@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: नवंबर 2007

सोमवार, 26 नवंबर 2007

मुसीबत बुलाने से आती है ... आ बैल मुझे मार ....

कहते हैं, मुसीबत कह कर नहीं आती। वह कर आएगी, तो क्या कोई आने देगा? कभी नहीं। मुसीबत हमारे बुलाने से आती है। अब आप खुद बुलाएंगे तो वह कह कर क्यों आएगी?

मैंने भी अपनी मुसीबत खुद बुलाई। एक तो यह विश्व-जाल अपने आप में मुसीबतों की नानी है। उस पर कानून ढूंढते ढूंढते हिन्दी चिट्ठे पढ़ने लगा। मन में हूक उठी कि खुद का भी चिट्ठा हो, और उस में लिखा जाए। इस बीच हिन्दी आई एम ई पकड़ में आ गई और हमने उस पर हाथ साफ कर लिया। हम समझ बैठे कि हम इस मुई चिट्ठाकारी के काबिल हो गए। एक दिन एक चिट्ठा पढ़ते हमारे बरसों पहले गायब हो चुके गुरू जी का नाम पढ़ने को मिला तो पहली बार एक टिप्पणी चेप दी।

कुछ दिन बाद पता लगा कि फुरसतिया भाई सीरियसली हमारे गुरू जी का पता तलाश कर रहे हैं। भाई ने पता ढूंढने के काम में एक और चिट्ठाकार को मेल किया, हमें उसकी कॉपी भेज दी। हम धन्य हो गए। साथ में अपना चिट्ठा शुरू करने की सलाह का कांटा फेंका और यहीं हम फंस गए। हमने मुसीबत न्योत दी।

खैर हम ने अपना चिट्ठा चालू कर लिया। पहली ही पोस्ट ने अपने होUnderwoodKeyboardश उड़ा दिए, सारे संयुक्त शब्दों में पूरे अक्षर और उनके साथ हलन्त नजर आ रहे थे। ब्लॉगर पर जाकर उन्हें दुरूस्त करने की जुगाड़ करने में जुटे तो शब्द के शब्द गायब होने लगे। उन्हें दुबारा टाइप किया। जब हमने पोस्ट को दुरूस्त कर लिया तो पब्लिश भी कर दिया। अब भी बहुत कसर रह गई थी। हम समझ गए थे कि हम दौड कर जलते अंगारों पर चढ़ गए हैं। वापस जाना भी मुश्किल और खड़ा रहना भी मुश्किल। हमने झांसी की रानी का स्मरण करते हुए वहीं रुकना तय कर लिया। बहुत देर से समझ आई कि हिन्दी आ11817379026761ई एम ई का रेमिंग्टन मोड गड़बड़ कर रहा था। जाल पर ढूंढा, रवि रतलामी जी के सारे आलेख पढ़ डाले। तब जाना कि बहुत बड़ी मुसीबत सामने खड़ी है।

मुसीबत कह रही थी- या तो बेटा इन्स्क्रिप्ट हिन्दी टाइपिंग सीख ले या ब्लॉगर में उठापटक कर वरना इस मुई चिट्ठाकारी सपना देखना छोड़, ये तेरे बस की नहीं। हम अब तक जलते अंगारों पर दूर तक चले आए थे। वापस जाने में भी जलना ही था। हमने फिर तय किया- जलना है तो पीठ दिखा कर नहीं जलेंगे।

ताजा खबर है कि हंम जलते अंगारों पर जल रहे हैं, इन्स्क्रिप्ट हिन्दी टाइपिंग सीख रहे हैं, रेमिंग्टन का भूत पीछा नहीं छोड़ रहा है। यह पोस्ट इन्स्क्रिप्ट हिन्दी टाइपिंग पर ही टाइप की है, समय लगा है मात्र डेढ़ घंटा।

शनिवार, 24 नवंबर 2007

टंगड़ीमार को टंगड़ी मार। नाम बडी चीज है......

नाम बड़ी चीज है, इस नाम के लिए ही तो दुनियां भर में दंगम-दंगा है। हर कोई चाह रहा है, उसका नाम हो जाए। हर कोई इसी में लगा है। इस जमाने में आदमी हर चीज में शॉर्टकट ढूंढ़ता है। यह भी कोई बात हुई, जो चीज सस्तें में काला बाजार में मिल जाए उस के लिए मॉल जा कर मंहगे में खरीदें, जब कहीं जाने के लिए पांच मिनट का रास्ता हो तो पांच घंटे के रास्ते से जाया जाए। सो आदमी नाम के लिए भी शॉर्टकट ही ढूंढता है। भला आदमी नाम कमाने के लिए अच्छे-अच्छे रास्ते चुनता है और भटकता रहता है। दूसरे कई झटपट ग‍लियों में घुस जाते हैं और फटाफट नाम कर जाते हैं। भला आदमी टिपियाता रहता है।

नाम करने के कई आसान तरीके हैं। किसी रास्ते चलते आदमी के टांग अड़ा कर देख लीजिए। चलता आदमी गिर पड़ेगा, जो उसे उठाने आ गए वे उठाने के पहले पूछने लगेंगे, किस ने मारी टंगड़ी? अब हो गया न नाम। लोग फौरन जान जाएंगे कि कौन है टंगड़ीमार। अब लोग भले ही टंगड़ीमार के नाम से ही याद रखें, पर इस से क्या? नाम तो हो ही गया न।

अब इस टंगड़ीमार नाम में भी रेल की तरह अनेक क्लासें हैं। जनरल, सैकण्ड-स्लीपर से ले कर फर्स्ट-एसी तक की। वहां नियम है कि जितनी बड़ी क्लास में जाना चाहो उतने का ही टिकट खरीद लो। यहां भी ठीक ऐसा ही नियम है जितने बड़े टंगड़ीमार बनना चाहो उतने ही बड़े को टंगड़ी मार दो। अब बात अभी तक समझ नहीं आ रही हो तो उदाहरण देता हूं। छोटा नेता बनना हो तो चपरासी को झापड़ मारो और अफसर के कमरे में घुस लो, बड़ा बनना हो तो कलेक्टर का गाल आजमा सकते हो। बस शर्त ये है के उस समय हल्ला करने वाले, देखने वाले होने चाहिए जो इस को खबर बना दें। कही आस पास मीडिया हो तो सोने में सुहागा है। उनने तो फोटो खींच कर अपने अखबार में चिपकाने हैं। हर चैनल को वीडियो फुटेज चाहिए ही चाहिए हर घंटे। इस काम के लिए कोई न मिले तो अपने कैमरा-मोबाइल वाले दोस्त को पटा कर तैयार रखो। वह वीडियो फुटेज को कम्प्यूटर में उतारे और दो-तीन चैनलों को मेल कर दे। सभी चैनल अपने पास उसे एक्सक्लूसिव बताऐंगे और एक डेढ़ मिनट की फुटेज को बार-बार रिपीट कर दिखाएंगे।

अब ममता बेन को ही ले लो, उन्हें लोग पूरे जग में जानते हैं बंगाल के लिए। वे अक्सर बंगाल में अपनी टंगड़ी आजमाती रहती हैं। इन दिनों उन्हें कुछ समझ ही नहीं आ रहा था कि क्या करें, उन की तरफ किसी की तवज्जो ही नहीं थी, सब के सब कराती टंगड़ी देखने में लगे थे। वाह, कैसी टंगड़ी मारी सरदार जी को, बड़ा बुश से हाथ मिलाने चले थे। वा‍कई क्या टंगड़ी थी? साली सरकार ही गिरने को आ गई थी। मगर गिरी नहीं। अभी तक पीसा की मीनार की तरह झुकी खड़ी है। वे लगे रहे अपनी टंगड़ी की तारीफ अखबारो, चैनलों को देखने में। उन्हें क्या गुमान था कि उधर नन्दीग्राम में नक्सलियों से जो गोली-गोली, गन-गन का घरेलू ड्रामा चल रहा है उस में कोई टंगड़ी मार जाएगा। मगर बैन ने टंगड़ीमार को टंगड़ी जा ही मारी। अब कोई सरदार जी का घुटना नहीं सहला रहा। सब बैन की टंगड़ी देखने में लगे हैं।

बुधवार, 21 नवंबर 2007

टिप्पणियों की बॉटल चाहिए, ब्लॉगेरा या ब्लॉगर्कुलोसिस हो गया है मुझे।

मुझे अचानक जाने क्या हो गया। जब जी चाहा सारा काम छोड़ कर सीधे कम्प्यूटर पर जा बैठता और इण्टरनेट चालू कर लेता। इस बात का ख्याल नहीं रहता कि ब्रॉड बैंड की अनुमत डाउनलोडिंग करने की क्षमता का पूरा उपयोग पहले ही कर चुका हूं और अभी महीना समाप्त होने में पूरे चौदह दिन बाकी हैं। इस बात का भी ख्याल नहीं रहता कि मुझे यह सब काम अब रात को दो बजे से सुबह आठ बजे के बीच में ही करना चाहिए, जिस से फालतू रूपए न लगें। सब से पहले खोलता अपना गूगल खाता और फिर अपना ई-मेल खाता। देखता कोई मेल तो नहीं है। मेल होती तो पढ़ता और जिस का देना होता, उस का जवाब देता। फिर खोलता चिट्ठाजगत, ब्लॉगवाणी और फिर नारद। मनचाहे चिट्ठों को पढ़ता और उन में अपनी टिप्पणियां। फिर खोलता अपना खुद का चिट्ठा, देखता इस के स्वरूप को कैसे ठीक किया जा सकता है। लिपि में आ रही गलतियों को ठीक करने का प्रयास करता। न मुझे खाने की फुरसत थी, न अपने घर के और ऑफिस के कामों की। पत्नी परेशान थी। उस के भी कई काम अटके पड़े थे, जिन को मैं नहीं कर पा रहा था। आखिर पहला चिट्ठा बन गया, प्रकाशित भी हो गया।

अब तक मुझे पता लग गया था कि मैं ब्लागेरिया, ब्लॉगेरा या ब्लॉगर्कुलोसिस जैसी किसी बीमारी का शिकार हो गया हूं। पर ब्लॉगेरिया तो एक किस्म के मच्छरों से फैलता है। इस कारण यह तो निश्चित हो गया कि यह ब्लॉगेरिया नहीं था। क्या था इस का पता लगाने के लिए किसी विशेषज्ञ चिकित्सक की तलाश कर पाता, उस से पहले ही लक्षण परिवर्तित होने लगे। अब मुझे बार-बार प्यास लगने लगी, वह भी पानी पीने की नहीं अपने ब्लॉग को बार बार खोल कर पीने की। मुझे अब तक कोई चिकित्सक ऐसा नहीं मिला था जो मुझे रोग का ठीक ठीक नाम तो बता दे। जिस से मेरा इलाज शुरू हो।

यार दोस्तों को मैं कम्प्यूटर पर ही बैठा नजर आने लगा, तो उन्हों ने भी मेरे रोग का अंदाज लगाना शुरू कर दिया। कुछ ही दिनों में वे मेरी पत्नी के साथ मिल कर किसी चिकित्सक की तलाश में जुट गए। मेरा प्रोफेशनल काम खराब होने लगा था। मैं स्वयं भी इस बीमारी से छुटकारा पाना चाहता था। पर यह बीमारी थी कि पीछा छोड़ने का नाम ही नहीं लें रही थी। छोड़ती भी तो कैसे, किसी को बीमारी का नाम तक पता नहीं इलाज तो दूर की बात ठहरी।

इधर चिट्ठे में पोस्टें बढ़ती जा रहीं थीं, उधर प्यास और बढ़ती जा रही थी। एक ब्लॉग और तैयार था। पहला नौसिखिया जैसे गया था। पहली पोस्ट को तीस बार ठीक करना पड़ा था।

इस बार मैं ऐसा नहीं करना चाहता था। इसे अनुभवी नहीं तो कम से कम एक शॉर्ट ट्रेनिंग प्राप्त के उत्पाद जैसा तो होना ही चाहिए था। अब प्रयास इतनी बढ़ गई कि टिप्पणियों की बॉटल चढ़ाने की नौबत आ गई। वैसे भी डा‍क्टर उन्हें मर्ज का अता-पता नहीं लगता यही करते हैं। डाला मरीज को अस्पताल के बिस्तर पर और चढ़ा दी बॉटल। मरीज का इधर-उधर भागना बंद। ज्यादा हुआ तो बॉटल में एकाध एम्प्यूल नीन्द के इंजेक्शन का और ठूंस दिया। मरीज के परिजनों को भी चैन, कि कम से कम हमें तो परेशान नहीं कर रहा। फालतू रिश्तेदार और यार- दोस्तों को भी अस्पताल आ कर मिलने का काम मिल जाता है। कइयों को घूमने-फिरने का और कइयों को बीबी की बन्दिश से निकल भागने का बहाना तक मिल जाता है।

ढूंढने और प्रयास करने पर तो भगवान भी मिल जाते हैं। अब तक जिस-जिस को मिले उन के नामों की सूची में से कोई जीवित शेष नहीं है। मुझे भी ढूंढने पर सर्च इंजन की मदद से एक डाक्टर मिल ही गया, जो कम से कम बॉटल तो चढ़ाने कों तैयार हो ही गया है। मगर यहां एक और समस्या मुंह बाए खड़ी है। मेरे शहर में ही नहीं, बड़े-बड़े शहरों तक में भी टिप्पणियों की बॉटल नहीं मिल रही है। इस चिट्ठे को पढ़ने वाले किसी भी सज्जन को कहीं टिप्पणी बॉटल के स्टॉक का पता लगे तो वह मु्झे मेरे ई-पते drdwivedi1@gmail.com पर मेल करे या फिर इस पोस्ट को पढ़ने के बाद जूते-चप्पल पहने [या खोले बिना ] इस पर कम से कम एक टिप्पणी तो पोस्ट कर ही दे। जिस से बॉटल मिलने तक तो प्यास बुझाई जा सके।

मंगलवार, 20 नवंबर 2007

सुप्रभात............

श्री गणेश: .......

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अनवरत प्रकाशित होते रहने के लक्ष्य, प्रयास और चाहत के साथ यह चिट्ठा अपना श्री गणेश करता है। प्रयास रहेगा कि यहां तमाम तरह की जनरूचि की सामग्री हो, लेकिन उपयोगी हो और सामाजिक-सांस्कृतिक को गिराने के बजाए उन्हें ऊंचा उठाए। समाज के बारे में समझ अधिक यथार्थपरक बनी रहे, समाज को आगे ले जाने के सही रास्ते की तलाश जारी रहे। इस तलाश में अधिक से अधिक लोग अपनी चेतना, ज्ञान, कुशलता और साधनों से जुटें। एक नए मानव समूह का निर्माण की दिशा में आगे बढ़ें। इस तलाश के बीच वैचारिक भिन्नता रहे लेकिन आपसी सह-जीवन प्राथमिक शर्त हो। सह-जीवन हमारा वर्तमान है और सर्वाधिक मूल्यवान भी। उसे कटुतापूर्ण और प्रदूषित क्यों किया जाए। आज देखने में आता है कि हम भूतकाल को महत्व देते हुए वर्तमान में तलवारें खींच लेते हैं। भविष्य सुनहरा होना तो दूर रहा, हमारा वर्तमान भी लहूलुहान हो पड़ता है। हम इस वर्तमान को महत्व दें, इसे सहज, सुन्दर, सामाजिक और यथार्थ परक बनाने का प्रयास करें। यही भविष्य की नींव है।

सभी सुधी लोगों का सहयोग अनवरत को प्राप्त होगा। इसी आकांक्षा के साथ .......बिस्मिल्लाह।।

...... दिनेशराय द्विवेदी