@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: भांग
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शनिवार, 20 मार्च 2010

पलाश और सेमल के बीच एक और यात्रा .....

ल सुबह साढ़े चार की बस पकड़नी थी, तो रात साढ़े दस बिस्तर पर चला गया और तुरंत नींद भी आ गई। बीच में आँख खुली तो सिर्फ डेढ़ बजे थे। मैं घड़ी देख फिर सो लिया। तीन बजे अलार्म की मधुर आवाज ने जगाया। अलार्म ने शोभा को भी जगा दिया था। मैं ने इंटरनेट चालू किया मेल देखे। इस बीच कॉफी तैयार थी। मैं निपटने चला गया। ठीक साढ़े चार बजे बस स्टॉप पर था। पौने पाँच बस चली। रास्ते में झालावाड़ से मेरे मुवक्किल माथुर साहब चढ़े। बातें करते-करते हम आगर पहुँचे, तो सवा दस हो चुके थे। तुरंत शाजापुर की बस मिल गई। हम उस में बैठ लिए। कोटा से झालावाड़ के बीच दरा का जंगल पड़ता है। लेकिन  बस वहाँ से निकली तब सुबह हुई ही थी। झालावाड़ निकलने के बीच बीच में वन-क्षेत्र आते रहे। इन दिनों वन में पलाश खूब फूल रहा है। पलाश के तमाम पत्ते सूख कर झड़ चुके हैं और वह फूलों से लदा पूरी तरह केसरिया नजर आ रहा है। सड़क से दूर मैदान के पार आठ-दस पेड़ दिखाई दे जाते हैं, धूप इन दिनों तेज पड़ रही है धरती गर्म हो रही है, धरती को छू कर हवा गर्म होती है और ऊपर को उठती है तो लगता है इन पलाशों आग लगी है और लौ आकाश की और उठ रही है। कहीं कहीं सेमल भी दिखाई दिए, बिना पत्तों के अपने सुर्ख फूलों के साथ जैसे दुलहन विवाह के लिए सजी खड़ी हो। कुछ दिनों में ही ये खूबसूरत फूल अपना काम कर फलों में बदल जाएंगे और फिर उन फलों से बीजों के साथ रेशमी रुई झड़ने लगेगी। मुझे कहीं कहीं अमलतास भी दिखाई दिए, वे बिलकुल हरे थे। कुछ दिनों में उन की भी यही हालत होनी है। पत्ते झड़ते ही अमलतास पूरी तरह पीला हो जाने वाला था।  मैं सोच रहा था प्रकृति किस तरह प्रतिदिन नया श्रंगार करती है।
 
र्मेंन्द्र टूर एण्ड ट्रेवल्स की यह बस छोटी थी, लेकिन बहुत सजी धजी। उस में एक टीवी लगा था जिस पर वीसीडी से फिल्मी गाने दिखाए  जा रहे थे। सब गाने साठ से अस्सी के दशक के थे और वे ही  मालवा के इस ग्रामीण क्षेत्र के पसंदीदा बने हुए थे। एक बार फिर धूपेड़ा में जा कर रुकी। इस बार दोपहर का समय था। परकोटे के अंदर बसा लोहे के कारीगरों का गांव। इस बार मैं ने ग्राम द्वार के चित्र लिए। गांव अब परकोटे के अंदर नहीं रह गया है। बाहर भी बहुत घर बन गए हैं। विशेष रूप से पंचायत घर और लड़कों और लड़कियों के अलग  अलग उच्च माध्यमिक विद्यालय और भी बहुत सी सरकारी इमारतें वहाँ बनी हैं। इस से लगता है कि गांव प्रगति पर है। एक कॉफी वहाँ पी कुछ ही देर में बस फिर चल दी। साढ़े बारह बजे हम शाजापुर की जिला अदालत में थे। जज ने मुकदमे में पिछली पेशी पर राजीनामे का सुझाव दिया था। हमने विपक्षी वकील से बात की थी, लेकिन विपक्षी यह जानते हुए भी कि उस का दावा पूरी तरह फर्जी है। जमीन जो कभी उस की थी ही नहीं उस के दाम बाजार मूल्य से मांग रहा था। माथुर साहब को यह सब स्वीकार नहीं था। आखिर जज साहब को कहा कि समझौता संभव नहीं है। जज साहब ने बहस सुन ली और निर्णय के लिए एक अप्रेल की तारीख दे दी। हम तुरंत ही बस स्टेंड आ गए। 

गर के लिए सीधी बस नहीं थी। हम सारंगपुर गए और वहाँ से आगर पहुंचे तो रात के सवा आठ बज चुके थे। कोटा के लिए बस नौ बजे आनी थी। दिन भर की थकान से भूख जोरों से लग आई थी।  हमारी  आँखें भोजनालय  की तलाश में थी कि माथुर साहब को ठंडाई की दुकान दिख गई। फिर क्या था? विजया मिश्रित ठंडाई पी गई। फिर भोजनालय पर गए। भोजनालय वाले ने बहुत सारी सब्जियों के नाम गिना दिए। मैं ने पूछा -बिना लहसुन मिलेंगी? तो उस का जवाब  था -बिना लहसुन केवल दाल होगी। हमने दाल-रोटी धनिए की चटनी से खाई पेट पर हाथ फेरते हुए वहाँ से निकले। बस की प्रतीक्षा में पान भी खा लिया गया। बस आई तो एक सीट पर हमने बैग रख दिए, वह हमारी हो गई। तभी माथुर साहब उतरे और गायब हो गए। तब तक विजया असर दिखाने लगी थी। मुझे शंका हुई कि कहीं माथुर साहब रास्ता न भूल जाएँ। मैं ने उन्हें तलाशा लेकिन वे नहीं मिले। मैं उन्हें तलाश करते हुए लघुशंका से निवृत्त हो आया।
 वापस लौटा तो माथुर साहब वापस आ चुके थे। मुझे तसल्ली हुई कि वे विजया के असर के बावजूद लौट आए हैं। बस चली तो हमें नींद आ गई। रात साढ़े बारह पर माथुर साहब झालावाड़ में उतर लिए। अब बस में सीटों से चौथाई भी सवारी नहीं रह गई थी। मैं तीन लोगों के बैठने वाली सीट पर लंबा हो गया। मेरी आँख तब खुली  जब बस कोटा नगर में प्रवेश कर चुकी थी। मैं ठीक तीन बजे घऱ था। अब तक विजया का असर खत्म हो चुका था। नींद भी नहीं आ रही थी। हालांकि साढे पाँच सौ किलोमीटर की इस यात्रा ने बुरी तरह थका दिया था। मैं ने फिर मेल चैक की, कुछ आवश्यक जवाब भी दिए। कुछ ब्लाग भी पढ़े। एक ब्लाग पढ़ते हुए कंप्यूटर हैंग हो गया। मैं उसे उसी हालत में पॉवर ऑफ कर के सोने चला गया। और सुबह साढ़े नौ तक सोता रहा। विजया के असर से नींद भरपूर आई थी। सुबह उठा तो कल की थकान का नामो निशान न था। नींद ने सारे शरीर की मरम्मत कर उसे तरोताजा कर दिया था।

सोमवार, 1 मार्च 2010

भांग की तरंग होली के चित्रों के संग

होली की पूर्व संध्या पर काव्य-मधुबन के कार्यक्रम फुहार2010 में सूर्यकुमार पाण्डेय को ग्यारहवाँ व्यंग्य श्री सम्मान प्रदान किया गया। इस समारोह में जाने के पहले ही बच्चा-लोगों ने हमारे घर विजया की ठंडाई घोंटी थी। उस के चित्र देखिए--

 तैयारी जारी है

 जरा और घोंट भाई!

 अब मामला तैयार है

 थोड़ी ही लूंगा

 अपने को कितनी भी चलेगी
 सूर्य कुमार पाण्डेय जी से सम्मान समारोह के बाद आग्रह किया गया कि सुबह ग्यारह बजे महेन्द्र जी के यहाँ विकल्प की गोष्ठी में पधारें। आग्रह अविलंब स्वीकार कर लिया गया। गोष्टी हुई मेरे और महेन्द्र 'नेह' के घर के सामने वाले सत्यम उद्यान में। गोष्ठी में सभी कवियों ने रचनाएँ पढ़ीं और स्वयं पाण्डेय जी ने भी बहुत ही रोचक रचनाएँ सुनाईं। शिवाराम  की कविता 'अनुभवी सीख' सर्वाधिक चर्चित रही।

अतुल चतुर्वेदी, भगवती प्रसाद गौतम, सूर्यकुमार पाण्डेय

 महेन्द्र 'नेह' कविता पाठ करते हुए

  शिवाराम कविता पाठ करते हुए

गोष्ठी का संचालन करते हुए शकूर 'अनवर'

 दिन कैसे निकला पता ही नहीं लगा। शाम को हम बाजार गए, सोचा था मिठाइयाँ खरीदेंगे और वहीं कुछ खा भी आएँगे। लेकिन बाजार में भीड़ देखते हुए बाहर खाने का इरादा त्यागा और मिठाइयाँ ले कर वापस लौट आए। शोभा भोजन बनाने सीधे रसोई में घुस गई। मैं और पूर्वा होली देखने पार्क में घुसे। पूरा पार्क पेड़ों और दूब से ढका है। लेकिन पार्क का एक कोना केवल होली के निमित्त ही खाली है। वहीँ होली बनाई गई थी। एक लंबे बांस से लगा ऊँचा लाल रंग का गोटे लगा झंडा और उस के इर्द-गिर्द लकडियाँ लगी हुईं। लोग अपने घरों से उपले ला कर डाल गए थे। महिलाएँ होली की पूजा कर जा रही थीं। कुछ ही देर में होली जलने की तैयारी थी। फोन कर के शोभा को भी बुला लिया गया। जब मुहल्ले के सब लोग आ गए तो होली जलाई गई। मौके पर माचिस नहीं थी। एक मिली तो उस में  एक ही तीली थी और कवर गीला। फिर एक एक्सपर्ट आए उन्हों ने इकलौती तीली को सुलगा लिया। फिर एक गत्ता सुलगाया गया। फिर होली में आग डाल दी गई।

 होली जलने लगी

 कुछ ही देर में उस ने आग पकड़नी आरंभ कर दी

 फिर ताप इतना बढ़ा कि लोगों को दूर हटना पड़ा

 महिलाओं ने जलती हुई होली की परिक्रमा की

फिर लोगों ने डेक के संगीत पर थिरकना आरंभ किया
 
 क्या बच्चे, क्या जवान? क्या पुरुष क्या स्त्रियाँ सभी नाचने लगे

 सब ने अपना नृत्य कौशल दिखलाया

 सब अपनी उमंग भर नाचे

 देर रात तक यह नृत्य चलता रहा


तब तक होली का मुख्य स्तंभ गिर गया, 
उस में लगा झंडा साबुत ही बाहर आ गया। 
लोगों ने कहा होली जल गई प्रहलाद साबुत निकल आया।

रविवार, 28 फ़रवरी 2010

होली के पहले की एक रंगभरी शाम

ज मिलादुन्नबी का त्यौहार था। बहुतों के साथ ही मेरे लिए भी होली के पहले एक दिन और अवकाश का। इस्लाम के अनुयायियों के लिए उतना ही बड़ा दिन जितना शायद कृष्ण जन्माष्टमी या क्रिसमस है। बिटिया दीपावली के बाद अब घर आई है तो घर ही रहा। कुछ साल पहले तक मुहल्ले में होली मुहल्ले की सोसायटी मनाती थी। तो हफ्ते भर पहले से मेरा दफ्तर सोसायटी का दफ्तर हो जाता था। पहले होली मनाने के तरीके पर मीटिंग होती। फिर चंदा इकट्ठा किया जाता। फिर होली की तैयारी शुरू हो जाती। कुछ सालों से सोसायटी ने यह काम बंद कर दिया। यह जिम्मा नौजवानों ने संभाल लिया। मैं ने कल ही विकास को पूछा था -भाई होली की तैयारी नहीं है क्या। वह अपने कामों में उलझा था। वह बोला था -अंकल कल का दिन बहुत है, सब कर लेंगे। मैं ने उसे बताया था कि मेरे पास विजया का अच्छा स्टॉक पड़ा है उसे टेस्ट कर लो। होली के दिन काम में लेने लायक है या नहीं। उस ने शाम को आने को बोला। लेकिन शाम को गच्चा मार गया। मैं भी पूर्वा को स्टेशन से लाने में व्यस्त हो गया।
ज सुबह से ही जी-मेल के बज़ पर दिल्ली से अजय झा विज्ञापन लगाए बैठे थे....
  • होलिका दहन के लिए लकडी के दरवाजे खिडकियां खटिया के दाता लोग नाम लिखाएं ..जल्दी ...पावती रसीद के साथ भांग का पाऊच फ़्री मिलेगा :) :) :) :) :) :)
जोधपुर से हरि शर्मा बोले-
  • इस तरह मांगने से काम न चलेगा, चोरी करनी पड़ेगी।
हम ने विज्ञापन देखा तो बोल दिया.....
  • कुछ टूटे स्टूल टेबल का कबाड़ छत पर पड़ा है। आप खुशी से मंगा सकते हैं। मेरे ऑफिस (जो घर पर ही है) की टेबुल की दराज में दो सौ चालीस ग्राम भांग रखी है (दस ग्राम प्रयोग में ली जा चुकी है) कबाड़ उठाने आप खुद आ जाएँ तो छत पर ही सिल-बट्टा बजा लिया जाएगा। आप का इंतजार है।
म शाम तक इंतजार में रहे झा जी आएँगे! पर उन्हें न आना था, न आए! शाम को विकास अपनी टीम ले कर पहुँचा। एक छोटे से कागज के पुर्जे में लिस्ट बनाई हुई थी। मैं ने पुर्जा देखा तो वे लोग 2250 रुपए एकत्र कर चुके थे, मेरे सौ मिला कर 2350 पचास हो गए। होली का अच्छा खासा इंतजाम हो चुका था। वे भी ये काम कर के थक चुके थे। तुरंत सिल-बट्टा ले आए। विजया पहले घुटी, फिर छन गई। भोले का प्रसाद सबने लिया। अंत में महेन्द्र 'नेह' आए, वे भी चख गए। हमने आधे घंटे बाद काव्य-मधुबन के सालाना कार्यक्रम फुहार में जाना तय किया जहाँ इस बार सूर्यकुमार पाण्डेय का सम्मान होना था। यह संस्था प्रतिवर्ष होली की पूर्व संध्या पर एक व्यंगकार को सम्मानित करती है।

हेन्द्र नेह के साथ कार्यक्रम में पहुँचे तो वहाँ गायन चल रहा था। भावना काले और भूपेन्द्र शर्मा होरियाँ गा रहे थे। हम भी सुनने बैठ गए। होरी गायन विशुद्ध रूप से प्रेम में पगा होता है। चाहे वह प्रेम भौतिक हो या आध्यात्मिक। प्रेम का गायन बहुत ऊर्जा चाहता है। वह गायन बिलकुल मन से हो तो उस के आनंद का जवाब नहीं। भावना काले बहुत अच्छा गाती हैं। लेकिन आज ऐसा लगा जैसे उन का मन कहीं और भटका हुआ है, व्यथित है, उन के गायन में मन का रंग नहीं था। गायन में कहीं कोई कमी नजर आ रही थी। मैं उन से पूछना भी चाहता था कि ऐसा क्यों है? लेकिन  कार्यक्रम के बाद उन से भेंट ही नहीं हो सके। लेकिन जब भूपेन्द्र शर्मा गाने लगे तो मन का वह रंग खिलने लगा। वह गायन कला के नियमों से ऊपर था। जैसे प्रेम अठखेलियाँ कर रहा हो।
गायन समाप्त हुआ तो सूर्यकुमार जी पांडेय जी का सम्मान हुआ। कोटा की साहित्यिक बिरादरी के सभी मंजे हुए हस्ताक्षर वहाँ उपस्थित थे। उन में व्यंगकार औंकारनाथ चतुर्वेदी, नाटक कार शिवराम, ब्लागरों में नरेन्द्रनाथ चतुर्वेदी और शरद तैलंग वहाँ थे। समारोह के अंत में पाण्डेय जी ने एक संक्षिप्त भाषण दिया और बहुत सी व्यंग्य रचनाएं सुनाई। आलोचक उषा झा ने उन का परिचय दिया तो पता लगा उन्हें 1970 से सम्मान मिलने आरंभ हो गए थे। हर साल दो-चार सम्मान उन्हों ने प्राप्त किए और अब तक प्राप्त किए जा रहे हैं। मैं उन का सम्मान प्राप्त करने का माद्दा देख कर दंग रह गया। वह उन की काबिलियत को प्रदर्शित कर रहा था। वैसे भी पाण्डेय जी ने 1970 से आज तक सब तरह का साहित्य लिखा है। जब जब जिस की मांग रही वही उन्हों ने लिखा और मांग को पूरा किया और पूरी शुचिता के साथ। वे वास्तविक मसिजीवी रहे हैं। अंत में उन्हों ने अपना एक गद्य व्यंग्य सुनाया। उन के व्यंगकार का महत्व यह रहा कि उन्हों ने आम मध्यवर्ग के मन को ठीक से अपने साहित्य में उड़ेला। उन्हों ने व्यवस्था की कुरूपता को उजागर किया और उस के छद्म को जग जाहिर कर लोगों को हंसाया भी।  
विगत आठ सालों से कोटा की संस्था काव्य-मधुबन होली के अवसर पर निरंतर इस सम्मान समारोह को आयोजित करती रही है, यह बड़ी बात है। इस निरंतर आयोजन के पीछे संस्था के अध्यक्ष अतुल चतुर्वेदी का श्रम और लगन रही है। आज के आयोजन का सफल संचालन भी उन्हों ने ही किया। वे स्वयं एक समर्थ कवि और व्यंगकार हैं। उन का अपना हिन्दी ब्लाग भी है। बस उसे वे अपना अधिक समय नहीं दे पाते। लेकिन उन से हिन्दी ब्लाग जगत में सक्रिय होने की अपेक्षा तो की ही जा सकती है जिस से उन के रचना कौशल का जलवा वे यहाँ भी बिखेर सकें।
चित्र
1. कैप्शन की जरूरत नहीं, 2. गायक भूपेन्द्र शर्मा, 3.सम्मान के बाद अपनी रचनाएँ प्रस्तुत करते सूर्यकुमार पाण्डेय, 4. समारोह के बाद पांडेय जी और व्यंगकार शरद तैलंग।