@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: मत चूके चौहान !!!

शुक्रवार, 26 मार्च 2010

मत चूके चौहान !!!

ज कल अदालतों के निर्णय बहुत चर्चा में हैं। अभी-अभी लिव-इन-रिलेशन के संबंध में आया निर्णय खूब उछाला जा रहा है। टीवी चैनलों की तो पौ-बारह हो गई है। एक-दो कौपीन और दाढ़ी वाले पकड़े कि  हो गया अच्छा खासा तमाशा। ऐसा मौका मिल जाए तो फिर क्या है? जो चूके वो चौहान नहीं। मौका बार-बार थोड़े ही मिलता है। वैसे मौका मिलने की थियरी अब पुरानी हो चुकी है। अब मौके का इंतजार नहीं किया जाता , उसे  झपट लिया जाता है। झपट्टा मारने के खेल में मीडिया का कोई जवाब नहीं है। जैसे अर्जुन को मछली की आँख में तीर मारना होता था तो उसे सिर्फ उस की आँख दिखती थी, बाकी सब कुछ दिखना बंद हो जाता था। बोलिए फिर निशाना गलत कैसे हो। हमारी पत्रकार बिरादरी में कोई अर्जुनों की कमी है?
भारत सरकार खिलाड़ियों को अर्जुन पुरस्कार दे कर कोई अकल वाला काम नहीं कर रही है। वास्तव में यह नाम तो मीडिया कर्मियों के लिए बुक कर दिया जाना चाहिए था। फैसला सुप्रीम कोर्ट का हो या हाईकोर्ट का ,या फिर किसी जिला या निचली अदालत का। उन्हें फैसलों में सिर्फ अपने काम की बात दिखाई देती हैं। बाकी  की पंक्तियाँ  औझल हो जाती हैं। अब ऐसे कर्मवीरों को छो़ड़ भारत सरकार खिलाड़ियों को अर्जुन पुरस्कार  बांट रही है।  खिलाड़ियों को  ये पुरस्कार देने से क्या लाभ? वैसे भी अर्जुन तीरंदाज भले ही हो, खिलाड़ी बिलकुल न था। अवसर होता था तो फाउल खेलता था। शिखंडी को आगे कर के पितामह के हथियार डलवा दिए और निपटा दिया। ऐसा कोई मीडिया कर्मी ही कर सकता था और कोई नहीं।
ब मीडियाकर्मी जानते हैं कि नहीं यह तो मुझे पता नहीं कि अदालतें सिर्फ कानून के मुताबिक फैसले देती हैं। उन्हें कानून बनाने का अधिकार नहीं। अब अदालत बोले कि अविवाहित या विवाह के बंधन से बाहर के बालिग स्त्री-पुरुष या पुरुष-पुरुष या स्त्री-स्त्री साथ रहें तो यह अपराध नहीं। इस में अदालत ने क्या गलत कहा? उन्हों ने तो अपराधिक कानूनों के मुताबिक इस बात को जाँचा और अपना फैसला लिख दिया। यह तय करना उन का काम नहीं कि कानून क्या हो। हाँ वे यह जरूर कह सकते हैं कि क्या कानून नहीं हो सकता? वो भी संविधान पढ़ कर।  कानून बनाना संसद या विधानसभा का काम ठहरा। कौन सा कृत्य या अकृत्य अपराध होगा? औरकौन सा  नहीं? पर अजीब रवायत है इस देश की कि संसद और विधानसभाओं में बैठ कर कानूनों पर मुहर लगाने वाले अदालत के फैसलों पर टिप्पणी करने से कभी नहीं चूकते। उन में चौहानवंशियों की कमी थोड़े ही है। जब कानून बन रहा होता है तो तो वे संसद और विधानसभा से नदारद होते हैं और होते हैं तो नींद निकाल रहे होते हैं।  अदालत के  फैसले के बहाने संस्कृति का रक्षक बनने का अवसर मिले  चौहान कभी नहीं चूकता।
 पुरुषों की बिरादरी भी कम नहीं, वो ब्लागर हों या लेखक, क्या फर्क पड़ता है? बस पुरुष होने चाहिए। जब सब बोलने में पीछे नहीं हट रहे हों तो ये क्यो चूकें, लिखने और टिपियाने से? शादी पर लानत भेजने से न चूके। ये बताने से न चूके कि यदि जीवन  में सब से बड़ी मूर्खता कोई है तो वो शादी है।  मूर्खता भी बला की खूबसूरत, ऐसी कि जो कर पाए सो भी पछताए और जो न करे वो भी पछताए। जिस जिस ने कर ली वो भुगत रहा है। रोज मर्दाने में जा कर अपनी व्यथा-कथा सुना आता है। अदालत का फैसलाआता है कि बिना ये किए भी साथ रहा जाए तो कोई जुर्म नहीं। तो पीड़ा से कराह उठता है, लगता है किसी ने दुखती रगों को छेड़ दिया है। अंग-अंग दुख ने लगता है। मन ही मन सोचता है हाय! ये फैसला पहले क्यूँ न आया? कम से कम जिन्दगी की सब से बड़ी मूर्खता से तो बच जाता। वह सोचते सोचते बेहोस हो लेता है। फिर जैसे ही तनिक होश आता है, सोचता है यहे बात मुहँ से न निकले। कह दी तो मर्दानगी पर सवाल खड़ा हो जाएगा। उसे भगवान के दर्शनार्थ नकटे हुए लोगों का किस्सा याद आने लगता है। वह कहने, लिखने और ब्लागियाने लगता है -अदालत ने संस्कृति पर बहुत बड़ा हमला कर दिया है। चाहे वह अपराध न हो, पर इस से भगवान तो नहीं दिखता। उस के लिए तो नाक कटाना जरूरी है।

17 टिप्‍पणियां:

राज भाटिय़ा ने कहा…

अब क्या कहे.....

अजित वडनेरकर ने कहा…

पढ़े लिखे मूर्खों की बातें हैं सब...
अब ये सुप्रीमकोर्ट को आग लगाने पहुंच जाएंगे...

डा० अमर कुमार ने कहा…


प्रगतिशीलता के नकटे पैंतरे..
ताज़्ज़ुब है कि इनकी अगुआई को सभी तत्पर
एक जागरूक बुद्धिजीवी दिखने का बेहतरीन शोशा
आज समर्थन, कल को गतिरोध, परसों विरोध, नरसों समझौता, फिर पुनर्निरीक्षण, आगे हृदय परिवर्तन.. इस तरह लौटना पँछी का पुनि ज़हाज़ पर । नकटों की कोई एक पहचान हो बताया जाय । आपका आक्रोश ज़ायज़ है.. बशर्ते कि यह भी बाद में एक नकटा आक्रोश न साबित कर दिया जाये.. क्योंकि नकटों का कोई भरोसा नहीं :)

डा० अमर कुमार ने कहा…


I have lost my comments.. somewhere in this box !

Udan Tashtari ने कहा…

कोई भी क्या कहे ऐसी बातों पर!!

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हिन्दी में विशिष्ट लेखन का आपका योगदान सराहनीय है. आपको साधुवाद!!

लेखन के साथ साथ प्रतिभा प्रोत्साहन हेतु टिप्पणी करना आपका कर्तव्य है एवं भाषा के प्रचार प्रसार हेतु अपने कर्तव्यों का निर्वहन करें. यह एक निवेदन मात्र है.

अनेक शुभकामनाएँ.

वाणी गीत ने कहा…

जब साथ ही रहना है तो शादी करके साथ रहने में क्या बुराई है ....विशेषकर ऐसी स्थिति में जब कि साथी को पत्नी के सारे अधिकार प्राप्त हों ...

बेनामी ने कहा…

जब कानून बन रहा होता है तो तो वे संसद और विधानसभा से नदारद होते हैं और होते हैं तो नींद निकाल रहे होते हैं। अदालत के फैसले के बहाने संस्कृति का रक्षक बनने का अवसर मिले चौहान कभी नहीं चूकता।

नकटा कौन?

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

लगता है किसी ने दुखती रगों को छेड़ दिया है। अंग-अंग दुख ने लगता है। मन ही मन सोचता है हाय! ये फैसला पहले क्यूँ न आया?

सटीक कटाक्ष है ।

Abhishek Ojha ने कहा…

सबके अपने अपने मतलब हैं ! जिन्हें साधने में सब लगे हैं.

ghughutibasuti ने कहा…

बहुत सही लिखा है।
घुघूती बासूती

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

क्या फैसला है अदालत का?

अजय कुमार झा ने कहा…

हा हा हा सर आज आपकी शैली में गज़ब की धार दिखी ...एकदम सान चढा के लिखा है आपने ..
अजय कुमार झा

डॉ. मनोज मिश्र ने कहा…

सही कह रहे हैं,इलाज क्या है?

Rakesh Shekhawat ने कहा…

आलेख के लिए साधुवाद। पर क्या अच्छा नहीं होता कि माननीय जज महोदय ऐसा बिना राधा-कृष्ण के दृष्टान्त के कहते। बकौल आपके ही ‘‘ अदालतें सिर्फ कानून के मुताबिक फैसले देती हैं। उन्हें कानून बनाने का अधिकार नहीं।’’ तब कानून के इन पुरोधाओं को कानून की पौराणिक व्याख्या की क्या आवश्यकता पड़ी। कानून की रक्षा करने वाले वर्तमान कानून को लागू करने का जिम्मा ही उठाले तो काफी नहीं होगा? कानून को पौराणिक टच देने की न तो किसी जज महोदय को आवश्यकता है और ना ही यह उनका काम है।

Khushdeep Sehgal ने कहा…

द्विवेदी सर,

मीडियाकर्मी तो मैं भी हूं, लेकिन...

जय हिंद...

विष्णु बैरागी ने कहा…

आपने बिलकुल सही लिखा। अदालत ने इस स्थिति की व्‍याख्‍या केवल आपराधिक कानूनों के सन्‍दर्भ में ही की है। भाई लोगों ने चिन्‍दी का थान बना दिया।

चंदन कुमार मिश्र ने कहा…

मैं तो मानता हूँ कि अधिकार उन्हें भी है। क्यों नहीं हो? हाँ, उनकी चूकने वाली बात से तो एकदम सहमत हूँ। वैसे मैं स्वयं लिव-इन-रिलेशनशीप में कुछ गलत नहीं मानता लेकिन एक सवाल तो है। अज किसी के साथ और कल किसी के साथ तब समाज और परिवार का अस्तित्व बने रहने में तो कुछ गड़बड होगा ही। वैसे शायद कुछ बदलाव हों तो कोई दिक्कत नहीं। लेकिन क्या इसका असर परिवार की व्यवस्था पर नहीं पड़ता? मैं स्वयं इन व्यवस्थाओं से बहुत प्यार भी नहीं करता। बस एक जिज्ञासा है, सो कहा।

शीर्षक मुझे कुछ व्याकरणिक गलती से युक्त लगा। मत के साथ हम चूके शायद नहीं लिख सकते। मत चूको चौहान या नहीं चूके चौहान, सही होगा। वैसे भी जिस दोहा का यह अंश है, उसमें 'मत चूको चौहान' ही है। इसे अन्यथा न लिया जाय।