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शनिवार, 21 मार्च 2020

गणगौर एडवाइजरी जारी करे सरकार


'भँवर म्हाने पूजण दो गणगौर'

यह उस लोक गीत का मुखड़ा है जो होली के अगले दिन से ही राजस्थान भर में गाया जा रहा है। राजस्थान में वसंत के बीतते ही भयंकर ग्रीष्म ऋतु का आगमन हो जाता है। आग बरसाता हुआ सूरज, कलेजे को छलनी कर देने और तन का जल सोख लेने वाली तेज लू के तेज थपेड़े बस आने ही वाले हैं। अनवरत पसीना टपकाने वाले ऐसे निकट भविष्य के पहले राजस्थान में अगले शुक्रवार 27 मार्च को गणगौर का त्यौहार मनाया जाने वाला है।

गणगौर प्रतिमाएँ अनेक घरों पर बिठा दी गयी हैं। रोज उनकी पूजा की जा रही है। गीत गाए जा रहे हैं। यह अभी व्यक्तिगत स्तर पर है। पर अगले शुक्रवार को यही सब सामुहिक रूप ले लेने वाला है। उस से पहले गणगौर पर बनने वाले पकवान गुणे बनना आरंभ हो चुके हैं। कल मुझे भी हुकुम हुआ कि गुड़ लाना है, गुणे बनाने के लिए। गुड़ आया तो दो घण्टे बाद ही टेबल पर गुड़ और गेहूँ के आटे के बने गुणे नजर आने लगे। रात तक वे तले जा कर खुले में रख दिए गए, जिस से उन की बची खुची नमी भी निकल ले। सुबह वे डिब्बे में बंद हो चुके हैं। किसी को भी इनका स्वाद अगले शुक्रवार गणगौर के दिन पूजा के बाद ही चखने को मिलेगा।

गणगौर के दिन अर्थात अगले शुक्रवार 27 मार्च को सुबह से ही मुहल्ले में स्त्रियों की हलचल बढ़ जाएगी। वे सजेंगी-सँवरेंगी, बेसन के आटे से शिव-पार्वती की प्रतिमाओं के लिए गहने गढ़ेंगी, फिर पूजा का थाल सजा कर उस घर को जाएंगी जहाँ मुहल्ले मे गणगौर घाली हुई है। वे पूजा के लिए अकेले ही नहीं जातीं। दो-दो चार-चार के समूह में पूजा के लिए जाती हैं। वहाँ एकत्र हो कर गीत गाती हैं, नाचती हैं। आमोद प्रमोद चलता है। साँयकाल गणगौर की प्रतिमाओँ को सरानेसामुहिक रूप से जलूस बना कर नदी तालाब पर जाती हैं। इस जलूस के आगे बैंड-बाजा होता है। कुछ नहीं तो एक ढोली ढोल बजाता हुआ जरूर चलता है। नदी पर वे प्रतिमाओं को सराने के पहले और बाद में गीत गाती हैं और ढोल की थाप पर नृत्य करती हैं। देर रात तक यह काम चलता रहता है। पहले तो सारी व्यवस्थाएँ पुरुष ही करते थे। अब यह कमान लगभग पूरी तरह स्त्रियों के हाथों में है। पुरुष इन कामों में केवल वान्छित सहयोग करते हैं। राजस्थान में स्त्रियों के लिए इस त्यौहार का बहुत महत्व है। पुरुषों के लिए भी यह त्यौहार अपनी प्रियाओं को प्रसन्न रखने, रूठी प्रियाओं को मनाने और वैवाहिक जीवन में सूख चुके रोमांस को तरलता प्रदान करने का होता है। इस त्यौहार में पुराने वक्त में मनाए जाने वाले मदनोत्सव के अवशेष मौजूद हैं।

त्यौहार तो आ चुका है। लेकिन उसके साथ ही राजस्थान में वायरस कोविद-19’ की भयानक उपस्थिति एक बड़े संकट का कारण हो सकती है। इस वायरस से फैली बीमारी को संयुक्त राष्ट्र संघ महामारीघोषित कर चुका है। ऐसे में इस त्यौहार के समय सतर्कता बहुत आवश्यक हो गयी है। इस त्यौहार में स्त्रियों का समूह में एकत्र होना पर्याप्त समय तक साथ रहना। पुरुषों का सहयोग के लिए नजदीक बने रहना। फिर समारोह है तो अपरिचित भी इसमें सम्मिलित होते हैं। ऐसे में सामुहिक रूप से इसे मनाना वायरस के प्रसार के लिए बहुत मुफीद हो सकता है। आज ही खबर है कि भीलवाड़ा में तीन चिकित्सक और तीन नर्सिंग छात्र इस कोरोना की चपेट में हैं। उन में लक्षण दिखाई देने के पहले वे सैंकड़ों लोगों के संपर्क में आए होंगे और उनमें से अनेक को वायरस स्थानान्तरित हुए हो सकते हैं। इसी कारण से इस नगर को पूरी तरह से लॉक डाउनकी स्थिति में लाने की कवायद चल रही है। आशा है प्रशासन और भीलवाड़ा की जनता इस लॉक डाउन को सहयोग करेंगे और वायरस का विस्तार रुक सकेगा।

इस घटना को देखते हुए आगामी दिन बहुत ऐहतियात रखने के होंगे। गणगौर पूजा वास्तव में शिव-पार्वती पूजा है। जिन परिवारों की स्त्रियाँ इस त्यौहार को मनाती हैं उन के घरों में शिव-पार्वती प्रतिमाएँ या तस्वीरें अवश्य होती हैं। सभी स्त्रियाँ अपने अपने घरों में रह कर इन प्रतिमाओं/ तस्वीरों की पूजा कर के त्यौहार मना सकती हैं। उन्हें इस के लिए बाहर निकलने की जरूरत नहीं होगी। इस अवसर पर जो मीठे और चरपरे गुणे बनाए जाते हैं उन्हें आपस में बदला भी जाता है। इस बार यह काम न किया जाए तो बेहतर है। क्यों कि इस अदला-बदली में वायरस स्थानान्तरण भी हो सकता है। आज कोरोना वायरस से फैली इस विश्वव्यापी महामारी के समय में गणगौर के त्यौहार को भी निबन्धित रीति से मनाना पड़ेगा। यह निबन्धित रीति क्या हो, यह बताने के लिए राज्य सरकार को तुरन्त एडवाइजरी जारी करनी चाहिए।


शुक्रवार, 19 अप्रैल 2013

ओ........! सड़कवासी राम! ...

हरीश भादानी जन कवि थे। 
थार की रेत का रुदन उन के गीतों में सुनाई देता था।
आज राम नवमी के दिन उन का यह गीत स्मरण हो आया ...

ओ! सड़कवासी राम!

  • .हरीश भादानी

ओ! सड़कवासी राम!
न तेरा था कभी
न तेरा है कहीं
रास्तों दर रास्तों पर
पाँव के छापे लगाते ओ अहेरी
खोलकर
मन के किवाड़े सुन
सुन कि सपने की
किसी सम्भावना तक में नहीं
तेरा अयोध्या धाम।
ओ! सड़कवासी राम!


सोच के सिर मोर
ये दसियों दसानन
और लोहे की ये लंकाएँ
कहाँ है कैद तेरी कुम्भजा
खोजता थक
बोलता ही जा भले तू
कौन देखेगा
सुनेगा कौन तुझको
ये चितेरे
आलमारी में रखे दिन
और चिमनी से निकलती शाम।
ओ! सड़कवासी राम!

 
पोर घिस घिस
क्या गिने चौदह बरस तू
गिन सके तो
कल्प साँसों के गिने जा
गिन कि
कितने काटकर फेंके गए हैं
ऐषणाओं के पहरुए
ये जटायु ही जटायु
और कोई भी नहीं
संकल्प का सौमित्र
अपनी धड़कनों के साथ
देख वामन सी बड़ी यह जिन्दगी
कर ली गई है
इस शहर के जंगलों के नाम।
ओ! सड़कवासी राम!

सोमवार, 31 अक्तूबर 2011

दीवाली खास क्यों?

पिछले महीने कुछ निजि कारणों से अपनी ब्लागरी में व्यवधान आया। दीवाली का त्यौहार भी उन में से एक कारण था। बेटी और बेटा दोनों बाहर हैं, तो परिवार के चारों जन ऐसे ही त्यौहारों पर मिलते हैं, दीवाली उन में खास है। मैं इस बार विचार करता रहा आखिर दीवाली में ऐसा क्या है कि वह खास हो गई। निश्चित रूप से उस का कारण धनतेरस, रूप चौदस (काली चौदस), लक्ष्मीपूजा, महावीर निर्वाण दिवस, गोवर्धन पूजा या भाई दूज आदि नहीं है। मेरे विचार से इस के खास होने का कारण इस का मौसम है। 
भारत की 70% जनता गाँवों में निवास करती है। कोई पाँच दशक पहले के भारत के गाँवों की सोचें तो मिट्टी की ईंटों की दीवारों पर खपरैल की छत वाले घरों की बस्तियाँ जेहन में नजर आने लगती हैं। बरसात इन घरों की स्थिति क्या बना देती होगी यह अनुमान किया जा सकता है। आश्विन मास की अमावस उत्तर भारत के लिए वर्षा का अंतिम दिवस होता है। इस के साथ ही घरों को सुधारने, अनाज आदि को संभालने का काम आरंभ हो जाता है। घरों की सफाई कर, उन की दीवारें छतें सुधार कर, उन्हें लीपना-पोतना फिर से निवास के अनुकूल बनाना अत्यावश्यक है। अब सब लोग अपने अपने घर को दुरुस्त कर अपने हिसाब से सजाएंगे तो उन में सजावट की प्रतियोगिता स्वतः ही जन्म लेती है। व्यापारी वर्षाकाल अपने अपने परिजनों के साथ अपने घरों में व्यतीत कर पुनः व्यापार के लिए घरों से निकल कर परदेस जाने की तैयारी में होते थे। उन के लंबे समय के लिए घरों से बाहर जाने के पहले भी त्योहार का माहौल स्वतः ही बन ने लगता है। 

स बीच मैं ने यह जानने की कोशिश भी की कि भारतीय इतिहास में दीवाली का प्रचलन वास्तव में कब आरंभ हुआ?  राम का वनवास से लंका विजय कर लौटना। कृष्ण का इंद्रपूजा बंद करवा कर गोवर्धन की पूजा आरंभ कराना जैसे मिथक तो बहुत सारे हैं। लेकिन वास्तविक प्रामाणिक ऐतिहासिक संदर्भ गायब दिखाई पड़ते हैं। पहले पहल जो संदर्भ मिलता है वह जैन तीर्थंकर महावीर के निर्वाण का मिलता है। इस से ऐसा लगता है कि पहले पहले दीवाली का उत्सव जैन धर्मावलंबियों ने मनाना आरंभ किया। उन में अधिकांश व्यापारी थे, वे वर्षा के बाद घरों से बाहर धनोपार्जन के लिए निकलते थे, उन का निकलने के पहले धन की देवी लक्ष्मी का पूजा जाना स्वाभाविक ही था। इस से बाद में लक्ष्मी पूजा का संदर्भ उस से जुड़ा। दोनों महाकाव्यों का संपादन ईसा पूर्व पहली शताब्दी में हुआ और गुप्तकाल में उन का गौरव बढ़ा। संभवतः गुप्त काल से ही दीवाली के इस त्यौहार से राम और कृष्ण के संदर्भ जुड़े तथा बाद में अन्य संदर्भ जुड़ते चले गए। अभी भी यह खोज का विषय ही है कि ऐतिहासिक रूप से दीवाली के त्यौहार का विकास किस तरह हुआ? शायद कुछ इतिहास के विद्यार्थी और शोधार्थी इस पर प्रकाश डाल सकें।

स बार सप्ताह के मध्य में दीपावली का त्योहार पड़ने से दोनों दीपावली के अवकाश, दोनों ओर के दो-दो साप्ताहिक अवकाश के साथ दो-तीन दिनों के अवकाश और ले लेने पर बाहर नौकरी कर रहे लोगों के पास नौ दिनों के अवकाश हो गए और उन्हें अपने घरों पर परिवार के साथ रहने का अच्छा अवसर प्राप्त हुआ। मेरे यहाँ भी इन दिनों बेटी-बेटे के साथ रहने से, साथ ही महत्वपूर्ण हो गया। ये नौ दिन सब ने बहुत आनंद से बिताए। जब दीवाली के पहले के पन्द्रह-बीस दिनों का स्मरण करता हूँ तो लगता है वे पूरे साल के सब से व्यस्त दिन थे। घर की सफाई, सजावट, फालतू सामानों को कबाड़ी के हवाले करना और यह काम पूरा होते ही दीवाली के पकवान बनाने की तैयारी। पुरुष तो फिर भी बाहर के कामों में ही लगे रहते हैं लेकिन स्त्रियाँ। उन्हें तो पूरे एक माह से फुरसत ही नहीं थी। लगता था जैसे वे सोयेंगी नहीं। मेरे यहाँ तो घर में अकेली स्त्री मेरी उत्तमार्ध शोभा ही थी। पिछले एक माह से वह सोती नहीं थी। बस काम करते करते थक कर बेहोश हो बिस्तर पर पड़ जाती थी। जब होश आता था तो फिर से काम में जुटी नजर आती थी। ऐसा लगता था उसे घर को घर बनाने का जुनून सवार था। बेटा कल चला गया था, आज सुबह बेटी को रेल में बिठा कर लौटने के पर कुछ घंटे उस ने विश्राम किया, निद्रा ली। लेकिन कुछ घंटे बाद ही फिर से घर को संवारने में जुट गई और शाम को जब मैं अदालत से घर लौटा तो पाया कि घर फिर से हम दो प्राणियों के निवास के लिए तैयार है। लोग कहते हैं कि दीवाली न आए तो घरों की सफाई न हो। मैं सोचता हूँ यदि स्त्रियाँ न होती तो पुरुष दीवाली किस तरह मनाते? शायद उस का स्वरूप बहुत भिन्न होता या फिर दीवाली ही नहीं होती। आप क्या सोचते हैं?

दीपावली पर बहुत मित्रों के शुभकामना संदेश ई-मेल से मिले। उन में से अधिकांश एक साथ अनेक पतों को भेजे गए थे। मैं यदि उन का उसी संदेश के उत्तर के रूप में धन्यवाद करता तो वह भी सभी लोगों को प्राप्त होता। मुझे यह उचित नहीं लगा और ई-मेल की निःशुल्क सुविधा का दुरुपयोग भी। मैं ने एकल संदेशों का उत्तर देने का प्रयत्न किया लेकिन सामुहिक संदेशों का नहीं। यहाँ उन सभी मित्रों को दीपावली के शुभकामना संदेश के लिए आभार व्यक्त करता हूँ।  कामना है कि उन की ही नहीं सभी की दीवाली अच्छी मनी हो और वे सभी वर्ष भर प्रगति करें, उन्हें अनन्त प्रसन्नताएँ प्राप्त हों और अगली दीवाली वे और बेहतर तरीके से अधिक प्रसन्नताओं के साथ मनाएँ!


गुरुवार, 2 सितंबर 2010

जन्माष्टमी दो दिन क्यों? जानें, चंद्रकलाएँ , तिथि, दिनमान और रात्रिमान .........

ल यह तलाशते हुए कि जन्माष्टमी आखिर दो क्यों? हम चांद्रमासों को जानने लगे थे। हम ने जितने भी चांद्र मासों को जाना उन सब का कोई न कोई वैज्ञानिक आधार था। लेकिन आम लोगों के लिए तो इन सब तरह के चांद्रमासों को जानना आसान नहीं है। वे तो चंद्रमा को पूर्ण होता हुआ, फिर उसे घटता और गायब होता हुआ और फिर नये चंद्रमा को देखते हैं। सदियों से चंद्र-कलाओं से  ही वे अपने रोजमर्रा के कामों और आध्यात्मिक जीवन को जोड़ते आए हैं। चंद्र और उस की कलाएँ आम जनजीवन से अभिन्न रूप से जुड़ी हैं। यही कारण है कि साइनोडिक या संयुति मास ही दुनिया भर में सर्वाधिक लोकप्रिय है। इस मास की अवधि 29.53059 दिनों की है। इसी कारण से इसे पूर्ण संख्या में तीस दिनों का मान लिया गया है। लेकिन एक मास तीस दिनों का होने पर अगला मास ही उन्तीस दिनों का हो जाता है। भारतीय पद्धति में इसी कारण चंद्रमा की तीस कलाओं की कल्पना की गई है। ये तीस कलाएँ चंद्रमा के दृष्य आकार को प्रकट करती हैं। चंद्रमा की कक्षा दीर्घवृत्ताकार होने से एक एक कला की अवधि में भिन्नता होती है। इस का कारण कभी चंद्रमा पृथ्वी से दूर होना और कभी पास होना है। प्रत्येक कला के आरंभ और समाप्त होने की अवधि को एक तिथि माना है। नीचे के चित्र में चंद्रमा की 29 कलाएँ देखी जा सकती हैं। इस में से तीसवीं कला गायब है यह वह कला है जिसे हम अमावस्या कहते हैं और इस दिन चंद्रमा दिखाई नहीं देता है।5
ये कलाएँ अमावस्या के बाद की प्रतिपदा से आरंभ हो कर अमावस तक की हैं। यदि हम देखें तो शुक्ल प्रतिपदा और कृष्ण चतुर्दशी की कलाएँ एक समान हैं। इस तरह चौदह कलाएँ एक जैसी हैं और दो कलाएँ पूर्णिमा और अमावस की मिला कर कुल सोलह कलाएँ हैं। यहीं से सोलह कलाएँ जानने वाले को संपूर्ण व्यक्ति माना जाने लगा है। खैर, एक कला में चंद्रमा जितनी देर रहता है वह एक तिथि हुई। अब यह कला दिवस के किसी भी भाग से आरंभ हो सकती है। इस कारण से किस दिन कौन सी तिथि कही जाए यह समस्या है। लेकिन इस समस्या का समाधान किया गया। दिवस का अर्थ है एक सूर्योदय से अगले सूर्योदय तक का समय। इस तरह दिवस सूर्योदय से आरंभ होता है। इसे हमने 60 घटी या 24 घंटों में बांटा है। फिर घटी को पल और विपलों में तथा घंटों को मिनट और सैकंडों में बांटा है। सूर्योदय से सूर्यास्त तक के समय को दिनमान कहा गया है और सूर्यास्त से सूर्योदय तक के समय को रात्रिमान। इसी तरह एक कला के आरंभ से अगली कला के आरंभ तक के समय को तिथिमान कहा गया है। तिथि के संबंध में समाधान यह किया गया है कि सूर्योदय के समय जो भी तिथि होगी वही पूरे दिवस की अर्थात अगले सूर्योदय तक की तिथि मानी जाएगी। इस तरह हो सकता है कोई तिथि सूर्योदय के ठीक दो मिनट बाद समाप्त हो जाए और अगली तिथि आरंभ हो जाए लेकिन अगले सू्योदय तक वही तिथि मानी जाएगी। इस तरह जिस दिन का सूर्योदय जिस तिथि में होगा उस दिन वही तिथि मानी जाएगी। जैसे कल का सूर्योदय सप्तमी तिथि में हुआ था तो आज के सूर्योदय के पूर्व तक सप्तमी तिथि मानी गई, आज का सूर्योदय अष्टमी तिथि में उदय हुआ है तो कल सुबह के सूर्योदय के पहले तक अष्टमी तिथि ही मानी जाएगी।
तिथियों के मामले में एक बात और देखने को मिलती है। साइनोडिक या संयुति चांद्रमास 29.53059 दिनों का ही होता है। जब कि कलाएँ और तिथियाँ तीस हो जाती हैं। इस तरह हम देखते हैं कि किसी माह में तीस तिथियों में सूर्योदय हो सकते हैं और बारह चांद्रमासों में कुल 354.36708 दिन होंगे। जब कि तिथियां 360 हो जाएंगी। इस तरह वर्ष में कम से कम पाँच तिथियाँ तो ऐसी होंगी ही जिन में सूर्योदय नहीं होंगे। यह संख्या बढ़ भी सकती है। क्यों कि कभी तिथिमान 24 घंटों से अधिक का भी हो जाता है और दो सूर्योदय एक ही तिथि में हो सकते हैं। तब एक वर्ष में जितनी बार एक तिथि में दो सूर्योदय होंगे। उतनी ही तिथियों में और सूर्योदय नहीं हो सकेंगे। लेकिन यह माना गया है कि जिस तिथि में सूर्योदय होगा अगले सूर्योदय तक वही तिथि मानी जाएगी। इस कारण से जिन लगातार दो दिनों के सूर्योदय एक ही तिथि में हो रहे हैं उन दो दिनों को एक ही तिथि मानी जाएगी। इस तरह किसी मास में दो दिनों तक एक ही तिथि रहेगी। हम इसी कारण से दो दो दिनों तक एक ही तिथि मानते हैं। दो एकादशी और दो चतुर्दशी हो जाती हैं। जिन तिथियों में कोई सूर्योदय नहीं होता है उसे क्षय तिथि माना जाता है। अर्थात वह तिथि उस माह किसी भी दिन को आवंटित नहीं होगी।
तिथियों, कलाओं आदि का यह प्रकरण तो हम आगे भी चला सकते हैं। आज हम जन्माष्टमी की बात करें। कृष्ण के लिए प्राचीन पुस्तकों में उल्लेख हुआ है कि उन का जन्म भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को अर्धरात्रि को हुआ था। अब हमारी मान्यता के अनुसार यह हो सकता है कि उस दिन अष्टमी सुबह सूर्योदय के उपरांत केवल 30 पल अर्थात आधी घटी ही रही हो। फिर भी उस दिन को अष्टमी ही कहा गया होगा और जब कृष्ण का जन्म हुआ तब नवमी तिथि चल रही होगी। इस मामले में कुछ स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता कि कृष्ण जन्म के समय कौन सी तिथि चल रही थी। इस कारण से हम कृष्ण जन्माष्टमी मनाते समय उस दिन ही मनाएंगे जिस दिन का सूर्योदय अष्टमी तिथि में हुआ हो न कि सप्तमी तिथि में जब कि अर्धरात्रि को अष्टमी आ गई हो। लेकिन यह विवरण भी मिलता है कि कृष्ण जन्म के समय रोहिणी नक्षत्र चल रहा था। इस कारण से कुछ संप्रदाय यह मानते हैं कि जिस दिन अर्ध रात्रि को रोहिणी नक्षत्र पड़ रहा हो और अष्टमी तिथि भी आरंभ हो चुकी हो उस दिन कृष्ण जन्माष्टमी मनाना चाहिए। इस तरह नक्षत्र और तिथिमान में जन्म समय आ जाने पर जन्माष्टमी मनाने की बात करने वाले संप्रदायों को मानने वालों की संख्या अत्यल्प है। यही कारण है कि कल जन्माष्टमी मनाने वालों की संख्या कम रही और सारा देश आज ही कृष्ण जन्माष्टमी मना रहा है।
ल की पोस्ट पर अभिषेक ओझा की टिप्पणी में कहा गया कि हम कब जन्माष्टमी मनाएँ? तो मुझे भी सोचना पड़ गया, वे आजकल संयुक्त राज्य में है। तब मैं ने उन्हें उत्तर दिया कि आप के यहाँ जब 1 सितंबर का सूर्योदय हुआ तो अष्टमी तिथि आरंभ हो चुकी थी इस कारण से आप को तो जन्माष्टमी 1 सितंबर में ही मनानी चाहिए। सौभाग्य यह कि 1 सितंबर की अर्धरात्रि तक यूएस में अष्टमी बनी रही। तो वहाँ एक सितंबर में ही जन्माष्टमी मनाना उचित था। कनाडा से समीर भाई ने भी यही समाचार दिया है कि उन्हों ने एक सितंबर में ही जन्माष्टमी मना ली है। इस से एक निष्कर्ष और यह भी निकला कि किस दिन कौन सी तिथि होनी चाहिए यह पृथ्वी पर हर देशांतर पर अलग अलग तय होगा।

जय कन्हैया लाल की!          जय नंद किशोर की!!            जय जसोदा नंदन की!!!

बुधवार, 1 सितंबर 2010

जन्माष्टमी आज या कल ? //// कितनी तरह के चांद्रमास ?

कुछ लोग आज कृष्ण जन्माष्टमी मना रहे हैं। कुछ लोग कल मनाएंगे। इस विविधता को ले कर कई लोगों के मन में हिन्दू परंपराओं को ले कर प्रश्न खड़े होते हैं, कि आखिर हम एक बड़े पर्व को मनाने के लिए भी क्यों नहीं एकमत हो सकते? पर यह प्रश्न इतना आसान नहीं है। वैसे तो इस्लाम के अनेक फिरके हैं। वहाँ भी ईद मनाने को ले कर विवाद खड़े होते रहे हैं। दाऊदी समुदाय कलेंडर के हिसाब से ईद मनाता है लेकिन अन्य फिरके चांद देख कर ही ईद का निश्चय करते हैं। चांद यदि माह के 29वें दिन दिखाई दे गया तो माह 29 दिन का हुआ अन्यथा वह 30 दिन का तो होगा ही। यदि रमजान के 29वें दिन चांद दिखाई दे गया तो अगले दिन ईद हो जाती है। वरना उस से अगले दिन तो होगी ही। यही कारण है कि अगले दिन चांद देखने की उत्सुकता भी वहीं समाप्त हो जाती है। कुछ पक्के ईमान वाले लोगों की गवाही पर काजी जी या इमाम ईद की घोषणा कर देते हैं। ............
भारतीय परंपरा के त्योहारों का मामला कुछ अलग है। जहाँ तक भारतीय तिथियोंका प्रश्न है वे चंद्रमा की कलाओं से निर्धारित होती हैं। प्रथम पक्ष की 15 तिथियाँ और द्वितीय पक्ष की 15 तिथियाँ। लेकिन चंद्रमा का एक माह अर्थात एक चांद्रमास कितने ही प्रकार के हो सकते हैं। 
1. नोडल-मास या ड्रेकोनियन-मास -हम जानते हैं कि पृथ्वी सूर्य की और चंद्रमा पृथ्वी की परिक्रमा करते हैं। इस तरह दोनों की अपनी कक्षाएँ हैं लेकिन इन कक्षाओं की स्थिति में लगभग 15 डिग्री का अंतर है और चंद्रमा की कक्षा दो स्थानों पर पृथ्वी की कक्षा को काटती है इन्हें अंग्रेजी में नोड कहते हैं। एक नोड से यात्रा आरंभ कर उसी नोड पर पुनः पहुँचने में लगने वाले समंय को हम एक चांद्र मास कह सकते हैं। यह चांद्रमास नोडल-मास या ड्रेकोनियन-मास कहलाता है।  यह 27.21222 दिनों का होता है। 
2. ट्रॉपिकल या उष्णकटिबंधीय मास - हम जानते हैं कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है। उस के घूमने की एक दिशा है। साथ ही वह सूर्य के भी वर्ष में एक चक्कर लगाती है। हमें आकाशीय पृष्ठभूमि में सूर्य वर्ष में पृथ्वी का एक चक्कर लगाता हुआ जान पड़ता है। इस तरह वर्ष भर में जिस वृत्त में सूर्य पृथ्वी से भ्रमण करता हुआ दिखाई देता है उसे हम क्रांतिवृत्त कहते हैं। पूरे वर्ष में दो बार ऐसा होता है कि जब पृथ्वी की विषुवत रेखा से हो कर यह क्रांतिवत्त गुजरता है। इन्हीं बिन्दुओं को हम विषुव कहते हैं। तथा मार्च माह में पड़ने वाले विषुव बिन्दु को ही पाश्चात्य ज्योतिष में मेष राशि का प्रस्थान बिंदु माना है। इस तरह क्रांतिवृत्त के किसी भी बिंदु से वापस उसी बिंदु तक चंद्रमा की एक यात्रा में लगा समय ट्रॉपिकल या उष्णकटिबंधीय मास कहलाता है। यह 27.3215 दिनों का होता है।  
3. साइडरियल या नाक्षत्र मास - खगोल में हम ग्रहों और उपग्रहों की गतियों की गणना के लिए नक्षत्रों को स्थिर मानते हैं। वस्तुतः ये तारे होते हैं। किसी एक तारे से उसी तारे तक की चंद्रमा की एक यात्रा में लगने वाले समय को हम साइडरियल या नाक्षत्र मास कहते हैं। यह 27.32166 दिनों का होता है।
4. एनोमेलिस्टिक या सामीप्य मास - हम जानते हैं की चंद्रमा की पृथ्वी के गिर्द चक्कर लगाने की कक्षा लगभग वृत्तीय है लेकिन पूरी तरह से नहीं। वह भी दीर्घवृत्तीय ही है। इस का नतीजा यह होता है कि चंद्रमा कभी पृथ्वी के निकटतम होता है और कभी अधिकतम दूरी पर होता है। इस कक्षा के उस बिंदु से जिस पर चंद्रमा पृथ्वी के सब से निकट होता है वापस उसी बिंदु तक लौटने की चंद्रमा की एक यात्रा में व्यतीत समय को हम एनोमेलिस्टिक मास कहते हैं। हम इसे सामीप्य मास भी कह सकते हैं। यह 27.55455 दिनों का होता है। 
5. साइनोडिक या संयुति मास - हम ने अब तक जितने भी चांद्रमास देखे हैं उन की अवधि लगभग 27.2 से 27.5 दिन के बीच की है। लेकिन हम यहाँ जिस महिने को व्यवहार में लाते हैं वह चांद्रमास तो इस से दो दिन अधिक का और लगभग 30 दिनों का होता है। जब भी हम महीना शब्द का उपयोग करते हैं तो उसे 30 दिनों का ही समझते हैं। इस का कारण है कि हम चंद्रमा को उस के पूर्ण होने और गायब हो जाने से जानते हैं। चंद्रमा जिस बिंदु पर पूर्ण दिखाई पड़ता है वह बिंदु वह है जब पृथ्वी चंद्रमा और सूर्य एक रेखा पर आ जाते हैं और पृथ्वी दोनों के बीच होती है। इसे ही हम पूर्णिमा कहते हैं। लेकिन एक रेखा पर तो वे अमावस्या को भी आते हैं, लेकिन तब चंद्रमा सूर्य और पृथ्वी के मध्य होता है। इसी बिंदु को हम नवचंद्र  बिंदु भी कहते हैं। नवचंद्र बिन्दु से नवचंद्र बिन्दु तक की चंद्रमा की यात्रा में लगने वाला समय साइनोडिक या संयुति मास कहलाता है। यह 29.53059 दिनों का होता है। 
न पाँच तरह के चांद्रमासों के अलावा और भी कितने ही तरह के महिने हैं। जैसे सौर मास और कलेंडर मास आदि आदि। यह लम्बी कहानी है। अब आप ही देखिए न मैं बात करने चला था जन्माष्टमी की कि वह दो दिन क्यों मनाई जा रही है। लेकिन बीच में ही यह चांद्रमास गाथा आरंभ हो गई। चलो आज अब इतना ही समय है। जन्माष्टमी की बात कल करें आखिर कल भी जन्माष्टमी है और फिर परसों हम कृष्ण जन्मोत्सव भी तो मनाएँगे। अभी तो हम जय बोल देते हैं। जय बोलो नन्द लाला, नन्द किशोर की। (एक बात बता दूँ, इन दो नामों में बाद वाला  नाम मेरी वल्दियत भी है)

शुक्रवार, 27 अगस्त 2010

स्टार्ट-रीस्टार्ट बटन और कज्जली तीज की मेहंदी

रात को इसी ब्लाग की एक पोस्ट टाइप करने में लीन था। दो चरण समाप्त हुए और एक चित्र जरूरत पड़ी जो राँच साल से कंप्यूटर में सहेजा हुआ है, उसे तलाश करने लगा। वह मिला ही नहीं। पोस्ट अधूरी थी। कंप्यूटर उसे तलाश कर ही रहा था कि अचानक बिजली एक चौथाई सैकंड के लिए ट्रिप हुई और कंम्प्यूटर बंद हो गया। यूपीएस तो पिछले छह माह से हमारे कंप्यूटर सप्लायर-सुधारक शैलेन्द्र न्याती के कब्जे में है। वह मेरी ससुराल के कस्बे का है तो हमें जीजा कहता है। हम भी अपने कंप्यूटर का भविष्य साले के हाथों सौंप कर निश्चिंत हैं। वह वैसे भी होशियार और बिलकुल प्रोफेशनल है और जुगाड़ी भी। यूपीएस की बैटरी खत्म हो चुकी थी, उसे बदला जाना था। इस बीच शैलेंद्र का वर्कशॉप कम दुकान अपना स्थान बदल चुकी है। यूपीएस वापस मिलेगा भी या नहीं, इस में अब संदेह है।  
बिजली ट्रिप होने का सीधा प्रभाव हुआ कि कंप्यूटर बंद हुआ। ऑफिस की ट्यूबलाइट वापस रोशनी देने लगी। मैं ने कंप्यूटर का री-स्टार्ट बटन दबाया। कंप्यूटर फिर भी चालू नहीं हुआ। फिर स्टार्ट बटन दबाया लेकिन उस से तो कुछ होना ही नहीं था। फिर रीस्टार्ट बटन दबाया। आखिर कंप्यूटर ने पूरी तरह से चालू होने से मना कर दिया। गड़बड़ कोई एक माह पहले भी हुई थी। तब भी कंप्यूटर जी ने बार बार बटन दबाने के बावजूद चालू होने से मना कर दिया था। तब इन्हें अपनी पत्नी के पीहर यानी साले साहब शैलेंद्र न्याती जी के यहाँ भेजना पड़ा था। वहाँ कोई पाँच मिनट में ही ये चालू हो गये। उन का स्टार्ट बटन सेवानिवृत्त हो चुका था। फिर उस का चार्ज री-स्टार्ट बटन को दिया गया। तब से हमारे कंप्यूटर जी री-स्टार्ट बटन से ही चालू होते रहे हैं। लगता है अब रीस्टार्ट बटन भी अपनी गति को प्राप्त होने को है। शायद उसे ईर्ष्या होने लगी हो कि मेरा अभिन्न साथी सेवानिवृत्त हो कर आराम कर रहा है, तब फिर मैं क्यों काम करूं? मैं ने भी बटनों पर निष्फल प्रयास कर ने के स्थान पर बिस्तर की शरण लेना उचित समझा।
म ने भी राहत की साँस ली और रात जल्दी ही सोने के लिए अपने कमरे की शरण ली। श्रीमती जी जाग ही नहीं रही थीं बैठ कर टीवी देख रही थीं। मेरी हैरानियत तुरंत दूर हो गयी। वे मेहंदी लगाए बैठी थीं, जो मुझे याद दिला रहा था कि कल कज्जली तीज है। वैसे वे सुबह मेरे अदालत जाने के बाद मेहंदी लगा चुकी थीं। लेकिन रंग ठीक से नहीं खिला होने से दुबारा लगा चुकी थीं। मैरे होठों पर मुस्कुराहट आ गई। मैं ने दिन में एक महिला अपर जिला न्यायाधीश को अदालत के इजलास में काम करते हुए देखा था। उन्हों ने दोनों हाथों की उंगलियों से ले कर कोहनी तक खूबसूरत मेहंदी लगाई हुई थी। उन्हों ने रक्षा बंधन के साथ मिले तीन दिनों के अवकाश का अच्छी तरह आनंद लिया था। मैं ने उन के बारे में पत्नी जी को बताया तो तुरंत प्रतिक्रिया हुई कि वे अवश्य अग्रवाल होंगी। यह अनुमान बिलकुल सही था। 
सुबह देखा तो पत्नी जी के हाथों की मेहंदी पूरी तरह रच चुकी थीं। मैं दिन के प्रथम प्रसाधन से लौटा तो श्रीमती जी मेहंदी रचे हाथों से दिन का पहला कॉफी का प्याला लिए हाजिर थीं। उसे निपटा कर अपनी आदत के मुताबिक बाहर गया। अखबार समेट अपने ऑफिस की अपनी कुर्सी पर बैठा। कुछ अखबारों की सुर्खियाँ देखीं और आदतन बिजली के बटन पर हाथ गया जिस की सप्लाई कंप्यूटर को जाती है। फिर सहज ही कंप्यूटर के री-स्टार्ट बटन पर उंगली गई। अरे! यह क्या बटने के दोनों और की सूचक बत्तियाँ हरी और नीली रोशनी में जगमगा रही थीं। रात भर विश्राम कर के री-स्टार्ट बटन ने फिर काम करना आरंभ कर दिया था। नतीजे के तौर पर यह पोस्ट हाजिर है। पर नोटिस मिल चुका है, बटन बदलवाना पड़ेगा। वह मैं पिछले महिने बदलवा चुका होता। पर साले साहब का कहना था कि इस डिब्बे की डिजाइन में फिट होने वाला बटन अब नहीं आता। मैं ने प्रश्न किया था -फिर? तो शैलेन्द्र बोला था - फिर क्या? जुगाड़ करेंगे, नहीं बैठा तो डब्बा ही बदल देंगे। मैं ने कहा डब्बा अंदर के सामान सहित बदलने का क्या? नया पाँच सौ जीबी स्टोरेज, दो जीबी रेम और नए प्रोसेसर वाला रिप्लेसमेंट में दे देंगे, बस बारह हजार देनें पड़ेंगे।  आप की स्पीड भन्नाट हो जाएगी। तब से मैं सोच रहा हूँ कि बारह हजार खर्च किए जाएँ या नहीं ? !!!