@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: अगस्त 2008

रविवार, 31 अगस्त 2008

'भगवान' शब्द के शब्दार्थ

हिन्दुस्तानी बन्धु ने आज एक आलेख अपने ब्लॉग पर लिखा है- हमारा हिन्दुस्तान...: भगवान का शाब्दिक अर्थ यह है !! इसे पढ़ कर इन हिन्दुस्तानी बन्धु बुद्धि पर केवल और केवल तरस खाने के अलावा और कुछ नहीं किया जा सकता है? यह पाँचवीं कक्षा के किसी छात्र का भदेस और कक्षा से लम्बे निष्कासन के उपाय के रूप में दिया गया जवाब लगता है।

इन सज्जन ने अपने आलेख में जो बताया है  कि भग स्त्री जननांग को कहते हैं इस लिए स्त्री का स्वामी अर्थात उस का पति भगवान हुआ, जैसे बल का स्वामी बलवान।

  • संस्कृत में 'भगः' शब्द है, जिस के अर्थ हैं -सूर्य के बारह रूपों में से एक, चन्द्रमा, शिव का रूप, अच्छी किस्मत, प्रसन्नता, सम्पन्नता, समृद्धि, मर्यादा, श्रेष्ठता, प्रसिद्धि, कीर्ति, लावण्य, सौन्दर्य, उत्कर्ष, श्रेष्टता, प्रेम, स्नेह, सद्गुण, प्रेममय व्यवहार, आमोद-प्रमोद, नैतिकता, धर्मभावना, प्रयत्न, चेष्ठा, सांसारिक विषयों में विरति, सामर्थ्य, और मोक्ष, और ... ...  योनि भी। 
  • लेकिन,  योनि केवल स्त्री जननांग को ही नहीं, उद्गम स्थल, और जन्मस्थान को भी कहते हैं।
  • यह जगत जिस योनि से उपजा है उसे धारण करने वाले को भगवान कहते हैं। 
  • इन सज्जन के अर्थ को भी ले लें, तो भी योनि का स्वामित्व तो स्त्री का ही है। इस कारण से स्त्री ही भगवान हुई न कि उस का पति।

स्वयं को हिन्दुस्तानी कहने वाले इन महाशय जी को यह गलत और संकीर्ण अर्थ करने के पहले कम से कम इतना तो सोचना ही चाहिए था, कि वे जो हिन्दुस्तानी नाम रखे हैं  यह उस के अनुरूप भी है अथवा नहीं। भाई,क्यों अपनी चूहलबाजी के लिए इस विश्वजाल पर हिन्दुस्तान और हिन्दुस्तानियों की मर्यादा को डुबोने में लगे हैं। कम से कम भगवान का ही खयाल कर लिया होता।

शुक्रवार, 29 अगस्त 2008

पुरुषोत्तम 'यकीन' की ग़ज़ल ... खो रही है ज़िन्दगी

आज फिर से आप को ले आया हूँ, 
मेरे दोस्त और आप के लिए अब अजनबी नहीं  पुरुषोत्तम 'यकीन' की ग़ज़लों की महफिल में।

पढ़िए हालात पर मौजूँ उन की  ये बेहतरीन ग़ज़ल...

खो रही है ज़िन्दगी
पुरुषोत्तम 'यकीन'

भूख से बिलख-बिलख के रो रही है ज़िन्दगी
अपने आँसुओं को पी के सो रही है ज़िन्दगी

चल पड़ी थी गाँव से तो रोटियों की खोज में
अब महा नगर में प्लेट धो रही है ज़िन्दगी

या सड़क की कोर पर ठिठुर रही है ठंड में
या क़दम-क़दम पसीना बो रही है ज़िन्दगी

नौचते हैं वासना के भूखे भेड़िए कभी
जब्र की कभी शिकार हो रही है ज़िन्दगी

हड्डियों के ढाँचे-सी खड़ी महल की नींव में 
पत्थरों को नंगे सर पे ढो रही है ज़िन्दगी
अजनबी-से लग रहे हैं अपने आप को भी हम
सोचिए कि ग़ैर क्यूँ ये हो रही है ज़िन्दगी

बस रही है झौंपड़ी में घुट रही है अँधेरों में 
कब से रोशनी की आस पी रही है ज़िन्दगी

कीजिए 'यक़ीन' मैं ने देखी .ये हर जगह
 लीजिए संभाल वरना खो रही है ज़िन्दगी
*************************

गुरुवार, 28 अगस्त 2008

विधवा अपने नौकर के साथ विवाह करना चाहती है, आप की क्या राय है?

आज सुबह अदालत के लिए रवाना होने के पहले नाश्ते के वक्त टीवी पर एक समाचार देखा। एक विधवा माँ के तीन नाबालिग बच्चों ने पुलिस थाने में शिकायत कराई कि उन के पिता की मृत्यु के बाद उन की माँ घर के नौकर से विवाह करना चाहती है। वे अब अपनी मां के साथ नहीं रहना चाहते। उन्हें उन की माँ से उन के पिता का धन और घर दिला दिया जाए। माँ जहाँ जाना चाहे जाए।  अजीब शिकायत थी।

माँ और उस के प्रेमी नौकर को पुलिस थाने ले आया गया था। माँ कह रही थी कि यह सच है कि वह विवाह करना चाहती है। लेकिन इस में क्या परेशानी है। बच्चों को एक पड़ौसी के घर में बैठा दिखाया गया था। शायद बच्चों को उसी ने थाने तक पहुँचाया था। हो सकता है इस में मीडिया ने भी कोई भूमिका अदा की हो। समाचार दिखाने वाला बता रहा था... देखिए इस माँ को जिस ने  प्रेमी से विवाह करने के लिए बच्चों को घर से निकाल दिया। माँ थी कि मना कर रही थी कि वह कैसे अपने ही बच्चों को घर से निकाल सकती है। वह तो बच्चों को खुद अपने साथ रखना चाहती है।

मुझे यह समझ नहीं आया कि उस महिला का वह कौन सा अपराध था जिस के कारण उसे थाने में बुलाया गया था। जहाँ तक अन्वेषण का प्रश्न है तो वह तो मौके पर उस के घर जा कर भी किया जा सकता था। कुल मिला कर यह समाचार उस महिला के प्रति घृणा उत्पन्न कर रहा था।

मैं ने अदालत के रास्ते में दो तीन पुरुषों से बात की तो उन्हों ने  इस महिला को लानतें भेजीं। इन परिस्थितियों में लोगों ने यह भी कहा कि उस का प्रथम कर्तव्य अपनी संतानों को जीने लायक बनाने का है। यह भी कि जरूर उस महिला की गलती रही होगी।

जब मैं ने उन से यह कहा कि एक महिला जो हमेशा अपने पति पर निर्भर रही। उस ने सहारे से जीना सीखा। अब पति का सहारा उस के पास नहीं रहा। वह अपने शेष जीवनकाल के लिए उस का सहारा बन सकने वाला एक जीवनसाथी चाहती है, जिस के बिना उस ने  जीना सीखा ही नहीं। वह अपने बच्चों को भी पालना चाहती है। शायद उस ने सोचा हो कि वैधव्य की अवस्था में जहाँ अधिकांश पुरुष उसे गलत निगाहों से लार टपकाते हुए नजर आते हैं, वहाँ वह किसी एक के साथ विवाह क्यों न कर ले? लेकिन अपने बच्चों के प्रति जिम्मेदारी निभाते हुए कोई महिला विवाह करना चाहती है तो लोगों को क्यों आपत्ति होना चाहिए?

मैं ने जिन्हें किस्सा सुनाया उन्हें यह भी कहा कि मान लो कि पति के स्थान पर यह महिला मर गई होती और पति ने नौकरानी को अपने घर में ड़ाल लिया होता तब भी पुलिस का बर्ताव यही रहता? क्या तब भी पड़ौसी उस के बच्चों को पुलिस थाने पहुँचाते? क्या उस पुरुष के विरुद्ध किसी की उंगली भी उठती? तब क्या उस पुरुष को एक महिला के सहारे की उतनी ही आवश्यकता होती, जितनी उस की पत्नी को एक पुरुष की है?

इस पर लोगों ने कहा कि वाकई उस महिला के साथ ज्यादती हुई है।

लेकिन क्या आप लोग भी ऐसा ही सोचते हैं? या इस से कुछ अलग?

मंगलवार, 26 अगस्त 2008

ईश्वर ही ईश्वर को जला रहा है

नाक में सुबह से जलन थी। ऱात होते होते टपकने लगी सोना भी उस की वजह से मुश्किल हो रहा था। रात साढ़े बारह सोया था। नीन्द खुलती है, सवा तीन बजे हैं। नाक का टपकना बदस्तूर जारी है। पेट में गुड़गुड़ाहट है। मैं पानी पीता हूँ तो बढ़ जाती है। मैं शौच को जाता हूँ तो पेट खाली हो लेता है। अब तुरंत नीन्द आना मुश्किल है। घर में एक सप्ताह पहले खूब हलचल थी। रक्षाबंधन पर बेटा था, वह चला गया। बेटी आई थी, वह भी कल शाम चली गई। पत्नी की बुआ जी नहीं रहीं, वह भी आज शाम वहाँ के लिए चली गई। अब अकेला हूँ।
रात सोने के पहले खबरें सुनी थीं। उड़ीसा में एक अनाथालय जला दिया गया। एक परिचारिका भी जीवित जल गई। किसी धर्मपरिवर्तन विरोधी की हत्या का बदला था यह। जम्मू और कश्मीर दोनों जल रहे हैं दो माह होने को आए। वही, धर्मस्थल जाने के पहले अस्थाई आवास के लिए दी गई भूमि और उसे वापस लिए जाने का झगड़ा।
राजस्थान में एक जाति है, जिस में हिन्दू भी हैं और मुस्लिम भी। घर में ही दो भाई दो अलग अलग धर्म पालते रहे हैं। पति-पत्नी के अलग धर्म हैं। कोई बैर नहीं, पूरा जीवन सुख-दुख से बिताते हैं। कुछ दशकों से लोग पूरी जाति को हिन्दू या मुस्लिम बनाने में जुटे हैं। जाति में अशान्ति व्याप्त है।
मैं ईश्वर को तलाशता हूँ। वह एक है? या नहीं? वह एक से अधिक होता तो शायद धरती माँ के टुकड़े हो गए होते। उस एक को क्या सूझी है कि कहीं वह किस रूप में आता है और कहीं किस रूप में। वह आता ही नहीं है। लेकिन उस के अनेक प्रतिरूप खड़े कर लिए जाते हैं, अपने-अपने मुताबिक। 
टीवी पर पुरी के शंकराचार्य क्रोध से दहाड़ रहे हैं। मुझे शंकराचार्य याद आते हैं जिन्हों ने देश में चारों मठों की स्थापना की। दुनियाँ को अद्वैत की शिक्षा दी। कहाँ गई वह शिक्षा? और उन के नाम धारी व्यक्ति कौन हैं ये? क्या बता रहे हैं दुनियाँ को? कहाँ हैं, ईसा और मुहम्मद? ईसा के पहले ईसाई धर्म और मुहम्मद के पहले इस्लाम कहाँ थे? शंकराचार्य के पहले अद्वैत कहाँ था? राम और कृष्ण का क्या धर्म था? उस से भी पहले कौन थे वे जो प्रकृति की शक्तियों को पूजते थे? सब में एक को ही देखते थे। और उस से भी पहले कौन थे वे जो जन्मदाता योनि की पूजा करते थे, बाद में लिंग भी पूजने लगे थे। आज भी उसे ही कल्याणकारी मान कर पूजा कर रहे हैं?
है ईश्वर! क्या हो रहा है यह? तुम्हारी कोई सत्ता है भी या नहीं? या उस के बहाने अपनी सत्ता स्थापित करने, उसे बनाए रखने को इंन्सान का हवन हो रहा है। ईश्वर भी है, या नहीं?
स्वामी विवेकानंद  आते हैं।  पूछने पर कहते हैं- मैं ने तो आँख खुलने के बाद ईश्वर के सिवा किसी को नहीं देखा। मैं पूछता हूँ। पर यह जो जल रहे हैं, जलाए जा रहे हैं,। कौन हैं वे? स्वामी जी कहते हैं- सब ईश्वर है।  जो जलाया जा रहा है वह भी और जो जला रहा है वह भी।
हे राम! यह क्या हो रहा है? ईश्वर ही ईश्वर को जला रहा है। वह ऐसा क्यों कर रहा है?
शायद सोचता हो कि दुनियाँ को अब उस के वजूद की जरूरत ही नहीं। क्यों न अब खुद को विसर्जित कर लूँ?

सोमवार, 25 अगस्त 2008

मंजिलों से तो मुलाक़ात अभी बाकी है.... शतकीय नमन ....

अनवरत का यह सौवाँ आलेख है। 20 नवम्बर 2007 को प्रारंभ हुई यह यात्रा सौवेँ पड़ाव तक कैसे पहुँचा? कुछ भी पता न लगा। स्वयँ को अभिव्यक्त करते हुए, दूसरे ब्लागरों को पढ़ते हुए, विचारों को आपस में टकराते हुए, नए मित्रों को अपने जीवन में शामिल करते हुए, कुछ सीखते हुए, कुछ बताते हुए और कुछ बतियाते हुए....

यह यात्रा अनंत है, चलती रहेगी, अक्षुण्ण जीवन की तरह ... अनवरत...
इस आलेख पर कुछ कहने को विशेष नहीं इस के सिवा कि सभी ब्लागर साथियों का खूब सहयोग मिला। उन का भी जिन्हों ने कभी आ कर मुझ से असहमति जाहिर की। सहमति से भले ही उत्साह बढ़ता हो, मगर असहमति उस से अधिक महत्वपूर्ण है, वह विचारों को उद्वेलित कर नया सोचने को बाध्य करती है, विचार प्रवाह को तीव्र करती है।
सहयोगी और मित्र साथियों के नामों का उल्लेख इसलिए नहीं कर रहा हूँ कि किसी न किसी के छूट जाने का खतरा अवश्यंभावी है। सभी साथियों को शतकीय नमन!

इस अवसर पर कुछ और न कहते हुए पुरुषोत्तम 'यक़ीन' की ग़जल के माध्यम से अपनी बात रख रहा हूँ.....
मंजिलों से तो मुलाक़ात अभी बाकी है
पुरुषोत्तम 'यक़ीन'

*
सो न जाना कि मेरी बात अभी बाक़ी है
अस्ल बातों की शुरुआत अभी बाक़ी है
**
तुम समझते हो इसे दिन ये तुम्हारी मर्ज़ी
होश कहता है मेरा रात अभी बाक़ी है 

***
ख़ुश्बू फैली है हवाओं में कहाँ सोंधी-सी
वो जो होने को थी बरसात अभी बाक़ी है 

****
घिर के छाई जो घटा शाम का धोका तो हुआ
फिर लगा शाम की सौग़ात अभी बाक़ी है 

*****
खेलते ख़ूब हो, चालों से तुम्हारी हम ने
धोके खाये हैं मगर मात अभी बाक़ी है 

******
जो नुमायाँ है यही उन का तअर्रुफ़ तो नहीं
बूझना उन की सही ज़ात अभी बाक़ी है 

*******
रुक नहीं जाना 'यकीन' आप की मंजिल ये नहीं
मंजिलों से तो मुलाक़ात
अभी बाकी है
**************

रविवार, 24 अगस्त 2008

महिलाएँ कतई देवियाँ नहीं, वे तो अभी बराबर का हक मांग रही हैं

अनवरत के पिछले आलेख "दया धरम का मूल है, दया कीजिए" जैसा कोई भी आलेख किसी भी ब्लाग पर कभी नहीं आना चाहिए था, और न ही आना चाहिए। लेकिन जिस तरह ब्लागिंग को व्यक्तिगत आक्षेपों का माध्यम बनाया जा रहा है, वह भी अपनी पहचान छिपा कर उसे निन्दनीय  के सिवा कुछ नहीं कहा जा सकता। वह केवल भर्त्सना के ही योग्य है।
किसी भी ब्लाग का उद्देश्य स्वयं को अभिव्यक्त करना, सहज हो कर विमर्श करना हो सकता है। विमर्श में विचारों में मत भिन्नता होगी ही, अन्यथा विमर्श का कोई लाभ नहीं हो सकता। लेकिन एक दूसरे पर कीचड़ उछालना, व्यंगात्मक टिप्पणियाँ करने से विमर्श नहीं होता, बल्कि वह समाप्त हो जाता है। विमर्श के चलते रहने की पहली शर्त ही यही है कि उस में एक दूसरे के प्रति सम्मान कायम रहे। मेरा यह सोचना है कि विचार अभिव्यक्ति की रक्षा  आवश्यक है, चाहे वह गलत ही क्यों न हो। हाँ गलत विचार का प्रतिवाद होना चाहिए। लेकिन विचारों और उन के प्रतिवाद सभ्यता की सीमा न लांघें अन्यथा बर्बर और सभ्य में क्या अंतर रह जाएगा?
 
सच का सवाल महत्वपूर्ण था कि महिलाओं को अपने विचारों को अभिव्यक्त करने के लिए संरक्षण जरूरी है? अन्यथा उन्हें इसी तरह अपशब्दों से नवाजा जाता रहेगा। मेरा सोचना है कि महिलाएँ संऱक्षण के बावजूद भी अपशब्द का शिकार होंगी। बराबरी के जिस संघर्ष में वे हैं उस के दौरान भी और उस के बाद भी। इस का प्रमाण है कि अपशब्द कहने के लिए यहाँ यह बहाना बनाया गया कि नारी और चोखेरबाली समूह की महिलाओं की टिप्पणियाँ यहाँ क्यों नहीं हैं? जब कि वे वहाँ थीं। महिलाएँ संरक्षण के जरिए इन अपशब्दों से नहीं बच सकतीं। यह पुरुष प्रधान समाज है। यहाँ जब भी पुरुषों की प्रधानता पर चोट पड़ेगी वे तिलमिलाएंगे और तिलमिलाहट में सदैव गाली का ही उच्चारण होता है, राम का नहीं। इस समाज में महिलाओं को बराबरी हासिल करनी है तो वह खुद के बल पर ही करनी होगी। कुछ पुरुष उन के मददगार हो सकते हैं, लेकिन वे इस बराबरी के संघर्ष को अपनी मंजिल तक नहीं ले जा सकते हैं।

जहाँ तक सामाजिक सच का सवाल है। यह समाज पुरुष प्रधान समाज है, और महिलाएँ पददलित हैं, इस तथ्य से इन्कार नही किया जा सकता। प्रत्येक गली, मुहल्ले, गाँव, नगर, प्रांत और देश में इस के उदाहरण तलाशने की आवश्यकता नहीं है। खूब बिखरे पड़े हैं। पुरुष प्रधान समाज में स्त्री को अधीनता की शिक्षा बचपन से दी जा रही है, वह अभी तक इस से मुक्त नहीं है। उसे तैयार ही अधीनता के लिए किया जाता है। बड़ी-बूढि़याँ और पिता व भाई इस हकीकत को जानते हैं कि स्त्री ने अधीनता को स्वीकार नहीं किया तो उस का जीना हराम कर दिया जाएगा, यह समाज एक-दो पीढ़ियों में बदलने वाला नहीं है। इस कारण वे बेटियों को अधीनता की शिक्षा देना उचित समझते हैं। अपने यहाँ आने वाली बहुओं का भी वे इसी तरह स्वागत करते हैं कि उसे बराबरी का हक नहीं मिले।

लेकिन मनुष्य समाज में बराबरी का हक वह विकासमान तत्व है, कि रोके नहीं रुकता। कुछ महिलाएँ उसे हासिल करने को जुट पड़ती हैं और किसी न किसी तरह उसे हासिल करती हैं। जब वे हासिल कर चुकी होती हैं, तो अन्य को भी प्रेरित करती हैं। कानून और प्रत्यक्ष ऱूप से पुरुषों को भी उन का साथ देना होता है।

इस का अर्थ यह भी नहीं कि महिलाएँ देवियाँ हैं। वे कतई देवियाँ नहीं। देवियाँ हो भी कैसे सकती हैं? वे तो अभी पुरुष से बराबर का हक मांग रही हैं। यह भी सच नहीं कि पुरुष कहीं भी महिलाओं द्वारा सताया न जाता हो। अनेक उदाहरण समाज में मिल जाएंगे जहाँ पुरुष महिलाओं द्वारा सताया जाता है। अनेक बार यह भी होता है कि पुरुष का जीना महिला दूभर कर देती है। लेकिन यह सामाजिक सच नहीं है। यह केवल सामाजिक सच का अपवाद है। सताए हुए पुरुष को महिलाओं द्वारा पुरुषों के समाज में बराबरी का हक मांगना नागवार गुजरता है। क्यों कि उन्हें अपना ही सच दुनियाँ का सामाजिक सच नजर आता है।  वे अपनी बात को वजन देने के लिए ऐसे उदाहरण तलाश करने लगते हैं जिन से महिलाओं को आततायी घोषित किया जा सके। उन्हें ये उदाहरण खूब मिलते भी हैं। वे उन्हें संग्रह करते हैं, और लोगों के सामने रखने के प्रयास भी करते हैं। वे यहाँ तक भी जाने की कोशिश करते हैं कि महिलाओं को प्रकृति ने पुरुषों के भोग और उन की सेवा के लिए ही बनाया है। हाल ही में यहाँ तक कहने का प्रयास किया गया कि अधिक पत्नियों वाला पति दीर्घजीवी होता है। 

हिन्दी ब्लाग-जगत इस तरह के प्रयासों से अछूता नहीं हैं। जब महिलाएँ सामूहिक कदम उठाती हैं तो इस तरह के लोगों को परेशानी होती है। उस का उत्तर वे तर्क से देने में असमर्थ रहते हैं तो अपशब्दों का प्रयोग करने लगते हैं। ऐसी हालत में महिलाओं के विरोध का यह जुनून एक रोग बन जाता है। किसी आगत रोग जो शरीर के बाहर के कारणों से उत्पन्न होता हो उस का निषेध यही है कि उसे घर में और सार्वजनिक स्थानों से हटा दिया जाए। ब्लाग पर उस का सही तरीका यही है कि टिप्पणियाँ ब्लाग संचालक की स्वीकृति के बाद ही ब्लाग पर आएँ, और उन को जवाब नहीं दिया जाए।

ऐसे पुरुष जो पुरुष प्रधान समाज में भी महिलाओं द्वारा सताए जाते हैं वे केवल दया और सहानुभुति प्राप्त करने की पात्रता ही रख सकते हैं। उन्हें चाहिए कि वे पूरे समाज के परिप्रेक्ष्य में स्वयं की परिस्थिति का आकलन करें और स्वयं की लडाई को सामाजिक बनाने का प्रयास न करें। क्यों कि वे सामाजिक रूप से वे ऐसा करेंगे तो ऐसी सेना में शामिल होंगे, हार जिस की नियति बन चुकी है। समाज आगे जा रहा है। वह महिलाओं की बराबरी के हक तक जरूर पहुँचेगा।

आज की परिस्थिति में महिलाओं द्वारा व्यक्तिगत रूप से सताए गए पुरुषों के पास केवल एक ही मार्ग शेष है। यदि समझ सकें तो समझें। मैं भाई विष्णु बैरागी की गांधी कथा से एक उद्धरण के साथ इस आलेख को समाप्त कर रहा हूँ .......

1931 की गोल मेज परिषद की बैठक। गांधी और अम्बेडकर न केवल आमन्त्रित थे अपितु वक्ताओं के नाम पर कुल दो ही नाम थे -अम्बेडकर और गांधी। गांधी का एक ही एजेण्डा था -स्वराज। उन्हें किसी दूसरे विषय पर कोई बात ही नहीं करनी थी। अम्बेडकर को अपने दलित समाज की स्वाभाविक चिन्ता थी। वे विधायी सदनों में दलितों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए पृथक दलित निर्वाचन मण्डलों की मांग कर रहे थे जबकि गांधी इस मांग से पूरी तरह असहमत थे। परिषद की एक बैठक इसी मुद्दे पर बात करने के लिए रखी गई। अंग्रेजों को पता था कि इस मुद्दे पर दोनों असहमत हैं। उन्होंने जानबूझकर इन दोनों के ही भाषण रखवाए ताकि दुनिया को बताया जा सके कि भारतीय प्रतिनिधि एक राय नहीं हैं-उन्हें अपने-अपने हितों की पड़ी है।
बोलने के लिए पहले अम्बेडकर का नम्बर आया। उन्होंने अपने धाराप्रवाह, प्रभावी भाषण में अपनी मांग और उसके समर्थन में अपने तर्क रखे । उन्होंने कहा कि गांधीजी को संविधान की कोई जानकारी नहीं है। इसी क्रम में उन्होंने यह कह कर कि ‘गांधी आज कुछ बोलते हैं और कल कुछ और’ गांधी को परोक्षतः झूठा कह दिया, जो गांधी के लिए सम्भवतः सबसे बड़ी गाली थी। सबको लगा कि गांधी यह गाली सहन नहीं करेंगे और पलटवार जरूर करेंगे। सो, सबको अब गांधी के भाषण की प्रतीक्षा आतुरता से होने लगी ।
गांधी उठे। उन्होंने मात्र तीन अंग्रेजी शब्दों का भाषण दिया -‘थैंक् यू सर।’ गांधी बैठ गए और सब हक्के-बक्के होकर देखते ही रह गए। बैठक समाप्त हो गई। इस समाचार को एक अखबार ने ‘गांधी टर्न्ड अदर चिक’ (गांधी ने दूसरा गाल सामने कर दिया) शीर्षक से प्रकाशित किया।
बैठक स्थल से बाहर आने पर लोगों ने बापू से इस संक्षिप्त भाषण का राज जानना चाहा तो बापू ने कहा कि “सवर्णो ने दलितों पर सदियों से जो अत्याचार किए हैं, उससे उपजे विक्षोभ और घृणा के चलते वे (अम्बेडकर) यदि मेरे मुंह पर थूक देते, तो भी मुझे अचरज नहीं होता”।

गुरुवार, 21 अगस्त 2008

दया धरम का मूल है, दया कीजिए!

मेरी बेटी पूर्वा का एक आलेख आजाद भारत की बेटियाँ अनवरत के पिछले दो अंकों में प्रकाशित हुआ। पहले अँक पर आठवीं टिप्पणी थी.....
सच ने कहा .... एक प्रश्न है दिमाग में कल जब पोस्ट करें तो उसका उत्तर भी अगर दे सके तो आभार होगा।
पूर्वा आप की पुत्री है, उसने स्त्री विमर्श पर लिखा हैं, और भी बहुत सी महिलाएँ स्त्री विमर्श पर लिख रही हैं। पर उनके ब्लॉग पर लोगो के जो कमेन्ट आते हैं, उस प्रकार के कमेन्ट यहाँ नहीं हैं. इस का कारण क्या ये तो नहीं है कि लोग केवल उन स्त्रियों के कार्यो को ही "मान्यता" देते हैं जो पुरूष के संरक्षण मे रह कर काम करती हैं।
आप के जवाब का इंतज़ार रहेगा

सवाल गंभीर था। मैं उस का उत्तर देना भी चाहता था। लेकिन आलेख पूरा होने और उस पर भरपूर टिप्पणियाँ आने के बाद ही। मैं ने अपना इरादा आलेख के उत्तरार्ध पर चिपका भी दिया।
दूसरे अंक पर ‘सच’ की दूसरी ही टिप्पणी थी और उस में कुछ तीखे और गंभीर सवाल भी....
सच ने कहा .... "आलेख के पूर्वार्ध पर "सच" की टिप्पणी व अन्य टिप्पणियों पर बात अगले आलेख में..........."
क्यों सब की संवेदनाये इतनी विक्षिप्त हैं?? क्यों नारी स्वतंत्रता को लोग आतंक समझते हैं? और नारी विमर्ष को अपशब्द कहते हैं? क्यों जरुरी हैं "संरक्षण" नारी का?

कुल पन्द्रह टिप्पणियों के बाद सोलहवीं पतिनुमा प्राणी जी की अवतरित हुई .....
पतिनुमा प्राणी जी ने कहा .... मुझे एक बात पर आश्चर्य हो रहा है कि आलेख के दोनों भागों पर 'पहुँची हुयी भारतीय स्त्रियाँ' और 'आँख की किरकिरी' वालों की तरफ से कोई जानी-पहचानी प्रतिक्रिया क्यों नहीं आयी!
आलेख में मूल तौर पर दहेज को कारक माना गया है। लेकिन उन परिवारों में, जहाँ दहेज कोई मायने नहीं रखता, वहाँ भी तो यही हाल है।
इस पर ब्लाग नारी की संचालिका रचना जी की टिप्पणी थी........
रचना ने कहा .... नारी ब्लाग के आठ और चोखेरबाली के दो सदस्य इस और पिछले आलेख पर अपने विचार व्यक्त कर चुके हैं।
मैं सोचती हूँ कि यह पढ़ने और जानने के पहले कि इन दोनों सामुहिक ब्लागों पर कितने सदस्य हैं? और उन का योगदान क्या है? आप को इन कथित “पतिनुमा प्राणी” को बता देना चाहिए कि वह इन दोनों सामुहिक ब्लागों की महिला ब्लागरों के प्रति अपशब्दों का प्रयोग करना बंद करे।
मैं यह टिप्पणी पढ़ता उस के पहले ही जवाब में पतिनुमा प्राणी जी का यह संदेश आ चस्पा हुआ...
पतिनुमा प्राणी जी ने कहा .... अरे रचना जी! मैने शुरू ही कहाँ किया है, जो आप रूकने को कह रही हैं!!
भई, मेरे विचार हैं, यदि आपको पसंद नहीं आ रहे तो यह महिलायों का abuse (इसका बेहतर हिंदी अनुवाद आप ही बता सकतीं हैं) करना कैसे हो गया?
मेरी टिप्पणी में आपको यही शब्द दिखे? बाकी शब्द नहीं? हर बात को आप नारी प्रजाति पर आक्रमण क्यों समझ लेती हैं?
दूसरों को तो आप समझाती रहतीं हैं कि प्रतिक्रियावादी न बने। स्वयं क्या कर रहीं हैं।
बेहतर होता यदि मेरी टिप्पणी के बाकी हिस्से पर आपकी बुद्धिमता भरी बातों से हम पुरूषों को भी कुछ ज्ञान हासिल हो पाता।
वैसे यहाँ, द्विवेदी जी के ब्लॉग पर, इन औचित्यहीन बातों पर तो कोई तुक नहीं। उनसे क्षमा चाहता हूँ।
रचना जी से अनुरोध है कि वे अपने या मेरे ब्लॉग पर ही अपनी बात रखें। दूसरों के कंधों का सहारा न लें।
मैं व्यस्त भी था, और थका हुआ भी। मैं ने दोनों टिप्पणियाँ वहाँ से उड़ा दीं।
अज्ञातों की टिप्पणियों के लिए तो मेरे ब्लागों का प्रवेश-द्वार बंद है। रचना जी से मैं परिचित हूँ। वे न तो अपनी पहचान छुपाती हैं और न ही विचार। वे जो भी कहना चाहती हैं, डंके की चोट कहती हैं। कभी किसी के प्रति अपशब्दों का प्रयोग नहीं करतीं। हाँ उन्हें किसी भी महिला को कहा गया अपशब्द बुरा लगता है। जब भी ऐसा होता है वे सिर्फ कहती हैं ... अपना मुहँ बन्द करो, हिन्दी में बोले तो शट-अप। मैं पतिनुमा प्राणी जी से परिचय करना चाहता था। पहली फुरसत में मैं ने उन के नाम पर चटका लगाया, तो परिणाम जो आया वह आप के सामने है।
पतिनुमा प्राणी।
इसे पढ़ा, और विचार किया, तो क्रोध बिलकुल नहीं उपजा। उपजता भी कैसे? आखिर ये पतिनुमा प्राणी जी हैं क्या? मात्र एक पर्दानशीन ब्लागर। बेचारे! पैंतालीस वसंत गुजार चुके हैं। एक महिला ने उन्हें जन्म दिया। लगा, माता जी, से नाराज हैं, कि जन्म ही क्यों दिया? और भगवान जी से भी, कि अठारवीं शताब्दी में नम्बर लगाया था, पैदा किया बीसवीं के उत्तरार्ध में जा कर। भगवान जी से नाराजी में फिर एक पाप कर डाला, ब्याह कर लिया। जरूरत थी एक संतान की, पैदा हो गईं दो, वो भी एक साथ। यहाँ भगवान जी ने उन के साथ फिर अन्याय किया। ब्याह कर के चाहा था कि पत्नी घऱ रहेगी, पति की सेवा करेगी, आज्ञा पालन करेगी, बच्चों को पालेगी और कभी अपनी चाह, आकांक्षाएँ व्यक्त नहीं करेगी। पर पैदा करने में भगवान जी ने जो देरी की, उस के नतीजे में अँगूठाछाप की जगह पाला पड़ा ऐसी पत्नी से जो आकांक्षा रखती है। पति की मेहरबानी पर जीने के स्थान पर, खुद कुछ करना चाहती है, कुछ बनना चाहती है। कई बार राह रोकने पर भी नहीं मानती। अपनी ही राह चली जाती है। कुछ कहें तो बराबर की बजातीं है।
अब करें तो क्या करें? बेचारे पतिनुमा प्राणी जी। अलावा इस के कि भड़ास निकालें। वह भी निकालने की नहीं बनती। यहाँ कोई बराबर की बजाने वाले मिले तो क्या करेंगे? पहुँच गए काली कमली वाले की शरण में। एक कमली खुद के लिए भी ले आए। अब उसे ओढ़ते हैं, पहचान छुपाते हैं, और भड़ास निकालते हैं। जो खुद ही छुपा फिर रहा हो, उसे क्या कहा जाए? और कैसे कहा जाए? अब दीवार को तो कह नहीं सकते न? कहने के बाद उस के चेहरे की मुद्राएँ देखने का अवसर जो नहीं मिलता।
वैसे भी कभी सोचा है आप ने? कि भड़ास निकालने वाले को रोकने पर उसे कितनी परेशानी होती है? सोच भी नहीं सकते। सोचने की जरूरत भी नहीं। फिर याद आया “दया धरम का मूल है”, दया बहुत बड़ी चीज है, दया कीजिए धरम होगा। हमें क्रोध के स्थान पर आई दया, और दया के लिए सर्वोत्तम पात्र दिखाई दिए ...  पतिनुमा प्राणी जी ।

शुक्रवार, 15 अगस्त 2008

आजाद भारत की बेटियाँ-2 ... ... ...ईश्वर कह रहा है ..... “मेरी रक्षा कीजिए"

कुछ दिन पहले मेरी बेटी पूर्वाराय द्विवेदी ने एक आलेख मुझे पढ़ने को भेजा था। वह एक जनसंख्या विज्ञानी (Demographer) है और अनतर्राष्ट्रीय जनसंख्या विज्ञान संस्थान, मुम्बई के आश्रा प्रोजेक्ट से वरिष्ठ शोध अधिकारी के रूप में सम्बद्ध है। मुझे लगा कि आजादी की 61वीं वर्षगाँठ पर आप सब के साथ इस आलेख को बांटना चाहिए। मैं ने इस का अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद किया है। आलेख लंबा हो जाने से ब्लाग पाठकों के लिए इस के दो भाग कर दिए हैं, पहला भाग आप कल पढ़ चुके हैं। आज पढ़िए दूसरा और समापन भाग....
-दिनेशराय द्विवेदी

आजाद भारत की बेटियाँ-2

ईश्वर कह रहा है ..... “मेरी रक्षा कीजिए"
  • पूर्वाराय द्विवेदी

यह आम कहावत है कि बालकों की अपेक्षा, नवजात बालिकाओं में अधिक प्रतिरोध क्षमता अधिक होती है। समान रूप से विपरीत परिस्थितियों में नवजात बालिकाओं की संक्रमण से लड़ने और जीवित रहने की संभावनाएँ नवजात बालकोंसे अधिक होती है। यह विचार अनेक अध्ययनों से सही भी साबित हुआ है। लेकिन उस के बावजूद (एस.आर.एस. सेम्पल रजिस्ट्रेशन सिस्टम द्वारा 2005 में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार) जन्म लेने वाले 1000 स्त्री-शिशुओं में से 61 की मृत्यु हो जाती है। जब कि जन्म लेने वाले 1000 नर-शिशुओं में मरने वालों की संख्या 56 है। विगत एक सौ वर्षों से भारत की जनसंख्या के यौन अनुपात में लगातार स्त्रियों की कमी होती रही है। 1901 की राष्ट्रीय जनगणना में स्त्री-पुरुष अनुपात 1000 पुरुषों के मुकाबले 972 स्त्रियों का था। बाद की प्रत्येक जनगणना बताती है कि स्त्री-पुरुष अनुपात में स्त्रियों की संख्या उत्तरोत्तर कम होती गई है। 1991 की जनगणना में 1000 पुरुषों पर 927 स्त्रियाँ थीं। जो 2001 की जनगणना में बढ़ कर 933 हो गई हैं। इस तरह यहाँ स्त्रियों की संख्या में कुछ वृद्धि अवश्य होती दिखाई दे रही है। लेकिन 1991 में 6 वर्ष तक के बच्चों में लिंग अनुपात प्रति हजार बालकों पर 945 बालिकाओं का था, जो कि 2001 में घट कर मात्र 927 रह गया। इस तरह एक दशक में 18 बालिका प्रति हजार कम हो गया।
भारत सरकार द्वारा संयुक्त राष्ट्र संघ की बाल अधिकार समिति को प्रेषित रिपोर्ट में बताया है कि प्रत्येक वर्ष 1 करोड़ 20 लाख बालिकाएँ जन्म लेती हैं जिन में से 30 लाख उन का 15वाँ जन्मदिन नहीं देख पातीं, और उस के पहले ही काल का ग्रास बन जाती हैं। इन में से एक तिहाई जन्म से प्रथम वर्ष में ही मर जाती हैं, और यह आकलन किया गया है कि प्रत्येक छठी महिला की मृत्यु कारण लिंग-भेद है।
वर्ष 2001 की जनगणना से प्राप्त तथ्य कुछ और भी घोषणाएँ करते हैं। 26 राज्यों और संघीय क्षेत्रों के 640 नगरों और कस्बों से प्राप्त आंकड़े बताते हैं कि नगरीय क्षेत्रों के पोश इलाकों में 6 वर्ष से कम के बालकों में प्रति हजार बालकों पर केवल 904 बालिकाएँ हैं। जब कि भीड़ भरी तंगहाल झुग्गी-झोंपड़ियों के इलाकों में प्रति हजार बालकों पर 919 बालिकाएँ हैं। राजधानी दिल्ली के पोश इलाकों और झुग्गियों में यह अनुपात क्रमशः 919 और 857 ही रह जाता है। स्पष्ट है कि यह कारनामा वहाँ हो रहा है, जहाँ लोग होने वाली संतान के लिंग का चुनाव करने में अर्थ-सक्षम हैं और तकनीक का उपयोग कर रहे हैं। यहाँ इस बात की कोई गारंटी नहीं कि एक लड़की जो भ्रूण हत्या, और शिशु हत्या से बच गई है, और आदतन उपेक्षा-चक्र की शिकार नहीं होगी, जो उस की मृत्यु का कारण बन सकता है, क्योंकि उसे भोजन कम मिलेगा, दुनियाँ को जानने के अवसरों के स्थान पर उसे किसी काम में ठेल दिया जाएगा और उस के स्वास्थ्य और चिकित्सा भगवान भरोसे रहेगी।
1952 में भारत भी उन देशों में से एक था जिन्हों ने सर्वप्रथम परिवार नियोजन। हमारी त्रासदी है यह रही कि हम इस भ्रान्त धारणा को लेकर चले कि एक पुरूष उत्तराधिकारी पर्याप्त है। लेकिन कितने लोगों ने इस वास्तविकता को समझा कि एक पुरूष उत्तराधिकारी को जन्म देने के लिए एक स्त्री भी जरूरी है। जैविक रूप में वह संतान की संवाहक है। पूरे देश में बालिकाओं के साथ असमानता का व्यवहार जारी है। पुत्रियाँ एक दायित्व समझी जाती हैं। हरियाणा में एक लिंग निर्धारण क्लिनिक के बाहर लिखा है..... बाद में 50,000/- रुपए (दहेज) के स्थान पर अभी 50/-रुपए खर्च करें स्त्रियाँ कानून का रास्ता चुनने के लिए भी स्वयं सक्षम नहीं हैं। उन्हें किसी दहेज, क्रूरता और यौन शोषण की शिकार होने पर अपने पति, ससुराल वालों और माता-पिता के विरुद्ध खड़े होने के लिए अतिसाहसी होना पड़ेगा। बाल-विवाह बालिकाओं के विकास और उन के अधिकारों को बाधित कर देता है।
एक गर्भवती को आवश्यक चिकित्सा के लिए अपनी सास या पति पर निर्भर रहना पड़ता है। स्त्री के विरुद्ध अत्याचार बढ़ रहे हैं। प्रत्येक 26 मिनटों में एक स्त्री उत्पीड़ित होती है, प्रत्येक 34 मिनटों में एक बलात्कार की शिकार, प्रत्येक 42 मिनटों में एक के साथ यौन उत्पीड़न होता है, प्रत्येक 43 मिनट में एक का अपहरण और प्रत्येक 93 मिनट में एक दहेज की आग में भस्म हो जाती है। 16 से कम उम्र की बालिकाओं के साथ बलात्कार के कुल मामलों में से एक चौथाई की कभी रिपोर्ट ही दर्ज नहीं होती।
अब भारत सरकार त्यक्त बालिकाओं के लिए एक क्रेडल स्कीम की योजना बना रही है। इस योजना में प्रत्येक जिले में एक ऐसा केन्द्र बनाने की योजना है जिस में माता-पिता ऐसी बालिकाओं को छोड़ सकते हैं जिन की वे स्वयं परवरिश नहीं कर सकते या करना नहीं चाहते। लेकिन शिशु हत्या को रोकने के लिए काम करने वाली गैर सरकारी संस्थाएँ महसूस करती हैं कि लोग संतान पैदा करेंगे और फिर सरकार की सुरक्षा में छोड़ देंगे, जिस से समाज में एक गलत संदेश छूटेगा। तमिलनाडु में जहाँ यह योजना लागू कर दी गई है सफल नहीं हो सकी है।
इस तथ्य को ध्यान में रखे बिना कि आप की होने वाली संतान लड़का है या लड़की, माँ बनना ईश्वर का सब से महान उपहार है। अब वह समय आ चुका है जब बालिकाओं के प्रति अवांछित भेदभाव की समाप्ति के लिए पहल की जाए। बालिकाओं को आजादी के अधिकार, शिक्षा के अधिकार और जन्म लेने के अधिकार प्राप्त होने ही चाहिए। वे जैविक रूप से बालकों से अधिक मजबूत होती हैं, उन्हें पर्याप्त पोषण, स्वास्थ्य सुविधाएँ और शिक्षा प्राप्त होनी ही चाहिए। उन्हें अपनी क्षमताओं का विकास करने और उन्हें सिद्ध करने का अवसर मिलना ही चाहिए। माँ के रूप में स्त्रियों पर अपनी संतानों को बेहतर जीवन मूल्यों, सांस्कृतिक विश्वासों और सदाचरण की शिक्षा का दायित्व है। उन्हें मानसिक और भावनात्मक रूप से मजबूत तथा बौद्धिक रूप से शिक्षित होना ही होगा। स्त्रियाँ सबसे बेहतर साधिकाएँ हैं, वे समाज में कर्मठता, समानता, सहयोग और मानवता लाती हैं और जो अंततोगत्वा समाज को जीने लायक संवेदनशील और शांतिपूर्ण समूह में बदलती हैं।
प्रत्येक बालक को अपने जीवन के प्रारंभ के वर्षों में पोषण और बुद्धिमान निर्देशन की आवश्यकता है। इस काल में एक स्त्री ही अपनी संतानों को जीवन की अच्छाइयाँ सीखने में मदद करती है। उन्हीं स्त्रियों में शिक्षा का अभाव होना व्यक्तिगत ही नहीं, संपूर्ण राष्ट्र की क्षति है।
एक बालिका प्रत्येक राष्ट्र का भविष्य है और भारत इस का अपवाद नहीं हो सकता। एक बालिका के जीवन में थोडा सा संरक्षण, एक संवेदनासम्पन्न हाथ और एक प्यार भरा दिल बहुत बड़ा परिवरतन ला देता है। अपनी आँखें बंद कीजिए, अपने सोच को स्वतंत्र कर दीजिए, और ईश्वर की पुकार सुनिए ¡ वह हम सब से कुछ कह रहा है ..... मेरी रक्षा कीजिए
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सूचना ...

आलेख के पूर्वार्ध पर "सच" की टिप्पणी व अन्य टिप्पणियों पर बात अगले आलेख में........... 

 

गुरुवार, 14 अगस्त 2008

आजाद भारत की बेटियाँ

कुछ दिन पहले मेरी बेटी पूर्वाराय द्विवेदी ने एक आलेख मुझे पढ़ने को भेजा था। वह एक जनसंख्या विज्ञानी (Demographer) है और अनतर्राष्ट्रीय जनसंख्या विज्ञान संस्थान, मुम्बई के आश्रा प्रोजेक्ट से वरिष्ठ शोध अधिकारी के रूप में सम्बद्ध है। मुझे लगा कि आजादी की 61वीं वर्षगाँठ पर आप सब के साथ इस आलेख को बांटना चाहिए। मैं ने इस का अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद किया है। आलेख लंबा हो जाने से ब्लाग पाठकों के लिए इस के दो भाग कर दिए हैं, दूसरा और अंतिम भाग कल 15अगस्त की सुबह आप यहाँ पढ़ सकते हैं.....

 

आजाद भारत की बेटियाँ

  • पूर्वाराय द्विवेदी
61 वर्ष पूर्व आजादी हासिल होने पर ‘यूनियन जैक’ के स्थान पर लाल किले पर पहला तिरंगा फहराने वाले भारतीय प्रधानमंत्री और विचारक जवाहर लाल नेहरू ने सच कहा था कि आप किसी भी देश की स्थितियों का पता उस की महिलाओं की हालत को देख कर लगा सकते हैं।
हम भारतवासी पृथ्वी को ‘धरती-माता’ और अपने राष्ट्र को ‘भारत-माता’ कहते नहीं अघाते, और खुद को देवियों के परम भक्त प्रदर्शित करते हैं। लेकिन, क्या यह सही नहीं कि हमारी भक्ति केवल कुछ मौखिक शब्दों तक ही सीमित है? एक और हम माँ-दुर्गा, माँ-सरस्वती और माँ लक्ष्मी को देवी कह कर पूजा करते हैं और दूसरी ओर हम अपनी ही बेटियों को शिक्षा, वस्त्र, पोषण, और स्वास्थ्य से वंचित रखते हैं। यहाँ तक हम उन्हें जन्म लेने की इजाजत तक नहीं देते। हम ईश्वर के मूल्यवान उपहार, एक बालिका को जन्म से पहले ही मार देते हैं।

शताब्दियों से लड़कियाँ उपेक्षित हैं, और सदैव माता-पिता पर आर्थिक और नैतिक दायित्व मानी जाती हैं। भारत के गांवों में लड़कियों से चार और पांच वर्ष की नाजुक/कमसिन उमर में घरों पर काम लेना शुरू हो जाता है, वे विकसित होने की सुविधा से वंचित कर दी जाती हैं। घरों पर किए गए उन के श्रम को किसी भी तरह नहीं नवाजा जाता। जब कि बेटों द्वारा वैसे ही काम यदा-कदा कर लिए जाने पर उन की प्रशंसा में कसीदे पढ़ना प्रारंभ हो जाता है। लड़कियों पर घरेलू कामों का भार लड़कों की अपेक्षा लड़कियोँ पर बहुत अधिक रहता है। वे अपने छोटे भाई-बहनों की देखभाल, बरतनों की सफाई, पानी भरने, ईंधन एकत्र करने और पालतू पशुओं की देखभाल करने जैसे काम करते हुए परिवार की आय में अप्रत्यक्ष रुप से अपना महत्वपूर्ण योगदान करती हैं। उन से खेती के कुछ काम जैसे फसलों की निन्दाई-गुड़ाई और कटाई आदि भी कराए जाते हैं। अक्सर वे उन के माता-पिता या परिवार के अन्य सदस्यों को खेतों पर भोजन देने जाने का काम भी करती हैं। जिस उम्र में उन्हें दुनियां भर की विभिन्न चीजों का ज्ञान प्राप्त करने की आवश्यकता होती है, उसी उम्र में उन्हें घरों के कामों में जोत दिया जाता है।

भारत और कुछ पड़ौसी देशों में लड़कियों के प्रति यह पूर्वाग्रह इस विश्वास पर आधारित है कि “पुत्र परिवार के लिए कमाई करेंगे और वंश को चलाएंगे”। इस तरह पुत्रों को भविष्य की बीमा पॉलिसी समझा जाता है, जब कि पुत्रियों को नहीं। पुत्रियों को परिवार का अस्थाई और बाहर जाने वाला सदस्य समझा जाता है। वे हमेशा ही दूसरे की अमानत होती हैं। अत्यन्त कमसिन बचपन में ही सेवा, अधीनता, त्याग, विनम्रता और आज्ञाकारिता के मूल्यों को वहन करने के लिए उन का प्रशिक्षण आरंभ हो जाता है। बच्चे पैदा करना, उन की देखभाल करना और घरों की जिम्मेदारियाँ उठाना ही नारियों की भूमिका समझी जाती है। वे परिवार के लिए मात्र एक बोझा समझी जाती हैं।

तमिलनाडु की एक महिला ने जिस के पहले से ही एक बेटी थी, जब दूसरी बेटी को जन्म दिया तो उसे तीसरे दिन ही मार डाला। उस ने अपनी दूसरी बेटी को मात्र तीन दिनों के जीवन में भी अपना दूध पिलाने से इन्कार कर दिया। जब शिशु बेटी भूख से चिल्लाने लगी तो उस ने उसे ऑलिएन्डर की झाड़ी के पत्तों से निचोड़े हुए दूध और अरंडी के तेल को साथ मिला कर बनाया गया जहरीला पेय जबरन शिशु के गले से नीचे उतार दिया। शिशु की नाक से रक्त निकला और वह जल्दी ही मर गई। दूसरी औरतों ने उस महिला के साथ सहानुभूति प्रदर्शित की, क्यों कि उस परिस्थिति में होने पर वे खुद भी शायद यही करती, जो उस महिला ने किया। किसी के पूछने पर कि उसने कैसे अपनी ही बेटी को मार दिया? उसने दृढ़ता से जवाब दिया - एक बेटी हमेशा एक बोझा होती है, फिर कैसे मैं दूसरी बेटी को अपने जीवन में स्थान देती? वह जीवन भर नर्क भोगती, इस से पहले ही मैं ने उसे इस (नर्क) से मुक्ति दे दी। (यह घटना विवरण मादा शिशुओं की मृत्यु पर भारत-और चीन में किए गए एक अध्ययन से लिया गया है)

यह मात्र एक मामला नहीं, इसी तरह की बहुत सी बेटियाँ उन की माताओं या परिवार के अन्य सदस्यों द्वारा इस दुनियाँ में आने से पहले ही, अथवा तुरंत बाद मार दी जाती हैं। अक्सर कहा जाता है कि भगवान ने ‘माँ’ को इस लिए बनाया कि वह खुद हर स्थान पर उपस्थित नहीं रह सकता। ऐसी हालत में यह अविश्वसनीय ही होगा कि भगवान की यह प्रतिनिधि (‘माँ’) भगवान की इन सुन्दरतम कृतियों का जीवन इस दुनियाँ में आने और प्रकृति की सुन्दरता को देखने के पहले ही छीन लेती है। यही स्थितियाँ आज भी देश के विभिन्न भागों में मौजूद हैं। मादा भ्रूण और शिशु हत्याओं के लिए महाराष्ट्र, हरियाणा, राजस्थान, तमिलनाडु और पंजाब जैसे राज्यों का बड़ा नाम है।
गरीबी, लिंग-भेद तथा पुत्र प्रधानता के मूल्य एक बालिका के पोषण की स्थिति को भी बुरी तरह प्रभावित करते हैं। देश में साढ़े सात करोड़ से अधिक बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। इनमें भी तीन चौथाई अर्थात पाँच करोड़ से अधिक केवल बालिकाएँ हैं, जो गंभीर रुप से कुपोषण की शिकार हैं। जो लड़कियाँ कुपोषण की इस कठोर अवधि को झेल कर जीवित रह जाती हैं, उन में से अधिकांश किशोरावस्था में ही असामाजिक तत्वों के जाल में फंस जाती हैं। जब कि उन की यह उम्र में उन की सामान्य वृद्धि और शारीरिक विकास के लिए भरपूर पोषण प्राप्त करने की होती है। दुर्भाग्यवश बेटियों की पोषण की आवश्यकताओं की घोर उपेक्षा की जाती है और उन्हें अक्सर घरों की चारदिवारियों में बंद कर दिया जाता है। किशोरावस्था में कुपोषण से लड़कियों के प्रजनन स्वास्थ्य में अनेक गंभीर समस्याएँ उत्पन्न हो जाती हैं। ये प्रजनन स्वास्थ्य समस्याएँ कम उम्र में विवाह, बिना उचित अंतराल के गर्भधारण, पारंपरिक प्रथाओं और परिवार नियोजन सम्बन्धी सूचनाओं तथा ज्ञान के अभाव आदि के कारणों से अधिक उग्र रूप धारण कर लेती हैं।(जारी)

सोमवार, 11 अगस्त 2008

कोटा के निकट गेपरनाथ महादेव झरने की सीढ़ियाँ गिरने से हादसा तीन की मृत्यु

कोटा से 22 किलोमीटर दूर चम्बल नदी की कराई में स्थित गेपरनाथ महादेव झरने की राह में सीढ़ियाँ गिर जाने से एक व्यक्ति की मौके पर ही मत्यु हो गई, एक को बचा लिया गया और दो के अभी मलबे में दबे होने की आशंका है। सीढ़ियाँ वहाँ आने जाने का एक मात्र रास्ता होने से नीचे झरने, कुंड और मन्दिर की ओर फंसे रह गए 135 लोगों में लगभग 35 बच्चे और 30 महिलाएँ शामिल हैं। रात हो जाने के कारण उन्हें नहीं निकाला जा सका है। रात्रि को निकाला जाना संभव नहीं है। सुबह ही उन्हें निकालने का काम हो पाना संभव होगा।
यह एक मनोरम स्थान है। चम्बल के किनारे नदी से कोई आधा से एक किलोमीटर दूर एक सड़क कोटा से रावतभाटा जाती है। रतकाँकरा गांव के पास इसी सड़क से कोई आधाकिलोमीटर चम्बल की ओर चलने पर यकायक गहराई में एक घाटी नजर आती है। जिस में तीन सौ फीट नीचे एक झरना, झरने के गिरने से बना प्राकृतिक कुंड है। वहीं एक प्राचीन शिव मंदिर है। बरसात में यह स्थान मनोरम हो उठता है और हर अवकाश के दिन वहाँ दिन भर कम से कम दो से तीन हजार लोग पिकनिक मनाने पहुँचते हैं। पानी कुंड से निकल कर चम्बल की और बहता है और बीच में तीन-चार झरने और बनाता है मगर वहाँ तक पहुँचना दुर्गम है। दुस्साहस कर के ही वहाँ जाया जा सकता है।
ऊपर भूमि से नीचे कुंड, झरने और मंदिर तक पहुँचने के लिए सीधे उतार पर तंग सीढ़ियाँ हैं। चार-सौ के लगभग इन सीढ़ियों में से करीब सौ फुट के लगभग सीढियाँ कल दोपहर बाद उन के नीचे के भराव के पानी के साथ बह जाने से ढह गईं। ये चार लोग वहाँ सीढ़ियों पर होने से मलबे में दब गए। शेष जो नीचे थे नीचे ही रह गए। हालांकि वहाँ नीचे रात रहने में खास परेशानी नहीं है यदि बरसात न हो वैसे बरसात नहीं के बराबर है। मगर हो गई तो सब को भीगना ही पड़ेगा। मंदिर में स्थान नहीं है। क्यों कि मंदिर पर भी लगातार पानी गिरता रहता है। सब के सब खुली चट्टानों पर हैं। उन का रात वहाँ काटना जीवन की सब से भयानक रात होगी। हालांकि वहाँ पुलिस के लगभग 20 जवान पहुँचे हैं, जो रात उन के साथ काटेंगे उन के साथ एक इंस्पेक्टर भी है। भोजन, दूध और कंबल आदि सामग्री पहुँचा दी गई है। रोशनी का प्रबन्ध हो गया है। लेकिन ऐसे स्थानों पर रात को जो कीट, पतंगे, सांप आदि जीव विचरते हैं उन सभी को आज बहुत से भयभीत मानवों का साथ मिलेगा। मानवों की रात वहाँ गुजारेगी यह तो वापस लौटने पर वे ही बता सकेंगे।
यह समाचार सभी हिन्दी समाचार चैनलों में ब्रेकिंग न्यूज बना हुआ है। अभी तक सबसे तेज चैनल को यह पता नहीं है कि लोग नीचे फंसे हैं या ऊपर। वहाँ दूरभाष साक्षात्कार आ रहे हैं। पूछा जा रहा है कि ऊपर फंसे लोगों को बचाने के लिए क्या व्यवस्था की है। जवाब आ रहा है कि नीचे फंसे लोगों को बचाने की व्यवस्था की जा रही है। एंकर कह रहा है कितनी लापरवाही है ऊपर फंसे लोगों की कोई सुध नहीं ली जा रही है। जब कि ऊपर तो शहर है। सड़क है, बचाने वाले हैं, सहायता सामग्री है। लोग तो नीचे खड्ड में झरने, कुंड और मन्दिर पर फंसे हैं।
हमें कामना करनी चाहिए कि जो बच गए हैं वे सभी सुबह सकुशल लौटेंगे। 
यहाँ दिया गया चित्र झरने का है। झरने के बायें मन्दिर है और उस के साथ ही सीढ़ियाँ बनी हैं जो नीचे झरने की और जाने आने का एक मात्र साधन हैं।

शनिवार, 9 अगस्त 2008

हमारी चिंता का विषय, जीता जागता, मेहनत करता हुआ इन्सान हो

  • आत्माराम
इस सृष्टि में समाज और इन्सान से परे धर्म का कभी कोई अस्तित्व न पहले रहा था और न ही आज है। लेकिन इससे भी पहले इस बात को कबूल करने कि जरूरत है कि इन्सान और समाज की पैदाइश से पहले इस सृष्टि का अस्तित्व था और सौ फीसदी था। यह बात सुनते हुए आप मन ही मन मुझसे एक सवाल कर सकते हैं कि सृष्टि की उत्पत्ति किसने की? मैं कहूंगा मैं नहीं जानता। लेकिन इतना तो जरूर ही जानता हूँ कि मानव इस सृष्टि पर बहुत ही बाद में उत्पन्न हुआ जीव है। लेकिन मैं यह नहीं कहूंगा कि मानव को भगवान ने पैदा किया। क्योंकि मैं नहीं जानता कि यह बात सही है या गलत। मैं कहूंगा मुझे नहीं मालूम। इसी सिलसिले में मैं कहूंगा कि धर्म की उत्पत्ति तो समाज के बहुत कुछ विकसित हो जाने के बाद की बात है, और इस सच्चाई को बार बार दोहराने की जरूरत ही नहीं है कि धर्म को मानव ने ही पैदा किया है। उस वक्त तक मानव का दिमाग इतना विकसित हो चुका था कि वह अपने और प्रकृति के बीच के संबंधों को समझने की प्रक्रिया में से गुजरते हुए, अपने संबंधों को परिभाषित भी करने लगा था। अनजानी और रहस्यमयी चीजों को परिभाषित करते वक्त अपने विचारों को उन रहस्यों पर आरोपित भी करने लग गया था। हम सोच सकते हैं कि इसी प्रक्रिया में कहीं न कहीं मानव ने धर्म संबंधी बातें भी सोची होंगी। ऐसा समझा जाता है कि मानव समाज के विकास की प्रक्रिया में, नगरों के बसने और उनके विकसित होने के इतिहास में ही कहीं न कहीं धर्म की उत्पत्ति की बात भी छुपी हुई है।
एक मत यह भी है कि, धर्म की उत्पत्ति उस वक्त की बात है, जब आम जनता की मेहनत को लूटने वाला एक ताकतवर तबका जन्म ले चुका था और उसने आम जनता पर विधिवत राज करना भी प्रारंभ कर दिया था। अर्थात हमारा मानव समाज सीधे-सीधे दो हिस्सों में बंट चुका था। उनमें से एक मेहनत करने वालों का हिस्सा था और दूसरा मेहनत को लूटकर राज करने वालों का। अब यह अलग बात है कि धर्म ने समाज के दोनों हिस्सों को किस तरह प्रभावित किया, और दोनों हिस्सों ने किस-किस रूप में धर्म को अपनाया। हम यह तो नहीं जानते कि इसकी उत्पत्ति के पीछे किसी व्यक्ति या समाज विशेष का हाथ रहा होगा। लेकिन इतना जरूर जानते हैं कि इसके उपयोग में निश्चित ही एक खास वर्ग का हाथ जरूर रहा है। वर्णों और जातियों में विभक्त हमारे समाज में धर्म की धारणा के अलग अलग पैमाने किस तरह तय हुए होंगे ? इसका इतिहास जानना बहुत ही दिलचस्प होगा।
हमारे लिए यह जानना भी बहुत दिलचस्प रहेगा कि हर नये धर्म की पैदाइश का आधार ही, साधारण जनता को पुराने समाज के जुल्मों से मुक्ति दिलाना रहा है। जैसे बौद्ध धर्म का आधार सनातनी ब्राह्यणी समाज-व्यवस्था में जकड़ी भारतीय जनता को मुक्ति दिलाना ही रहा था। यह अलग बात है कि ऐसा संभव नहीं हुआ। क्यों कि धर्म में एक सीमा के बाद मानव समाज के भविष्य की कोई साफ़ सुथरी अवधारणा ही नहीं रह जाती है। जहां तक मानव को दुःखों से मुक्ति मिलने का सवाल है- हम कहना चाहेंगे कि मानसिक गुलामी से मुक्ति की राह ढूंढे बिना सामाजिक मुक्ति के रास्ते पर चलना बहुत कठिन है।
आज तक समाज मुक्ति के परे मानव मुक्ति की कोई अलग अवधारणा नहीं देखी गयी। इस जगत को छोड़कर कोई हिमालय में जाकर बैठ जाय तो वह शख्स हमारी चिंता का विषय नहीं हो सकता। हमारी चिंता का विषय जीता जागता और मेहनत करता हुआ इन्सान ही हो सकता है। जैसे आप, जो पढ़ रहें हैं और मैं, जो लिख रहा हूँ।

शुक्रवार, 8 अगस्त 2008

मानव की अनुपस्थिति में धर्म का कोई अस्तित्व नहीं

  • आत्माराम
आजकल धर्म पर बड़ी बातें हो रही है। हम भी इससे अछूते नहीं हैं। हमें भी इस दिशा में अपनी बात कहनी चाहिये। कहने का मतलब है-बहुजन समाज के हित की बात कहनी चाहिये। हमारी समझ में आता है कि धर्म को वही आदमी ठीक से समझ सकता है, जो इस बात पर यकीन करता हो कि, मनुष्य का जन्म इसी पृथ्वी पर हुआ है और वह सतत विकास करता हुआ, आज यहां तक पहुंचा है। विकास की इस यात्रा की दिशा क्या रही, उसकी प्रकृति कैसी रही और किन किन कष्टप्रद प्रक्रियों से मनुष्य समाज को गुजरना पड़ा? हम सोचते हैं कि यात्रा संबंधी इन बुनियादी बातों को जानना ही धर्म को सही अर्थों को जानना होगा। क्यों कि धर्म की यात्रा मानव समाज की यात्रा से अलग हो ही नहीं सकती। हम सब जानते हैं कि मानव की अनुपस्थिति में धर्म की कल्पना तक नहीं की जा सकती। अतः अगर कोई आदमी समाज विकास की इस ऐतिहासिक प्रक्रिया को मानने और जानने से इनकार करता है तो यह समझना चाहिये कि वह शख्स निश्चित ही समाजविरोधी सोच का शिकार हो चुका है। इसलिए अनिवार्य रूप से वह धर्म विरोधी भी है। हमें इस सच्चाई को भी कबूल करना चाहिये कि मानव समाज सतत गतिशील है और यह गतिशीलता, समाज के भीतर मौजूद आंतरिक द्वंद्व के कारण ही है। यही आंतरिक द्वंद्व समाज के विकसित की एक मात्र और बुनियादी वजह भी है। और बुनियादी षर्त भी है। जिस तरह इस समाज की गतिशीलता में ही उसकी विकास के बीज छुपे हुए हैं, उसी तरह उसकी विकास प्रक्रिया में ही उसके धार्मिक होने के बीज भी छुपे हुए हैं। अतः समाज विकास प्रक्रिया को समझने के साथ ही आप अनिवार्य रूप से धर्म और उसके प्रभाव के इतिहास को, इतिहास विकास की प्रक्रिया को भी समझ पायेंगे। क्यों कि हम फिर इस बात को दोहराना चाहते हैं कि मानव समाज के बाहर और मनुष्य जीवन के परे, जैसा कि हम अनुभव करते आये है- धर्म का कोई अस्तित्व ही नहीं है। 
आज मैं अपनी वकालत के सिलसिले में कोटा के बाहर हूँ, और आप के लिए प्रस्तुत है मेरे एक मित्र 'आत्माराम' का धर्म के विषय पर यह आलेख....
यह बात भी सौ फीसदी सही है कि, इस पृथ्वी पर इन्सान की पैदाइश से पहले, धर्म की पैदाइश ही नहीं हुई थी और यह बात भी शतप्रतिशत सही है कि धर्म को किसी अलौकिक शक्ति ने पैदा नहीं किया है। यह तो मनुष्य की पैदाइश ही है। मनुष्य समाज ने अपनी विकास यात्रा में अपनी सुविधा के लिए हजारों अच्छी-बुरी चीज़ें पैदा कीं। आप जानते ही हैं कि उनमें से करोड़ों चीजें अब व्यावहार में नहीं हैं, जो कल तक व्यवहार में थीं। इसी तरह धर्म भी है। आज उसका स्वरूप ठीक ठीक वही नहीं है जो कल तक था। लेकिन जब धर्म की उत्पत्ति का सवाल उठता है तो लोग तपाक से पूछ बैठते हैं- कि भाई आखिर इसका उत्स कहां है ? निश्चित ही इस सवाल का जवाब गणित के किसी प्रमेय को हल करने की तरह प्राप्त नहीं किया जा सकता। और न ही किसी वट वृक्ष के नीचे बैठकर तपश्चर्या करने से। इस सवाल का जवाब मानव समाज की विकास प्रक्रिया के भीतर छुपा हुआ है। अतःधर्म को समझने की बुनियादी शर्त है-मानव समाज की विकास यात्रा को जानना-समझना। यह इसलिए भी जरूरी है कि धर्म का संबंध समाज से है इसलिए इन्सान से भी है। इस सृश्टि में समाज और इन्सान से परे धर्म का कभी कोई अस्तित्व न पहले कभी रहा था और न ही आज है। इसलिए जिसे धर्म की सांगोपांग जानकारी चाहिये, उसके लिए मानव समाज के विकास का इतिहास पढना अनिवार्य है।

धर्म के बारे में एक अत्यंत मार्मिक टिप्पणी के साथ इस बात को कभी आगे फिर से चालू रखने के लिए छोड़ देते हैं। कहा गया है कि - 
‘‘....धर्म का इतिहास केवल मानव मस्तिष्क की भटकनों अथवा भ्रांतियों का इतिहास नहीं है।.... अगर ऐसा होता तो मानव जाति के इतिहास में उसकी भूमिका बड़ी ही साधारण रही होती।’’ आप इस बात पर गौर कीजिये कि इस परिवर्तनशील सृष्टि और क्षण-क्षण बदलते हुए विश्व में आखिर धर्म के इस तरह अतिदीर्घजीवी होने के क्या कारण है? (जारी)

गुरुवार, 7 अगस्त 2008

लड़ाते हैं हमें और अपने अपने घर बनाते हैं ...... पुरुषोत्तम 'यकीन की ग़ज़ल

पुरुषोत्तम 'य़कीन' से आप पूर्व परिचित हैं। उन की एक ग़ज़ल का पहले भी आप अनवरत पर रसास्वादन कर चुके हैं। जब जम्मू-कश्मीर में वोट के लिए छिड़ा दावानल मंद होने का नाम नहीं ले रहा है। वहाँ उन की यह ग़ज़ल प्रासंगिक हो आती है......


लड़ाते हैं हमें और अपने अपने घर बनाते हैं

 पुरुषोत्तम 'यकीन'


न वो गिरजा, न वो मस्जिद, न वो मंदर बनाते हैं
लड़ाते हैं हमें और अपने-अपने घर बनाते हैं
हम अपने दम से अपने रास्ते बहतर बनाते हैं
मगर फिर राहबर रोड़े यहाँ अक्सर बनाते हैं
कहीं गड्ढे, कहीं खाई, कहीं ठोकर बनाते हैं
यूँ कुछ आसानियाँ राहों में अब रहबर बनाते हैं
बनाते क्या हैं, बहतर ये तो उन का खुदा ही जाने
कभी खुद को खुदा कहते कभी शंकर बनाते हैं
अभयदानों के हैं किस्से न जाने किस ज़माने के
हमारे वास्ते लीड़र हमारे डर बनाते हैं
न कुछ भी करते-धरते हों मगर इक बत है इन में
ये शातिर रहनुमा बातें बहुत अक्सर बनाते हैं
न जाने क्यूँ उन्हीं पर हैं गड़ी नज़रें कुल्हाड़ों की
कि जिन शाखों पे बेचारे परिन्दे बनाते हैं
इसी इक बात पर अहले-ज़माना हैं ख़फ़ा हम से
लकीरें हम ज़माने से ज़रा हट कर बनाते हैं
दिलों में प्यार रखते हैं कोई शीशा नहीं रखते
बनाने दो वो नफ़रत के अगर पत्थर बनाते हैं
'य़कीन' अब ये ज़रूरी है य़कीन अपने हों फ़ौलादी
कि अफ्व़ाहों के वो बेख़ता नश्तर चलाते हैं
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बुधवार, 6 अगस्त 2008

महेन्द्र 'नेह' का गीत .... मारे गए बबुआ

 

मित्र  महेन्द्र 'नेह' श्रेष्ठ कवि-गीतकार तो हैं ही, पेशे से क्षति-निर्धारक, बोले तो 'सर्वेयर'। बीमा कंपनियों के लिए क्षतियों का निर्धारण करते हैं। बरसों तक मोटर दुर्घटनाओँ की क्षतियाँ आँकीं हैं। जब सड़क पर यातायात अधिक हो जाता है, तो सड़क को चौड़ा किया जाता है। यकायक सड़क पर वाहनों की रफ्तार बढ़ जाती है। इस घटना को उन्हों ने देश में आयातित वाहनों की बाढ़ के साथ गीत में बांधा। गीत प्रस्तुत है.......
मारे गए बबुआ
  • महेन्द्र 'नेह'

सड़क हुई चौड़ी
मारे गए बबुआ।
मारे गए बबुआ हो
मारे गए रमुआ......

लोहे के हाथी और लोहे के घोड़े
बेलगाम हो कर के सड़कों पे दौड़े
मची है होड़ा होडी़
मारे गए बबुआ।
नई-नई घोड़ी विलायत से आई
नए-नए रंगों की महफिल सजाई
बिदक गई घोड़ी
मारे गए बबुआ।

चंदा औ सूरज सी जोड़ी रुपहली
ज़ालिम जमाने के पहियों ने कुचली
बिगड़ गई जोड़ी
मारे गए बबुआ। 
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शनिवार, 2 अगस्त 2008

क्या व्यवस्था अव्यवस्था में से जन्म लेगी ?

“एक रविवार, वन आश्रम में” श्रंखला की 1, 2, 3, 4, 5, और 6 कड़ियों को अनिल पलुस्कर, अनिता कुमार, अरविन्द मिश्रा, अशोक पाण्डे, डॉ. उदय मणि कौशिक,ज्ञानदत्त पाण्डे, इला पचौरी, Lलावण्या जी, नीरज रोहिल्ला, पल्लवी त्रिवेदी, सिद्धार्थ,स्मार्ट इंडियन, उडन तश्तरी (समीरलाल), अनुराग, अनूप शुक्ल, अभिषेक ओझा, आभा, कुश एक खूबसूरत ख्याल, डा० अमर कुमार, निशिकान्त, बाल किशन, भुवनेश शर्मा, मानसी, रंजना [रंजू भाटिया], राज भाटिय़ा, विष्णु बैरागी और सजीव सारथी जी की कुल 79 टिप्पणियाँ प्राप्त हुईं। आप सभी का बहुत-बहुत आभार और धन्यवाद। आप सभी की टिप्पणियों ने मेरे लेखन के पुनरारंभ को बल दिया है। मेरा आत्मविश्वास लौटा है कि मैं वैसे ही लिख सकता हूँ, जैसे पहले कभी लिखता था।

इस श्रंखला में अनेक तथ्य फिर भी आने  से छूट गए हैं। मुझे लगा कि उद्देश्य पूरा हो गया है और मैं ने उन्हें छूट जाने दिया। ब्लाग के मंच के लिए आलेख श्रंखला फिर भी लम्बी हो चुकी थी। छूटे प्रसंग कभी न कभी लेखन में प्रकट अवश्य हो ही जाएंगे।  इस श्रंखला से अनेक नए प्रश्न भी आए हैं। जैसे लावण्या जी ने सिन्दूर के बारे में लिखने को कहा है। यह भी पूछा है कि यह कत्त-बाफले क्या हैं? इन प्रश्नों का उत्तर तो मैं कभी न कभी दे ही दूंगा। लेकिन इन प्रश्नों से अधिक महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि पहले जो इस तरह के आश्रम आध्यात्म, दर्शन, साहित्य, संगीत और अन्य कलाओं व ज्ञान के स्रोत हुआ करते थे सभी का किसी न किसी प्रकार से पतन हुआ है। दूसरी ओर हम सोचते हैं कि ज्ञान के क्षेत्र में भारत आज भी दुनियाँ का पथ प्रदर्शित करने की क्षमता रखता है। तो फिर आध्यात्म, दर्शन, साहित्य, संगीत और अन्य कलाओं व ज्ञान के नए केन्द्र कहाँ हैं? वे है भी या नहीं?

हर कोई चाहे वह साधारण वस्त्रों में हो या फिर साधु, नेता और किसी विशिष्ठ पोशाक में। केवल भौतिक सुखों को जुटाने में लगा है। लोगों को अपना आर्थिक और सामाजिक भविष्य असुरक्षित दिखाई पड़ता है। लोगों को जहाँ भी सान्त्वना मिलती है उसी ओर भागना प्रारंभ कर देते हैं। निराशा मिलने तक वहीं अटके रहते हैं। बाद में कोई ऐसी ही दूसरी जगह तलाशते हैं।

अब वे लोग कहाँ से आएंगे जो यह कहेंगे कि पहले स्वयं में विश्वास करना सीखो (स्वामी विवेकानन्द), और जब तक हम खुद में विश्वास नहीं करेंगे। तब तक इस विश्व में भी अविश्वास बना ही रहेगा। हम आगे नहीं बढ़ सकेंगे और न ही नए युग की नयी चुनौतियों का सामना कर सकेंगे। पर जीवन महान है। वह हमेशा कठिन परिस्थितियों में कुछ ऐसा उत्पन्न करता है जिस से जीवन और उस की उच्चता बनी रहती है। हमें विश्वास रखना चाहिए कि जीवन अक्षुण्ण बना रहेगा।

किसी ने जो ये कहा है कि व्यवस्था अव्यवस्था में से ही जन्म लेती है, मुझे तो उसी में विश्वास है।