@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: आजाद भारत की बेटियाँ-2 ... ... ...ईश्वर कह रहा है ..... “मेरी रक्षा कीजिए"

शुक्रवार, 15 अगस्त 2008

आजाद भारत की बेटियाँ-2 ... ... ...ईश्वर कह रहा है ..... “मेरी रक्षा कीजिए"

कुछ दिन पहले मेरी बेटी पूर्वाराय द्विवेदी ने एक आलेख मुझे पढ़ने को भेजा था। वह एक जनसंख्या विज्ञानी (Demographer) है और अनतर्राष्ट्रीय जनसंख्या विज्ञान संस्थान, मुम्बई के आश्रा प्रोजेक्ट से वरिष्ठ शोध अधिकारी के रूप में सम्बद्ध है। मुझे लगा कि आजादी की 61वीं वर्षगाँठ पर आप सब के साथ इस आलेख को बांटना चाहिए। मैं ने इस का अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद किया है। आलेख लंबा हो जाने से ब्लाग पाठकों के लिए इस के दो भाग कर दिए हैं, पहला भाग आप कल पढ़ चुके हैं। आज पढ़िए दूसरा और समापन भाग....
-दिनेशराय द्विवेदी

आजाद भारत की बेटियाँ-2

ईश्वर कह रहा है ..... “मेरी रक्षा कीजिए"
  • पूर्वाराय द्विवेदी

यह आम कहावत है कि बालकों की अपेक्षा, नवजात बालिकाओं में अधिक प्रतिरोध क्षमता अधिक होती है। समान रूप से विपरीत परिस्थितियों में नवजात बालिकाओं की संक्रमण से लड़ने और जीवित रहने की संभावनाएँ नवजात बालकोंसे अधिक होती है। यह विचार अनेक अध्ययनों से सही भी साबित हुआ है। लेकिन उस के बावजूद (एस.आर.एस. सेम्पल रजिस्ट्रेशन सिस्टम द्वारा 2005 में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार) जन्म लेने वाले 1000 स्त्री-शिशुओं में से 61 की मृत्यु हो जाती है। जब कि जन्म लेने वाले 1000 नर-शिशुओं में मरने वालों की संख्या 56 है। विगत एक सौ वर्षों से भारत की जनसंख्या के यौन अनुपात में लगातार स्त्रियों की कमी होती रही है। 1901 की राष्ट्रीय जनगणना में स्त्री-पुरुष अनुपात 1000 पुरुषों के मुकाबले 972 स्त्रियों का था। बाद की प्रत्येक जनगणना बताती है कि स्त्री-पुरुष अनुपात में स्त्रियों की संख्या उत्तरोत्तर कम होती गई है। 1991 की जनगणना में 1000 पुरुषों पर 927 स्त्रियाँ थीं। जो 2001 की जनगणना में बढ़ कर 933 हो गई हैं। इस तरह यहाँ स्त्रियों की संख्या में कुछ वृद्धि अवश्य होती दिखाई दे रही है। लेकिन 1991 में 6 वर्ष तक के बच्चों में लिंग अनुपात प्रति हजार बालकों पर 945 बालिकाओं का था, जो कि 2001 में घट कर मात्र 927 रह गया। इस तरह एक दशक में 18 बालिका प्रति हजार कम हो गया।
भारत सरकार द्वारा संयुक्त राष्ट्र संघ की बाल अधिकार समिति को प्रेषित रिपोर्ट में बताया है कि प्रत्येक वर्ष 1 करोड़ 20 लाख बालिकाएँ जन्म लेती हैं जिन में से 30 लाख उन का 15वाँ जन्मदिन नहीं देख पातीं, और उस के पहले ही काल का ग्रास बन जाती हैं। इन में से एक तिहाई जन्म से प्रथम वर्ष में ही मर जाती हैं, और यह आकलन किया गया है कि प्रत्येक छठी महिला की मृत्यु कारण लिंग-भेद है।
वर्ष 2001 की जनगणना से प्राप्त तथ्य कुछ और भी घोषणाएँ करते हैं। 26 राज्यों और संघीय क्षेत्रों के 640 नगरों और कस्बों से प्राप्त आंकड़े बताते हैं कि नगरीय क्षेत्रों के पोश इलाकों में 6 वर्ष से कम के बालकों में प्रति हजार बालकों पर केवल 904 बालिकाएँ हैं। जब कि भीड़ भरी तंगहाल झुग्गी-झोंपड़ियों के इलाकों में प्रति हजार बालकों पर 919 बालिकाएँ हैं। राजधानी दिल्ली के पोश इलाकों और झुग्गियों में यह अनुपात क्रमशः 919 और 857 ही रह जाता है। स्पष्ट है कि यह कारनामा वहाँ हो रहा है, जहाँ लोग होने वाली संतान के लिंग का चुनाव करने में अर्थ-सक्षम हैं और तकनीक का उपयोग कर रहे हैं। यहाँ इस बात की कोई गारंटी नहीं कि एक लड़की जो भ्रूण हत्या, और शिशु हत्या से बच गई है, और आदतन उपेक्षा-चक्र की शिकार नहीं होगी, जो उस की मृत्यु का कारण बन सकता है, क्योंकि उसे भोजन कम मिलेगा, दुनियाँ को जानने के अवसरों के स्थान पर उसे किसी काम में ठेल दिया जाएगा और उस के स्वास्थ्य और चिकित्सा भगवान भरोसे रहेगी।
1952 में भारत भी उन देशों में से एक था जिन्हों ने सर्वप्रथम परिवार नियोजन। हमारी त्रासदी है यह रही कि हम इस भ्रान्त धारणा को लेकर चले कि एक पुरूष उत्तराधिकारी पर्याप्त है। लेकिन कितने लोगों ने इस वास्तविकता को समझा कि एक पुरूष उत्तराधिकारी को जन्म देने के लिए एक स्त्री भी जरूरी है। जैविक रूप में वह संतान की संवाहक है। पूरे देश में बालिकाओं के साथ असमानता का व्यवहार जारी है। पुत्रियाँ एक दायित्व समझी जाती हैं। हरियाणा में एक लिंग निर्धारण क्लिनिक के बाहर लिखा है..... बाद में 50,000/- रुपए (दहेज) के स्थान पर अभी 50/-रुपए खर्च करें स्त्रियाँ कानून का रास्ता चुनने के लिए भी स्वयं सक्षम नहीं हैं। उन्हें किसी दहेज, क्रूरता और यौन शोषण की शिकार होने पर अपने पति, ससुराल वालों और माता-पिता के विरुद्ध खड़े होने के लिए अतिसाहसी होना पड़ेगा। बाल-विवाह बालिकाओं के विकास और उन के अधिकारों को बाधित कर देता है।
एक गर्भवती को आवश्यक चिकित्सा के लिए अपनी सास या पति पर निर्भर रहना पड़ता है। स्त्री के विरुद्ध अत्याचार बढ़ रहे हैं। प्रत्येक 26 मिनटों में एक स्त्री उत्पीड़ित होती है, प्रत्येक 34 मिनटों में एक बलात्कार की शिकार, प्रत्येक 42 मिनटों में एक के साथ यौन उत्पीड़न होता है, प्रत्येक 43 मिनट में एक का अपहरण और प्रत्येक 93 मिनट में एक दहेज की आग में भस्म हो जाती है। 16 से कम उम्र की बालिकाओं के साथ बलात्कार के कुल मामलों में से एक चौथाई की कभी रिपोर्ट ही दर्ज नहीं होती।
अब भारत सरकार त्यक्त बालिकाओं के लिए एक क्रेडल स्कीम की योजना बना रही है। इस योजना में प्रत्येक जिले में एक ऐसा केन्द्र बनाने की योजना है जिस में माता-पिता ऐसी बालिकाओं को छोड़ सकते हैं जिन की वे स्वयं परवरिश नहीं कर सकते या करना नहीं चाहते। लेकिन शिशु हत्या को रोकने के लिए काम करने वाली गैर सरकारी संस्थाएँ महसूस करती हैं कि लोग संतान पैदा करेंगे और फिर सरकार की सुरक्षा में छोड़ देंगे, जिस से समाज में एक गलत संदेश छूटेगा। तमिलनाडु में जहाँ यह योजना लागू कर दी गई है सफल नहीं हो सकी है।
इस तथ्य को ध्यान में रखे बिना कि आप की होने वाली संतान लड़का है या लड़की, माँ बनना ईश्वर का सब से महान उपहार है। अब वह समय आ चुका है जब बालिकाओं के प्रति अवांछित भेदभाव की समाप्ति के लिए पहल की जाए। बालिकाओं को आजादी के अधिकार, शिक्षा के अधिकार और जन्म लेने के अधिकार प्राप्त होने ही चाहिए। वे जैविक रूप से बालकों से अधिक मजबूत होती हैं, उन्हें पर्याप्त पोषण, स्वास्थ्य सुविधाएँ और शिक्षा प्राप्त होनी ही चाहिए। उन्हें अपनी क्षमताओं का विकास करने और उन्हें सिद्ध करने का अवसर मिलना ही चाहिए। माँ के रूप में स्त्रियों पर अपनी संतानों को बेहतर जीवन मूल्यों, सांस्कृतिक विश्वासों और सदाचरण की शिक्षा का दायित्व है। उन्हें मानसिक और भावनात्मक रूप से मजबूत तथा बौद्धिक रूप से शिक्षित होना ही होगा। स्त्रियाँ सबसे बेहतर साधिकाएँ हैं, वे समाज में कर्मठता, समानता, सहयोग और मानवता लाती हैं और जो अंततोगत्वा समाज को जीने लायक संवेदनशील और शांतिपूर्ण समूह में बदलती हैं।
प्रत्येक बालक को अपने जीवन के प्रारंभ के वर्षों में पोषण और बुद्धिमान निर्देशन की आवश्यकता है। इस काल में एक स्त्री ही अपनी संतानों को जीवन की अच्छाइयाँ सीखने में मदद करती है। उन्हीं स्त्रियों में शिक्षा का अभाव होना व्यक्तिगत ही नहीं, संपूर्ण राष्ट्र की क्षति है।
एक बालिका प्रत्येक राष्ट्र का भविष्य है और भारत इस का अपवाद नहीं हो सकता। एक बालिका के जीवन में थोडा सा संरक्षण, एक संवेदनासम्पन्न हाथ और एक प्यार भरा दिल बहुत बड़ा परिवरतन ला देता है। अपनी आँखें बंद कीजिए, अपने सोच को स्वतंत्र कर दीजिए, और ईश्वर की पुकार सुनिए ¡ वह हम सब से कुछ कह रहा है ..... मेरी रक्षा कीजिए
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सूचना ...

आलेख के पूर्वार्ध पर "सच" की टिप्पणी व अन्य टिप्पणियों पर बात अगले आलेख में........... 

 

23 टिप्‍पणियां:

Udan Tashtari ने कहा…

आलेख पसंद आया. आभार यहाँ प्रस्तुत करने का.

स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाऐं.

बेनामी ने कहा…

"आलेख के पूर्वार्ध पर "सच" की टिप्पणी व अन्य टिप्पणियों पर बात अगले आलेख में..........."
क्यों सब की संवेदनाये इतनी विक्षिप्त हैं ?? क्यों नारी स्वतंत्रता को लोग आतंक समझते हैं और नारी विर्मर्ष को अपशब्द कहते हैं . क्यों जरुरी हैं "संरक्षण" नारी का

Tarun ने कहा…

inhi aur aisi hi anay naari ke prati samasyaon per ek film banayi gayi thi jiska naam mujhe yaad nahi aa reha, lekin usme ye dikhaya tha ki ek din sirf male jansankhya reh jaati hai......is film ko India me release nahi hone diya tha.

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` ने कहा…

एक बालिका प्रत्येक राष्ट्र का भविष्य है और भारत इस का अपवाद नहीं हो सकता।
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पते की बात कह दी पूर्वा बिटीया ने - यही भगवान श्री कृष्ण ने भगवद्` गीता मेँ भी कहा है " जिस राष्ट्र मेँ स्त्रियोँ का अनादर होता है याकि जहाँ स्त्रियाँ व्याभिचारिणी हो जातीँ हैँ उस राष्ट्र का नाश हो जाता है "
( the Great Roman empire & the former Greek civilizations are examples of these )
- लावण्या

mamta ने कहा…

बहुत पसंद आया। और लावण्या जी की बात भी बहुत सही है।
स्वतंत्रता दिवस की बधाई और शुभकामनाएं।

Smart Indian ने कहा…

आलेख बहुत पसंद आया। लावण्या जी की बात में मनुस्मृति का प्रसिद्द कथन भी जोड़ना चाहूंगा - "यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता."
स्थिति काफी भयावह है. इसे बेहतर बनाने के लिए हमें दहेज़ जैसी कुरीतियों का अंत करना होगा और साथ ही इसे माहौल का निर्माण करना होगा जिसमें लडकियां निर्भय होकर अकेले घर से बाहर निकल सकें.

अनिल रघुराज ने कहा…

वारिस के चक्कर में लोग लड़का चाहते हैं। लेकिन पूर्वा ने जबरदस्त बात कही है कि 'पुरूष उत्तराधिकारी को जन्म देने के लिए एक स्त्री भी जरूरी है।'
पूर्वा की मेघा को और चार चांद लगें। आपको और पूर्वा दोनों को आज़ादी की 61वीं सालगिरह मुबारक...
निराला के शब्दों में मेरी तो यही कामना है कि...
कलुष भेद, तम हर, प्रकाश भर, जगमग जग कर दे...
देश में हर तरफ ज्ञान का उजाला फैले, यही ख्वाहिश है।

रंजू भाटिया ने कहा…

जिस दिन कन्या भूर्ण हत्या बंद हो जायेगी और दहेज रूपी बुराई का नाश होगा उसी दिन एक स्वस्थ समाज की कल्पना की जा सकती है ..पूर्वा का यह आलेख बहुत पसंद आया ...यूँ ही लिखती रहे ..

Anil Pusadkar ने कहा…

sateek hai,aapko aur poorva jee ko swatantrata divas ki badhai

विष्णु बैरागी ने कहा…

हम लोग 'ज्ञान पापी' समाज हैं । प्रिय पूर्वा की सारी बातें, सबकी जानी-पहचानी हैं लेकिन अपनी बारी आने पर सब उन्‍हें भूल जाते हैं ।
जो देश अपने स्‍त्री समाज का सम्‍मान नहीं करता वह कभी उन्‍नति नहीं कर सकता ।

आंकडें रोंगटे खडे् करने वाले हैं । ईश्‍वर हमें सद्बुध्दि दे ।

प्रिय पूर्वा की कलम यशस्‍वी बने ।

राजीव रंजन प्रसाद ने कहा…

सारगर्भित और सामयिक आलेख है।

स्वाधीनता दिवस पर आपको हार्दिक शुभकामनायें..


***राजीव रंजन प्रसाद

डॉ .अनुराग ने कहा…

भले ही हम चाँद तारो तक पहुँच गए है पर सच यही है की आदमी की सोच अभी तक नही बदली है.......ये समाज के ७० %चेहरे का हिस्सा है......भले ही हम ढेरो बहस करे ....ढेरो कागज काले करे ....सच यही है की स्त्री को जब तक आप आर्थिक स्वन्तान्त्रता नही देगे ...उसका भला नही होगा....शिक्षा नही देंगे ...भला नही होगा ....क्यों नही १२ तक गरीब लड़कियों .लड़को के लिए शिक्षा मुफ्त कर दी जाये?क्यों नही कुछ किलोमीटर की दूरी पर स्कुल या विद्यालय खोले जाये ?
हमरे समाज का विकास समान भागो में नही हुआ है ..कही बहुत ज्यादा धन है कही गरीबी....११ मिलियन बच्चे अनाथ है भारत में....ओर कितने बिन इलाज़ के मर जाते है.....इनमे में ज्यादातर प्रतिशत लड़कियों का ..

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

“बाद में 50,000/- रुपए (दहेज) के स्थान पर अभी 50/-रुपए खर्च करें”
दोनो ही प्रथायें बर्बर! न जाने कब होगा इस लोलुप समाज का हृदय परिवर्तन?!
बिटिया ने बहुत अच्छा लिखा और अनुवाद भी पठनीय है।
प्रस्तुति के लिये आपका धन्यवाद।

रवि रतलामी ने कहा…

पर, जागृति और शिक्षा से परिस्थितियों में बेहद मामूली ही सही, सुधार तो आने लगा है.

राज भाटिय़ा ने कहा…

जिस राष्ट्र मेँ स्त्रियोँ का अनादर होता है याकि जहाँ स्त्रियाँ व्याभिचारिणी हो जातीँ हैँ उस राष्ट्र का नाश हो जाता है "
बिलकुल सही बात हे.
स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाऐं.
धन्यवाद आप की बेटी का ओर आप का इस सुन्दर लेख के लिये

पतिनुमा प्राणी ने कहा…
इस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.
डा. अमर कुमार ने कहा…

शुभकामनायें... केवल शुभकामनायें ही, इससे आगे...
और हम कूश्श नेंईं बोलेगा ।
जैसे अब तक काम चलाते आये हैं,
वैसे ही सिरिफ़ शुभकामनाओं से अपना काम चलाइये नऽ !
ऒईच्च..हम बोलेगा तो बोलोगे की बोलता है,
ईशलीए हम कूश्श नेंईं बोलेगा ...

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी ने कहा…

बालिका शिक्षा राष्ट्रीय नीति में सर्वोच्च प्रथमिकता देने से काफी सुधार आ सकता है। इस दिशा में जागरुकता बढ़ भी रही है। पूर्वा जी ने इस विषय पर अधिकांश विन्दुओं को एक स्थान पर समेकित कर दिया है। ऐसे प्रयास ही अंधकार को दूर करने में सफल होते हैं। समस्याएं तो देश में कहीं और व्यापक हैं। मन में तकलीफ़ बनी रहती है:-

आज़ादी की बात पर होता नहीं गुमान।
बहुत गुलामी देश में पसरी है श्रीमान्॥

पसरी है श्रीमान् यहाँ बदहाल गरीबी।
जाति-धर्म के भेद और आतंक करीबी॥

घोर अशिक्षा, पिछड़ापन, बढ़ती आबादी।
भ्रष्टतंत्र की भेंट चढ़ी अपनी आज़ादी॥

Arvind Mishra ने कहा…

सुश्री पूर्वा द्विवेदी ने काफी परिश्रम करके यह सारगर्भित लेख पूरा किया है .जेंडर बायस का मामला बहुत उल्जा हुआ है -भारत में तो यह न्रिशंशता की हदें पार कर चुका है -यह एक संवेदनशील मुद्दा है -ऐसा क्यों रहा है ?
लेकिन जब समाज अब काफी बदल गया है तो फिर इन आदिम प्रथाओं के जड़ता का बोझ हम क्यों ढ़ो रहे हैं ?
लड़की को जन्म के पहले ही मार दो ,जन्म ले भी ले तो किसी न किसी बहाने ,निष्क्रिय या सक्रिय रह कर मार दो .....किसी से प्रेम कर बैठे तो जिंदा जला दो ,पति चल बसे तो चिता पर चढा कर मार दो ..चिता पर न चढ़े तो डायन बता कर मार दो ..फिर भी न मरे तो बाल मुड़वा कर काशी या वृन्दावन भेज दो जहाँ वह जिंदा लाश बन कर तिल तिल कर मरने को अभिशप्त हो .....यह मंजर क्या पढ़े लिखे समाज की चुगली नही करता ?
पर पुरूष ही इसका दोषी नही है -केवल पुरूष के सर इस समस्या को मढ़ देना सही नही होगा -पर इस पर भी चर्चा की जानी चाहिए !

बेनामी ने कहा…
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पतिनुमा प्राणी ने कहा…
इस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.
Ila's world, in and out ने कहा…

पूर्वा को बधाई इतने बढिया लेख के लिये.हमारे देश की कडवी हकीकत है है कि हम अपनी बेटियों को प्रेम , सुरक्षा और सम्मान नहीं दे रहे हैं,कारण चाहे कुछ भी हो.

Abhishek Ojha ने कहा…

एक सुंदर आलेख पर बड़ी-बड़ी टिपण्णी, बड़े-बड़े विचार. मैं ऐसी जगह पर क्या कह सकता हूँ... बस इतना ही कहना है की दुनिया न बदल सके न सही... पड़ोस भी न सुधार सके तो कोई बात नहीं पर सब लोग अपना घर तो सुधार सकते हैं. और ये भी काफ़ी होगा... समस्या तब आती है जब बड़ी-बड़ी बातें करने वाले लोग भी यही काम करते हैं... एक आलेख पढ़ रहा था की कैसे कनाडा में रह रहे पञ्जाबी परिवार... परिवार नियोजन बड़े जोरों से अपना रहे हैं एक छोटे से सुधार के साथ. एक ही हो और लड़का ही हो.

कुछ बातें बड़ी झकझोरने वाली हैं इस आलेख में... !