@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: चिकित्सा
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शुक्रवार, 10 नवंबर 2023

धन्वन्तरि जयन्ती

आज धन्वन्तरि जयंती है। कहते हैं धन्वन्तरि उज्जयनी के राजा विक्रमादित्य के दरबार के नवरत्न थे। उन्हें विष्णु का एक अवतार भी कहा जाता है।

यह भी कहते हैं कि 800 या 600 वर्ष ईसा पूर्व प्राचीन काल के महान शल्य चिकित्सक सुश्रुत ने धनवन्तरि से वैद्यक की शिक्षा ग्रहण की थी।

इसी तरह की बहुत सी विरोधाभासी सूचनाएँ हैं जो विभिन्न माध्यमों में मिल जाती हैं।

मनुष्य आदिकाल से बीमारियों और स्वास्थ्य रक्षा के लिए प्रयत्न करता रहा है। जिसने जो खोजा, जो ज्ञान प्राप्त किया उसे आने वाली पीढ़ी को हस्तान्तरित कर दिया। मोर्य और गुप्त काल में जब चिकित्साशास्त्र को संहिताबद्ध किया जा रहा था तो इस विद्या के लिए एक काल्पनिक देवता का आविष्कार कर लिया गया जिसे धन्वन्तरि कहा गया। पुराणों में धन्वन्तरि की उत्पत्ति समुद्र मंथन से कही जाती है। जब समुद्र मंथन का आख्यान रचा गया। चिकित्सा के व्यवसाय में अधिकांश ब्राह्मण ही थे। पुराणों की रचना के दौरान मनुष्य का समस्त ज्ञान और कृतित्व ईश्वर को समर्पित कर दिया गया। तभी चिकित्सा के लिए हुए तब तक के तमाम प्रयास और प्राप्त ज्ञान को भी ईश्वर को समर्पित कर दिया गया।

दादाजी थोड़े बहुत, और पिताजी पूरे वैद्य थे। मैंने भी आयुर्वेद की शिक्षा ग्रहण की। दिल्ली विद्यापीठ से वैद्य विशारद किया और आयुर्वेदिक चिकित्सालय में इन्टर्नशिप भी की। बचपन से ही निकट के आयुर्वेद औषधालयों में धनतेरस के दिन भगवान धन्वन्तरि की पूजा होती देखी है और उन पूजाओं में शामिल भी हुआ हूँ। यह पूजा भारतीय चिकित्साशास्त्र में अपना योगदान करने वाले तमाम चिकित्सकों का स्मरण और आभार प्रकट करने का अवसर है। इस अवसर का हमें कभी त्याग नहीं करना चाहिए। जब से धनतेरस का मिथक धन-संपदा के साथ जुड़ा है तब से धन्वन्तरि को लोग विस्मृत करते चले जा रहे हैं। आज धन्वन्तरि का स्मरण करने वाले बहुत उंगलियों पर गिने जा सकते हैं। दूसरी ओर बाजार आज जगमग है, भारी भीड़ है। लोग एक दूसरे से सटे हुए निकल रहे हैं।

आज धन्वन्तरि जयन्ती के इस अवसर पर भारत के तथा दुनिया भर के चिकित्सकों और चिकित्साशास्त्र में अपना योगदान करने वाले तमाम वैज्ञानिकों का आभार प्रकट करता हूँ। अनन्त शुभकामनाएँ कि सभी को चिकित्सा और स्वास्थ्य प्राप्त हो।

 

सोमवार, 25 अप्रैल 2011

बाबा ईश्वरीप्रसाद की कॉफी और क्वाँळजी के लिए प्रस्थान

श्वरी प्रसाद केशवराय पाटन में सहकारी शुगर मिल में काम करता था। लाल झंडा यूनियन का ईमानदार नेता था। कभी उस ने भी क्रांति और समाजवाद के सपने देखे थे और उन के लिए काम भी किया था। उसे आज भी दृढ़ विश्वास है कि समाज जरूर बदलेगा। फिर अचानक इलाके में गन्ना उत्पादन घाटे का सौदा हो गया। चीनी मिल बंद होने के कगार पर पहुँच गई। एक दिन वह काम से लौटा तो थका हुआ था। कुछ पी खा कर बिस्तर पर सोया ही था कि मिल से फोन आ गया। कोई विवाद हो गया था और प्रबंधक बुला रहे थे। उस ने मना किया कि जो भी होगा सुबह देखेंगे। लेकिन ज्यादा जोर दिया तो वह चला गया। एक तो थकान, दूसरे नींद और तीसरे नशा। विवाद में प्रबंधकों के साथ खुल कर गाली-गलौच किया। प्रबंधक तो ताक में थे ही उसे आरोप लगा कर नौकरी से चलता किया। मिल बंद करना आसान हो गया। कुछ दिन मिल कॉलोनी में रहता रहा फिर गाँव लाखेरी चला गया। वहाँ एक हनुमान मंदिर पर कुछ असामाजिक लोग कब्जा करने को थे। उस ने वहाँ धूनी रमा दी और बाबा जी हो गया। मंदिर पर रामायण पाठ शुरु हो गया। लोग आने लगे तो मंदिर का जीर्णोद्धार करवा दिया। कुछ बरस पहले जब मेगा हाईवे बन रहा था तो इंद्रगढ़ से तीन किलोमीटर आगे एक हनुमान मूर्ति स्थापित थी, कोई उस की पूजा भी न करता था और वह सड़क में बाधा थी। ठेकेदार ने उसे उठा कर आगे नाले में फिंकवा दिया। गाँव वालों को पता लगा तो उन का गुस्सा भड़क उठा। पुरानी मूर्ति तो खंडित हो गई थी। वे नई ले आए और सड़क के ठीक किनारे उसे स्थापित कर दिया। मूर्ति तो स्थापित हो गई लेकिन अब उस की सुरक्षा कैसे हो? गाँव वालों को ईश्वरी बाबा की याद आ गई। उन्हें वहाँ ले गए। ईश्वरी बाबा ने 108 अखंड रामायण पाठ की घोषणा कर दी। धीरे-धीरे भक्तगण जुड़ने लगे। कोई पत्थर लाया कोई सीमेंट। मूर्ति के चारों और एक कमरा बन गया और लोहे के जंगले का दरवाजा लग गया। मंदिर तो हो ही गया। अखंड पाठ अभी चल रहा है।
टोल प्लाजा से लौटते हुए
श्वरी बाबा हमारी कार को टोल प्लाजा से मुफ्त निकाल मंदिर तक ले गए। मंदिर के पास ही एक चाय की थड़ी लगी थी। उस के अलावा कुछ नहीं था। ईश्वरी कहने लगे -आप को कॉफी पिलाने लाया हूँ। इस के पहले कॉफी तभी पी थी जब आप के पास कोटा आया था। फिर वह अपनी और मंदिर की कथा सुनाने लगे। उन्हें विश्वास था कि दो-चार बरस में मंदिर भव्य रूप ले लेगा। मैं ने कहा तुमने तो चोला ही बदल डाला -कहाँ यूनियन बाजी और कहाँ ये जटाजूट बाबा। ईश्वरी कहने लगे -कुछ भी हो मैंने लाल झंडा तो नहीं छोड़ा। जिस दिन लोग गरम होंगे  ऐसे ही लोगों को ले कर मैदान में कूद पड़ूंगा। यहाँ भी लोगों को संगठित तो कर ही रहा हूँ। मुझे लगा कि अभी भी क्रांति और समाजवाद का सपना उस की आँखों में जीवित है। कॉफी पी कर हम वहाँ से उठ लिए। हमें क्वाँळजी भी जाना था। ईश्वरी ने क्वाँळजी जाने का मार्ग बताया। 

क्वाँळजी मंदिर के बाहर एक मूर्ति
क्वाँळजी' बोले तो कमलेश्वर महादेव। यह इंद्रगढ़ से कोई पन्द्रह किलोमीटर दूर जंगल के बीच सातवीं से नवीं शताब्दी के बीच निर्मित शिव मंदिर है। बाद में 1345 में राजा जैतसिंह ने इस की मरम्मत और नवीनीकरण करवाया। (यहाँ इस के बारे में कुछ जानकारी उपलब्ध है) मैं पहले भी यहाँ दो बार जा चुका हूँ। एक बार पिताजी और माँ साथ थे। तब मेरी उम्र कोई आठ नौ वर्ष की रही होगी। तब यहाँ का दृश्य मनोरम था। एक बड़े चबूतरे पर स्थापित विशाल, भव्य और कलात्मक शिव मंदिर। पास ही तीन कुंड। जिन में एक छोटा और एक बड़ा कहलाता था। आकार में बड़े कुंड को छोटा और छोटे को बड़ा कहते थे। बड़े कुंड में लोग मृतकों की अस्थियाँ और राख डालते थे और उस का जल राख के कारण हमेशा काला रहता था। लेकिन उस कुंड में स्नान अवश्य करते थे। उस के बाद छोटे कुंड के निर्मल जल में स्नान करते। लोगों को विश्वास था कि बड़े कुंड में स्नान करने से चर्मरोग मिट जाते हैं। पास ही एक छोटी सी बारह मासी नदी बहती थी। तीन पहाड़ी सोतों का पानी उस में आता था और त्रिवेणी  कहलाती थी।  रात ठहरने को मंदिर परिसर के सिवा कुछ न था। एक पक्की धर्मशाला जातीय समुदाय द्वारा निर्मित की जा रही थी। उस बार पिताजी ने वहीं त्रिवेणी के किनारे जगरा लगा कर लड्डू-बाटी बनाए थे। उस समय की बहुत धुंधली यादें अब रह गई हैं। फिर दूसरी बार अचानक आना हुआ।

म्मा के हाथों में एक्जीमा था। दवाओं से मिट जाता था। लेकिन साल दो साल बाद फिर से निकल आता था। उस की इच्छा थी कि वह कमलेश्वर महादेव के कुंड में स्नान कर आए। शायद एक्जीमा से छुटकारा मिले। पिता जी के एक शिष्य ने जाने की योजना बनाई तो माँ ने भी उन के साथ जाना तय कर लिया। माँ तैयार हो गई। सुबह की ट्रेन से जाना था। लेकिन एक घंटे पूर्व ही पिताजी के शिष्य ने खबर भिजवाई कि उन्हें कोई जरूरी काम पड़ गया है तो नहीं जा पाएंगे। माँ का मूड खराब हो गया। मैं ने कहा मैं साथ चलता हूँ। उस बार वहाँ गया तो वहाँ अनेक धर्मशालाएँ बन चुकी थीं। कुंडों और त्रिवेणी में पानी अब भी था, पर उस की निर्मलता कम हो चली थी। माँ ने वहाँ स्नान किया दर्शन किए और हम चले आए। उस यात्रा में आगे डिग्गी के कल्याण जी और जयपुर भी गए। जयपुर में माँ ने गलता कुंड में भी स्नान किया और उसी रात दोनों हाथों का एक्जीमा भड़क उठा. तुरंत घर लौटे और डाक्टर का इलाज आरंभ करवाया। डाक्टर इलाज कर के थक चुका था। उस ने स्वयं-रक्त चिकित्सा (Autologous blood treatment) की प्राचीन पद्धति अपनाई और माँ का एक्जीमा मिट गया। अम्मा कहती है कि यह सब कमलेश्वर महादेव की कृपा है। डाक्टर को यह स्वयं-रक्त चिकित्सा पहले क्यों याद न आई। यह तीसरा मौका था जब मैं वहाँ जा रहा था। इस बार पत्नी और दोनों बच्चे साथ थे। 

गुरुवार, 6 जनवरी 2011

अतिशक्तिकृत होमियोपैथिक औषधियों में मूल पदार्थ के नैनो पार्टिकल्स मौजूद -आईआईटी मुम्बई के शोधकर्ताओं की खोज

होमियोपैथी अन्य चिकित्सा पद्धतियों की अपेक्षा एक कम खर्चीली और गरीब जनता को स्वास्थ्य लाभ पहुँचाने वाली चिकित्सापद्धति है। आज भाई सतीश सक्सेना जी ने होमियोपैथी के उपयोग से उन की पुत्री के थॉयरॉयड की परेशानी से मुक्त होने की जानकारी दी है। कुछ  लोग इसे चमत्कार कहते हैं। लेकिन यह चमत्कार नहीं, अपितु होमियोपैथिक औषधि के उचित प्रयोग से प्राप्त एक सफलता है।
कोई छह माह पूर्व ही ब्रिटिश मेडिकल एसोसिएशन ने कहा था कि अतितनुकृत (200C) शक्ति और इस से अधिक तनुकृत या शक्तिकृत होमियोपैथी औषधियों में मूल तत्व या यौगिक का कोई भी अंश उपस्थित नहीं रहता और वह औषध किसी भी प्रकार से रोगी, रोग या शरीर को प्रभावित नहीं कर सकती। इसी आधार पर होमियोपैथी को ब्रिटेन में किसी भी प्रकार की राजकीय सहायता से इन्कार कर दिया गया था। उन्हीं दिनों मेरी एक पोस्ट पर आई टिप्पणियों में बलजीत बस्सी ने कहा था कि शरीर में स्वयं ठीक होने की शक्ति होती है और दवा में विश्वास के कारण 60% प्लेसबो प्रभाव काम करता है। स्वयं होमियोपैथिक औषधि में कुछ भी प्रभाव नहीं होता। लेकिन मैं ने स्वयं अपने अनुभव के आधार पर यह कहा था कि अभी होमियोपैथी को अपनी तार्किकता सिद्ध करनी शेष है, लेकिन वह काम करती है और उस की औषधियों में प्रभावकारी क्षमता है। 
ब इसी बात को आईआईटी मुंबई के केमीकल इंजिनियरिंग विभाग में चल रही शोध ने पुष्ट किया है। शोध करने वाले इस दल में प्रशांत चक्रमाने (पीएच.डी. रिसर्च स्कॉलर) डॉ. ए.के. सुरेश (प्रोफेसर एवं फैकल्टी डीन, डॉ. एस.जी.काने (एडजंक्ट प्रोफेसर एवं आईआईटी मुंबई एलुम्नी) तथा डॉ. जयेश बेल्लार (प्रोफेसर एवं आईआईटी मुंबई एलुम्नी) सम्मिलित हैं। इस दल के एक शोध पत्र में जो शोध पत्रिका होमियोपैथी में प्रकाशित हुआ है यह कहा गया है कि 200C तक तथा उस से अधिक तनुकृत/शक्तिकृत औषधियों में भी मूल पदार्थ के नैनो अंश पाए गये हैं। उन्हों ने इस निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोपी, इलेक्ट्रॉन डिफ्रेक्शन तथा परमाणु स्पेक्ट्रोस्कोपी आदि तकनीकों का उपयोग किया है। चिक्रमाने ने पाया कि अंकगणितीय निष्कर्षों के विपरीत आरंभिक पदार्थ इन उच्च शक्तिकृत औषधियों में नैनो पार्टिकल्स के रूप में मौजूद रहते हैं।

मंगलवार, 29 जून 2010

ऐसे चिकित्सक को क्या दंड मिलना चाहिए?

आज अखबार में समाचार था-
क महिला रोगी के पैर में ऑपरेशन कर रॉड डालनी थी, जिस से कि टूटी हुई हड्डी को जोड़ा जा सके। रोगी ऑपरेशन टेबल पर थी। डाक्टर ने उस के पैर का एक्स-रे देखा और पैर में ऑपरेशन कर रॉड डाल दी। बाद में पता लगा कि रॉड जिस पैर में डाली जानी थी उस के स्थान पर दूसरे पैर में डाल दी गई। 
डॉक्टर का बयान भी अखबार में था कि एक्स-रे देखने के लिए स्टैंड पर लगा हुआ था। किसी ने उसे उलट दिया जिस के कारण उस से यह गलती हो गई। 
मुझे यह समाचार ही समझ नहीं आया। आखिर एक चिकित्सक कैसे ऐसी गलती कर सकता है कि वह जिस पैर में हड्ड़ी टूटी हो उस के स्थान पर दूसरे पैर में रॉड डाल दे। क्या चिकित्सक ने एक्स-रे देखने के उपरांत पैर को देखा ही नहीं? क्या ऑपरेशन करने के पहले उस ने भौतिक रूप से यह जानना भी उचित नहीं समझा कि वास्तव में किस पैर की हड्डी टूटी है? क्या एक स्वस्थ पैर और हड्डी टूट जाने वाले पैर को एक चिकित्सक पहचान भी नहीं सकता? या चिकित्सक इतने हृदयहीन और यांत्रिक हो गए हैं कि वे यह भी नहीं जानते कि वे एक मनुष्य की चिकित्सा कर रहे हैं किसी आम के पेड़ पर कलम नहीं बांध रहे  हैं?
सुप्रीम कोर्ट ने एक निर्णय में कहा है कि चिकित्सकों के विरुद्ध अपराधिक लापरवाही के लिए कार्यवाही करने के पहले यह आवश्यक है कि उस मामले में किसी चिकित्सक की साक्ष्य उपलब्ध होनी चाहिए कि लापरवाही हुई है। क्या ऐसे मामले में भी किसी चिकित्सक की इस तरह की साक्ष्य की आवश्यकता है? मैं जानता हूँ कि नहीं। इस तरह के मामले में किसी चिकित्सक की इस तरह की साक्ष्य की आवश्यकता नहीं है। इस समाचार को पढ़ने के बाद मेरे सामने अनेक प्रश्न एकत्र हो गए हैं। मसलन....
1. क्या इलाके का पुलिस थाना जिसे समाचार पत्र से इस तथ्य की जानकारी हो गई है उस चिकित्सक के विरुद्ध बिना मरीज से शिकायत प्राप्त किए कोई अपराधिक मुकदमा दर्ज करेगा? 
2. मरीज स्वयं उस चिकित्सक के विरुद्ध पुलिस थाने में रपट लिखाए तब भी क्या पुलिस इस मामले में प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कर अन्वेषण आरंभ करेगा? 
3. क्या अस्पताल का मुखिया ऐसे चिकित्सक के विरुद्ध कोई अनुशासनिक कार्यवाही करेगा?
मुझे इन सभी प्रश्नों के उत्तर की तलाश है जो शायद आने वाले कुछ दिनों या महिनों में मिल ही जाएँगे। लेकिन दो प्रश्न और है जिस का उत्तर मैं आप पाठकों से चाहता हूँ;
हला यह कि यदि पुलिस ऐसे चिकित्सक के विरुद्ध कार्यवाही करे, न्यायालय में उस के विरुद्ध आरोप पत्र प्रस्तुत कर दे और यह साबित हो जाए कि चिकित्सक ने अपराधिक लापरवाही की है तो न्यायालय को उस चिकित्सक को सजा देना चाहिए या नहीं? यदि हाँ तो कितनी?
दूसरा यह कि यदि अस्पताल का मुखिया चिकित्सक के विरुद्ध अनुशासनिक कार्यवाही करे तो चिकित्सक को क्या दंड मिलना चाहिए?

गुरुवार, 22 अप्रैल 2010

ब्लागीरी को अपने काम और जीवन का सहयोगी बनाएँ

सोमवार से शोभा के बाऊजी, और जीजी हमारे बच्चों के नाना जी और नानीजी साथ हैं तो घर में रौनक है।  बच्चों के बाहर रहने से हम दोनों पति-पत्नी ही घर में रहते हैं। कोई भी आता है तो रौनक हो जाती है। बाऊजी अस्सी के होने जा रहे हैं, कोई सात बरस पहले उन्हें मधुमेह ने पकड़ लिया। वे स्वयं नामी ऐलोपैथिक चिकित्सक हैं और इलाके में बालरोग विशेषज्ञ के रूप में विख्यात भी। वे अपने शरीर में शर्करा की मात्रा नियंत्रित रखते हैं। फिर भी मधुमेह ने शरीर पर असर किया है। अब कमर के निचले हिस्से में सुन्नता का अनुभव करते हैं। उन की तंत्रिकाओँ में संचार की गति कुछ मंद हुई है। कोटा के एक ख्यात चिकित्सक को दिखाने आते हैं। इस बार जीजी को भी साथ ले कर आए। हम ने आग्रह किया तो रुक गए। पिछले दो दिनों से लोग उन से मिलने भी आ रहे हैं। लेकिन इन दो दिनों में ही उन्हें अटपटा लगने लगा है। अपने कस्बे में उन बाऊजी के पास सुबह से मरीज आने लगते हैं। वे परिवार के व्यवसायों पर निगरानी भी रखते हैं। जीजी भी सुबह से ही परिवार के घरेलू और खेती कामों पर  निगरानी रखती हैं और कुछ न कुछ करती रहती हैं। यहाँ काम उन के पास कुछ नहीं, केवल बातचीत करने और कुछ घूम आने के सिवा तो शायद वे कुछ बोरियत महसूस करने लगे हों। अब वे वापस घर जाने या जयपुर अपनी दूसरी बेटी से मिलने जाने की योजना बना रहे हैं। मुझे समय नहीं मिल रहा है, अन्यथा वे मुझे साथ ले ही गए होते। हो सकता है कल-परसों तक उन के साथ जयपुर जाना ही हो। सच है काम से विलगाव बोरियत पैदा करता है। 
रात को मैं और बाऊजी एक ही कमरे में सो रहे थे, कूलर चलता रह गया और कमरा अधिक ठंडा हो गया। मैं सुबह उठा तो आँखों के पास तनाव था जो कुछ देर बाद सिर दर्द में बदल गया। मैं ने शोभा से पेन किलर मांगा तो घर में था नहीं। बाजार जाने का वक्त नहीं था। मैं अदालत के लिए चल दिया। पान की दुकान पर रुका तो वहाँ खड़े लोगों में से एक ने अखबार पढ़ते हुए टिप्पणी की कि अब महंगाई रोकने के लिए मंदी पैदा करने के इंतजाम किए जा रहे हैं। दूसरे ने प्रतिटिप्पणी की -महंगाई कोई रुके है? आदमी तो बहुत हो गए। उतना उत्पादन है नहीं। बड़ी मुश्किल से मिलावट कर कर के तो जरूरत पूरी की जा रही है, वरना लोगों को कुछ मिले ही नहीं। अब सरकारी डेयरी के दूध-घी में मिलावट आ रही है। वैसे ही गाय-भैंसों के इंजेक्शन लगा कर तो दूध पैदा किया जा रहा है। एक तीसरे ने कहा कि सब्जियों और फलों के भी इंजेक्शन लग रहे हैं और वे सामान्य से बहुत बड़ी बड़ी साइज की आ रही हैं। मैं ने भी प्रतिटिप्पणी ठोकी -भाई जनसंख्या से निपटने का अच्छा तरीका है, सप्लाई भी पूरी और फिर मिलावट वैसे भी जनसंख्या वृद्धि में कमी तो लाएगी ही।
दालत पहुँचा, कुछ काम किया। मध्यांतर की चाय के वक्त सिर में दर्द असहनीय हो चला। मुवक्किल कुछ कहना चाह रहे थे और बात मेरे सिर से गुजर रही थी। आखिर मेरे एक कनिष्ठ वकील ने एनालजेसिक गोली दी। उसे लेने के पंद्रह मिनट में वापस काम के लायक हुआ। घऱ लौट कर कल के एक मुकदमे की तैयारी में लगा। अभी कुछ फुरसत पाई है तो सोने का समय हो चला है। कल पढ़ा था खुशदीप जी ने सप्ताह में दो पोस्टें ही लिखना तय किया है। अभी ऐसा ही एक ऐलान और पढ़ने को मिला। मुझे नहीं लगता कि पोस्टें लिखने में कमी करने से समस्याएँ कम हो जाएंगी। बात सिर्फ इतनी है कि हम रोजमर्रा के कामों  में बाधा पहुँचाए बिना और अपने आराम के समय में कटौती किए बिना ब्लागीरी कर सकें। इस के लिए हम यह कर सकते हैं कि हमारी ब्लागीरी को हम हमारे इन कामों की सहयोगी बनाएँ। जैसे तीसरा खंबा पर किया जाने वाला काम मेरे व्यवसाय से जुड़ा है और मुझे खुद को ताजा बनाए रखने में सहयोग करता है। अनवरत पर जो भी लिखता हूँ बिना किसी तनाव के लिखता हूँ। यह नहीं सोचता कि उसे लिख कर मुझे तुलसी, अज्ञेय या प्रेमचंद बनना है।

मंगलवार, 13 अप्रैल 2010

होमियोपैथी को अभी अपनी तार्किकता सिद्ध करनी शेष है

मैं ने सहज ही डॉ हैनिमेन जन्मदिवस पर अपनी बात अपने अनुभव  के साथ रखी थी। उस पर आई टिप्पणियों में होमियोपैथी को अवैज्ञानिक और अंधविश्वास होने की हद तक आपत्तियाँ उठाई गईं। तब मैं ने अपनी अगली पोस्ट में एक सवाल खड़ा किया कि क्या होमियोपैथी अवैज्ञानिक है
स पोस्ट पर उन्हीं मित्रों ने पुनः होमियोपैथी को अवैज्ञानिक बताया और कुछ ने उस पर विश्वास को अंधविश्वास भी कहा। भाई बलजीत बस्सी ने तो यहाँ तक कहा कि---
"दावे पर दावा ठोका जा रहा है. मैं हैरान हूँ हमारे देश का पढ़ा लिखा तबका अंध-विश्वास में पूरी तरह घिर चूका है. यहाँ तो विज्ञानं पर से ही विश्वास उठ चूका है. मनुष्य के शरीर में बीमारी से लड़ने की ताकत होती है और ६०% प्लेसीबो प्रभाव भी होता है"।
डॉ. अमर की प्रारंभिक टिप्पणी बहुत संयत थी कि -
"मैं विरोधी तो नहीं, किन्तु इसे लेकर अनावश्यक आग्रहों से घिरा हुआ भी नहीं !
सिबिलिया सिमिलिस आकर्षित तो करती है, और इसमें मैंनें मगजमारी भी की है ।
ऍलॉस पैथॉस के सिद्धान्त को लेकर आलोच्य ऎलोपैथिक से जुड़े विज्ञान सँकाय, आज जबकि मॉलिक्यूलर मेडिसिन की ओर उन्मुख हो रहा है । होम्योपैथी को अपनी तार्किकता सिद्ध करना शेष है । लक्षणों के आधार पर दी जाने वाली दवायें सामान्य स्थिति में उन्हीं लक्षणों के पुनर्गठन में असफ़ल रही हैं । अपने को स्पष्ट करने के लिये मैं कहूँगा कि The results of any scientific experiment should be repeatedly reproducible in universality ! जहाँ बात जीवित मानव शरीर से छेड़खानी की हो, वहाँ सस्ते मँहगे और मुनाफ़े से जुड़े मुद्दों से ऊपर उठ कर, उपचार की तार्किकता देखनी चाहिये ।" 
लेकिन बाद की टिप्पणियों में वे भी संयम तोड़ गए। 
मैं मानता हूँ कि होमियोपैथी को अभी अपनी तार्किकता सिद्ध करनी शेष है। होमियोपैथी का अपना सैद्धांतिक पक्ष है। उस का अपना एक व्यवहारिक पक्ष भी है। ऐलोपैथी के समर्थकों का एक ही तर्क होमियोपैथी पर भारी पड़ता है कि आखिर उस की 30 शक्ति वाली दवा इतनी तनुकृत हो जाती है कि उस की एक खुराक में मूल पदार्थ के एक भी अणु के होने की संभावना गणितीय रूप से समाप्त हो जाती है। इस तर्क पर होमियोपैथी के समर्थकों की ओर से जो तर्क दिए जाते हैं वे निश्चित रूप से आज गले उतरने लायक नहीं हैं। उन्हीं तर्कों के आधार पर होमियोपैथी को अवैज्ञानिक करार दिया जाता है।
दि हम बलजीत बस्सी के कथन पर ध्यान दें कि शरीर में स्वयं खुद को ठीक करने की शक्ति होती है और 60 प्रतिशत प्लेसबो प्रभाव होता है। यदि ऐसा है तो फिर किसी भी प्रकार की चिकित्सा पद्धति की आवश्यकता ही समाप्त हो जाएगी। मनुष्य के अतिरिक्त इस हरित ग्रह पर संपूर्ण जीवन बिना किसी चिकित्सा पद्धति पर निर्भर रहा है और उस ने अपना विकास किया है। लेकिन यह कह देने से काम नहीं चल सकता। हम स्वयं जानते हैं कि मनुष्य को चिकित्सा की आवश्यकता है और यदि चिकित्सा पद्धतियाँ नहीं होती तो आज मानव विश्व पर सर्वश्रेष्ठ प्राणी नहीं होता। निश्चित रूप से ऐलोपैथी ने मानव को आगे बढ़ने, उस की आबादी में वृद्धि करने और उस की उम्र बढ़ाने में महत्वपूर्ण योगदान किया है। लेकिन ऐलोपैथी की इस विश्वविजय के उपरांत भी दुनिया भर में अन्य औषध पद्धतियाँ मौजूद हैं और समाप्त नहीं हुई हैं। ऐलोपैथी का यह साम्राज्य भी उन्हीं प्राचीन चिकित्सा पद्धतियों की नींव पर खड़ा हुआ है। आज भी विभिन्न प्राचीन चिकित्सा पद्धतियों से ऐलोपैथी निरंतर कुछ न कुछ ले कर स्वयं को समृद्ध करती रहती है। 
ह भी एक तथ्य है कि स्वयं डॉ. हैनीमेन एक एलोपैथ थे। ऐलोपैथी के लिए ही मैटीरिया मेडीका लिखते समय अनायास पदार्थो (प्राकृतिक अणुओं) के व्यवहार पर ध्यान देने और फिर उस व्यवहार को परखने के फलस्वरूप ही होमियोपैथी का जन्म हुआ। होमियोपैथी कोई प्राचीन पद्धति नहीं है। उस का जीवन काल मात्र दो सौ वर्षों का है। मेरे विचार में होमियोपैथी के प्रति कठोर आलोचनात्मक और उसे सिरे से खारिज कर देने वाला रुख उचित नहीं है। वह भी तब जब कि वह बार बार अपनी उपयोगिता प्रदर्शित करती रही है। मैं स्वयं अवैज्ञानिक पद्धतियों का समर्थक नहीं हूँ। यदि मैं ने उसे प्रभावी नहीं पाया होता तो शायद मैं आज यह आलेख नहीं लिख रहा होता। मैं ने पिछले अट्ठाईस वर्षों में अनेक बार और बार बार इसे परखा है और प्रभावी पाया है। मैं भी होमियोपैथ चिकित्सकों से सदैव ही यह प्रश्न पूछता हूँ कि आखिर होमियोपैथी दवा काम कैसे करती है? 
मुझे इस प्रश्न का उत्तर आज तक भी प्राप्त नहीं हुआ है। लेकिन मैं ने होमियोपैथी को प्रभावी पाया है और बारंबार प्रभावी पाया है। मैं यह भी जानता हूँ कि होमियोपैथी मात्र एक औषध पद्धति है। ऐलोपैथी ने अनेक परंपरागत और प्राचीन औषध पद्धतियों के अंशो को अपनाया है। यह नवीन पद्धति भी खारिज होने योग्य नहीं है। इस पर ध्यान देने की आवश्यकता है, इस पर शोध की आवश्यकता है, इस के उपयोगी तत्वों को साबित कर उन्हें विज्ञान सम्मत साबित करने की आवश्यकता है। ठीक उसी तरह जैसे धार्मिक मान्यताओं को आज के विज्ञान पर खरा उतरने की आवश्यकता है। अधिक कुछ नहीं कहूँगा पर समय-समय पर होमियोपैथी के अपने उन अनुभवों को अवश्य साझा करना चाहूँगा जो मेरे लिए उसे विश्वास के योग्य बनाते हैं।  भाई सतीश सक्सेना जी को यह अवश्य कहूँगा कि मैं किसी भी तरह का डाक्टर नहीं हूँ। मुझे वकील ही रहने दें। एक प्रश्न यह भी कि हिन्दी ब्लाग जगत में कुछ होमियोपैथी चिकित्सक भी हैं, वे क्यों इस बहस से गायब रहे?

रविवार, 11 अप्रैल 2010

क्या होमियोपैथी अवैज्ञानिक है?

ल मैं ने इस विषय पर पोस्ट लिखी थी कि विश्व होमियोपैथी दिवस और डॉ. हैनिमैन के जन्मदिवस पर होमियोपैथी का मेरे जीवन में क्या स्थान रहा है? इस पोस्ट पर आई टिप्पणियों में निशांत मिश्र ने कहा कि यह पद्धति जड़ संदेहियों के लिए नहीं बनी है। डॉ. अरविंद मिश्र, प्रवीण शाह और बलजीत बस्सी ने उन का समर्थन ही नहीं किया अपितु इसे अवैज्ञानिक बताया। प्रवीण शाह ने यह भी कहा कि "किसी भी वैज्ञानिक ट्रायल में यह पद्धति अपने आपको साबित नहीं कर पाई है।" जब मैं ने उन्हें इसे साबित करने को कहा तो उन्हों ने मुझे ब्रिटिश हाउस ऑव कॉमन्स की साइंस एण्ड टेक्नोलॉजी कमेटी की 275 पृष्टों की रिपोर्ट भेज दी। निश्चित रूप से मैं उसे इतने कम समय में आद्योपांत पढ़ कर राय कायम नहीं कर सकता था। फिर कोई प्रोफेशनल होमियोपैथ इस काम को बेहतर ढंग से कर सकता है, मैं नहीं। फिर भी उस रिपोर्ट का चौथा पैरा इस प्रकार है।

4. This inquiry was an examination of the evidence behind government policies on homeopathy, not an inquiry into homeopathy. We do not challenge the intentions of those  homeopaths who strive to cure patients, nor do we question that many people feel they have benefited from it. Our task was to determine whether scientific evidence supports government policies that allow the funding and provision of homeopathy through the NHS and the licensing of homeopathic products by the MHRA.

4. यह होमियोपैथी की जाँच नहीं, अपितु होमियोपैथी के संबंध में सरकारी नीतियों के पीछे उपलब्ध साक्ष्यों की एक परीक्षा थी। हम होमियोपैथ चिकित्सकों के रोगियों का इलाज करने के प्रयासों को चुनौती नहीं दे रहे हैं  और न ही उन रोगियों पर सवाल खड़ा कर रहे हैं जो होमियोपैथी चिकित्सा से खुद को लाभान्वित होना पाते या महसूस करते हैं। हम केवल यह पता लगा रहे हैं कि राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवाओं के माध्यम से सरकार की वित्तीय सहायता की नीतियों और औषध व स्वाथ्यरक्षक उत्पाद नियंत्रक एजेंसी द्वारा होमियोपैथिक उत्पादों को अनुज्ञप्ति प्रदान करने का समर्थन करने वाले वैज्ञानिक साक्ष्यों का पता लगाना है।
स पैरा को पढ़ने से ही पता लगता है कि हाउस ऑफ कॉमन्स की इस कमेटी का विषय होमियोपैथी की वैज्ञानिक जाँच करना नहीं था। इस रिपोर्ट के आधार पर होमियोपैथी को अवैज्ञानिक सिद्ध नहीं किया जा सकता। हम यह भी जान सकते हैं कि विश्व में दवा बाजार पर ऐलोपैथी दवाओं का एक छत्र साम्राज्य है। उन के उत्पादक किस तरह होमियोपैथी जैसी मात्र दो सौ वर्ष पुरानी और सस्ती पद्धति को स्वीकार कर सकते हैं जब तक उस में मुनाफा कूटने की पर्याप्त संभावनाएँ उत्पन्न न हो जाएँ। इधर होमियोपैथी का प्रभाव बढ़ना आरंभ हुआ है और उधर सरकारों के माध्यम से उन पर इतने प्रतिबंध आयद किए गए हैं कि पिछले चार-पाँच वर्षों में होमियोपैथिक दवाओं के दामों में दो से चार गुना तक वृद्धि हो गई है। जिस दिन यह लगने लगेगा कि इस दवा उत्पादन में ऐलोपैथी जैसा या उस से अधिक मुनाफा कूटा जा सकता है। यही जाँच कमेटियाँ इस पद्धति को वैज्ञानिक घोषित करने लगेंगी। 
लते चलते एक अनुभव और बताता जाता हूँ। हमारी बेटी पूर्वा जन्म के बाद से ही होमियोपैथी पर निर्भर थी। लेकिन हम दोनों पति-पत्नी को दवाओं की कम ही आवश्यकता होती थी। यदि कभी होती भी थी तो मेडीकल स्टोर से लाई गई पूर्व परिचित सामान्य दवाओं से काम चल जाता था।  उन दिनों तक घर में पच्चीसेक होमियोपैथी दवाएँ आ चुकी थीं।उस दिन पिताजी घर पर आए हुए थे। मेरी बगल में एक फुंसी उभर आई थी जो तनिक दर्द कर रही थी। मुझे उस हाथ को कुछ ऊँचा कर चलना पड़ रहा था। पिताजी ने देखा तो पूछ लिया हाथ ऐसे क्यों किए हो? मैंने बताया कि शायद काँख में कोई फुंसी निकल आई है। उन्हों ने उसे जाँचा और मुझे डाँट दिया। तुम्हारे आयुर्वेद और जीवविज्ञान स्नातक होने का यही लाभ है क्या कि तुम इस की चिकित्सा भी नहीं कर सकते। मेडीकल स्टोर से बैलाडोना प्लास्टर तो ला कर चिपका सकते थे। मैं तुरंत घर से बाहर भागा और मेडीकल स्टोर की ओर देखा। लेकिन वह बंद हो चुका था। आसपास किसी और मेडीकल स्टोर के खुले होने की कोई संभावना नहीं थी। 
मैं उलटे पैरों वापस लौटा। पिताजी ने मेरी और प्रश्ववाचक निगाहों से देखा। मैं ने उन्हें कहा कि मेडीकल स्टोर तो बंद हो चुका है, बैलाडोना प्लास्टर तो अब सुबह मिलेगा। मेरे पास होमियोपैथिक बैलाडोना 200 पोटेंसी का डायल्यूशन घर पर है तो एक खुराक खा लेता हूँ। मैं ने यही किया। हालांकि मैं नहीं जानता था कि इस का असर क्या होगा? सुबह सो कर उठा तो सामान्य कामकाज में लग गया। मुझे ध्यान ही नहीं आया कि मैं उस फुंसी को जाँच लूँ। पिताजी ने ही पूछा फुंसी का क्या हाल है। मैं ने कहा दर्द तो नहीं है पर फुंसी तो आप ही देख सकते हैं। उन्हों ने फुंसी को देखा तो उसे सिरे से गायब पाया। मैं चौंका। मैं ने होमियोपैथी की किताब उठाई और बेलाडोना के लक्षण पढ़े तो वहाँ अंकित था कि इन लक्षणों में बैलाडोना का उपयोग सही है। उस के उपरांत मैं कम से कम पाँच सौ बार बैलाडोना का समान परिस्थितियों में अपने लिए और औरों के लिए उपयोग कर चुका हूँ। एक बार भी यह प्रयोग असफल नहीं हुआ। अब इस के उपरांत होमियोपैथी को अवैज्ञानिक कम से कम मैं तो नहीं कह सकता था।

शनिवार, 10 अप्रैल 2010

होमियोपैथी हमारी स्वास्थ्यदाता हो गई

ज डॉ. सैम्युअल हैनिमेन  का जन्म दिवस था जिसे दुनिया होमियोपैथी दिवस के रूप में मनाती है। निश्चित रूप से डॉ. हैनिमेन एक विलक्षण व्यक्तित्व थे जिन्हों ने एक नई चिकित्सा पद्धति को जन्म दिया। जो मेरे विचार में सब से सस्ती चिकित्सा पद्धति है। इसी पद्धति से करोड़ों गरीब लोग चिकित्सा प्राप्त कर रहे हैं। यही नहीं करोड़पति भी जब अन्य चिकित्सा पद्धतियों से निराश हो जाते हैं तो इस पद्धति में उन्हें शरण मिलती है।
वैसे मेरे परिवार में आयुर्वेद का चलन था। दादा जी कुछ दवाइयाँ खुद बना कर रखते थे। पिताजी अध्यापक थे ,लेकिन आयुर्वेदाचार्य भी और अच्छे वैद्य भी थे। अपने पास सदैव दवाइयों का किट रखते थे और निशुल्क चिकित्सा करते थे। वैद्य मामा जी तो इलाके के सब से विद्वान वैद्य थे। उन्हों ने अपना आयुर्वेद महाविद्यालय भी चलाया। अब मामा जी खुद महाविद्यालय के प्राचार्य हों तो हमें तो उस में भर्ती होना ही था। सुविधा यह थी कि हम जीव विज्ञान में बी.एससी. करते हुए भी उस महाविद्यालय के विद्यार्थी हो सकते थे। नतीजा यह हुआ कि बी.एससी. होने के साथ ही हम वैद्य विशारद भी हो गए। मामा जी के डंडे से भय लगता था इस कारण हर रविवार उन के चिकित्सालय में अभ्यास के लिए भी जाना होता था। 
बी.एससी के उपरांत हम ने वकालत की पढ़ाई की और वकालत करने अपने गृह नगर को छोड़ कर कोटा चले आए। हमने पिताजी और मामाजी के अलावा किसी चिकित्सक की दवा अब तक नहीं ली थी। वैसे भी उस उम्र में बीमारी कम ही छेड़ती थी। लेकिन पहली बेटी हुई तो उस के लिए चिकित्सक की जरूरत पड़ने लगी। मेरे एक साथी के बड़े भाई होमियोपैथ थे। मैं उन्हीं के पास बेटी को ले जाने लगा। वे साबूदाने जैसी मीठी गोलियों को अल्कोहल के घोल में बनी दवाइयों से भिगोकर देते थे। कुछ ही दिनों में देखा कि वे शक्कर की गोलियाँ अदुभुत् असर करती हैं। मैं ने उसे जानने का निश्चय कर लिया।  इस तरह होमियो पैथी की पहली किताब घर में आई। 
 हमने घर बदला तो डाक्टर साहब दूर पड़ गए। पडौस के एक दूसरे होमियोपैथ को दिखाने लगे। लेकिन उस की दवा अक्सर असर नहीं करती थी। तब तक मैं कुछ कुछ समझने लगा था। मुझे लगा कि डाक्टर दवा का चुनाव गलत कर रहा है। एक दिन परेशान हो कर मैं होमियो स्टोर से पच्चीस चुनिंदा दवाओं के डायल्यूशन और गोलियाँ खरीद लाया और किताब से पढ़ पढ़ कर खुद ही चिकित्सा करने लगा। अपनी चिकित्सा चलने लगी। जो भी दवा देते उस का असर होता। धीरे धीरे आत्मविश्वास बढ़ता गया और डाक्टरों से पीछा छूटा। 
ब जब भी किसी नई दवा की जरूरत होती उस का डायल्यूशन घऱ में आ जाता। इस तरह घर में दो-तीन सौ तरह के डायल्यूशन इकट्ठे हो गए। मैं दिन में अदालत चला जाता। पीछे जरूरत पड़ती तो पत्नी  किताब पढ़ कर दवा देती। वह एक ऐलोपैथ चिकित्सक की बेटी है। धीरे-धीरे उस ने मेरा चिकित्सा का काम संभाल लिया। अब वह तभी मुझ से राय करती है जब वह उलझन में पड़ जाती है। नतीजा यह हुआ कि बच्चे हमारी दवाओं के सहारे बड़े हो गए। अब वे बाहर रहते हैं. लेकिन उन के पास चालीस-पचास दवाइयों का एक-एक किट होता है। जब भी उन्हें जरूरत होती है वे टेलीफोन पर अपनी माँ से या मुझ से राय करते हैं और दवा लेते हैं। मेरी बेटी तो एम्स के एक ट्रेनिंग सेंटर से जुड़ी है। जहाँ चिकित्सा की सभी सुविधाएँ उपलब्ध हैं। लेकिन जरूरत पड़ने पर हमेशा होमियोपैथी की दवा का प्रयोग करती है और वह भी अपनी माँ की राय से ही।