनुभव हो जाता है कि कोई भी अधिक जटिलता के काम कर सकता है। वह भी चाहती है कि उसे भी अधिक जटिल काम मिलें, नौकरी में उस की पदोन्नति हो। पर इस के लिए जरूरी है कि वह कुछ परीक्षाएँ और उत्तीर्ण करे। उस ने प्रशिक्षण  में दाखिला ले लिया। साल भर पढ़ाई की। जब परीक्षा हुई तो परीक्षक की निगाहें उस पर गड़ गईं। उस के काम में कोई कमी नहीं लेकिन फिर भी ... परीक्षक ने कहा पास नहीं हो सकोगी। होना चाहती हो तो कुछ देना पड़ेगा। उसे अजीब सा लगा, उस ने कोई उत्तर नहीं दिया। परिणाम आया तो वह अनुत्तीर्ण हो गई। फिर एक साल पढ़ाई, फिर परीक्षा और परिणाम की प्रतीक्षा ...

इस बार वही परीक्षक ट्रेनिंग सेंटर के आचार्य की पीठ पर विराजमान था, कामचलाऊ ही सही, पर पीठ तो आचार्य की थी। उस ने सविता को देखा तो पूछा
-तुम पिछले साल उत्तीर्ण नहीं हुई? उस ने उत्तर दिया
-कहाँ सर? आप ने मदद ही नहीं की।
-मैं ने तो तुम्हें उपाय बताया था।
-नहीं सर! वह मैं नहीं कर सकती। हाँ कुछ धन दे सकती हूँ।
-सोच लो, धन से काम न चलेगा।
-सोचूंगी।
 कह कर वह चली आई। सोचती रही क्या किया जाए। आखिर उस ने सोच ही लिया। वह फिर आचार्य के पास पहुँची, कहा
-सर ठीक है जो आप कहते हैं मैं उस के लिए तैयार हूँ। पर मेरी दो साथिनें और हैं, उन की भी मदद करनी होगी। वे दो दो हजार देने को तैयार हैं। आचार्य तैयार हो गए। सविता को चौराहे पर मिलने के लिए कहा।
सविता चौराहे तक पहुँची ही थी कि स्कूटर का हॉर्न बजा। आचार्य मुस्कुराते हुए स्कूटर लिए खड़े थे। वह पीछे बैठ गई। स्कूटर नगर के बाहर की एक बस्ती की ओर मुड़ा तो सविता पूछ बैठी।
-इधर कहाँ? सर!
-वह तुम्हारी अधीक्षिका थी न? वह आज कल दूसरे शहर में तैनात है उस के घर की चाबियाँ मेरे पास हैं, वहीं जा रहे हैं। क्या तुम्हें वहाँ कोई आपत्ति तो नहीं?
-ठीक है सर! वहाँ मुझे कोई जानता भी नहीं।

कुछ देर में स्कूटर घर के सामने रुका। आचार्य ने ताला खोला अंदर प्रवेश किया। कमरा खोल कर सविता को बिठाया। सविता ने अपने ब्लाउज से पर्स निकाल कर चार हजार आचार्य को पकड़ा दिए।
-तुम बैठो! तुम बाहर का दरवाजा खुला छोड़ आई हो, मैं बंद कर आता हूँ।
आचार्य कमरे से निकल गया। सविता के पूरे शरीर में कँपकँपी सी आ गई। उसे लगा जैसे कुछ ही देर में उसे बुखार आ जाएगा। लेकिन तभी ..
आचार्य मुख्य द्वार बंद कर रहा था कि कुछ लोगों ने बाहर से दरवाजे को धक्का दिया। वह हड़बड़ा गया। उसे दो लोगों ने पकड़ लिया। अंदर कमरे में जहाँ सविता थी ले आए। इतने सारे लोगों को देख सविता की कँपकँपी बन्द हुई। आचार्य के पास से नोट बरामद कर लिए गए। उन्हें धोया तो रंग छूटने लगा। आचार्य के हाथों में भी रंग था।

विता को फिर से कँपकँपी छूटने लगी थी। वह सोच रही थी, जब उस के पति और ससुराल वालों को पता लगेगा तो क्या सोचेंगे?  उन का व्यवहार उस के प्रति बदल तो नहीं जाएगा? उस के और रिश्तेदार क्या कहेंगे? क्या उस का जीवन बदल तो नहीं जाएगा? और उस के परीक्षा परिणाम का क्या होगा? सोचते सोचते अचानक उस ने दृढ़ता धारण कर ली। अब कोई कुछ भी सोचे, कुछ भी परिणाम हो। उस ने वही किया जो उचित था और उसे करना चाहिए था। वह सारे परिणामों का मुकाबला करेगी। कम से कम कोई तो होगा जो यह कहेगा "शाबास बेटी, तुमने ठीक किया"।

चार्य जी, जेल में हैं। पुलिस ने उन की जमानत नहीं ली। अदालत  भी कम से कम कुछ दिन उन की जमानत नहीं लेगी। अच्छा तो तब हो जब उन की जमानत तब तक न ली जाए जब तक मुकदमे का निर्णय न हो जाए।
(कल सीकर में घटी घटना पर आधारित)

बुधवार, 1 जून 2011

सार्वजनिक भट्टी अभिनंन्दन

भ्रष्टाचार के विरुद्ध चली मुहिम फिर कानून के गलियारों में फँस गई है। अन्ना हजारे ने पिछले दिनों लोकपाल बिल  लाने और उसे कानून बनाने के मुद्दे पर दिल्ली के जंतर-मंतर पर अनशन किया तो लोगों को लगने लगा था कि अब एक अच्छी शुरुआत हो रही है। यह अभियान परवान चढ़ा तो निश्चित रूप से भ्रष्टाचार के निजाम को समाप्ति की ओर ले जाएगा। लोगों को उस से निजात मिलेगी। इसी से उस के लिए पर्याप्त जनसमर्थन प्राप्त हुआ। नतीजो में सरकार को झुकना पड़ा और लोकपाल बिल का मसौदा तैयार करने को संयुक्त समिति बनी और काम में जुट गई। अभियान ब्रेक पर चला गया। ब्रेक में बिल बन रहा है। बिल बनने के पहले ही खबरें आने लगीं कि सिविल सोसायटी के प्रतिनिधि पाक-साफ नहीं हैं। मतभेद की बातें होने लगीं। लेकिन बिल निर्माण के लिए बैठकें होती रहीं। कई मुद्दे उछाले गए, अब ताजा मुद्दा है कि प्रधानमंत्री को इस कानून की जद से बाहर रखा जाए। यह भी कि न्यायाधीशों को उस की जद से बाहर रखा जाए या नहीं। इस बीच भारत सरकार ने मोस्ट वांटेड अपराधियों की सूची पाकिस्तान को भेजी। पता लगा कि सूची पुरानी है। उसे भेजे जाने के पहले ठीक से जाँचा ही नहीं गया। कुछ ऐसे लोगों के नाम भी उस में चले गए हैं जो भारत में गिरफ्तार हो चुके हैं और उन में से कुछ एक तो जमानत पर छूट भी चुके हैं। अब यह लापरवाही है या इस में भी कोई भ्रष्टाचार है। इस का पता लगाना आसान नहीं है। 

मेरी जानकारी में एक स्थानीय मामला है। इस मामले में मुलजिम की जमानत हुई। उस पर कई मुकदमे थे। कुछ में वह अन्वीक्षा के दौरान लंबे समय तक  जेल में था। गवाहों के बयान होने में इतना समय लग गया कि आखिर उस के वकील ने उसे सलाह दी कि वह पहले ही इतने दिन जेल में रह चुका है कि यदि जुर्म स्वीकार कर ले तो भी अदालत को उसे छोड़ना पड़ेगा, वह पहले ही सजा से अधिक जेल में रह चुका है। उस ने जुर्म स्वीकार किया और जेल से छूट कर आ गया। पुलिस ने नए मुकदमे बनाए और उसे फिर जेल पहुँचा दिया। पता लगा कि उस पर उस दौरान चोरी करने का आरोप है जिस दौरान वह जेल में था। अदालत ने उस की जमानत ले ली, मुकदमा अभी चल रहा है। पुलिस ने उसे फिर नए मुकदमे में गिरफ्तार किया और जेल पहुँचा दिया। पुलिस का पिछला रिकार्ड देख कर अदालत ने इस बार भी जमानत ले ली। उसे छोड़े जाने का हुक्म जेल पहुँचा तो जेलर ने उसे बताया कि इस मुकदमे में तो छूट जाओगे पर पुलिस ने एक और मुकदमा उस पर बना रखा है और जेल में उस का वारंट मौजूद है इसलिए उसे पुलिस के हवाले किया जाएगा। अभियुक्त परेशान हुआ। उस ने जेलर से याचना की कि उसे पुलिस को न सौंपा जाए। वह छूट जाएगा तो जमानत का इंतजाम कर लेगा। पुलिस को दे दिया गया तो जमानत में परेशानी होगी। जेलर ने दया कर के उसे पुलिस के हवाले करने के बजाय रिहा कर दिया और दया की कीमत वसूल ली। वारंट के मामले में जेलर ने जवाब दे दिया कि वारंट जेल पहुँचने के पहले ही अभियुक्त छोड़ा जा चुका था। 
स भ्रष्टाचार की खबर बहुत लोगों को है लेकिन इस पर कोई कार्यवाही होगी इस मामले में किसी को संदेह नहीं है। अब जेलर कह सकता है कि पुलिस के वारंट पर कैसे भरोसा किया जाए? पुलिस तो पाकिस्तान तक को गिरफ्तार और जमानत पर छूटे लोगों को मोस्ट वांटेड की लिस्ट में शामिल कर लेती है। जेल और पुलिस महकमों में इस तरह की बातें होती रहती हैं। इन पर ध्यान देने की कोई परंपरा नहीं है और डालने की किसी की इच्छा भी नहीं है। पुलिस का रोजनामचा हमेशा देरी से चलता है। इस में बड़ा आराम रहता है। नहीं पहचाने गए अभियुक्तों के नाम तक प्रथम सूचना रिपोर्ट में आसानी से घुसेड़े जा सकते हैं। 

मारे पास हर समस्या का स्थाई हल है कि उस समस्या पर कानून बना दिया जाए। पहले  बाल विवाह होते थे। उसे कानून बना कर अपराध घोषित कर दिया गया। बाल विवाह समाप्त हो गए। महिलाओं पर अत्याचार हो रहे थे। आईपीसी में धारा 498-ए जोड़ दी गई, महिलाओं पर अत्याचार समाप्त हो गए। अब पुरुषों पर अत्याचारों की खबरें आने लगीं। भ्रष्टाचार के कारण सरकार की बदनामी होने लगी तो भ्रष्टाचार निरोधक कानून बना। सोचा भ्रष्टाचार समाप्त हो जाएगा। पर भ्रष्टाचार अनुमान से अधिक कठिन बीमारी निकली जो कानून से मिटने के बजाए बढ़ती नजर आयी। उस के उलट उस ने भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए बनाए गए विभाग को ही अपनी जद में ले लिया। यह बहुत आसान था। पहले भ्रष्टाचारी को रंगे हाथों पकड़ो, फिर उसे हलाल करो। आरोप पत्र में उस के बरी होने के लिए सूराख छोड़ो। सस्पेंड आदमी बाहर रह कर काम-धंधा कर कमाता रहे और कुछ बरस बाद बरी हो कर पूरी तनख्वाह ले कर फिर से  नौकरी पर आ जाए। इस से कितनों का ही पेट पलने लगा।

भ्रष्टाचार कानून से मिटता नजर नहीं आता। वह कानून से और मोटा होता जाता है। लोगों को लग रहा है कि इस से भ्रष्टाचार मिटेगा नहीं तो कम से कम कम जरूर हो जाएगा। उधर भ्रष्टाचारी सोच रहे हैं कि कानून हमारा क्या कर लेगा? पहले ही कौन सा कर लिया जो अब करेगा। वैसे भी भ्रष्टाचारी को भले ही कानून कुछ साल रगड़ ले लेकिन समाज में तो वह इज्जत पा ही जाता है। उस के लड़के को शादी में अच्छा दहेज मिलता है। उस की लड़की से शादी करने को कोई भी तैयार हो जाता है। वह हजारों को पार्टी देता है। पुलिस, कलेक्टर और मंत्री उन शादियों में शिरकत करते हैं। ऐसे में किसे परवाह है कानून की? हाँ समाज भ्रष्टाचारियों के साथ उठना बैठना बंद करे। उन के साथ रोटी-बेटी का व्यवहार बंद करे। 100-200 मेहमानों से अधिक की पार्टियाँ और भोज गैर कानूनी घोषित किए जाएँ। उन का आयोजन करना अपराध घोषित किया जाए। जनता भ्रष्टाचारियों का सार्वजनिक जसपाल भट्टी अभिनंदन (?) करना आरंभ करे तो कुछ उम्मीद दिखाई दे सकती है। 

शनिवार, 9 अप्रैल 2011

भ्रष्टाचार के विरुद्ध वातावरण का निर्माण करेंगे


ल शाम की बैठक में सौ से कुछ अधिक लोग अपने संगठनों के प्रतिनिधि के रूप में एकत्र हुए थे। इसलिए कि जन-लोकपाल-विधेयक के लिए चल रही लड़ाई में कोटा का क्या योगदान हो। तरह तरह के सुझाव आए। सभी अपना अपना तरीका बता रहे थे। आखिर अगले तीन दिनों का कार्यक्रम तय करने के लिए एक पाँच व्यक्तियों की समिति बना ली गई। सुबह साढ़े नौ बजे गांधी चौक पर एकत्र हो कर विवेकानंद सर्किल तक एक जलूस निकाला जाना तय हुआ। कुछ नौजवान तुरन्त ही आमरण अनशन पर बैठने को उतारू थे। लेकिन उन्हें समझाया गया कि इस की अभी आवश्यकता नहीं है। यदि आवश्यकता होने पर अवश्य ही उन्हें यह काम करना चाहिए। सब लोग अलग अलग संगठनों से थे लेकिन एक बात पर सहमति थी कि जो कुछ भी किया जाए वह अनुशासन में हो और लगातार गति बनी रहे। 

स बैठक में यह आम राय थी कि जन-लोकपाल-विधेयक बन जाने से बदलाव आ जाएगा, इस बात का उन्हें कोई भ्रम नहीं है। वस्तुतः देश में बदलाव के लिए लंबी लड़ाई लड़नी पड़ेगी, जनता को संगठित करना पड़ेगा। इस के साथ ही लोगों में जो गलत मूल्य पैदा हो गए हैं उन्हें समाप्त करने और सामाजिक मूल्यों को स्थापित करने के लिए सतत संघर्ष चलाना पड़ेगा। इस सतत संघर्ष के लिए सतत प्रयासरत रहना होगा। बैठक समाप्त होने के उपरान्त जैसे ही मैं घर पहुँचा टीवी से पता लगा कि सरकार और इंडिया अगेन्स्ट करप्शन के बीच समझौता होने वाला है। देर रात जन्तर-मन्तर पर विजय का जश्न आरंभ हो चुका था।

सुबह लोग गांधी चौक पर जलूस के लिए एकत्र हुए। लेकिन संघर्ष का जलूस अब एक विजय जलूस में परिवर्तित हो चुका था। नौजवान लोग पटाखे छुड़ाने को उतारू थे। लेकिन पूछ रहे थे कि क्या वे इस जलूस में पटाखे छुड़ा सकते हैं। समिति ने तुरंत अनुमति दे दी। पटाखे छूटने लगे, जश्न मनने लगा। जब जलूस अपने गंतव्य पर पहुँचा तो लोगों ने अपने अपने विचार प्रकट किए। सभी का विचार था कि देश में बदलाव के लिए संघर्ष का एक युग आज से आरंभ हुआ है। इस कारण कल जिस एकता का निर्माण हुआ है उसे भविष्य के संघर्ष के लिए आगे बढ़ाना है। हर मुहल्ले में जनता को संगठित करना है और भ्रष्टाचार के विरुद्ध वातावरण का निर्माण करना है।  

गुरुवार, 7 अप्रैल 2011

भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन अवसर को निजि हित में इस्तेमाल करने वालों से बचे

भ्रष्टाचार विरोधी जन अभियान की आँच देश के कोने कोने तक पहुँच रही है। ऐसे में मेरा नगर कोटा कैसे चुप रह सकता था। यहाँ भी गतिविधियाँ आरंभ हो गई हैं। गतिविधियों की एक रपट अख्तर खान अकेला ने अपने ब्लाग पर यहाँ प्रस्तुत की है। कल शाम बहुत से गैर राजनैतिक संगठनों के प्रतिनिधियों की एक बैठक बुलाई गई है। उस में कोटा में इस आन्दोलन को आगे बढ़ाने की योजना पर विचार होगा। इस बैठक में उपस्थित रहने का मेरा पूरा प्रयास रहेगा।
ज कोटा न्यायालय में भी इस आंदोलन की सुगबुगाहट रही। वकील आपस में बातें करते रहे कि उन्हें भी इस मामले में कुछ करना चाहिए। किसी ने कहा कि कल वकीलों को न्यायिक कार्य का बहिष्कार कर धरने पर बैठ जाना चाहिए। कुछ देर बाद दो वकील एक आवेदन पर वकीलों के हस्ताक्षर कराते दिखाई दिए। हर स्थान पर वकीलों का एक वर्ग होता है जो  इस तरह के मुवक्किलों का प्रतिनिधित्व करता है जिन्हें मुकदमे का निर्णय न होने में अधिक लाभ होता है। ये दीवानी मामलों के वे पक्षकार होते हैं जिन के विरुद्ध न्यायालय से राहत मांगी गई होती है। या फिर वे अभियुक्त होते हैं जिन्हें सजा का भय सताता रहता है और मुकदमे के निर्णय को टालते रहते हैं। यह वर्ग हमेशा इस तलाश में रहता है कि कोई मुद्दा मिले और वे न्यायिक कार्य का बहिष्कार (वकीलों की हड़ताल) कराएँ। वकीलों की हड़ताल कभी दो-चार लोगों या वकीलों के एक समूह के आव्हान पर नहीं होती। वह हमेशा अभिभाषक परिषद के निर्णय पर होती है। ये दोनों वकील अभिभाषक परिषद को कल की हड़ताल रखने के लिए परिषद को दिए जाने वाले ज्ञापन पर वकीलों के हस्ताक्षर प्राप्त करने का अभियान चला रहे थे।
वे मेरे पास भी आए। मैं ने आवेदन पढ़ा और उस पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया। उन्हों ने पूछा -आप अण्णा के आंदोलन का समर्थन करते हैं?  मैं ने कहा -हाँ। -तो फिर आप को इस आवेदन पर हस्ताक्षर कर देने चाहिए। मैंने उन्हें कहा कि अण्णा कामबंदी पसंद नहीं करते, आप अण्णा की शुचिता के विरुद्ध काम कर रहे हैं। आप को अण्णा के आंदोलन का समर्थन करना है तो अभिभाषक परिषद की आम-सभा बुलवाइए और उस में संकल्प लीजिए कि कोई भी वकील और उस का मुंशी अदालत के किसी भी क्लर्क, चपरासी, न्यायाधीश, सरकारी अभियोजक और पुलिसकर्मी को जीवन में कभी कोई रिश्वत नहीं देगा। यदि किसी वकील या उस के मुंशी का ऐसा करना प्रमाणित हुआ तो उसे त्वरित कार्यवाही कर के अभिभाषक परिषद की सदस्यता से जीवन भर के लिए निष्कासित कर दिया जाएगा और बार कौंसिल को यह सिफारिश की जाएगी कि वह उस का वकालत करने का अधिकार सदैव के लिए समाप्त कर दे। इतना सुनने पर दोनों वकील अपना आवेदन ले कर आगे बढ़ गए।
मैं जानता था कि यदि सौ लोगों से हस्ताक्षर युक्त आवेदन भी अभिभाषक परिषद के पास पहुँचा तो कार्यकारिणी दिन भर के न्यायिक कार्य के बहिष्कार की घोषणा कर देगी। मैं तुरंत अभिभाषक परिषद के अध्यक्ष के पास पहुँचा और उन्हें एक लिखित पत्र दिया, कि कुछ लोग अण्णा के आन्दोलन का समर्थन करने के बहाने आप से कल न्यायिक कार्य स्थगित करने का निर्णय लेने के लिए वकीलों से हस्ताक्षर करवा रहे हैं। आवेदन कुछ ही देर में आप तक पहुँचेगा। किन्तु अण्णा कामबंदी पसंद नहीं करते। यदि अभिभाषक परिषद इस आंदोलन का समर्थन करती है तो सब से पहले उस के प्रत्येक सदस्य को यह संकल्प करना होगा कि वह स्वयं को आजीवन भ्रष्टाचार से मुक्त होने की घोषणा करे। इस के बाद ही इस आंदोलन के समर्थन में खड़ा हो और कामबंदी  बिलकुल न की जाए।
शाम को अभिभाषक परिषद की कार्यकारिणी की बैठक हुई। मैं ने अभी परिषद के अध्यक्ष को फोन पर पूछा कि क्या  निर्णय लिया गया? तो उन्हों ने बताया कि केवल दोपहर 12 बजे से 2 बजे तक न्यायिक कार्य को स्थगित किया जाएगा और सभी अभिभाषक इस अवधि में धरने पर उपस्थित हो कर अण्णा के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का समर्थन करेंगे। उन्हों ने बताया कि मेरे पत्र पर विचार किया गया था। लेकिन इस सम्बन्ध में आम राय होने पर ही कोई प्रस्ताव लिया जाना संभव है। 
मेरा अपना मत है कि जो व्यक्ति स्वयं भ्रष्टाचार से दूर रहने का संकल्प नहीं करता है उसे इस आंदोलन का समर्थन करने और उस में शामिल होने का कोई अधिकार नहीं है। ऐसे लोगों के समर्थन और आंदोलन में  शिरकत से आंदोलन को मजबूती नहीं मिलेगी। ऐसे लोग आंदोलन को कमजोर ही कर सकते हैं। आम लोगों में हर घटना, हर अवसर को अपने निजि स्वार्थ के लिए उपयोग कर लेने की प्रवृत्ति होती है। लेकिन इस आंदोलन की सफलता इसी बात पर निर्भर करेगी कि वह ऐसी प्रवृत्ति पर काबू करने की समुचित व्यवस्था बनाए रखी जाए। हमारे यहाँ व्यवस्था गिराऊ आंदोलन सफलता प्राप्त कर सकते हैं। लेकिन एक व्यवस्था के गिरने पर कोई भी देश किसी निर्वात में नहीं जी सकता। उसे एक वैकल्पिक व्यवस्था दिया जाना आवश्यक है। यदि मजूबत वैकल्पिक व्यवस्था न मिले तो जिन प्रवृत्तियों के विरुद्ध संघर्ष करते हुए विजय प्राप्त की जाती है वे ही फिर से हावी हो कर नई व्यवस्था को पहले से अधिक प्रदूषित कर देती हैं। 

बुधवार, 6 अप्रैल 2011

राजनेता नहीं चाहिए

भ्रष्टाचार से देश का हर व्यक्ति व्यथित है। सामाजिक जीवन का कोई हिस्सा नहीं जो इस भ्रष्टाचार से आप्लावित न हो। स्थिति यह हो गई है कि जिस के पास धन है, वह फूला नहीं समाता। वह अकड़ कर कहता है -कौन सा काम है जो मैं नहीं करवा सकता। मुझे कोई बत्तीस बरस पहले की एक मामूली उद्योगपति की बात स्मरण हो आई जिस की राजधानी में एक बड़ी फ्लोर मिल थी। वह कुछ दिनों के लिए एक दैनिक के सम्पादक मित्र का मेहमान था। मैं उन दिनों कानून की पढ़ाई करता था और उस दैनिक में उपसंपादक हुआ करता था।  उस उद्योगपति ने मुझ से कहा था। कभी सरकार में कोई भी काम हो तो बताना। मैं ने उसे कहा सरकार तो बदल जाती है। उस का उत्तर था कि मैं अपने कुर्ते की एक जेब में सरकार का एमएलए रखता हूँ तो दूसरी जेब में विपक्ष का एमएलए। निश्चित रूप से पिछले बत्तीस वर्षों में इस स्थिति में गुणात्मक विकास ही हुआ है। आज का उद्योगपति एमएलए नहीं एमपी और मंत्री तक को अपनी जेबों में रखने क्षमता रखता है।
देश में जितना भ्रष्टाचार है उस की जन्मदाता यही उद्योगपति बिरादरी है। उन के इशारे पर कानून बनते हैं, यदि कानून उन के विरुद्ध बन भी जाएँ तो उन्हें उस की परवाह नहीं, वे जानते हैं कि सरकार उन के विरुद्ध कार्यवाही नहीं करेगी। जिस के पास सब से अधिक धन है वह देश का सब से इज्जतदार व्यक्ति है, चाहे वह  कितना ही बेईमान क्यों न हो। जिस के पास पैसा नहीं है वह चाहे कितना ही ईमानदार क्यों हो उस की काहे की इज्जत, राशनकार्ड दफ्तर का बाबू उस की इज्जत उतार सकता है। उस की बेटी की शादी में यदि दहेज या बारात के सत्कार में कुछ कमी हो जाए तो कोई अनजान बाराती भी उस की इज्जत उतार सकता है। हमने आजादी के बाद समाज में ऐसे ही मूल्य विकसित होने दिए हैं। हम ने भ्रष्टाचारी को प्रतिष्ठा दी है और ईमानदार लोगों को ठुकराया है। शहर में सब से अधिक काला धन रखने वाला व्यक्ति साल में माता का एक जागरण करवा कर या मंदिर बनवा कर सब से बड़ा धर्मात्मा और ईमानदार बन जाता है, और ईमानदारी से काम करने वाले को मजा चखा सकता है। मुखौटा पहन कर सब से बड़ा वेश्यागामी रामलीला में हनुमान का अभिनय कर सकता है, और जनता की जैजैकार का भागी हो जाता है।
ह हमारा दोहरा चरित्र है। हम इस के आदी हो चुके हैं। हम इस से त्रस्त हैं, लेकिन इस किले में एक कील भी नहीं ठोकना चाहते। जब हमारी बारी आती है तो हम कहते है, हम कर भी क्या सकते हैं। एक चना भाड़ नहीं फोड़ सकता। चने का ही भुरकस निकल जाता है। आखिर हम बाल-बच्चे वाले इंसान हैं। हमारा आत्मविश्वास डगमगा गया है, हम कहते हैं सब कुछ ऐसे ही चलता रहेगा, कभी कुछ ठीक नहीं हो सकता। चार दिन पहले ही जब मैं ने कहा था कि क्रिकेट विश्वकप जीत का सबक 'एकता और संघर्ष' जनता के लिए मुक्ति का मार्ग खोल सकता है तो उस आलेख पर एक मित्र की टिप्पणी थी कि आप मुझे निराशावादी कह सकते हैं लेकिन इस देश में कभी कुछ नहीं हो सकता।  उन मित्र की इस निराशा में भी एक बात जरूर थी, वे इस व्यवस्था के समर्थक तो नहीं थे।
र अब जब कि दो दिन पहले तक देश को क्रिकेट के नशे में डुबोने के भरपूर प्रयास किए जा रहे थे और देश भर उस नशे में डूबा दिखाई दे रहा था। अचानक अगले ही दिन वह उस नशे से मुक्त हो कर अण्णा हजारे के साथ खड़े होने की तैयारी कर रहा है। बहुत से लोगों ने अण्णा हजारे का नाम कल पहली बार सुना था और वे पूछ रहे थे कि ये कौन है? आज वे ही उस के साथ खड़े होने को इक्कट्ठे हो रहे हैं। गैर-राजनैतिक संगठन बनाने के लिए बैठकें कर रहे हैं। इस आलेख को लिखने के बीच ही एक मित्र का फोन आया कि परसों शाम बैठक है, आप को जरूर आना है। धन के कार्बन और राजनेताओं के गंधक/पोटाश ने देश के चप्पे-चप्पे पर जो बारूद बिछाया है वह एक स्थान पर इकट्ठा हो रहा है और कभी भी विस्फोट में बदल सकता है। अण्णा ने उस बारूद तक पहुंचने का मार्ग प्रस्तुत कर दिया है।
ब अण्णा अनशन पर बैठने जा रहे थे तो मन में यह शंका थी कि कुछ घंटों में ही कुर्सी तृष्णा वाले राजनेता जरूर उन का पीछा करेंगे। यह आशंका सही सिद्ध हुई। वे अपनी कमीज को सफेद साबित करने के लिए अण्णा से मिलने पहुँचे। लेकिन जनता ने उन्हें बाहर से ही विदा कर दिया। यह सही है कि हमारी संसदीय राजनीति के सानिध्य ने किसी दल को अछूता नहीं छोड़ा। वे जिसे हाथ लगाते हैं वह मैला हो जाता है। इस काम को सिर्फ जनता के संगठन ही पूरा कर सकते हैं। राजनेता इस काम की गति में अवरोध और प्रदूषण ही पैदा कर सकते हैं। फिलहाल जनता ने उन्हें कह दिया है  -राजनेता नहीं चाहिए।