@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: गुरू
गुरू लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
गुरू लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

शुक्रवार, 21 नवंबर 2008

आठवें विषय में एम ए

शाम तीन बजे मैं चिन्ता में डूबा अपनी कुर्सी पर बैठा था कि शाम तक कैसे लक्ष्य पूरा कर सकूंगा। मुझे जल्द से जल्द अदालत के काम पूरे कर अपने लक्ष्य के लिए जाना था। तभी कोई बगल में आ खड़े होने का अहसास हुआ। सीने तक लटकी सलेटी दाढ़ी और कंधों तक झूलते सर के बाल कुर्ता पायजामा पहने कोई खड़ा था। देखा तो चौंक गया, वर्मा जी थे। पुराने बुजुर्ग साथी। मैं खड़ा हुआ, दोनों गले मिले तो आस पास के वकील देखने लगे। मैं ने अपने पास उन्हें बिठाया। पूछा -कैसे हैं? स्कूल कैसा चल रहा है? बेटे क्या कर रहे हैं? आदि आदि। अंत में पूछा -कैसे यहाँ आने का कष्ट किया। कहने लगे -मुझे कोई राय करनी थी। क्या विश्वविद्यालय का परीक्षार्थी एक उपभोक्ता है? मैं विचार में पड़ गया। कहा देख कर बताऊंगा।

मैं ने उन से पूछा कि मामला क्या है? परीक्षा में पेपर दिया,  नंबर आने चाहिए थे 45, मगर आए 00 ही। पुनर्परीक्षण कराया तो 04 हो गए। मैं संतुष्ट नहीं हूँ। अदालत में मुकदमा करना चाहता हूँ। मैं ने पूछा -तो अब तक कारस्तानी जारी है? कहने लगे -जब तक दम है, जारी ही रहेगी।

ये विष्णु वर्मा थे। वर्मा सीनियर सैकंडरी स्कूल के संस्थापक। उन्हों ने बाराँ में आ कर स्कूल खोला था। कि एक कविगोष्ठी में हाजिर हुए, वहीं पहचान हुई। मैं बी. एससी. का विद्यार्थी था। लेकिन नगर में साप्ताहिक गोष्ठियों का एक मात्र आयोजक भी। एक गोष्ठी में कहने लगे -मेरे पास ग्यारहवीं के दस बारह विद्यार्थी कोचिंग के लिए आते हैं और जीव-विज्ञान का शिक्षक नहीं मिल रहा है। आप पढ़ा देंगे? मैं ने हामी भर ली। पढ़ाने लगा। धीरे-धीरे अंतरंगता बनी और बढ़ती गई।

एक दिन मुझे कहने लगे -दिनेश जी पहली कक्षा का एक बच्चा बहुत परेशान कर रहा है। चार माह हो गए हैं। वह कुछ लिखता ही नहीं है। उस के हाथ में बत्ती (खड़िया पैंसिल) पकड़ाते हैं हाथ पकड़ कर लिखना सिखाते हैं तो जहाँ तक हाथ पकड़ कर लिखाते हैं लिखता है। जहाँ छोड़ते हैं वहीं बत्ती पकड़े रखे रखता है। उस की गाड़ी आगे बढ़ ही नहीं रही है। जरा आप देखो।

मैं दूसरे दिन पहली कक्षा में हाजिर। उस बच्चे को देख कर मैं भी दंग रह गया। कोई तरकीब उस पर काम ही नहीं कर रही थी। मैं ने उसे ब्लेक बोर्ड पर बुलाया और बिंदुओं से वर्णमाला का क अक्षर अनेक बार लिखा। उस के सामने पहले अक्षर पर मैं ने चॉक से क बनाया , दूसरे अक्षर पर उस के हाथ में चॉक दे कर उस का हाथ पकड़ कर क बनवाया। तीसरे पर उसे बनाने को कहा। उस का हाथ रुक गया। फिर आधे अक्षर पर उस का हाथ पकड़ कर बनाया और आगे उसे बनाने को कहा तो उस ने पूरा क बना दिया मैं ने ब्लेक बोर्ड पर वर्णमाला के लगभग सभी अक्षर उस दिन बिंदुओं के बना कर उस से उन पर लिखवाया। उस ने बिना किसी सहायता के लिख दिए। फिर उसे बिना बिंदुओं के लिखने को कहा तो वैसे भी उस ने बिना किसी सहायता के लिख दिया। वह वर्णमाला के सभी अक्षर लिखने लगा। मैं उसे वर्मा जी को सौंप कर आ गया। उस के बाद उस बालक को कभी लिखने में समस्या नहीं आई।

वर्मा जी तब किसी एक विषय में एम ए थे, और एलएल बी भी, बी एड भी की हुई थी। फिर जब मैं वकालत में आ गया तो पता लगा कि उन को शौक लगा है, अलग विषय में एम ए करने का। वे फिर पढने लगे। आज पता लगा कि वे सात विषयों में एम. ए. कर चुके हैं। आठवें विषय में कर रहे हैं, तब उन के साथ एक पेपर में 00 अंक आने का हादसा हुआ। हम ने साथ बैठ कर कॉफी पी। उन से पूछा कि -कितने साल के हो गए हैं?  तो बता रहे थे -छिहत्तर में चल रहा हूँ।  यह एम ए कब तक करते रहेंगा? तो बताया -जब तक पढ़ने लिखने की क्षमता रहेगी। जिस साल परीक्षा न दूंगा, तो लगेगा कि कोई काम ही नहीं रह गया है। लगता है प्रोफेशनल विद्यार्थी हो गया हूँ।

चार बजे घड़ी देख कर बोले -अब चलता हूँ ट्रेन का समय हो गया है। तीन-चार दिन में मिलूंगा। मेरा मुकदमा लड़ना है। मैं ने उन्हें ऑटो में बिठाया और अपने काम में जुट गया।

बुधवार, 30 जुलाई 2008

एक रविवार, वन-आश्रम में (5) .... बाबा की कीर्ति

मैं -बाबा, समस्या तो नहीं कहूँगा, हाँ चिन्ताएँ जरूर हैं। बेटी पढ़-लिख गई है, नौकरी करती है। उस की शादी होना चाहिए, योग्य वर मिलना चाहिए।

बाबा -बेटी की आप फिक्र क्यों करते हैं। वह स्वयं सक्षम है, और आप की चिन्ता वह स्वयं ही दूर कर देगी। बाबा बोले।

मैं -समस्या ही यही है कि बेटी कहती है कि वर तलाशना पिता का कर्तव्य है उस का नहीं। फिर वह शुद्ध शाकाहारी, ब्राह्मण संस्कार वाला, उसे और उस के काम को समझने वाला वर चाहती है, और जहाँ तक मेरा अपना दायरा है, मुझे कोई उस की आकांक्षा जैसा दिखाई नहीं देता।

बाबा –हाँ, तब तो समस्या है। फिर भी आप चिंता न करें। वर्ष भर में सब हो लेगा। आप की चिंता दूर हो जाएगी। और बताएँ।

मैं –बेटे के अध्ययन का आखिरी साल है। वह चिंतित है कि उस का कैम्पस सैलेक्शन होगा या नहीं। नौकरी के लिए चक्कर तो नहीं लगाने पड़ जाएंगे?

बाबा -केंम्पस तो नहीं हो सकेगा। लेकिन प्रयत्न करेगा, तो उसे बिलकुल बैठा नहीं रहना पड़ेगा। वैसे, आप को दोनों ही संतानों की ओर से चिन्तित होने की आवश्यकता नहीं है।

मैं ने कहा –बाबा, एक नया मकान भी बनाना चाहता हूँ, अपने हिसाब का?

बाबा -आप की वह योजना दीपावली के बाद ही परवान चढेगी। ..... और कुछ?

मुझे बाबा थके-थके और विश्राम के आकांक्षी प्रतीत हुए। वे आराम चाहते थे। मैं भी वहाँ से खिसकना चाहता था। हम ने बाबा को नमस्कार किया और वहाँ से चल दिए। हमारे साथ के लोग भी सब चले आए। हम सीढ़ियों से नीचे उतर कर आए ही थे कि पीछे से किसी ने आ कर सीढ़ियों का दरवाजा अंदर से बन्द कर लिया। बाबा अब विश्राम कर रहे थे।

जो काम बाबा कर रहे थे, वह मैं अपने परिवार में हमेशा से होता देखता आया था। मेरे दादा खुद ज्योतिषी थे। वे जन्म पत्रिकाएँ बनाते थे। लोग उन के पास समस्याएँ ले कर आते थे, और वे परंपरागत ज्योतिष ज्ञान के आधार पर उन्हें सलाह देते थे, उन की चिन्ताएँ कम करते थे और उन्हें समस्याओं के हल के लिए कर्म के मार्ग पर प्रेरित करते थे। पिता जी खुद श्रेष्ठ अध्यापक थे। परंपरागत ज्योतिष ज्ञान उन्हों ने भी प्राप्त किया था। प्रधानाध्यापक के पद से सेवानिवृत्त होने पर वे नित्य दोपहर तक घर पर आने वाली लड़कियों को पढ़ाते थे, जिन में अधिकांश उन के अपने विद्यार्थियों की बेटियाँ होती थीं। अपरान्ह भोजन और विश्राम के उपरांत उन के पास उन के परिचित मिलने आते और तरह तरह की समस्याएँ ले कर आते। वे उन्हें ज्योतिष के आधार पर या अपने अनुभव व ज्ञान के आधार पर कर्म के लिए प्रेरित करते थे। जहाँ हो सकता था उन की सहायता भी करते। अधिकांश लोगों की समस्याएं हल हो जाती थीं। दादाजी और पिताजी को इस तरह लोगों की समस्याएँ हल करने में सुख मिलता था। दोनों ही अच्छे ज्योतिषी जाने जाते थे। लेकिन न तो दादा जी ने और न ही पिता जी ने ज्योतिष को अपने जीवन यापन का आधार बनाया था।

मेरे दादाजी, पिताजी और 'बाबा' में एक मूल अंतर था। दादाजी और पिताजी ने कभी इस बात का उपक्रम नहीं किया था कि कोई अतीन्द्रिय शक्ति है, जिस से वे लोगों का कल्याण कर रहे थे। लेकिन बाबा यह कर रहे थे। वे लोगों को अपने अनुभव और सामान्य अनुमान से सांत्वना देते थे। बाबा के उत्तरों में कुछ भी असाधारण नहीं था। वे केवल लोगों को उन की समस्याओं को निकट भविष्य में हल होने का विश्वास जगाते थे। असंभव हलों के होने से इन्कार कर देते थे। और संभव हलों को हासिल करने के लिए लोगों को प्रयत्न करने को प्रेरित करते थे। मेरे समक्ष तो ऐसी कोई बात सामने नहीं आई थी, लेकिन मुझे अनेक लोगों ने यह भी बताया था कि लोग समस्याओं के हल के लिए उपाय करने के लिए भी उन से पूछते थे और वे लोगों को उपाय भी बताते थे। इन उपायों में एक उपाय यह भी था कि भक्त यहाँ या कहीं भी हनुमान मंदिर की 11, 21, 51 परिक्रमा लगाना जैसे उपाय सम्मिलित थे। ये उपाय ऐसे थे जिन में समय तो खर्च होता था पर पैसा नहीं, और जो लोगों में, स्वयं में विश्वास जगाते थे तथा समस्या के हल के लिए कर्म करने को प्रेरित करते थे। अधिकांश लोग स्वयं के प्रयासों से ही समस्याओं का हल कर लेने में समर्थ होते थे। लोगों का बाबा में विश्वास उपज रहा था। कुछ जंगल में स्थित मंदिर में बैठे हनुमान जी का लोगों पर प्रभाव था। बाबा के भक्तों की संख्य़ा में निरंतर वृद्धि होती जा रही थी, उन में अतीन्द्रीय शक्तियाँ होने के विश्वासियों की संख्या लगातार बढ़ रही थी,  जो आश्रम और बाबा की कीर्ति और भौतिक समृद्धि का विस्तार कर रही थी।

सीढ़िय़ों से नीचे उतर कर घड़ी देखी तो चार बज चुके थे। मुझे कॉफी की याद आने लगी थी। चाय मैं सोलह वर्षों से नहीं पीता और कॉफी यहाँ उपलब्ध नहीं थी। सुबह रवाना होने की हड़बड़ी में मुझे कॉफी के पाउच साथ रखने का ध्यान नहीं रहा था। मैं ने बाहर दुकानों पर जा कर पता किया तो एक दुकान वाला रखता ही नहीं था। दूसरे ने कहा -उस के यहाँ खतम हो गई है। शायद वह अधिक होशियार था जो यह प्रदर्शित नहीं करना चाहता था वह कॉफी रखता ही नहीं। मैं दुकानदारों से आश्रम के बारे में बातें करने लगा। (अगले आलेख में समाप्य)

शुक्रवार, 25 जुलाई 2008

एक रविवार वन आश्रम में (4) .... बाबा से मुलाकात... और.............. दो दिन में तीसमार खाँ

करीब तीन बजे नन्द जी ने मेरी तंद्रा को भंग किया। वे कह रहे थे -बाबा से मिल आएँ।
बाबा? आजकल इस आश्रम के महन्त, नाम सत्यप्रकाश, आश्रम के आदि संस्थापक बंशीधर जी के पाँच पुत्रों में से एक। शेष पुत्र सरकारी नौकरियों में थे। इन्हों ने पिता की गद्दी को संभाला था।
नन्द जी यहाँ पहुँचते ही मुझे उन से मिलाना चाहते थे, लेकिन तब बाबा भोजन कर रहे थे और उस के बाद शायद आराम का समय था।  उन में मेरी रुचि उन्हें जानने भर को थी। लेकिन इस यात्रा में अनेक थे जो उन से इसलिए मिलना चाहते थे कि उन से कुछ अपने बारे में अच्छा या बुरा भविष्य जान सकें। नन्द जी को दो वर्ष पहले उन के गाँव का एक सीधा-सादा व्यक्ति जो उन के भाई साहब का मित्र था तब वहाँ ले कर आया था, जब उन के भाईसाहब जेल में बंद थे और मुकदमा चल रहा था। तब बाबा ने उन्हें कहा था कि भाईसाहब बरी हो जाएँगे। यह बात मैं ने भी नन्द जी को कही थी। उन्हें मेरे कौशल पर पूरा विश्वास भी था। इसीलिए उन्हों ने कोटा के नामी-गिरामी फौजदारी वकीलों का पल्ला नहीं पकड़ा, जब कि मेरे कारण उन्हें वे बिलकुल निःशुल्क उपलब्ध थे। पर किसी के कौशल पर विश्वास की तुलना पराशक्ति के बल पर भविष्य बताने का दावा करने वाले लोगों के विश्वास से कैसे की जा सकती है। हाँ, यह विश्वास मनोवैज्ञानिक रूप से लोगों में आत्मविश्वास जाग्रत रखता है और संघर्ष के लिए मनोबल प्रदान करता है। लेकिन? यह विश्वास प्रदान करने वाले "पहुँचे हुए लोग" उस की जो कीमत वसूलते हैं, वह समाज को गर्त की ओर भी धकेलती है।
नन्द जी के बाबा के बारे में बताए विवरणों से शोभा बहुत प्रभावित थी, और उन्हें बड़ा ज्योतिषी समझती थी। यही कारण था कि उस ने मेरी और बेटे-बेटी की जन्मपत्रियाँ बनखंडी रवाना होने के पहले अपने झोले में डाल ली थीं। लेकिन बाद में नन्द जी ने मना कर दिया कि वे ज्योतिषी नहीं हैं। वैसे ही सब कुछ बता देते हैं। तो जन्मपत्रियाँ झोले में ही बन्द रह गईं।
मैं ने तंद्रा और गर्मी से बेहाल अपने हुलिए को नल पर जा कर चेहरे पर पानी डाल तनिक सुधारा, और नन्द जी के पीछे हो लिया।  पीछे बनी सीढ़ियों से होते हुए बाबा के मकान के प्रथम तल पर पहुँचे। आधी छत पर निर्माण था, आधी खुली थी। जीना जहाँ समाप्त हो रहा था, वहीं एक दरवाजा था जो बाबा की बैठक में खुलता था।
कोई दस गुणा पन्द्रह फुट का कमरा था। एक और दीवान पर बाबा बनियान-धोती में अधलेटे थे, तीन-चार कुर्सियाँ थीं। जिन पर पुरुष बैठे थे, बाकी जगह में फर्श बिछा था और महिलाओं, बच्चों और कुछ पुरुषों ने कब्जा रखा था। दीवान के बगल की खुली अलमारी में कोई बीसेक पुस्तकें थीं, कुछेक को छोड़ सब की सब गीता प्रेस प्रकाशन। दीवारों पर कैलेंडर लटके थे। एक तस्वीर उन के महन्त पिता की लगी थी।
हमारे वहाँ पहुँचते ही बाबा ने 'आइये वकील साहब!' कह कर स्वागत किया। हमारा उन से अभिवादन का आदान प्रदान हुआ। हमारे बैठने के लिए कुर्सियाँ तुरंत खाली कर दीं। उन पर बैठे लोग बाबा को प्रणाम कर बाहर आ गए। हम बैठे तो नन्द जी ने मेरा परिचय उन्हें दिया। बाबा की पहले से चल रही वार्ता फिर चल पड़ी।
कोई पेंतीस वर्ष की महिला बहुत ही कातर स्वरों में बाबा से कह रही थी। बाबा इन का कुछ तो करो, इन का धंधा नहीं चल रहा है, कुछ काम भी नहीं मिल रहा है। ऐसे कैसे चलेगा? सारा घऱ ही बिक जाएगा हम सड़क पर आ जाएंगे।
बाबा बोल पड़े। ये व्यवसाय में सफल नहीं हो सकते। इन्हें काम तो कोई टेक्नीकल या खेती से सम्बन्धित ही करना पड़ेगा। मैं ने तो इन्हें प्रस्ताव दिया था कि ये आश्रम आ जाएँ। मैं एक ट्रेक्टर खरीद कर इन्हें दे देता हूँ, उसे चलाएँ आस पास के किसानों के खेत जोतें। आश्रम की जमीन की खेती संभालें। जो भी मुनाफा होगा आधा इन का आधा आश्रम का। पर ये इस प्रस्ताव को गंभीरता से ले ही नहीं रहे। आज तो ये यात्री बन कर आए हैं। मेरा प्रस्ताव मानें तो फिर इसी काम से आएँ मुझ से बात करें। मैं सारी योजना इन के सामने रखूंगा। इतना कह कर बाबा ने करवट सुधारी तो धोती में से उन का एक पैर उघड़ गया। महिलाओं के सामने वह अच्छा नहीं लग रहा था। लेकिन बाबा का शायद उधर ध्यान नहीं था। कोई उन को कुछ कहने की स्थिति में नहीं था। शायद कोई भी उन्हें लज्जा के भाव में देखना नहीं चाहता था। मैं लगातार उन की टांग को देखता रहा। शायद मैं ही वहाँ नया व्यक्ति था, इसलिए बाबा बीच बीच में मेरी और दृष्टि डाल ले रहे थे। दो-एक नजर के बाद उन्हों ने मुझे एकटक अपनी टांग की ओर देखता देख भाँप लिया कि टांग में कुछ गड़बड़ है। वाकई वहाँ गड़बड़ पा कर उसे ठीक भी कर लिया।
बाबा की सारी बातें किसी जमींदार द्वारा किसी कामगार को साझेदारी का प्रस्ताव रख, उस की आड़ में कम मजदूरी पर कामवाला रख लेने की तरकीब जैसी लग रही थीं। महिला होशियार थी। उसे यह तो पसंद था कि उसके पति के रोजगार का कुछ हल निकल आए, लेकिन यह मंजूर नहीं कि उस का पति नगर में बसे घर-बार को छोड़ यहाँ जंगल में काम करने आए और आश्रमवासी हो कर रह जाए। वह बोली -अब मैं क्या कर सकती हूँ? आप इन्हीं को समझाएँ। ये यहाँ आना ही नहीं चाहते। शहर में कोई व्यवस्था नहीं बैठ सकती इन के रोजगार की?
-शहर में भी बैठ सकती है, मगर समय लगेगा। किसी की मदद के बिना संभव नहीं हो सकेगा। यहाँ तो मैं मदद कर सकता हूँ। वहाँ तो मददगार इन को तलाशना पड़ेगा।
बाबा के उत्तर से कुछ देर शांति हुई थी कि नन्द जी की पत्नी बोल पड़ी -बाबा वे बून्दी वाले, उन के लड़के की शादी हमारी बेटी से करने को कह रहे हैं। यह होगा कि नहीं? मैं जानता था कि नन्द जी के पास एक बड़े व्यवसाय़ी परिवार से शादी का प्रस्ताव है। उस से नन्द जी का परिवार प्रसन्न भी है। उन की पत्नी बस भविष्य में बेटी-जमाँई के बीच के रिश्तों की सघनता का अनुमान बाबा से पूछना चाहती हैं।
बाबा कहने लगे -आप का परिवार और बच्ची सीधी है और वे तेज तर्रार। शादी तो हो जाएगी, निभ भी जाएगी। पर उस परिवार के व्यवसाय और सामाजिक व्यस्तता के बीच बच्ची बंधन बहुत महसूस करेगी और घुटन भी। यह रिश्ता सुखद तो रहेगा, लेकिन बहुत अधिक नहीं।
इस बीच शोभा भी आ कर महिलाओं के बीच बैठी मुझे इशारा कर रही थी कि मैं भी कुछ पूछूँ अपने व्यवसाय, आमदनी, बच्चों की पढ़ाई, नौकरी और विवाह के बारे में। नन्द जी ने भी कहा आप भी बात कर लो, भाई साहब। इतने में बाबा भी बोले पूछ ही लो वकील साहब, मैं भी आज भोजन करते ही यहाँ बैठ गया हूँ। फिर थोड़ा विश्राम करूँगा। मुझे समझ गया था कि कुछ पूछे बिना गुजर नहीं होगा। बाबा भी अधलेटी अवस्था को त्याग सतर्क हो कर बेठ गए थे। मैं भी इस अध्याय को शीघ्र समाप्त करना चाहता था। (जारी)


और अंत में ..... दो दिन में तीसमारखाँ!
अंतरजाल पथ पर फुरसतिया से हुई संक्षिप्त बातचीत का संक्षिप्त अंश.....

अनूप: नमस्ते
मैं: नमस्ते जी। कैसे हैं?
अनूप: आप देखिये आज ज्ञानजी ने अपने काम का खुलासा कर ही दिया
http://chitthacharcha.blogspot.com/
मैं: देखते हैं। वैसे वे मक्खियाँ मारने में सिद्धहस्त हैं।
अनूप: हां वही।
मैं: मैं वहीं कहना चाहता था। फिर सोचा, फिर आप क्या कहेंगे।
अनूप:उन्होंने बताया कि उन्होंने एक दिन में दफ़्तर में दस-पन्द्रह मक्खियां मारी, और उपलब्धि के एहसास से लबालब भर गये।
मैं:  दो दिन में तीसमार खाँ?
अनूप: हां, यह सही है, उनकी प्रगति बड़ी धीमी है। ऐसे कैसे चलेगा?
मैं:  कम से कम एक दिन के स्तर पर लानी पड़ेगी, प्रोडक्टिविटी का प्रश्न है।

गुरुवार, 24 जुलाई 2008

एक रविवार, वन-आश्रम में -3.......... मन्दिर में

पदपथ समाप्त होने पर कोई दस फुट की दूरी पर दीवार में साधारण सा द्वार था, बिना किवाड़ों के। उस में घुसते ही दीवार नजर आई जिस के दोनों सिरों पर रास्ता निकल रहा था। जीवन के बीस वर्ष मंदिर में गुजारने के अनुभव ने बता दिया कि तुम मंदिर की परिक्रमा में हो और परिक्रमा के पिछले द्वार से प्रवेश कर गए हो। दादा जी जिस मंदिर के पुजारी थे वहाँ भी हमारे प्रवेश का द्वार यही था। पीछे एक बाड़ा था और उस के पीछे घर। हम घर से निकलते और परिक्रमा वाले द्वार पर जूते चप्पल उतारते और मंदिर में प्रवेश करते थे। बिलकुल वही नजारा था मैं बायीँ ओर चला। तो सीधे मंदिर के गर्भगृह के सामने वाले हॉल में पहुँच गया। फर्श पर संगमरमर जड़ा था।

गर्भगृह के सामने की छह फुट चौड़ी मध्य पट्टिका के उस पार एक रेलिंग लगी थी जहाँ एक छोटे मंदिर में एक वृद्ध संत की साधारण वेशभूषा वाली मूर्ति थी। यही इस आश्रम के जन्मदाता की मूर्ति थी। यह रेलिंग हॉल को दो बागों में बांट रही थी। मूर्ति वाले हिस्से में उन से सट कर ही एक मंच पर अखंड रामायण पाठ चल रहा था। मैले कपड़े पहने नौजवान विलम्बित लय में रामचरितमानस का पाठ कर रहा था। सामने एक माइक था जिस से जुड़े लाउडस्पीकर के जरिए पाठ के स्वर आश्रम की सीमा के बाहर जंगल में भी गूँज रहे थे। मूर्ति वाले हिस्से के बाकी स्थान को रामायण पाठ करने वालों और मंदिर को सम्भालने वाले पुजारी के उठने बैठने, विश्राम करने के स्थान में परिवर्तित कर दिया गया था और अन्दर वाली परिक्रमा को बंद कर दिया गया था। जिस की पूर्ति बाहर वाला पदपथ कर रहा था।

मैं गर्भगृह की ओर झाँका, तो वहाँ लाल रंग का पर्दा लटका था, इस तरह की बीच से मूर्ति के दर्शन न हो सकें लेकिन पर्दे के दोनों ओर से झाँका जाए तो हनुमान जी की मूर्ति के दर्शन हो जाएं। साधारण सी मूर्ति और उस पर सिंदूर से चढ़ा चोला। सफेद चमकीली रंगीन पन्नियों से हनुमान जी के आकार को स्पष्ट कर दिया गया था। कोई विशेष सज्जा नहीं। गर्भगृह के बाहर एक जगह बिना आग का धूप दान जिस में सेरों भभूत (राख)। वही एक चौकी जिस पर श्रद्धालुओं द्वारा अर्पित माला, अगरबत्ती, प्रसाद और पूजा के सामानों की थैलियाँ रखी थीं। यह हनुमान जी के सोने का समय था। और यह सब उन्हें जागने पर अर्पित किया जा कर प्रसाद वापस लौटाना था। मेरा प्रसाद शोभा के पास बैग में था। मेरी घंटा बजाने की इच्छा हुई थी, लेकिन हनुमान जी को सोया देख उन्हें होने वाली परेशानी को देख पीछे हट गया। अपने आप को वहाँ अवांछित पा कर सामने के द्वार से बाहर आ गया।

मंदिर के सामने चौक था फर्श पर कच्ची मिट्टी पर उगी दूब भली लग रही थी। बाहर एक और लम्बे काष्ठ स्थम्भ पर हनुमान जी का लाल झंडा फहरा रहा था। चौक की दूसरी ओर भी एक मंदिर जैसा निर्माण था। जिस का द्वार भी साधारण बना था। पूछने पर जानकारी मिली कि वहाँ शिव मंदिर है। वहाँ से हमारी अस्थाई भोजनशाला दिखाई दे रही थी। पकौड़े तले जा चुके थे। उन्हें कागज की प्लेटों में रख कर वितरण की तैयारी थी। दूसरी मंदिर में स्थापित देवों के विश्राम में खलल उत्पन्न करने के स्थान पर जाग्रत अन्न देवता को तरजीह देना उचित समझ, उधर चल पड़ा। राह में ही हमारे कनिष्ट उपाध्याय जी और लिपिक दुर्गेश मिल गए। दुर्गेश ने सूचना दी, भाई साहब¡ यहाँ तो विजय भास्कर (95 प्रतिशत भंग मिश्रित स्वादिष्ट चूर्ण) भी उपलब्ध है, लाऊँ? मैं उसे कुछ कहता उस से पहले ही हमारे कनिष्ठ ने आदेश दिया- ले आ, पाँच-दस पुड़िया। पर यहाँ जंगल में, विजय भास्कर? दुर्गेश ने बताया कि बाहर दुकानदार रखता है छुपा कर मांगने पर दे देता है। राजस्थान में इस पर पाबंदी है पर पुलिसवालों ने ऐसे धार्मिक स्थानों पर अपने स्तर पर छूट दे रखी है, छिपा कर बेचने की। दुर्गेश गायब हो गया था। मैं भोजनशाला के नजदीक पहुँचा तो एक ने मुझे पकौड़े ला कर दिए, प्लेट में सॉस भी था। मैं वहीं पदपथ पर पैर लटका कर बैठ खाने लगा। समय देखा तो एक बज रहा था। मैं स्नान के बाद पाँच मिनट भूख बर्दाश्त न करने वाला करीब पाँच घंटों के संयम के उपरांत उन पर टूट पड़ रहा था। इस बीच दुर्गेश विजय-भास्कर के पाउच ले कर लौटा। कहने लगा। आधे पकौड़े निकल चुके हैं बाकी के घोल में डाल दूँ? उस की आँखों में शरारत थी। मैं ने उसे आँखें दिखाईं और सारे पाउच ले कर अपनी जेब के हवाले किए। उसे कहा कि किसी को जरूरत होगी तो मुझ से ले लेगा। पकौड़े खत्म होते तब तक और आ गए। सब ने जम कर छके। पेट पूजा होते ही सब को सफर की थकान सताने लगी। मैं भी स्थान देख रहा था जहाँ झपकी ली जा सके। उधर बाबा के मकान के पास एक पेड़ के नीचे सारी महिलाएँ बतिया रहीं थीं। इधर नन्द जी के गाँव से आया एक नौजवान लड़का छैला बना था, सभी उस की मजाक बना रहे थे। ट्रेन भर में उस के जोड़ की लड़की तलाश करते रहे। कभी इसे पसंद कराते, कभी उसे। इस काम में कुछ महिलाएँ भी पीछे नहीं थीं। मजे का विनोद चल रहा था। जीप में उसे किसी दूसरे यात्री दल की लड़कियों के बीच बिठा दिया गया था। जैसे तैसे अपने छैलेपन की सजा भुगतते उस ने आश्रम तक का सफर किया था। अब दूसरे दल की दूर खाना बनाने में व्यस्त उन्हीं दो लड़कियों को इंगित कर उसे कहा जा रहा था कि वह जा कर उन की मदद करे, तो उन में से एक जरूर उसे पसंद कर लेगी।

पकौड़े पेट में जाते ही दो प्रतिक्रियाएं हुईं। दोनों दिमाग में। एक तो सुस्ती छाई, नीन्द सी आने लगी। दूसरे सुबह ठीक से शौच न होने का तनाव कि किसी भी वक्त जाने की जरूरत पड़ सकती थी। मैं पूछताछ करने लगा कि यहाँ जंगल में पानी कहाँ और कितनी दूर होगा? कोई भी ठीक से नहीं बता सका। फिर एक ने बताया कि आप को शौचादि की जरूरत हो तो आश्रम के पश्चिम में नीचे, गौशाला की बगल शौचालय और स्नानघर बने हैं। मैं ने तुरंत उन का निरीक्षण किया। वे अच्छे और साफ थे। एक शौचालय में एंग्लो इंडियन कमोड भी लगा था। दो स्नानघर थे। साफ और पानी की निरंतर व्यवस्था। उन्हें देख कर मुझे बहुत राहत मिली। उस समय उन की जरूरत नहीं थी मैं वापस लौटा तो। पेड़ के नीचे दरी बिछा कर बैठी महिलाएँ मन्दिर जा चुकीं थीं। दरी पर बहुत स्थान रिक्त था। मैं वहीं लमलेट हो गया। हवा नहीं थी। ऊमस बहुत थी। बादल बहुत कम और हलके थे। विपरीत परिस्थितियों में भी दिमाग के भारी पन से मुझे झपकी लग गई। (जारी)

कुछ पाठकों ने तस्वीरें चाहीं हैं। मेरे पास कैमरा नहीं था, मोबाइल में भी नहीं। एक अन्य मोबाइल से तस्वीरें ली गईं थी। पर वह जिन सज्जन का था। उन के साथ चला गया। वह उपलब्ध हो सका तो तस्वीरें भी दिखेंगी। लेकिन मैं ने तस्वीरों की कमी अपने शब्दों से करने की कोशिश की है। आप ही बताएँगे कि कितनी सफलता मुझे मिल सकी है?

बुधवार, 23 जुलाई 2008

एक रविवार, वन-आश्रम में -2

आश्रम द्वार बहुत बड़ा था, इतना कि ट्रक आसानी से अंदर चला जाए। द्वार पर लोहे के मजबूत फाटक थे। द्वार के बाहर बायीँ और दो छप्पर थे। जिन में पत्थर के कातलों की बैंचें बनी थीं और चाय बनाने और कुछ जरूरी सामानों की दुकानें थीं। दायीँ ओर खुली जगह थी जहाँ आश्रम तक आने वाले वाहन खड़े थे। द्वार के बाहर एक सूचना चस्पा थी " अपने वाहन गेट के बाहर ही खड़े करें। द्वार के अन्दर घुसते ही एक चौक था, जिस में द्वार पर चस्पा सूचना को धता बताती एक जीप खड़ी थी। सामने ही एक इमारत थी। बाद में पता लगा वह आश्रम की भोजन शाला थी। दायीं ओर नीचे सीढ़ियाँ थीं और नीचे कुछ इमारतें बनी हुई थी। बगल में एक कच्ची गौशाला जैसी थी।
बायीं और एक और चौक था जिस में कुछ दुकानें जैसी बनी थीं। बाद में पता लगा उन में से एक बरतन स्टोर था जहाँ से हम ने खाना बनाने के लिए बरतन वगैरा किराए पर प्राप्त किए। एक में आश्रम का कार्यालय था। जिस में साधु वेषधारी दो लिपिक हिसाब-किताब कर रहे थे। कुछ दरी-पट्टियाँ रखी थीं। कार्यालय के बाहर एक सूचना लिखी थी, कि सुबह व शाम के भोजन के लिए निश्चित समय के पूर्व कूपन प्राप्त कर लें। पूछने पर पता लगा कि यात्रियों के कूपन प्राप्त कर लेने से भोजन शाला को पता लग जाता है कि कितने व्यक्तियों का भोजन तैयार करना है।
दुकानों के सामने भोजनशाला से कुछ दूरी पर ही एक बड़ा सा कुआँ था। जिस में गहरी बोरिंग थी और बिजली की मोटर लगी थी। अर्थात आश्रम में बिजली थी। दुकानों से सटा हुआ एक दुमंजिला मकान था। जिस में पीछे की ओर मकान में ऊपर जाने सीढ़ियाँ बनी थीं। इस मकान में बाबा का निवास था। बाबा यानी आश्रम के अधिष्ठाता महन्त। मकान और कुएँ के मध्य एक विशाल और स्वस्थ पीपल का वृक्ष था, जिस के नीचे एक नयी नवेली बिना नंबर की कार खड़ी थी। कार किसी धनिक ने खरीदी थी और पूजा कराने के लिए आश्रम ले कर आया था। अंदर खड़ी जीप आश्रम की ही थी।
पीपल का पेड़ अब तक दृष्टिगोचर हुई तमाम वस्तुओं में एक मात्र आकर्षण था। अपने पूरे व्यास में उस की शाखाएं इस तरह फैली हुई थीं कि कोई भी चार फुटा व्यक्ति बिना श्रम किए हाथ ऊंचे कर उस के पत्तों को छू सकता था। पीपल के पेड़ के बाद एक चार फुट चौड़ा पदपथ नजर आ रहा था। जो अब तक दिखाई दिए निर्माणों की सीमा था। यह पदपथ लगभग डेढ़ सौ फुट लम्बा था जिस के दोनों सिरों से 90 डिग्री मुड़ कर दो भुजाएँ निकल कर आगे दूर तक चली गई थीं। ये भुजाएँ भी चार फुट चौड़ी दीवारों पर थीं पदपथ वहाँ भी था। कोई पांच सौ फुट आगे जाने पर। दोनों भुजाएं फिर आपस में मिल गई थीं। इस तरह यह पदपथ एक आयत बनाता था। सारे जूते-चप्पल इस पदपथ की सीमा के पहले ही खुले हुए थे। इस आयत के अंदर दो मंदिर नजर आ रहे थे एक उस ओर, और एक इस और।
मैं ने सब से पहले कुएँ पर लगे नल पर अपनी प्यास बुझाई। बाद में देखा तो भोजन शाला और कुएँ के मध्य एक और इमारत थी जो अंदर दूर तक चली गयी थी। दूर वाला आधा हिस्सा अभी निर्माणाधीन था। जानकारी मिली कि ये अतिथि शालाएं थीं। एक पुरानी और एक निर्माणाधीन। इन का निर्माण किन्हीं धनिकों ने करवाया था। निर्मित अतिथिशाला की छत पर एक सिन्टेक्स की काली टंकी रखी थी, जिस से नलों में पानी आ रहा था।
मैं जूते पहने-पहने ही पदपथ पर चल पड़ा। पदपथ पर सीमेंट की बनी टाइलें जड़ी थीं। बायीं भुजा पर लगभग तिहाई से आगे पदपथ के बायीँ और ही नीचे कच्ची भूमि पर एक पेड़ की छाया में भोजन बनाने की सामग्री सजा कर रख दी गई थी, जिस से जरूरत पड़ने पर उचित सामग्री तक तुरंत पहुँचा जा सके। यह सजावट भोजन-पंडित का काम था। सहूलियत भी उसी को होनी थी। वह कंड़ों का जगरा लगा चुका था। एक और पत्थरों का चूल्हा था, जिस में उपले सुलग रहे थे, ब्रेड़ पैकेट खोल कर परात में रख ली गईं थीं, भोजन-पंडित एक भगोने में बेसन में मसाला मिला कर घोल बनाने में व्यस्त था। मैं समझ गया, कुछ देर में गर्मागरम ब्रेड-पकौड़े मिलने वाले हैं। हमारे साथ आए कुछ लोग पंडित की मदद कर रहे थे। मेरे लिपिक दुर्गेश के पिता राष्ट्रीयःउच्च-मार्ग पर ढाबा चलाते हैं, ढाबे में ही वह बड़ा हुआ। अपना कौशल दिखाने के मकसद से वह तुरंत पंडित की मदद को पहुँच गया।
मैं पदपथ पर ही बाहर की ओर, जिधर हमारी अस्थाई भोजन शाला सजी थी, पैर लटका कर बैठ गया। हमारी अस्थाई भोजन शाला से कुछ ही आगे पत्थर की दीवारों पर चद्दरों के छप्पर डाल कर दो-तीन कमरों का आवास बनाया हुआ था। पूछने पर पता लगा कि यहाँ आश्रम के साधु निवास करते हैं। पकौडे. तले जाने में अभी देर थी। मैं ने तब तक मन्दिर देखना उचित समझा। मैं जूते पहने-पहने ही वापस पीपल के पेड़ की और पदपथ पर चल पड़ा। सामने से एक साधु आ रहा था। साधारण मैली सी धोती और कपड़े की बनियान पहने, नंगे पैर ही चल रहा था। गले में रुद्राक्ष और तुलसी मालाएँ थीं। दाढ़ी और बाल बढ़े हुए। माथे पर चंदन का टीका लगा था। पास आने पर उसने मुझे जूते पहन कर पदपथ पर चलने से रोका। मेरे माथे पर प्रश्नवाचक पढ़ कर बताने लगा कि यह पदपथ मंदिरों की परिक्रमा है। इस पर जूते क्यों लाए जाएँ? मैं ने अपनी अनभिज्ञता जताते हुए क्षमा मांगी और जूते पदपथ की सीमा के बाहर खोल। मंदिर की और बढ़ चला।

सोमवार, 21 जुलाई 2008

एक रविवार, वन-आश्रम में

कल रविवार था। रविवार? सब के लिए अवकाश का दिन, लेकिन मेरे लिए सब से अधिक काम का दिन। उसी दिन तो मेरे सेवार्थियों (मुवक्किलों) को अवकाश होता है और वे मुझसे सम्पर्क कर सकते हैं। लेकिन कल का रविवार हम ने कोटा के बाहर बिताया।
मेरे सहयोगी वकील नन्दलाल शर्मा, जिन्हें हम संक्षेप में नन्दजी कहते हैं, लम्बे समय से वनखंडी आश्रम जाने को कह रहे थे। वजह थी कि उन के बड़े भाई एक गंभीर अपराधिक मुकदमे में फँसाए गए थे और उस में जमानत भी नहीं हुई थी। नन्द जी ने संकल्प किया था कि यदि उन के भाई मुकदमे में बरी हो गए तो वे वनखंडी आश्रम में हनुमान जी को भोग लगायेंगे। उन्हें संकल्प पूरा करना था। मुकदमे में मैं ने पैरवी की थी। इस कारण वे मुझे भी वहाँ ले जाना चाहते थे। मेरे कारण ही वे तारीखें आगे बढ़ाते रहे। शुक्रवार को उन्हों ने पूछा -भाई साहब, इस रविवार को वनखंडी चलें? तो व्यस्तता होते हुए भी मैं ने चलने को हाँ कर दी।
वहाँ कारें नहीं जा सकती थीं। वैसे भी कोटा-सवाईमाधोपुर सड़क मार्ग को चौड़ा किए जाने का काम चल रहा होने के कारण परेशानी थी। तो हम ने कोटा से रेल द्वारा रवाँजना डूँगर स्टेशन, और वहाँ से जीपों से वनखंडी तक का 5 किलोमीटर की यात्रा जीप से करने का तय किया। कोई तेजगति गाड़ी रवाँजना रुकती नहीं, इस कारण से सुबह 7 बजे रवाना होने वाली कोटा-जमुना ब्रिज पैसेंजर से ही जाना था। रात काम करते हुए 1 बज गए थे। सुबह अलार्म 4 बजे का लगाया गया। अलार्म ने शोभा (मेरी पत्नी) को तो जागने में मदद की लेकिन मुझ पर उस का कोई असर नहीं हुआ। मुझे शोभा ने सुबह साढ़े पाँच पर जगाया। देर हो चुकी थी। मैं झटपट तैयार हुआ तो मेरे एक अन्य सहयोगी और क्लर्क भी आ गए। हम चारों अपनी गाड़ी में लद कर नन्द जी के घर से कुछ सामान लादते हुए समय पर स्टेशन पहुँचे। गाड़ी रवाना होने में अभी भी 15 मिनट थे। हम ने चैन की साँस ली। गाड़ी ने पूरे पौन घंटे देरी से स्टेशन त्यागा। हम एक साथ जाने वालों की संख्या 30 हो गई थी। ऐसा लग रहा था जैसे वर्षाकाल के वन विहार पर जा रहे हों।
बहुत दिनों में पैसेन्जर का सफर किया था। अनेक प्रकार के स्थानीय निवासियों से गाड़ी भरी थी और हर स्टेशन पर रुकती, सवारियाँ उतारती-चढ़ाती चल रही थी। गाड़ी में जहाँ मुझे बैठने को स्थान मिला वहाँ सब महिलाएँ थीं। उन में एक थीं लगभग साठ की उम्र की नन्द जी की विधवा जीजीबाई (बहिन)। वे बातें करने लगीं। कुछ देर बाद ही पता लग गया कि वे पक्की स्त्री समर्थक थीं। वे अधिक पढ़ी-लिखी नहीं थीं। सारा जीवन एक घरेलू महिला की तरह बिताया। उन के अध्ययन और जानकारियों का प्रमुख स्रोत उन के द्वारा बहुत से कथावाचकों से सुनी धार्मिक कथाएँ और उन के बीच-बीच सुनाए जाने वाली दृष्टान्त कथाएं थीं। काफी सारा धार्मिक साहित्य उन का पढ़ा हुआ था। वे लगातार बात करती रहीं। उन के स्वरों में जरा भी आक्रामकता नहीं थी, लेकिन वे एक-एक कर समाज की पुरुष प्रधानता पर आक्रमण करती रहीं। उन्हें इस का अवसर हमारे साथ ही जा रहे नन्द जी के बच्चों के ट्यूशन-शिक्षक के कारण मिल गया, जिन का अपनी पत्नी से विगत सात-आठ वर्षों से विवाद चल रहा था। उन की पत्नी उन के साथ आ कर रहने को तैयार नहीं थी। वे लगातार इस बात पर जोर देती रहीँ कि भाई अपनी पत्नी को मना कर ले आओ, उसी में जीवन का सार है। गन्तव्य स्टेशन तक का सफर उन्हीं की बातों में कब कट गया पता ही न चला।
इस बीच उस पण्डित की तलाश हुई जिस ने हमारा भोजन बनाना था। भोजन, यानी कत्त-बाफले। पण्डित कोटा स्टेशन तक तो आ चुका था। लेकिन ट्रेन पर चढ़ पाया था, या नहीं इस का पता नहीं चल रहा था। सोचा, चढ़ लिया होगा तो अवश्य ही उतरने वाले स्टेशन पर मिल जाएगा। नहीं मिला तो? लेकिन नन्द जी आश्वस्त थे।
गाड़ी पैसेंजर थी, लेट चली थी, तो किसी भी तेजगति गाड़ी या मालगाड़ी को निकालने के लिए उसे खड़ा कर दिया जाता। नतीजा सवा नौ के स्थान पर ग्यारह बजे स्टेशन पर उतरे। गाड़ी चली गई। हम ने भोजन-पंड़ित को तलाश किया तो वह नदारद था। खैर, तय हुआ कि वनखंडी में ही किसी की तलाश कर ली जाएगी या फिर खुद हाथों से बनाएंगे। स्टेशन के बाहर दो ही जीपें उपलब्ध थीं। पता लगासवारियों को पहुँचाने के लिए फेरे करेंगी। हम सब से पीछे वाले फेरे के लिए रुक गए। जीपें जब दूसरा फेरा कर रही थीं तब फोन आया कि पंडित किसी एक्सप्रेस ट्रेन को पकड़ कर सवाई माधोपुर पहुँच गया था, वहाँ से बस पकड़ कर पास के बस स्टेंड पहुँच गया है और वहां से वनखंड़ी की ओर रवाना हो चुका है। हमारी भोजन बनाने की चिन्ता दूर हो चुकी थी।
जीप के तीसरे और आखिरी फेरे ने हमें स्टेशन से मात्र पांच किलोमीटर दूर आश्रम तक पहुंचाया। बीच में केवल एक छोटा गाँव था। उसी गांव से कोई डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर आश्रम दो स्टेशनों के मध्य रेलवे लाइन से कोई पौन किलोमीटर दूर स्थित था। दो ओर खेत थे, तीसरी ओर जंगल और चौथी तरफ एक कम ऊंचा पहाड़ी श्रंखला। आदर्श स्थान था। मेरे मन में आश्रम की जो काल्पनिक छवि बनी थी उस के मुताबिक एक बड़े से घेरे में कुटियाएँ बनी होंगी, मन्दिर होगा, आश्रम में छोटा ही सही पर विद्यालय चलता होगा, जिस में संस्कृत अध्ययन होता होगा। निकट ही कहीं जल स्रोत के लिए कोई झरना होगा, जहाँ से निर्मल जलधारा निकल बह रही होगी। आश्रमवासी कुछ खेती कर रहे होंगे। लोग वहाँ आध्यात्म सीखने और अभ्यास करने जाते होंगे। आश्रम के महन्त अवश्य ही कोई ज्ञानी पुरुष होंगे, आदि आदि। लेकिन जैसे ही जीप से उतरे आश्रम का द्वार दिखाई पड़ा और उस के पीछे पक्के निर्माण देखते ही मन में निर्मित हो रहा काल्पनिक आश्रम तिरोहित हो गया। (जारी)

शुक्रवार, 20 जून 2008

इतनी अकल है, तो एक बार में नहीं लिख सकते?

वाह क्या? सीन है! 

महात्मा मोदी चर्चा में हैं, विश्वविद्यालय में क्या गए, उस के कुलपति गद्गद् और कृतार्थ हो गए।

गुरू वशिष्ठ के घर राम पधारते हैं। शिष्य राम के चरण पखारते हैं। राम हैं कि जाते ही गुरू चरण वन्दना में जुट जाते हैं।  

विश्वामित्र दशरथ के यहाँ जाते हैं, दशरथ द्वार तक जाते हैं, और ऋषि के चरण पखारते हैं, उच्चासन पर बिठाते हैं खुद नीचे बैठे हैं।

सीन पढ़ कर निर्देशक दहाड़ता है.....

फाड़ कर फेंक दो! सीरियल पिटवाना है क्या? दुबारा लिखो!

स्क्रिप्ट राइटर दुबारा लिखता है...........

गुरू वशिष्ठ के घर राम पधारते हैं। शिष्य राम को माला पहनाते हैं, गुरू जी,  महाराजा राम के चरण पखारते हैं। राम हैं कि सीना तान कर सब से बड़े सिंहासन पर खुद आरूढ़ हो जाते हैं। गुरू झुकी मुद्रा में खड़े हैं।  

विश्वामित्र दशरथ के यहाँ जाते हैं, दशरथ समाचार सुन कर कहते हैं. स्वागत कक्ष में बिठाओ,  कहना अभी प्रांत संचालक से मशविरा चल रहा है। विश्वामित्र डेढ़ घंटे इन्तजार करते हैं। बुलावा आता है। दीवाने खास में विश्वामित्र पहुँच कर सिर झुका कर नमन करते हैं। राम कह रहे हैं। मास्टर जी, हम अब चक्रवर्ती हो गए हैं। जरा समय ले कर आया कीजिए।

सीन पढ़ कर निर्देशक फिर दहाड़ता है.....

इतनी अकल है, तो एक बार में नहीं लिख सकते?

शुक्रवार, 25 जनवरी 2008

कहाँ हैं दादा जी जैसे कथावाचक

शाम साढ़े पांच बजे अदालत से घर पहुँचा तो शोभा जी (मेरी पत्नी) किसी धार्मिक टीवी चैनल पर आधुनिक नामचीन्ह कथावाचक की लाइव कथा सुन रही थीं। प्रसंग था दक्ष के यज्ञ में भगवान शिव के अपमान और यज्ञ के विध्वंस का। वाचकश्री कथा कहते-कहते सिखाने लगे कि दो के झगड़े में तीसरे को नहीं बोलना चाहिए और इस बहाने एक बहुश्रुत चुटकुला सुना गए। फिर कुछ देर बाद ही उन्हों ने एक भजन की पहली पंक्ति आरम्भिक शब्द गुनगुनाए, जिस के इशारे से प्लेबैक सिंगिंग शुरु हो गया। अनेक श्रोता महिलाएं और बालाएं (उनमें से कुछ प्रायोजित भी हों तो इस का पता पत्रकार बंधु दें) नृत्य करने लगीं। सारा वातावरण भक्ति नृत्य-संगीत से सराबोर हो उठा। अब वाचकश्री केवल होंट हिला रहे थे, प्लेबैक सिंगर पूरे व्यावसायिक कौशल से गा रहे थे। वादक उन का साथ दे रहे थे, कुछ लोग पांडाल से बाहर जाने को रास्ता बनाने लगे, कुछ वाचकश्री के निकट-दर्शन लाभ की इच्छा से भव्य मंच की ओर राह बनाने लगे। यह भजन कथा के इस दिन के सोपान के समापन का संकेत था। इस बीच कैमरा घूमने लगा। मुझे उस की भव्यता के और विशेष कर इस भव्य संयोजन के लिए सिद्धहस्त व्यावसायिक कलाकारों और तकनीशियनों के कौशल की अनुभूति हुई। मेरे सामने अपने अतीत की स्मृतियां आ खड़ी हुई।

मेरे दादा जी पं. राम कल्याण शर्मा एक अच्छे कथावाचक थे, संस्कृत और ज्योतिष के विद्वान, एक बड़े मन्दिर के पुजारी। गृहस्थ, लेकिन स्वभाव से बिलकुल संन्यासी। अपने बचपन और युवावस्था में अनेक विपदाओं के मध्य उन का जीवन अंततः इस मंदिर में आ कर ठहरा था। वे गांव में अपर्याप्त आय वाला ब्राह्णण कर्म और साप्ताहिक हाट में कुछ व्यापार कर परिवार का जीवन चला रहे थे। पिता जी के सरकारी अध्यापक हो कर इस व्यावसायिक नगर में आने के दो-एक बरस बाद जब महाजनों के जातीय मंदिर को तत्काल आवश्यकता हुई तो दादाजी को जानने वाले पंचों ने उन्हें रातों-रात गांव से लाकर इस मंदिर का पुजारी बना दिया। हालांकि इस नए कर्तव्य के लिए वे तभी तैयार हुए जब उन्हें हटाए जाने वाले पुजारी ने अपना अनापत्ति प्रमाण-पत्र दे दिया। उन का जीवन एक लम्बी कथा है, लेकिन अभी केवल प्रसंगवश केवल उन का कथावाचक का रूप।

मुझे उन के साथ १९५७ से १९७९ तक अनवरत साथ रहने का अवसर प्राप्त हुआ। माँ के बाद मेरे पहले गुरू वे ही थे उन्हों ने मेरे लिखना सीखने के पहले ही मुझे गणित का प्रारंभिक अभ्यास कराया था। मैं ने उन्हें सैंकड़ों बार कथा वाचन करते देखा सुना। वे पूर्णिमा को श्री सत्यनारायण-कथा, एकादशी को एकादशी-कथा, कार्तिक, वैशाख, व पुरूषोत्तम मास में दैनिक मास कथा का वाचन करते। भागवत कथा का एक अध्याय तो नित्य ही वाचन होता था। इस कथा-वाचन से वे इतने बंधे थे कि उनका कहीं बाहर आना-जाना भी नहीं होता था। जाते भी तो उस दिन के लिए एवजी कथा वाचक की व्यवस्था वे ही करते। आखिर कथा की नियमितता भंग नहीं होनी चाहिए थी। नौ वर्ष की आयु में जब मेरा यज्ञोपवीत हो गया तो कथा के दौरान मंदिर में पुजारी के काम के लिए मेरी ड्यूटी लगने लगी। यहीं मुझे उन की कथाओं को नियमित रूप से श्रवण करने का अवसर मिलने लगा।

उन की कथा में कोई सहायक व्यवस्थायें नहीं थीं। मन्दिर में गर्भगृह के सामने आंगन था, आंगन व गर्भगृह के मध्य एक पंचबारी थी। आंगन के दाएं-बाएं भी दो पचबारियां, चौथी ओर मन्दिर का प्रवेशद्वार था। दाईँ ओर की पंचबारी के दूसरे द्वार के दोनों स्थम्भों के मध्य प्रवेशद्वार के स्तम्भ से सटा एक चौकी रखी होती थी, जिस पर एक कपड़े का सुन्दर कवर बिछा होता, उस पर दादाजी के भगवान की तस्वीर होती। और उसी पर उन की कथा पुस्तकें कपड़े के बस्ते में लिपटी रखी होतीं थीं। पंचबारी के इस द्वार के दूसरे स्तम्भ के साथ एक आसन रखा होता। यही दादाजी की व्यास पीठ थी। यही उन की कथा का समूचा सहायक तंत्र।

प्रातः दस बजे के लगभग उन की कथा का समय होता, उन के श्रोता आते मन्दिर आते दर्शन करते। उनमें से ही कोई फर्श बिछा देता फिर एक-एक कर उस पर बैठने लगते, दादा जी मन्दिर की सेवा किसी अन्य परिजन(यज्ञोपवीत के बाद अक्सर मुझे, मेरा स्कूल सदैव दोपहर की शिफ्ट में १२बजे का रहा) सोंप कर व्यास पीठ सम्भालते। तस्वीर वाले ठाकुर जी की कुछ मंत्रों के साथ पूजा करते और उन की कथा प्रारंभ होती। उन के श्रोताओं में पन्द्रह-बीस स्थाई थे वे उन सभी के आने की तनिक प्रतीक्षा भी करते थे, शेष अस्थाई श्रोता थे। कोई स्थाई श्रोता को न आना होता तो कथा समय के पहले ही उन के पास उस की सूचना होती थी। वे कथा प्रारम्भ में देरी करते दिखाई पड़ते तो श्रोताओं में से कोई भी उन्हें बता देता था कि अनुपस्थित लोग आज किस एक्सेजेंसी के कारण नहीं आ पाएंगे। कथा प्रारंभ के साथ ही श्रोता बढ़ने लगते और उस के साथ ही दादाजी का स्वर भी ऊंचा होता जाता, उन्हें यह अहसास रहता था कि उन की कथा अंतिम श्रोता तक पहुँचनी चाहिए। कथा में वे पहले मूल संस्कृत श्लोक का अपनी शैली में वाचन करते, फिर उस की सीधे हाड़ौती बोली में टीका करते थे। कहीं बीच में अध्याय विराम होता तो गोविन्दम् माधवम् गोपिकावल्लभम्... उच्चारण कर छोड़ देते, उन के श्रोता इस संक्षिप्त भजन को दो मिनट में पूरा करते तब अगले अध्याय की कथा प्रारम्भ होती। उन की कथा में किसी अन्तर्कथा का कोई स्थान न था। हाँ, जब कथा में कोई गंभीर शिक्षा या संदेश होता तो उसे वे हाड़ौती में तनिक विस्तार से व्याख्या करते थे। कोई बात किसी श्रोता को साफ न होती तो वह कथा के बाद दादा जी से प्रश्न के माध्यम से पूछता था। बात जरा सी होती तो वे उसी समय प्रश्न का उत्तर दे देते और उन को लगता कि यह शंका अन्य श्रोता को भी हो सकती है, तो कहते कल कथा में इसे समझाउंगा। दूसरे दिन कथा के बीच ही वे उस प्रश्न का उत्तर दे देते।

कथा-श्रोताओं की संख्या मौसम के अनुसार घटती बढ़ती रहती थी, पूर्णिमा, एकादशी और विशेष मास कथाओं के दौरान यह बढ़ कर चरम सीमा पर होती थी तो बरसात के दिनों में मूसलाधार वर्षा के समय न्यूनतम भी। कभी-कभी ऐसा भी होता कि एक भी श्रोता नहीं होता था, वे कुछ समय प्रतीक्षा करते, फिर उन की कथा नित्य की भांति प्रारंभ हो जाती। प्रारंभ में जब मैं ने यह देखा तो मुझे विचित्र लगा कि आखिर वे किसे कथा सुना रहे हैं? मैं ने अत्यन्त साहस कर के पूछा तो उन्होंने अत्यन्त स्नेह से समझाया कि मैं कभी श्रोताओं के लिए कथा नहीं करता। मेरी कथा को मेरे ठाकुर जी और मैं तो सुनता हूँ, फिर मेरे गाल पर एक चपत मढ़ते हुए प्यार से कहा- और तू भी तो सुनता है।

मुझे लगता है कि आज दादा जी जैसे कथावाचक कहाँ हैं? हैं भी या नहीं?

मेरा कथन- आज का यह आलेख ज्ञान दत्त जी पाण्डे की पोस्ट वाणी का पर्स से प्रेरित है। मुझे लगा कि ब्लॉग में ब्लॉगर को स्वयं को खोलना चाहिए। जिस से वह पाठकों के लिए निजी निधि बने। यह एक प्रयास है। यदि इसे पाठकों का आशीर्वाद मिला तो सप्ताह में कम से कम एक दिन मेरी यह निजी अंतर्कथा सार्वजनिक होती रहेगी।